"तैत्तिरीयोपनिषद भृगुवल्ली अनुवाक-7": अवतरणों में अंतर
भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
व्यवस्थापन (वार्ता | योगदान) छो (Text replace - "Category:उपनिषद" to "Category:उपनिषदCategory:संस्कृत साहित्य") |
व्यवस्थापन (वार्ता | योगदान) छो (Text replacement - " महान " to " महान् ") |
||
पंक्ति 4: | पंक्ति 4: | ||
*'प्राण' ही अन्न है। शरीर में प्राण है और यह शरीर प्राण के आश्रय में है। | *'प्राण' ही अन्न है। शरीर में प्राण है और यह शरीर प्राण के आश्रय में है। | ||
*अन्न में ही अन्न की प्रतिष्ठा है। | *अन्न में ही अन्न की प्रतिष्ठा है। | ||
*जो साधक इस मर्म को समझ जाता है, वह अन्न-पाचन की शक्ति, प्रजा, पशु, ब्रह्मवर्चस का ज्ञाता होकर | *जो साधक इस मर्म को समझ जाता है, वह अन्न-पाचन की शक्ति, प्रजा, पशु, ब्रह्मवर्चस का ज्ञाता होकर महान् यश को प्राप्त करता है। | ||
{{लेख प्रगति|आधार=आधार1|प्रारम्भिक= |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }} | {{लेख प्रगति|आधार=आधार1|प्रारम्भिक= |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }} |
14:18, 30 जून 2017 के समय का अवतरण
- तैत्तिरीयोपनिषद के भृगुवल्ली का यह सातवाँ अनुवाक है।
मुख्य लेख : तैत्तिरीयोपनिषद
- भृगु ऋषि ने कहा कि अन्न की कभी निन्दा नहीं करनी चाहिए।
- 'प्राण' ही अन्न है। शरीर में प्राण है और यह शरीर प्राण के आश्रय में है।
- अन्न में ही अन्न की प्रतिष्ठा है।
- जो साधक इस मर्म को समझ जाता है, वह अन्न-पाचन की शक्ति, प्रजा, पशु, ब्रह्मवर्चस का ज्ञाता होकर महान् यश को प्राप्त करता है।
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
संबंधित लेख
तैत्तिरीयोपनिषद ब्रह्मानन्दवल्ली |
अनुवाक-1 | अनुवाक-2 | अनुवाक-3 | अनुवाक-4 | अनुवाक-5 | अनुवाक-6 | अनुवाक-7 | अनुवाक-8 | अनुवाक-9 |
तैत्तिरीयोपनिषद भृगुवल्ली |
अनुवाक-1 | अनुवाक-2 | अनुवाक-3 | अनुवाक-4 | अनुवाक-5 | अनुवाक-6 | अनुवाक-7 | अनुवाक-8 | अनुवाक-9 | अनुवाक-10 |
तैत्तिरीयोपनिषद शिक्षावल्ली |
अनुवाक-1 | अनुवाक-2 | अनुवाक-3 | अनुवाक-4 | अनुवाक-5 | अनुवाक-6 | अनुवाक-7 | अनुवाक-8 | अनुवाक-9 | अनुवाक-10 | अनुवाक-11 | अनुवाक-12 |