"तैत्तिरीयोपनिषद ब्रह्मानन्दवल्ली अनुवाक-6": अवतरणों में अंतर

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*विज्ञानमय शरीर का 'आत्मा' ही आनन्दमय शरीर का भी '[[आत्मा]]' है।  
*विज्ञानमय शरीर का 'आत्मा' ही आनन्दमय शरीर का भी '[[आत्मा]]' है।  
*परमात्मा अनेक रूपों में अपने आपको प्रकट करता है।  
*परमात्मा अनेक रूपों में अपने आपको प्रकट करता है।  
*उसने जगत की रचना की और उसी में प्रविष्ट हो गया।  
*उसने जगत् की रचना की और उसी में प्रविष्ट हो गया।  
*वह वर्ण्य और अवर्ण्य से परे हो गया।  
*वह वर्ण्य और अवर्ण्य से परे हो गया।  
*किसी ने उसे 'निराकार' रूप माना, तो किसी ने 'साकार' रूप। अपनी-अपनी कल्पनाएं होने लगीं।  
*किसी ने उसे 'निराकार' रूप माना, तो किसी ने 'साकार' रूप। अपनी-अपनी कल्पनाएं होने लगीं।  

14:01, 30 जून 2017 के समय का अवतरण

  • इस अनुवाक में 'आनन्दमय कोश' की व्याख्या की गयी है।
  • ब्रह्म को 'सत्य' स्वीकार करने वाले सन्त कहलाते हैं।
  • विज्ञानमय शरीर का 'आत्मा' ही आनन्दमय शरीर का भी 'आत्मा' है।
  • परमात्मा अनेक रूपों में अपने आपको प्रकट करता है।
  • उसने जगत् की रचना की और उसी में प्रविष्ट हो गया।
  • वह वर्ण्य और अवर्ण्य से परे हो गया।
  • किसी ने उसे 'निराकार' रूप माना, तो किसी ने 'साकार' रूप। अपनी-अपनी कल्पनाएं होने लगीं।
  • वह आश्रय-रूप और आश्रयविहीन हो गया, चैतन्य और जड़ हो गया। वह सत्य रूप होते हुए भी मिथ्या-रूप हो गया। परन्तु विद्वानों का कहना है कि जो कुछ भी अनुभव में आता है, वही 'सत्य' है, परब्रह्म है, परमेश्वर है।


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