"कुछ दोहे नीरज के -गोपालदास नीरज": अवतरणों में अंतर
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*[[हिन्दी]] गीति-काव्य का पर्याय बन चुके [[कवि]] [[गोपालदास नीरज|नीरज]] बीसवीं शताब्दी के सर्वाधिक लोकप्रिय और सम्मानित काव्य व्यक्तित्व हैं। अनेक प्रतिष्ठित प्रकाशन समूहों द्वारा कराये गये सर्वेक्षणों के तथ्य इस बात को प्रमाणित करते हैं। | *[[हिन्दी]] गीति-काव्य का पर्याय बन चुके [[कवि]] [[गोपालदास नीरज|नीरज]] बीसवीं शताब्दी के सर्वाधिक लोकप्रिय और सम्मानित काव्य व्यक्तित्व हैं। अनेक प्रतिष्ठित प्रकाशन समूहों द्वारा कराये गये सर्वेक्षणों के तथ्य इस बात को प्रमाणित करते हैं। | ||
*भक्तिकालीन कवियों के बाद जनभाषा में मानवीय संवेदनाओं को ऐसी अभिव्यक्ति देनेवाला और जनसाधारण में इतना समादूत और स्वीकृत कोई अन्य कवि दूर-दूर तक दिखाई नहीं देता। निश्चित रूप से वे हिंदी | *भक्तिकालीन कवियों के बाद जनभाषा में मानवीय संवेदनाओं को ऐसी अभिव्यक्ति देनेवाला और जनसाधारण में इतना समादूत और स्वीकृत कोई अन्य कवि दूर-दूर तक दिखाई नहीं देता। निश्चित रूप से वे हिंदी जगत् में एक जीवित किंवदन्ती या कहें कि ‘लिविंग लीजेण्ड’ बन चुके हैं। | ||
*‘कुछ दोहे नीरज के' उनकी अप्रतिम लेखनी से निसृत प्रेम, सौन्दर्य, सामाजिक व्यवहार, नैतिकता, राजनीति, अध्यात्म, ज्योतिष आदि विविध विषयों से सम्बन्धित उत्कृष्ट दोहों का महत्वपूर्ण संग्रह है। | *‘कुछ दोहे नीरज के' उनकी अप्रतिम लेखनी से निसृत प्रेम, सौन्दर्य, सामाजिक व्यवहार, नैतिकता, राजनीति, अध्यात्म, ज्योतिष आदि विविध विषयों से सम्बन्धित उत्कृष्ट दोहों का महत्वपूर्ण संग्रह है। | ||
*साथ ही उनकी कुछ पातियाँ भी इस संग्रह की शोभा हैं। | *साथ ही उनकी कुछ पातियाँ भी इस संग्रह की शोभा हैं। | ||
<blockquote>आधुनिक काल में ये विधा विरल हो गई थी और कुछ समय के लिए समाप्तप्राय, लेकिन अब फिर जैसे हिन्दी में ग़ज़ल लेखन की बाढ़ आयी है उसी प्रकार अब दोहा हिन्दुस्तान में ही नहीं पाकिस्तान में भी खूब लिखा जा रहा है और लोकप्रिय हो रहा है। मैंने भी इस विधा में कुछ मौलिक कहने की कोशिश की है और साथ ही प्राचीन महापुरुषों और संतों की सूक्तियों का भावानुवाद भी किया है। साथ ही ज्योतिष सम्बन्धी कुछ सरल दोहे भी इस संकलन में इस आशय के साथ जोड़े है कि ज्योतिष ज्ञान प्राप्त कराने में सहायक सिद्ध हों। मैं अपने प्रयास में कहाँ तक सफल या असफल हुआ हूँ ये तो आप पाठकगण ही तय करेंगे। जो महापुरुषों और संतों की सूक्तियों का भावानुवाद मैंने किया है यदि उसमें से एक भी दोहा किसी पाठक का रूपान्तरण करने या उनके जीवन की कठिन परिस्थितियों में सहायक होता है तो मैं अपने प्रयास को सफल समझूँगा लेकिन इसके श्रेय के अधिकारी वे महापुरुष ही होंगे। -गोपालदास नीरज</blockquote> | <blockquote>आधुनिक काल में ये विधा विरल हो गई थी और कुछ समय के लिए समाप्तप्राय, लेकिन अब फिर जैसे हिन्दी में ग़ज़ल लेखन की बाढ़ आयी है उसी प्रकार अब दोहा हिन्दुस्तान में ही नहीं पाकिस्तान में भी खूब लिखा जा रहा है और लोकप्रिय हो रहा है। मैंने भी इस विधा में कुछ मौलिक कहने की कोशिश की है और साथ ही प्राचीन महापुरुषों और संतों की सूक्तियों का भावानुवाद भी किया है। साथ ही ज्योतिष सम्बन्धी कुछ सरल दोहे भी इस संकलन में इस आशय के साथ जोड़े है कि ज्योतिष ज्ञान प्राप्त कराने में सहायक सिद्ध हों। मैं अपने प्रयास में कहाँ तक सफल या असफल हुआ हूँ ये तो आप पाठकगण ही तय करेंगे। जो महापुरुषों और संतों की सूक्तियों का भावानुवाद मैंने किया है यदि उसमें से एक भी दोहा किसी पाठक का रूपान्तरण करने या उनके जीवन की कठिन परिस्थितियों में सहायक होता है तो मैं अपने प्रयास को सफल समझूँगा लेकिन इसके श्रेय के अधिकारी वे महापुरुष ही होंगे। -गोपालदास नीरज</blockquote> | ||
<poem>(1) | |||
मौसम कैसा भी रहे कैसी चले बयार | |||
बड़ा कठिन है भूलना पहला-पहला प्यार | |||
(2) | |||
भारत माँ के नयन दो हिन्दू-मुस्लिम जान | |||
नहीं एक के बिना हो दूजे की पहचान | |||
(3) | |||
बिना दबाये रस न दें ज्यों नींबू और आम | |||
दबे बिना पूरे न हों त्यों सरकारी काम | |||
(4) | |||
अमरीका में मिल गया जब से उन्हें प्रवेश | |||
उनको भाता है नहीं अपना भारत देश | |||
(5) | |||
जब तक कुर्सी जमे खालू और दुखराम | |||
तब तक भ्रष्टाचार को कैसे मिले विराम | |||
(6) | |||
पहले चारा चर गये अब खायेंगे देश | |||
कुर्सी पर डाकू जमे धर नेता का भेष | |||
(7) | |||
कवियों की और चोर की गति है एक समान | |||
दिल की चोरी कवि करे लूटे चोर मकान | |||
(8) | |||
गो मैं हूँ मँझधार में आज बिना पतवार | |||
लेकिन कितनों को किया मैंने सागर पार | |||
(9) | |||
जब हो चारों ही तरफ घोर घना अँधियार | |||
ऐसे में खद्योत भी पाते हैं सत्कार | |||
(10) | |||
जिनको जाना था यहाँ पढ़ने को स्कूल | |||
जूतों पर पालिश करें वे भविष्य के फूल | |||
(11) | |||
भूखा पेट न जानता क्या है धर्म-अधर्म | |||
बेच देय संतान तक, भूख न जाने शर्म | |||
(12) | |||
दोहा वर है और है कविता वधू कुलीन | |||
जब इसकी भाँवर पड़ी जन्मे अर्थ नवीन | |||
(13) | |||
गागर में सागर भरे मुँदरी में नवरत्न | |||
अगर न ये दोहा करे, है सब व्यर्थ प्रयत्न | |||
(14) | |||
जहाँ मरण जिसका लिखा वो बानक बन आए | |||
मृत्यु नहीं जाये कहीं, व्यक्ति वहाँ खुद जाए | |||
(15) | |||
टी.वी.ने हम पर किया यूँ छुप-छुप कर वार | |||
संस्कृति सब घायल हुई बिना तीर-तलवार | |||
(16) | |||
दूरभाष का देश में जब से हुआ प्रचार | |||
तब से घर आते नहीं चिट्ठी पत्री तार | |||
(17) | |||
आँखों का पानी मरा हम सबका यूँ आज | |||
सूख गये जल स्रोत सब इतनी आयी लाज | |||
(18) | |||
करें मिलावट फिर न क्यों व्यापारी व्यापार | |||
जब कि मिलावट से बने रोज़ यहाँ सरकार | |||
(19) | |||
रुके नहीं कोई यहाँ नामी हो कि अनाम | |||
कोई जाये सुबह् को कोई जाये शाम | |||
(20) | |||
ज्ञानी हो फिर भी न कर दुर्जन संग निवास | |||
सर्प सर्प है, भले ही मणि हो उसके पास | |||
(21) | |||
अद्भुत इस गणतंत्र के अद्भुत हैं षडयंत्र | |||
संत पड़े हैं जेल में, डाकू फिरें स्वतंत्र | |||
(22) | |||
राजनीति के खेल ये समझ सका है कौन | |||
बहरों को भी बँट रहे अब मोबाइल फोन | |||
(23) | |||
राजनीति शतरंज है, विजय यहाँ वो पाय | |||
जब राजा फँसता दिखे पैदल दे पिटवाय | |||
(24) | |||
भक्तों में कोई नहीं बड़ा सूर से नाम | |||
उसने आँखों के बिना देख लिये घनश्याम | |||
(25) | |||
चील, बाज़ और गिद्ध अब घेरे हैं आकाश | |||
कोयल, मैना, शुकों का पिंजड़ा है अधिवास | |||
(26) | |||
सेक्युलर होने का उन्हें जब से चढ़ा जुनून | |||
पानी लगता है उन्हें हर हिन्दू का खून | |||
(27) | |||
हिन्दी, हिन्दू, हिन्द ही है इसकी पहचान | |||
इसीलिए इस देश को कहते हिन्दुस्तान | |||
(28) | |||
रहा चिकित्साशास्त्र जो जनसेवा का कर्म | |||
आज डॉक्टरों ने उसे बना दिया बेशर्म | |||
(29) | |||
दूध पिलाये हाथ जो डसे उसे भी साँप | |||
दुष्ट न त्यागे दुष्टता कुछ भी कर लें आप | |||
(30) | |||
तोड़ो, मसलो या कि तुम उस पर डालो धूल | |||
बदले में लेकिन तुम्हें खुशबू ही दे फूल | |||
(31) | |||
पूजा के सम पूज्य है जो भी हो व्यवसाय | |||
उसमें ऐसे रमो ज्यों जल में दूध समाय | |||
(32) | |||
हम कितना जीवित रहे, इसका नहीं महत्व | |||
हम कैसे जीवित रहे, यही तत्व अमरत्व | |||
(33) | |||
जीने को हमको मिले यद्यपि दिन दो-चार | |||
जिएँ मगर हम इस तरह हर दिन बनें हजार | |||
(34) | |||
सेज है सूनी सजन बिन, फूलों के बिन बाग़ | |||
घर सूना बच्चों बिना, सेंदुर बिना सुहाग | |||
(35) | |||
यदि यूँ ही हावी रहा इक समुदाय विशेष | |||
निश्चित होगा एक दिन खण्ड-खण्ड ये देश | |||
(36) | |||
बन्दर चूके डाल को, और आषाढ़ किसान | |||
दोनों के ही लिए है ये गति मरण समान | |||
(37) | |||
चिडि़या है बिन पंख की कहते जिसको आयु | |||
इससे ज्यादा तेज़ तो चले न कोई वायु | |||
(38) | |||
बुरे दिनों में कर नहीं कभी किसी से आस | |||
परछाई भी साथ दे, जब तक रहे प्रकाश | |||
(39) | |||
यदि तुम पियो शराब तो इतना रखना याद | |||
इस शराब ने हैं किये, कितने घर बर्बाद | |||
(40) | |||
जब कम हो घर में जगह हो कम ही सामान | |||
उचित नहीं है जोड़ना तब ज्यादा मेहमान | |||
(41) | |||
रहे शाम से सुबह तक मय का नशा ख़ुमार | |||
लेकिन धन का तो नशा कभी न उतरे यार | |||
(42) | |||
जीवन पीछे को नहीं आगे बढ़ता नित्य | |||
नहीं पुरातन से कभी सजे नया साहित्य | |||
(43) | |||
रामराज्य में इस कदर फैली लूटम-लूट | |||
दाम बुराई के बढ़े, सच्चाई पर छूट | |||
(44) | |||
स्नेह, शान्ति, सुख, सदा ही करते वहाँ निवास | |||
निष्ठा जिस घर माँ बने, पिता बने विश्वास | |||
(45) | |||
जीवन का रस्ता पथिक सीधा सरल न जान | |||
बहुत बार होते ग़लत मंज़िल के अनुमान | |||
(46) | |||
किया जाए नेता यहाँ, अच्छा वही शुमार | |||
सच कहकर जो झूठ को देता गले उतार | |||
(47) | |||
जब से वो बरगद गिरा, बिछड़ी उसकी छाँव | |||
लगता एक अनाथ-सा सबका सब वो गाँव | |||
(48) | |||
अपना देश महान् है, इसका क्या है अर्थ | |||
आरक्षण हैं चार के, मगर एक है बर्थ | |||
(49) | |||
दीपक तो जलता यहाँ सिर्फ एक ही बार | |||
दिल लेकिन वो चीज़ है जले हज़ारों बार | |||
(50) | |||
काग़ज़ की एक नाव पर मैं हूँ आज सवार | |||
और इसी से है मुझे करना सागर पार | |||
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कुछ दोहे नीरज के -गोपालदास नीरज
| |
कवि | गोपालदास नीरज |
मूल शीर्षक | 'कुछ दोहे नीरज के' |
प्रकाशक | 'डायमंड पॉकेट बुक्स' |
प्रकाशन तिथि | 03 अप्रॅल, 2004 |
ISBN | 81-288-09002-4 |
देश | भारत |
पृष्ठ: | 136 |
भाषा | हिन्दी |
प्रकार | कविता संग्रह |
विशेष | पुस्तक क्रम: 3567 |
- हिन्दी गीति-काव्य का पर्याय बन चुके कवि नीरज बीसवीं शताब्दी के सर्वाधिक लोकप्रिय और सम्मानित काव्य व्यक्तित्व हैं। अनेक प्रतिष्ठित प्रकाशन समूहों द्वारा कराये गये सर्वेक्षणों के तथ्य इस बात को प्रमाणित करते हैं।
- भक्तिकालीन कवियों के बाद जनभाषा में मानवीय संवेदनाओं को ऐसी अभिव्यक्ति देनेवाला और जनसाधारण में इतना समादूत और स्वीकृत कोई अन्य कवि दूर-दूर तक दिखाई नहीं देता। निश्चित रूप से वे हिंदी जगत् में एक जीवित किंवदन्ती या कहें कि ‘लिविंग लीजेण्ड’ बन चुके हैं।
- ‘कुछ दोहे नीरज के' उनकी अप्रतिम लेखनी से निसृत प्रेम, सौन्दर्य, सामाजिक व्यवहार, नैतिकता, राजनीति, अध्यात्म, ज्योतिष आदि विविध विषयों से सम्बन्धित उत्कृष्ट दोहों का महत्वपूर्ण संग्रह है।
- साथ ही उनकी कुछ पातियाँ भी इस संग्रह की शोभा हैं।
आधुनिक काल में ये विधा विरल हो गई थी और कुछ समय के लिए समाप्तप्राय, लेकिन अब फिर जैसे हिन्दी में ग़ज़ल लेखन की बाढ़ आयी है उसी प्रकार अब दोहा हिन्दुस्तान में ही नहीं पाकिस्तान में भी खूब लिखा जा रहा है और लोकप्रिय हो रहा है। मैंने भी इस विधा में कुछ मौलिक कहने की कोशिश की है और साथ ही प्राचीन महापुरुषों और संतों की सूक्तियों का भावानुवाद भी किया है। साथ ही ज्योतिष सम्बन्धी कुछ सरल दोहे भी इस संकलन में इस आशय के साथ जोड़े है कि ज्योतिष ज्ञान प्राप्त कराने में सहायक सिद्ध हों। मैं अपने प्रयास में कहाँ तक सफल या असफल हुआ हूँ ये तो आप पाठकगण ही तय करेंगे। जो महापुरुषों और संतों की सूक्तियों का भावानुवाद मैंने किया है यदि उसमें से एक भी दोहा किसी पाठक का रूपान्तरण करने या उनके जीवन की कठिन परिस्थितियों में सहायक होता है तो मैं अपने प्रयास को सफल समझूँगा लेकिन इसके श्रेय के अधिकारी वे महापुरुष ही होंगे। -गोपालदास नीरज
(1)
मौसम कैसा भी रहे कैसी चले बयार
बड़ा कठिन है भूलना पहला-पहला प्यार
(2)
भारत माँ के नयन दो हिन्दू-मुस्लिम जान
नहीं एक के बिना हो दूजे की पहचान
(3)
बिना दबाये रस न दें ज्यों नींबू और आम
दबे बिना पूरे न हों त्यों सरकारी काम
(4)
अमरीका में मिल गया जब से उन्हें प्रवेश
उनको भाता है नहीं अपना भारत देश
(5)
जब तक कुर्सी जमे खालू और दुखराम
तब तक भ्रष्टाचार को कैसे मिले विराम
(6)
पहले चारा चर गये अब खायेंगे देश
कुर्सी पर डाकू जमे धर नेता का भेष
(7)
कवियों की और चोर की गति है एक समान
दिल की चोरी कवि करे लूटे चोर मकान
(8)
गो मैं हूँ मँझधार में आज बिना पतवार
लेकिन कितनों को किया मैंने सागर पार
(9)
जब हो चारों ही तरफ घोर घना अँधियार
ऐसे में खद्योत भी पाते हैं सत्कार
(10)
जिनको जाना था यहाँ पढ़ने को स्कूल
जूतों पर पालिश करें वे भविष्य के फूल
(11)
भूखा पेट न जानता क्या है धर्म-अधर्म
बेच देय संतान तक, भूख न जाने शर्म
(12)
दोहा वर है और है कविता वधू कुलीन
जब इसकी भाँवर पड़ी जन्मे अर्थ नवीन
(13)
गागर में सागर भरे मुँदरी में नवरत्न
अगर न ये दोहा करे, है सब व्यर्थ प्रयत्न
(14)
जहाँ मरण जिसका लिखा वो बानक बन आए
मृत्यु नहीं जाये कहीं, व्यक्ति वहाँ खुद जाए
(15)
टी.वी.ने हम पर किया यूँ छुप-छुप कर वार
संस्कृति सब घायल हुई बिना तीर-तलवार
(16)
दूरभाष का देश में जब से हुआ प्रचार
तब से घर आते नहीं चिट्ठी पत्री तार
(17)
आँखों का पानी मरा हम सबका यूँ आज
सूख गये जल स्रोत सब इतनी आयी लाज
(18)
करें मिलावट फिर न क्यों व्यापारी व्यापार
जब कि मिलावट से बने रोज़ यहाँ सरकार
(19)
रुके नहीं कोई यहाँ नामी हो कि अनाम
कोई जाये सुबह् को कोई जाये शाम
(20)
ज्ञानी हो फिर भी न कर दुर्जन संग निवास
सर्प सर्प है, भले ही मणि हो उसके पास
(21)
अद्भुत इस गणतंत्र के अद्भुत हैं षडयंत्र
संत पड़े हैं जेल में, डाकू फिरें स्वतंत्र
(22)
राजनीति के खेल ये समझ सका है कौन
बहरों को भी बँट रहे अब मोबाइल फोन
(23)
राजनीति शतरंज है, विजय यहाँ वो पाय
जब राजा फँसता दिखे पैदल दे पिटवाय
(24)
भक्तों में कोई नहीं बड़ा सूर से नाम
उसने आँखों के बिना देख लिये घनश्याम
(25)
चील, बाज़ और गिद्ध अब घेरे हैं आकाश
कोयल, मैना, शुकों का पिंजड़ा है अधिवास
(26)
सेक्युलर होने का उन्हें जब से चढ़ा जुनून
पानी लगता है उन्हें हर हिन्दू का खून
(27)
हिन्दी, हिन्दू, हिन्द ही है इसकी पहचान
इसीलिए इस देश को कहते हिन्दुस्तान
(28)
रहा चिकित्साशास्त्र जो जनसेवा का कर्म
आज डॉक्टरों ने उसे बना दिया बेशर्म
(29)
दूध पिलाये हाथ जो डसे उसे भी साँप
दुष्ट न त्यागे दुष्टता कुछ भी कर लें आप
(30)
तोड़ो, मसलो या कि तुम उस पर डालो धूल
बदले में लेकिन तुम्हें खुशबू ही दे फूल
(31)
पूजा के सम पूज्य है जो भी हो व्यवसाय
उसमें ऐसे रमो ज्यों जल में दूध समाय
(32)
हम कितना जीवित रहे, इसका नहीं महत्व
हम कैसे जीवित रहे, यही तत्व अमरत्व
(33)
जीने को हमको मिले यद्यपि दिन दो-चार
जिएँ मगर हम इस तरह हर दिन बनें हजार
(34)
सेज है सूनी सजन बिन, फूलों के बिन बाग़
घर सूना बच्चों बिना, सेंदुर बिना सुहाग
(35)
यदि यूँ ही हावी रहा इक समुदाय विशेष
निश्चित होगा एक दिन खण्ड-खण्ड ये देश
(36)
बन्दर चूके डाल को, और आषाढ़ किसान
दोनों के ही लिए है ये गति मरण समान
(37)
चिडि़या है बिन पंख की कहते जिसको आयु
इससे ज्यादा तेज़ तो चले न कोई वायु
(38)
बुरे दिनों में कर नहीं कभी किसी से आस
परछाई भी साथ दे, जब तक रहे प्रकाश
(39)
यदि तुम पियो शराब तो इतना रखना याद
इस शराब ने हैं किये, कितने घर बर्बाद
(40)
जब कम हो घर में जगह हो कम ही सामान
उचित नहीं है जोड़ना तब ज्यादा मेहमान
(41)
रहे शाम से सुबह तक मय का नशा ख़ुमार
लेकिन धन का तो नशा कभी न उतरे यार
(42)
जीवन पीछे को नहीं आगे बढ़ता नित्य
नहीं पुरातन से कभी सजे नया साहित्य
(43)
रामराज्य में इस कदर फैली लूटम-लूट
दाम बुराई के बढ़े, सच्चाई पर छूट
(44)
स्नेह, शान्ति, सुख, सदा ही करते वहाँ निवास
निष्ठा जिस घर माँ बने, पिता बने विश्वास
(45)
जीवन का रस्ता पथिक सीधा सरल न जान
बहुत बार होते ग़लत मंज़िल के अनुमान
(46)
किया जाए नेता यहाँ, अच्छा वही शुमार
सच कहकर जो झूठ को देता गले उतार
(47)
जब से वो बरगद गिरा, बिछड़ी उसकी छाँव
लगता एक अनाथ-सा सबका सब वो गाँव
(48)
अपना देश महान् है, इसका क्या है अर्थ
आरक्षण हैं चार के, मगर एक है बर्थ
(49)
दीपक तो जलता यहाँ सिर्फ एक ही बार
दिल लेकिन वो चीज़ है जले हज़ारों बार
(50)
काग़ज़ की एक नाव पर मैं हूँ आज सवार
और इसी से है मुझे करना सागर पार
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