"राजस्थानी चित्रकला": अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
छो (Text replace - "मजदूर" to "मज़दूर")
छो (Text replacement - "उत्तरार्द्ध" to "उत्तरार्ध")
 
पंक्ति 12: पंक्ति 12:
मुग़ल शैली का अधिकतम प्रभाव हमें [[जयपुर]] तथा [[अलवर]] के चित्रों में मिलता है। बारामासा, राग माला, भागवत आदि के चित्र इसके उदाहरण हैं। 1671 ई. से मेवाड़ में पुष्टि मार्ग से प्रभावित श्रीनाथ जी के धर्म स्थल नाथद्वारा की कलम का अलग महत्त्व है। यद्यपि यहाँ के चित्रों का विषय [[कृष्ण]] की लीलाओं से सम्बन्धित रहा है फिर भी जन-जीवन की अभिक्रियाओं का चित्रण भी हमें इनमें सहज दिख जाता  है।  
मुग़ल शैली का अधिकतम प्रभाव हमें [[जयपुर]] तथा [[अलवर]] के चित्रों में मिलता है। बारामासा, राग माला, भागवत आदि के चित्र इसके उदाहरण हैं। 1671 ई. से मेवाड़ में पुष्टि मार्ग से प्रभावित श्रीनाथ जी के धर्म स्थल नाथद्वारा की कलम का अलग महत्त्व है। यद्यपि यहाँ के चित्रों का विषय [[कृष्ण]] की लीलाओं से सम्बन्धित रहा है फिर भी जन-जीवन की अभिक्रियाओं का चित्रण भी हमें इनमें सहज दिख जाता  है।  
==ब्रिटिश प्रभाव==
==ब्रिटिश प्रभाव==
19वीं शताब्दी में ब्रिटिश प्रभाव के फलत: राजस्थान में पोट्रेट भी बनने शुरू हुए। यह पोट्रेट तत्कालीन रहन-सहन को अभिव्यक्त करने में इतिहास के अच्छे साधन हैं। चित्रकला के अन्तर्गत भित्ति चित्रों का आधिक्य हमें अठाहरवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से दिखलाई देता है, किन्तु इसके पूर्व भी मन्दिरों और राज प्रासादों में ऐसे चित्रांकन की परम्परा विद्यमान थी। चित्तौड़ के प्राचीन महलों में ऐसे भित्ति चित्र उपलब्ध हैं जो सौलहवीं [[सदी]] में बनाए गए थे।  सत्रहवीं शताब्दी के चित्रों में मोजमाबाद (जयपुर), उदयपुर के महलों तथा अम्बामाता के मंदिर, नाडोल के जैन मंदिर, [[आमेर]] ([[जयपुर]]) के निकट मावदूमशाह की क़ब्र के मुख्य गुम्बद के चित्र, [[जूनागढ़]] ([[बीकानेर]]), मारोठ के मान मन्दिर गिने जा सकते हैं। अठाहरवीं शताब्दी के चित्रणों में कृष्ण विलास (उदयपुर) [[आमेर का क़िला जयपुर|आमेर महल]] की भोजनशाला, ग़लता के महल, पुण्डरीक जी की हवेली (जयपुर) [[सूरजमल]] की छतरी ([[भरतपुर]]), झालिम सिंह की हवेली ([[कोटा]]) और मोती महल (नाथद्वारा) के भित्ति चित्र मुख्य हैं। यह चित्र आलागीला पद्धति या टेम्परा से बनाए गए थे। [[शेखावटी]], [[जैसलमेर]] एवं [[बीकानेर]] की हवेलियों में इस प्रकार के भित्ति चित्र अध्ययनार्थ अभी भी देखे जा सकते हैं। कपड़ों पर की जाने वाली कला में छपाई की चित्रकारी भी कला के इतिहास सहित इतिहास के अन्य अंगों पर प्रकाश डालने में समर्थ हो सकती है। यद्यपि वस्र रंगाई, छपाई, तथा कढ़ाई चित्रकला से प्रत्यक्ष सम्बन्धित नहीं हैं, किन्तु काल विशेष में अपनाई जाने वाली इस तकनीक, विद्या का अध्ययन कलागत तकनीकी इतिहास की उपादेय सामग्री बन सकती है। [[चाँदी]] और [[सोना|सोने]] की [[ज़री]] का काम किए वस्त्र शामियाने, हाथी, घोड़े तथा बैल की झूले आदि इस अध्ययन के साधन हैं।
19वीं शताब्दी में ब्रिटिश प्रभाव के फलत: राजस्थान में पोट्रेट भी बनने शुरू हुए। यह पोट्रेट तत्कालीन रहन-सहन को अभिव्यक्त करने में इतिहास के अच्छे साधन हैं। चित्रकला के अन्तर्गत भित्ति चित्रों का आधिक्य हमें अठाहरवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से दिखलाई देता है, किन्तु इसके पूर्व भी मन्दिरों और राज प्रासादों में ऐसे चित्रांकन की परम्परा विद्यमान थी। चित्तौड़ के प्राचीन महलों में ऐसे भित्ति चित्र उपलब्ध हैं जो सौलहवीं [[सदी]] में बनाए गए थे।  सत्रहवीं शताब्दी के चित्रों में मोजमाबाद (जयपुर), उदयपुर के महलों तथा अम्बामाता के मंदिर, नाडोल के जैन मंदिर, [[आमेर]] ([[जयपुर]]) के निकट मावदूमशाह की क़ब्र के मुख्य गुम्बद के चित्र, [[जूनागढ़]] ([[बीकानेर]]), मारोठ के मान मन्दिर गिने जा सकते हैं। अठाहरवीं शताब्दी के चित्रणों में कृष्ण विलास (उदयपुर) [[आमेर का क़िला जयपुर|आमेर महल]] की भोजनशाला, ग़लता के महल, पुण्डरीक जी की हवेली (जयपुर) [[सूरजमल]] की छतरी ([[भरतपुर]]), झालिम सिंह की हवेली ([[कोटा]]) और मोती महल (नाथद्वारा) के भित्ति चित्र मुख्य हैं। यह चित्र आलागीला पद्धति या टेम्परा से बनाए गए थे। [[शेखावटी]], [[जैसलमेर]] एवं [[बीकानेर]] की हवेलियों में इस प्रकार के भित्ति चित्र अध्ययनार्थ अभी भी देखे जा सकते हैं। कपड़ों पर की जाने वाली कला में छपाई की चित्रकारी भी कला के इतिहास सहित इतिहास के अन्य अंगों पर प्रकाश डालने में समर्थ हो सकती है। यद्यपि वस्र रंगाई, छपाई, तथा कढ़ाई चित्रकला से प्रत्यक्ष सम्बन्धित नहीं हैं, किन्तु काल विशेष में अपनाई जाने वाली इस तकनीक, विद्या का अध्ययन कलागत तकनीकी इतिहास की उपादेय सामग्री बन सकती है। [[चाँदी]] और [[सोना|सोने]] की [[ज़री]] का काम किए वस्त्र शामियाने, हाथी, घोड़े तथा बैल की झूले आदि इस अध्ययन के साधन हैं।


{{लेख प्रगति |आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक2|माध्यमिक=|पूर्णता= |शोध=}}
{{लेख प्रगति |आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक2|माध्यमिक=|पूर्णता= |शोध=}}

11:14, 1 जून 2017 के समय का अवतरण

ऊँट सवारी, जैसलमेर
Camel Safari, Jaisalmer

राजस्थान में अति प्राचीन काल से चित्रकला के प्रति लोगों में रुचि रही थी। मुकन्दरा की पहाड़ियों व अरावली पर्वत श्रेणियों में कुछ शैल चित्रों की खोज इसका प्रमाण है। कोटा के दक्षिण में चम्बल के किनारे, माधोपुर की चट्टानों से, आलनिया नदी से प्राप्त शैल चित्रों का जो ब्योरा मिलता है उससे लगता है कि यह चित्र बगैर किसी प्रशिक्षण के मानव द्वारा वातावरण प्रभावित, स्वाभाविक इच्छा से बनाए गए थे। इनमें मानव एवं जावनरों की आकृतियों का आधिक्य है। कुछ चित्र शिकार के कुछ यन्त्र-तन्त्र के रूप में ज्यामितिक आकार के लिए पूजा और टोना टोटका की दृष्टि से अंकित हैं। कोटा के जलवाड़ा गाँव के पास विलास नदी के कन्या दाह ताल से बैला, हाथी, घोड़ा सहित घुड़सवार एवं हाथी सवार के चित्र मिलें हैं। यह चित्र उस आदिम परम्परा को प्रकट करते हैं आज भी राजस्थान में 'मांडला' नामक लोक कला के रूप में घर की दीवारों तथा आंगन में बने हुए देखे जा सकते हैं। इस प्रकार इनमें आदिम लोक कला के दर्शन सहित तत्कालीन मानव की आन्तरिक भावनाओं की अभिव्यक्ति सहज प्राप्त होती है। इन्हें भी देखें: राजस्थानी कला, राजस्थानी स्थापत्य कला एवं राजस्थान की हस्तकला

इतिहास

कालीबंगा और आहड़ की खुदाई से प्राप्त मिट्टी के बर्तनों पर किया गया अलंकरण भी प्राचीनतम मानव की लोक कला का परिचय प्रदान करता है। ज्यामितिक आकारों में चौकोर, गोल, जालीदाल, घुमावदार, त्रिकोण तथा समानान्तर रेखाओं के अतिरिक्त काली व सफ़ेद रेखाओं से फूल-पत्ती, पक्षी, खजूर, चौपड़ आदि का चित्रण बर्तनों पर पाया जाता है। उत्खनित-सभ्यता के पश्चात् मिट्टी पर किए जाने वाले लोक अलंकरण कुम्भकारों की कला में निरंतर प्राप्त होते रहते हैं किन्तु चित्रकला का चिह्न ग्याहरवीं शदी के पूर्व नहीं हुआ है। सर्वप्रथम विक्रम संवत 1117/1080 ई. के दो सचित्र ग्रंथ जैसलमेर के जैन भण्डार से प्राप्त होते हैं। औघनिर्युक्ति और दसवैकालिक सूत्रचूर्णी नामक यह हस्तलिखित ग्रन्थ जैन दर्शन से सम्बन्धित है। इसी प्रकार ताड़ एवं भोज पत्र के ग्रंथों को सुरक्षित रखने के लिए बनाये गए लकड़ी के पुस्तक आवरण पर की गई चित्रकारी भी हमें तत्कालीन काल के दृष्टान्त प्रदान करती है।

ख़्वाजा ग़रीब नवाज़ की दरगाह, अजमेर
Khwaja Garib Nawaz Dargah, Ajmer

बारहवीं शताब्दी तक निर्मित ऐसी कई चित्र पट्टिकाएं हमें राजस्थान के जैन भण्डारों में उपलब्ध हैं। इन पर जैन साधुओं, वनस्पति, पशु-पक्षी, आदि चित्रित हैं। अजमेर, पाली तथा आबू ऐसे चित्रकारों के मुख्य केन्द्र थे। तत्पशात् आहड़ एवं चित्तौड़ में भी इस प्रकार के सचित्र ग्रंथ बनने आरम्भ हुए। 1260-1317 ई. में लिखा गया 'श्रावक प्रतिक्रमण सूत्रचूर्णि' नामक ग्रन्थ मेवाड़ शैली (आहड़) का प्रथम उपलब्ध चिह्न है, जिसके द्वारा राजस्थानी कला के विकास का अध्ययन कर सकते हैं। ग्याहरवीं से पन्द्रहवीं शताब्दी तक के उपलब्ध सचित्र ग्रंथों में निशिथचूर्णि, त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र, नेमिनाथ चरित्र, कला सरित्सागर, कल्पसूत्र (1483/1426 ई.) कालक कथा, सुपासनाचरियम् (1485-1428 ई.) रसिकाष्टक (1435/1492 ई.) तथा गीत गोविन्द आदि हैं। 15वीं शदी तक मेवाड़ शैली की विशेषता में सवाचश्म्, गरुड़ नासिका, परवल की खड़ी फांक से नेत्र, घुमावदार व लम्बी उंगलियां, गुड्डिकार जनसमुदाय, चेहरों पर जकड़न, अलंकरण बाहुल्य, लाल-पीले रंग का अधिक प्रयोग कहे जा सकते हैं।
मेवाड़ के अनुरूप मारवाड़ में भी चित्रकला की परम्परा प्राचीन काल से पनपती रही थी। किंतु महाराणा मोकल से राणा सांगा (1421-1528 ई.) तक मेवाड़-मारवाड़ कला के राजनीतिक प्रभाव के फलस्वरूप साम्य दिखलाई होता है। राव मालदेव (1531-1462 ई.) ने पुन: मारवाड़ शैली को प्रश्य प्रदान कर चित्रकारों को इस ओर प्रेरित किया। इस शैली का उदाहरण 1591 ई. में चित्रित ग्रन्थ उत्तराध्ययन सूत्र है। मारवाड़ शैली के भित्तिचित्रों में जोधपुर के चोखेला महल को छतों के अन्दर बने चित्र दृष्टव्य हैं।

मुग़ल शैली का प्रभाव

राजस्थान में मुग़ल प्रभाव के परिणाम स्वरूप सत्रहवीं शती से मुग़ल शैली और राजस्थान की परम्परागत राजपूत शैली के समन्वय ने कई प्रांतीय शेलियों को जन्म दिया, इनमें मेवाड़ और मारवाड़ के अतिरिक्त बूँदी, कोटा, जैसलमेर, बीकानेर, जयपुर, किशनगढ़ और नाथद्वारा शैली मुख्य है। मुग़ल प्रभाव के फलत: चित्रों के विषय अन्त:पुर की रंगरेलियाँ, स्रियों के स्नान, होली के खेल, शिकार, बाग-बगीचे, घुड़सवारी, हाथी की सवारी आदि रहे। किन्तु इतिहास के पूरक स्रोत की दृष्टि से इनमें चित्रित समाज का अंकन एवं घटनाओं का चित्रण हमें सत्रहवीं से अठारहवी शताब्दी के अवलोकन की विस्तृत सामग्री प्रदान करता है। उदाहरणत: मारवाड़ शैली में उपलब्ध 'पंचतंत्र' तथा 'शुकनासिक चरित्र' में कुम्हार, धोबी, नाई, मज़दूर, चिड़ीमार, लकड़हारा, भिश्ती, सुनार, सौदाग़र, पनिहारी, ग्वाला, माली, किसान आदि से सम्बन्धित जीवन-वृत का चित्रण मिलता है। किशनगढ़ शैली में राधा कृष्ण की प्रेमाभिव्यक्ति के चित्रण मिलते हैं। इस क्रम में बनीठनी का एकल चित्र प्रसिद्ध है। किशनगढ़ शैली में क़द व चेहरा लम्बा नाक नुकीली बनाई जाती रही वही विस्तृत चित्रों में दरबारी जीवन की झाँकियों का समावेश भी दिखलाई देता है।

सिटी पैलेस, अलवर
City Palace, Alwar

मुग़ल शैली का अधिकतम प्रभाव हमें जयपुर तथा अलवर के चित्रों में मिलता है। बारामासा, राग माला, भागवत आदि के चित्र इसके उदाहरण हैं। 1671 ई. से मेवाड़ में पुष्टि मार्ग से प्रभावित श्रीनाथ जी के धर्म स्थल नाथद्वारा की कलम का अलग महत्त्व है। यद्यपि यहाँ के चित्रों का विषय कृष्ण की लीलाओं से सम्बन्धित रहा है फिर भी जन-जीवन की अभिक्रियाओं का चित्रण भी हमें इनमें सहज दिख जाता है।

ब्रिटिश प्रभाव

19वीं शताब्दी में ब्रिटिश प्रभाव के फलत: राजस्थान में पोट्रेट भी बनने शुरू हुए। यह पोट्रेट तत्कालीन रहन-सहन को अभिव्यक्त करने में इतिहास के अच्छे साधन हैं। चित्रकला के अन्तर्गत भित्ति चित्रों का आधिक्य हमें अठाहरवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से दिखलाई देता है, किन्तु इसके पूर्व भी मन्दिरों और राज प्रासादों में ऐसे चित्रांकन की परम्परा विद्यमान थी। चित्तौड़ के प्राचीन महलों में ऐसे भित्ति चित्र उपलब्ध हैं जो सौलहवीं सदी में बनाए गए थे। सत्रहवीं शताब्दी के चित्रों में मोजमाबाद (जयपुर), उदयपुर के महलों तथा अम्बामाता के मंदिर, नाडोल के जैन मंदिर, आमेर (जयपुर) के निकट मावदूमशाह की क़ब्र के मुख्य गुम्बद के चित्र, जूनागढ़ (बीकानेर), मारोठ के मान मन्दिर गिने जा सकते हैं। अठाहरवीं शताब्दी के चित्रणों में कृष्ण विलास (उदयपुर) आमेर महल की भोजनशाला, ग़लता के महल, पुण्डरीक जी की हवेली (जयपुर) सूरजमल की छतरी (भरतपुर), झालिम सिंह की हवेली (कोटा) और मोती महल (नाथद्वारा) के भित्ति चित्र मुख्य हैं। यह चित्र आलागीला पद्धति या टेम्परा से बनाए गए थे। शेखावटी, जैसलमेर एवं बीकानेर की हवेलियों में इस प्रकार के भित्ति चित्र अध्ययनार्थ अभी भी देखे जा सकते हैं। कपड़ों पर की जाने वाली कला में छपाई की चित्रकारी भी कला के इतिहास सहित इतिहास के अन्य अंगों पर प्रकाश डालने में समर्थ हो सकती है। यद्यपि वस्र रंगाई, छपाई, तथा कढ़ाई चित्रकला से प्रत्यक्ष सम्बन्धित नहीं हैं, किन्तु काल विशेष में अपनाई जाने वाली इस तकनीक, विद्या का अध्ययन कलागत तकनीकी इतिहास की उपादेय सामग्री बन सकती है। चाँदी और सोने की ज़री का काम किए वस्त्र शामियाने, हाथी, घोड़े तथा बैल की झूले आदि इस अध्ययन के साधन हैं।


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका-टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख