"बीकानेर की चित्रकला": अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
No edit summary
छो (Text replacement - "विद्वान " to "विद्वान् ")
 
(2 सदस्यों द्वारा किए गए बीच के 4 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
[[चित्र:Bikaner painting.jpg||thumb|बीकानेर चित्र शैली]]
[[राजस्थानी चित्रकला]] की एक प्रभावी शैली का जन्म [[बीकानेर]] से हुआ जो [[राजस्थान]] का दूसरा बड़ा राज्य था। बीकानेर राजस्थान के उत्तर-पश्चिम में स्थित है। सुदूर मरुप्रदेश में राठौरवंशी राव जोधा के छठे पुत्र बीका द्वारा सन् 1488  में बीकानेर की स्थापना की गई। बीकानेर 27 12' और  30 12' उत्तरी अक्षांश तथा 72 12' व 75 41' पूर्वी देशांतर पर स्थित है। बीकानेर राज्य के उत्तर में वहाबलपुर ([[पाकिस्तान]]), दक्षिण-पश्चिम में [[जैसलमेर]], दक्षिण में [[जोधपुर]], दक्षिण-पूर्व में लोहारु व [[हिसार ज़िला]] एवं उत्तर पूर्व में फिरोजपुर ज़िले से घिरी हुई थी। गजनेर व कोलायत यहाँ की प्रसिद्ध झीलें हैं।
[[राजस्थानी चित्रकला]] की एक प्रभावी शैली का जन्म [[बीकानेर]] से हुआ जो [[राजस्थान]] का दूसरा बड़ा राज्य था। बीकानेर राजस्थान के उत्तर-पश्चिम में स्थित है। सुदूर मरुप्रदेश में राठौरवंशी राव जोधा के छठे पुत्र बीका द्वारा सन् 1488  में बीकानेर की स्थापना की गई। बीकानेर 27 12' और  30 12' उत्तरी अक्षांश तथा 72 12' व 75 41' पूर्वी देशांतर पर स्थित है। बीकानेर राज्य के उत्तर में वहाबलपुर ([[पाकिस्तान]]), दक्षिण-पश्चिम में [[जैसलमेर]], दक्षिण में [[जोधपुर]], दक्षिण-पूर्व में लोहारु व [[हिसार ज़िला]] एवं उत्तर पूर्व में फिरोजपुर ज़िले से घिरी हुई थी। गजनेर व कोलायत यहाँ की प्रसिद्ध झीलें हैं।
[[मारवाड़]] का ही एक अंग होने के कारण तथा जोधपुर के वंशज होने के कारण बीकानेर की कलात्मक धरोहर मारवाड़ स्कूल की ही परम्परा में एक महत्वपूर्ण कड़ी गिनी जाती है। बीकानेर राज्य अनेक बाह्य प्रभावों के उपरांत भी कलात्मक दाय की दृष्टि से अपना मौलिक स्थान रखता है। अन्य राजस्थानी शैलियों की भांति बीकानेर की चित्रकला का भी 16वीं शताब्दी के अंत में प्रादुर्भाव माना जाता है। बीकानेर राज्य का मुग़ल दरबार से गहन सम्बन्ध होने के कारण मुग़ल शैली की सभी विशेषताऐं बीकानेर की प्रारंभिक चित्रकला में द्रष्टव्य है। बीकानेर के राजा अधिकतर दक्षिणी मोर्चो पर मुग़लों के गर्वनर रहे, अतः दक्षिण शैली का प्रभाव बीकानेर पर सर्वाधिक है। बीकानेरी शैली में इकहरी तन्वंगी मृगनैनी कोमल ललनाओं का अंकन, नीले-हरे और लाल रंगों का प्रयोग [[शाहजहाँ]] और [[औरंगज़ेब]] शैली की पगड़ियों का साथ ही ऊँची मारवाड़ी पगड़ियां, ऊँट, हिरन तथा बीकानेरी रहन-सहन और राजपूती संस्कृति की छाप इस शैली का अलग शैली मानने को प्रेरित करती है।
[[मारवाड़]] का ही एक अंग होने के कारण तथा जोधपुर के वंशज होने के कारण बीकानेर की कलात्मक धरोहर मारवाड़ स्कूल की ही परम्परा में एक महत्वपूर्ण कड़ी गिनी जाती है। बीकानेर राज्य अनेक बाह्य प्रभावों के उपरांत भी कलात्मक दाय की दृष्टि से अपना मौलिक स्थान रखता है। अन्य राजस्थानी शैलियों की भांति बीकानेर की चित्रकला का भी 16वीं शताब्दी के अंत में प्रादुर्भाव माना जाता है। बीकानेर राज्य का मुग़ल दरबार से गहन सम्बन्ध होने के कारण मुग़ल शैली की सभी विशेषताऐं बीकानेर की प्रारंभिक चित्रकला में द्रष्टव्य है। बीकानेर के राजा अधिकतर दक्षिणी मोर्चो पर मुग़लों के गर्वनर रहे, अतः दक्षिण शैली का प्रभाव बीकानेर पर सर्वाधिक है। बीकानेरी शैली में इकहरी तन्वंगी मृगनैनी कोमल ललनाओं का अंकन, नीले-हरे और लाल रंगों का प्रयोग [[शाहजहाँ]] और [[औरंगज़ेब]] शैली की पगड़ियों का साथ ही ऊँची मारवाड़ी पगड़ियां, ऊँट, हिरन तथा बीकानेरी रहन-सहन और राजपूती संस्कृति की छाप इस शैली का अलग शैली मानने को प्रेरित करती है।
==बीकानेर की चित्रकला का क्रमिक विकास==
==बीकानेर की चित्रकला का क्रमिक विकास==
बीकानेर शैली के प्रारंभिक चित्र महाराजा राय सिंह के समय (1571-91) चित्रित [[भागवत पुराण]] के माने जाते हैं। राजा रायसिंह [[अकबर]] का बहादुर सेनापति था तथा उसने मुग़लों की ओर से कई लड़ाईयाँ लड़ी थी। मुग़ल दरबार में उसका सम्मान था तथा उसने अपनी पुत्री की शादी शहजादा [[सलीम]] से कर मुग़ल दरबार से संबंध सुदृढ़ किए। राय सिंह कला प्रिय होने के साथ-साथ साहित्यक अभिरुचि से संपन्न व्यक्ति था। उन्होनें स्वयं "रायसिंह महोत्सव' तथा "ज्योतिष रत्नाकर' जैसे ग्रंथों की स्थापना की थी। बीकानेर के प्रारंभिक चित्रों में जैन स्कूल का प्रभाव दर्शनीय है। राजस्थान एक वृहद् प्रदेश है। आपसी संबंधों तथा मुग़लों के प्रभाव के कारण यहाँ की चित्रकला में पारस्परिक प्रभाव विशेष दर्शनीय है। महाराजा राय सिंह का विवाह मेवाड़ के [[राणा उदय सिंह|महाराजा उदय सिंह]] (1537-72 ई.) की पुत्री जसमादे के साथ हुआ तथा दूसरा विवाह सन् 1592 ई. में जैसलमेर में हुआ, अतः बीकानेर शैली का भागवत् पुराण (1590 ई. लगभग) जैसलमेर के कुंहरराज के लिए लिखित एवं चित्रित माधवानल कामकंदला (1603 ई.) तथा मेवाड़ शैली का विल्हण कृत चौर-पंचाशिका (1540 ई.) और नसीरुद्दीन द्वारा चित्रित चावंड की रागमाला (1605 ई.) के चित्रण में शैली-तकनीक और रंगों की दृष्टि से विशेष समता देखने को मिलती है।<br />
बीकानेर शैली के प्रारंभिक चित्र महाराजा राय सिंह के समय (1571-91) चित्रित [[भागवत पुराण]] के माने जाते हैं। राजा रायसिंह [[अकबर]] का बहादुर सेनापति था तथा उसने मुग़लों की ओर से कई लड़ाइयाँ लड़ी थी। मुग़ल दरबार में उसका सम्मान था तथा उसने अपनी पुत्री की शादी शहजादा [[सलीम]] से कर मुग़ल दरबार से संबंध सुदृढ़ किए। राय सिंह कला प्रिय होने के साथ-साथ साहित्यक अभिरुचि से संपन्न व्यक्ति था। उन्होनें स्वयं "रायसिंह महोत्सव' तथा "ज्योतिष रत्नाकर' जैसे ग्रंथों की स्थापना की थी। बीकानेर के प्रारंभिक चित्रों में जैन स्कूल का प्रभाव दर्शनीय है। राजस्थान एक वृहद् प्रदेश है। आपसी संबंधों तथा मुग़लों के प्रभाव के कारण यहाँ की चित्रकला में पारस्परिक प्रभाव विशेष दर्शनीय है। महाराजा राय सिंह का विवाह मेवाड़ के [[राणा उदय सिंह|महाराजा उदय सिंह]] (1537-72 ई.) की पुत्री जसमादे के साथ हुआ तथा दूसरा विवाह सन् 1592 ई. में जैसलमेर में हुआ, अतः बीकानेर शैली का भागवत् पुराण (1590 ई. लगभग) जैसलमेर के कुंहरराज के लिए लिखित एवं चित्रित माधवानल कामकंदला (1603 ई.) तथा मेवाड़ शैली का विल्हण कृत चौर-पंचाशिका (1540 ई.) और नसीरुद्दीन द्वारा चित्रित चावंड की रागमाला (1605 ई.) के चित्रण में शैली-तकनीक और रंगों की दृष्टि से विशेष समता देखने को मिलती है।<br />[[चित्र:Bikaner painting-3.jpg|left|thumb|बीकानेर चित्र शैली]]
बीकानेर के राजा कल्याणमल ने अपनी पुत्री का [[विवाह]] अकबर से कर मुग़लों से संबंध स्थापित किया। इस दृष्टि से बीकानेर के राजाओं का मुग़ल दरबार में महत्वपूर्ण स्थान था। महाराजा राय सिंह ने सन् 1604 से 1611 ई. तक दक्षिण में बुरहानपुर का गर्वनर रहकर कलाकृतियों का संग्रह किया। रागमाला चित्रावली इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त उन्होंने [[आमेर]], [[जोधपुर]] एवं [[उदयपुर]] आदि अन्य राजस्थान के राज्यों से भागवत और रसिक-प्रिया के चित्रों का संकलन किया। ऐसा कहा जाता है कि महाराजा कर्ण सिंह (1631-69 ई.) ने अलीरजा नाम के मुग़ल चित्रकार को अपना प्रिय चित्रकार बनाया था।  
बीकानेर के राजा कल्याणमल ने अपनी पुत्री का [[विवाह]] अकबर से कर मुग़लों से संबंध स्थापित किया। इस दृष्टि से बीकानेर के राजाओं का मुग़ल दरबार में महत्वपूर्ण स्थान था। महाराजा राय सिंह ने सन् 1604 से 1611 ई. तक दक्षिण में बुरहानपुर का गर्वनर रहकर कलाकृतियों का संग्रह किया। रागमाला चित्रावली इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त उन्होंने [[आमेर]], [[जोधपुर]] एवं [[उदयपुर]] आदि अन्य राजस्थान के राज्यों से भागवत और रसिक-प्रिया के चित्रों का संकलन किया। ऐसा कहा जाता है कि महाराजा कर्ण सिंह (1631-69 ई.) ने अलीरजा नाम के मुग़ल चित्रकार को अपना प्रिय चित्रकार बनाया था।  
====बीकानेर चित्रशैली का प्रारंभ====
====बीकानेर चित्रशैली का प्रारंभ====
इस प्रकार बीकानेर शैली का प्रारंभ 16वीं शताब्दी उत्तरार्द्ध से माना जाता है। धीरे-धीरे यह शैली अनेक सम्पर्कों के कारण विकसित होती हुई अपनी मौलिक दाय की ओर अग्रसर हुई। बीकानेर शैली का दूसरा मोड़ महाराजा अनूपसिंह के समय (1669-98 ई.) से प्रारंभ होता है, पर बीकानेर शैली की बीच की कड़ी भी कम महत्वपूर्ण नहीं रही होगी। चित्रों की अनुपलब्धता के कारण इस समय के बारे में कुछ कह पाना कठिन है। सूरज सिंह का पुत्र अनूपसिंह के काल में जो चित्र तैयार हुए उनमें विशुद्ध बीकानेरी शैली का दर्शन होता है। महाराजा अनूपसिंह वीर होने के साथ-साथ विद्वान व संगीतज्ञ भी था। उसके दरबार में भाव भ जैसे संगीतज्ञ और कई विद्वान आश्रय पाते थे। इनके आश्रय में रहकर तत्कालीन चित्रकारों ने एक मौलिक किंतु स्थानीय परिमार्जित चित्रशैली को जन्म दिया। [[जहाँगीर]] और [[शाहजहाँ]] के समय में बीकानेर धराने का गहन संबंध रहा जिससे कला और कलाकारों का आदान-प्रदान स्वभाविक था। सन् 1606 ई. में [[नूर मुहम्मद]] के पुत्र शाह मुहम्मद का बनाया बीकानेर शैली का सर्वाधिक पुराना व्यक्ति चित्र है। संग्रहालयों एवं निजी संग्रह में बहुत से ऐसे चित्र हैं जिनके माध्यम से इस समय के चित्रों का अध्ययन संभव है। <br />
इस प्रकार बीकानेर शैली का प्रारंभ 16वीं शताब्दी उत्तरार्ध से माना जाता है। धीरे-धीरे यह शैली अनेक सम्पर्कों के कारण विकसित होती हुई अपनी मौलिक दाय की ओर अग्रसर हुई। बीकानेर शैली का दूसरा मोड़ महाराजा अनूपसिंह के समय (1669-98 ई.) से प्रारंभ होता है, पर बीकानेर शैली की बीच की कड़ी भी कम महत्वपूर्ण नहीं रही होगी। चित्रों की अनुपलब्धता के कारण इस समय के बारे में कुछ कह पाना कठिन है। सूरज सिंह का पुत्र अनूपसिंह के काल में जो चित्र तैयार हुए उनमें विशुद्ध बीकानेरी शैली का दर्शन होता है। महाराजा अनूपसिंह वीर होने के साथ-साथ विद्वान् व संगीतज्ञ भी था। उसके दरबार में भाव भ जैसे संगीतज्ञ और कई विद्वान् आश्रय पाते थे। इनके आश्रय में रहकर तत्कालीन चित्रकारों ने एक मौलिक किंतु स्थानीय परिमार्जित चित्रशैली को जन्म दिया। [[जहाँगीर]] और [[शाहजहाँ]] के समय में बीकानेर धराने का गहन संबंध रहा जिससे कला और कलाकारों का आदान-प्रदान स्वभाविक था। सन् 1606 ई. में [[नूर मुहम्मद]] के पुत्र शाह मुहम्मद का बनाया बीकानेर शैली का सर्वाधिक पुराना व्यक्ति चित्र है। संग्रहालयों एवं निजी संग्रह में बहुत से ऐसे चित्र हैं जिनके माध्यम से इस समय के चित्रों का अध्ययन संभव है। <br />
शाहजहाँ के समय में मुसव्बिरों की भरभार हो गई थी, अतः कलाकार आश्रय पाने के लिए अन्यत्र जाने लगे। औरंगज़ेब की अनुदार नीति के कारण मुग़ल दरबार से कला निष्कासित होकर राजस्थान की रियासतों में प्रश्रय पाने लगे। बीकानेर का प्रसिद्ध उस्ता परिवार, जो मुग़ल काल में लाहौर में केंद्रित था, वह औरंगज़ेब के समय में महाराजा कर्णसिंह और अनूप सिंह के दरबार में बीकानेर आ गया। बीकानेर शैली के चित्रों में कलाकार का नाम, उसके पिता का नाम और संवत् उपलब्ध होता है। उस्ता असीर खाँ कर्णसिंह के समय (1650) में दिल्ली से बीकानेर आया और उत्तम चित्र बनाने लगा। महाराजा अनूप सिंह का साहित्य व कला में रुचि होने के कारण उन्होंने हमेशा [[दिल्ली]] और [[लाहौर]] के कलाकारों का सम्मान किया। वे चित्रकार मुग़ल शैली में पारंगत थे, पर बीकानेर आकर उन्होंने अनूप सिंह की रुचि के अनुसार हिंदू-कथाओं, [[संस्कृत]], [[हिन्दी]], [[राजस्थानी भाषा|राजस्थानी]] काव्यों को आधार बनाकर सैकड़ों चित्र बनाए, जो राजपूती सभ्यता और संस्कृति से मिश्रित होकर बीकानेर शैली के उत्कृष्ट चित्र कहलाए। महाराजा अनूपसिंह के समय में यह विकास विशेष दर्शनीय है। उनके दरबारी मुसब्विर रुक्नुद्दीन का इस दृष्टि से योगदान महत्वपूर्ण है। उसने सैकड़ों चित्र बनाए। केशव की रसिकप्रिया तथा बारहमासा के चित्र इस दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। उसका पूरा परिवार बीकानेर की कला के लिए समर्पित हो गया। उसके बेटे साहबदीन ने [[भागवत पुराण]] के चित्र बनाये तथा उसके पोते कायम ने 18 वीं सदी के प्रारंभ में बीकानेर शैली का चित्रण किया।<br />
शाहजहाँ के समय में मुसव्बिरों की भरभार हो गई थी, अतः कलाकार आश्रय पाने के लिए अन्यत्र जाने लगे। औरंगज़ेब की अनुदार नीति के कारण मुग़ल दरबार से कला निष्कासित होकर राजस्थान की रियासतों में प्रश्रय पाने लगे। बीकानेर का प्रसिद्ध उस्ता परिवार, जो मुग़ल काल में लाहौर में केंद्रित था, वह औरंगज़ेब के समय में महाराजा कर्णसिंह और अनूप सिंह के दरबार में बीकानेर आ गया। बीकानेर शैली के चित्रों में कलाकार का नाम, उसके पिता का नाम और संवत् उपलब्ध होता है। उस्ता असीर खाँ कर्णसिंह के समय (1650) में दिल्ली से बीकानेर आया और उत्तम चित्र बनाने लगा। महाराजा अनूप सिंह का साहित्य व कला में रुचि होने के कारण उन्होंने हमेशा [[दिल्ली]] और [[लाहौर]] के कलाकारों का सम्मान किया। वे चित्रकार मुग़ल शैली में पारंगत थे, पर बीकानेर आकर उन्होंने अनूप सिंह की रुचि के अनुसार हिंदू-कथाओं, [[संस्कृत]], [[हिन्दी]], [[राजस्थानी भाषा|राजस्थानी]] काव्यों को आधार बनाकर सैकड़ों चित्र बनाए, जो राजपूती सभ्यता और संस्कृति से मिश्रित होकर बीकानेर शैली के उत्कृष्ट चित्र कहलाए। महाराजा अनूपसिंह के समय में यह विकास विशेष दर्शनीय है। उनके दरबारी मुसब्विर रुक्नुद्दीन का इस दृष्टि से योगदान महत्वपूर्ण है। उसने सैकड़ों चित्र बनाए। केशव की रसिकप्रिया तथा बारहमासा के चित्र इस दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। उसका पूरा परिवार बीकानेर की कला के लिए समर्पित हो गया। उसके बेटे साहबदीन ने [[भागवत पुराण]] के चित्र बनाये तथा उसके पोते कायम ने 18 वीं सदी के प्रारंभ में बीकानेर शैली का चित्रण किया।<br />
महाराजा अनूप सिंह के समय में भथेरण परिवार के मुन्नालाल, मुकून्द, चन्दूलाल आदि ने भी बीकानेर शैली के विकास में विशेष योगदान दिया। भथेरण परिवार तथा उस्ता परिवार के कलाकारों के कला-प्रेमी राजा अनूपसिंह के युग में बीकानेर शैली को चर्मोत्कर्ष पर पहुंचा दिया जिसके सचित्र-ग्रंथ तथा लघुचित्र राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली, बड़ौदा संग्रहालय तथा महाराजा बीकानेर कर्णसिंह के निजी संग्रह में आज भी उपलब्ध हैं। 18 वीं शताब्दी में बीकानेर शैली में तृतीय मोड़ आया। मुग़लों के पतन के कारण बीकानेर शैली मुग़ल शैली से मुक्त हो गई तथा आपसी विवाह संबंधों के कारण जयपुर, बूंदी, मेवाड़, पहाड़ी आदि शैलियों का प्रभाव बीकानेर शैली पर आया। मारवाड़ स्कूल के अंतगर्त होने के कारण किशनगढ़ शैली का प्रभाव इस समय के चित्रों में विशेष दर्शनीय है। इस समय ठंढ राजस्थानी शैली में चित्र बने जो कला की दृष्टि से उत्कृष्ट हैं। महाराजा गज सिंह, महाराजा प्रताप सिंह व सूरत सिंह के शासन काल (1746-1828 ई.) में गढ़ के कर्ण महल व चन्द्र महल को चित्रित कराया गया था।
महाराजा अनूप सिंह के समय में भथेरण परिवार के मुन्नालाल, मुकून्द, चन्दूलाल आदि ने भी बीकानेर शैली के विकास में विशेष योगदान दिया। भथेरण परिवार तथा उस्ता परिवार के कलाकारों के कला-प्रेमी राजा अनूपसिंह के युग में बीकानेर शैली को चर्मोत्कर्ष पर पहुंचा दिया जिसके सचित्र-ग्रंथ तथा लघुचित्र राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली, बड़ौदा संग्रहालय तथा महाराजा बीकानेर कर्णसिंह के निजी संग्रह में आज भी उपलब्ध हैं। 18 वीं शताब्दी में बीकानेर शैली में तृतीय मोड़ आया। मुग़लों के पतन के कारण बीकानेर शैली मुग़ल शैली से मुक्त हो गई तथा आपसी विवाह संबंधों के कारण जयपुर, बूंदी, मेवाड़, पहाड़ी आदि शैलियों का प्रभाव बीकानेर शैली पर आया। मारवाड़ स्कूल के अंतगर्त होने के कारण किशनगढ़ शैली का प्रभाव इस समय के चित्रों में विशेष दर्शनीय है। इस समय ठंढ राजस्थानी शैली में चित्र बने जो कला की दृष्टि से उत्कृष्ट हैं। महाराजा गज सिंह, महाराजा प्रताप सिंह व सूरत सिंह के शासन काल (1746-1828 ई.) में गढ़ के कर्ण महल व चन्द्र महल को चित्रित कराया गया था।
====भित्ति-चित्र शैली====
====भित्ति-चित्र शैली====
भित्ति-चित्रों की राजस्थानी परंपरा को भी बीकानेर शैली ने आगे बढ़ाया। बीकानेर किले के महल, लालगढ़ पैलेस, अनेक छतरियाँ आदि का भित्ति-चित्रण इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है। बीकानेर में काष्ठ-पट्टिकाओं पर उत्कृष्ट चित्रण हुआ। राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली की किंवाड़-जोड़ी पर [[राधा]]-[[कृष्ण]] की छवि का अंकन इसका उल्लेखनीय उदाहरण है। ऊँट की खाल पर चित्रण भी बीकानेर की निजी विशेषता रही है, जिस परंपरा को उस्ता परिवार आज भी निभा रहे हैं। भथेरण परिवार के चितारों ने अपनी परंपरा को कायम रखा। उन्होंने जैन-ग्रंथों की अनुकृति, धर्म-ग्रंथों का लेखन एवं तीज-त्यौहारों पर राजाओं के व्यक्ति चित्र बनाकर उन्हें भेट किए। मुन्नालाल, मुकुंद (1668 ई.), रामकिशन (1770 ई.) , जयकिशन मथेरण, चन्दूलाल (1678 ई.) आदि चित्रकारों के नाम व संवत् अंकित चित्र आज भी देखने को मिलते हैं। उस समय के कलाकारों में उस्ता परिवार के उस्ता कायम, कासिम, अबुहमीद, शाह मोहम्मद, अहमद अली, शाहबदीन, जीवन आदि प्रमुख हैं, जिन्होंने बीकानेर शैली में रसिकप्रिया, बारहमासा, रागरागिनी, कृष्ण-लीला, [[रामायण]], दरबार, आखेट, सामंती वैभव व श्रृंगारिक विषयों का सृजन किया। महाराजा सूरत सिंह के बाद महाराजा डूंगर सिंह के शासन काल में (1828-87 ई.) मुग़ल प्रभाव काफी कम हो गया तथा यूरोपियन प्रभाव की ओर यहाँ की चित्रकला का झुकाव हो गया।
[[चित्र:Bikaner painting-2.jpg|thumb|बीकानेर चित्र शैली]]
भित्ति-चित्रों की राजस्थानी परंपरा को भी बीकानेर शैली ने आगे बढ़ाया। बीकानेर किले के महल, लालगढ़ पैलेस, अनेक छतरियाँ आदि का भित्ति-चित्रण इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है। बीकानेर में काष्ठ-पट्टिकाओं पर उत्कृष्ट चित्रण हुआ। राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली की किंवाड़-जोड़ी पर [[राधा]]-[[कृष्ण]] की छवि का अंकन इसका उल्लेखनीय उदाहरण है। ऊँट की खाल पर चित्रण भी बीकानेर की निजी विशेषता रही है, जिस परंपरा को उस्ता परिवार आज भी निभा रहे हैं। भथेरण परिवार के चितारों ने अपनी परंपरा को कायम रखा। उन्होंने जैन-ग्रंथों की अनुकृति, धर्म-ग्रंथों का लेखन एवं तीज-त्यौहारों पर राजाओं के व्यक्ति चित्र बनाकर उन्हें भेट किए। मुन्नालाल, मुकुंद (1668 ई.), रामकिशन (1770 ई.) , जयकिशन मथेरण, चन्दूलाल (1678 ई.) आदि चित्रकारों के नाम व संवत् अंकित चित्र आज भी देखने को मिलते हैं। उस समय के कलाकारों में उस्ता परिवार के उस्ता कायम, कासिम, अबुहमीद, शाह मोहम्मद, अहमद अली, शाहबदीन, जीवन आदि प्रमुख हैं, जिन्होंने बीकानेर शैली में रसिकप्रिया, बारहमासा, रागरागिनी, कृष्ण-लीला, [[रामायण]], दरबार, आखेट, सामंती वैभव व श्रृंगारिक विषयों का सृजन किया। महाराजा सूरत सिंह के बाद महाराजा डूंगर सिंह के शासन काल में (1828-87 ई.) मुग़ल प्रभाव काफ़ी कम हो गया तथा यूरोपियन प्रभाव की ओर यहाँ की चित्रकला का झुकाव हो गया।
==चित्रों का विषय-वस्तु==
==चित्रों का विषय-वस्तु==
बीकानेर चित्र शैली का मुख्य विषय-वस्तु [[भागवत पुराण]], माधवानल कामकेदला, चौर-पंचासिका, चावंड़ की रागमाला, रसिक प्रिया, बारहमासा, रामायण, देवी माहात्म्य, दरबार, आखेट, श्रृंगारिक विषय एवं व्यक्ति चित्रण रहा है। इसके अतिरिक्त नारी-शिबिका, शाल भंजिका, नायिका श्रृंगार, पुरुषक्रीड़ा, फुलझड़ियां लिए हुए स्रियाँ दम्पति द्वारा चौपड़ का खोय आदि विषयों का प्रचुरता से अंकन हुआ है। कोमल और मनोमुडधकारी आकृतियों के साथ-साथ चित्रों में दृष्य चित्र भी सम्मिश्रण भी बड़े समीचीन ढंग से किया गया है। बीकानेर शैली में, ऊँट एवं घोड़े की प्रमुख्त है। इस शैली में आकाश को सुनहरे छल्लों से युक्त मेधाच्छादित दिखाया गया है। पेड़ों के समूहों की पंक्ति छोटे कद के पेड़ों के समूहों की पंक्ति चित्रित कर दूर पृष्ठभूमि का आभास कराते हैं।
बीकानेर चित्र शैली का मुख्य विषय-वस्तु [[भागवत पुराण]], माधवानल कामकेदला, चौर-पंचासिका, चावंड़ की रागमाला, रसिक प्रिया, बारहमासा, रामायण, देवी माहात्म्य, दरबार, आखेट, श्रृंगारिक विषय एवं व्यक्ति चित्रण रहा है। इसके अतिरिक्त नारी-शिबिका, शाल भंजिका, नायिका श्रृंगार, पुरुषक्रीड़ा, फुलझड़ियां लिए हुए स्रियाँ दम्पति द्वारा चौपड़ का खोय आदि विषयों का प्रचुरता से अंकन हुआ है। कोमल और मनोमुडधकारी आकृतियों के साथ-साथ चित्रों में दृष्य चित्र भी सम्मिश्रण भी बड़े समीचीन ढंग से किया गया है। बीकानेर शैली में, ऊँट एवं घोड़े की प्रमुख्त है। इस शैली में आकाश को सुनहरे छल्लों से युक्त मेधाच्छादित दिखाया गया है। पेड़ों के समूहों की पंक्ति छोटे कद के पेड़ों के समूहों की पंक्ति चित्रित कर दूर पृष्ठभूमि का आभास कराते हैं।

14:32, 6 जुलाई 2017 के समय का अवतरण

बीकानेर चित्र शैली

राजस्थानी चित्रकला की एक प्रभावी शैली का जन्म बीकानेर से हुआ जो राजस्थान का दूसरा बड़ा राज्य था। बीकानेर राजस्थान के उत्तर-पश्चिम में स्थित है। सुदूर मरुप्रदेश में राठौरवंशी राव जोधा के छठे पुत्र बीका द्वारा सन् 1488 में बीकानेर की स्थापना की गई। बीकानेर 27 12' और 30 12' उत्तरी अक्षांश तथा 72 12' व 75 41' पूर्वी देशांतर पर स्थित है। बीकानेर राज्य के उत्तर में वहाबलपुर (पाकिस्तान), दक्षिण-पश्चिम में जैसलमेर, दक्षिण में जोधपुर, दक्षिण-पूर्व में लोहारु व हिसार ज़िला एवं उत्तर पूर्व में फिरोजपुर ज़िले से घिरी हुई थी। गजनेर व कोलायत यहाँ की प्रसिद्ध झीलें हैं। मारवाड़ का ही एक अंग होने के कारण तथा जोधपुर के वंशज होने के कारण बीकानेर की कलात्मक धरोहर मारवाड़ स्कूल की ही परम्परा में एक महत्वपूर्ण कड़ी गिनी जाती है। बीकानेर राज्य अनेक बाह्य प्रभावों के उपरांत भी कलात्मक दाय की दृष्टि से अपना मौलिक स्थान रखता है। अन्य राजस्थानी शैलियों की भांति बीकानेर की चित्रकला का भी 16वीं शताब्दी के अंत में प्रादुर्भाव माना जाता है। बीकानेर राज्य का मुग़ल दरबार से गहन सम्बन्ध होने के कारण मुग़ल शैली की सभी विशेषताऐं बीकानेर की प्रारंभिक चित्रकला में द्रष्टव्य है। बीकानेर के राजा अधिकतर दक्षिणी मोर्चो पर मुग़लों के गर्वनर रहे, अतः दक्षिण शैली का प्रभाव बीकानेर पर सर्वाधिक है। बीकानेरी शैली में इकहरी तन्वंगी मृगनैनी कोमल ललनाओं का अंकन, नीले-हरे और लाल रंगों का प्रयोग शाहजहाँ और औरंगज़ेब शैली की पगड़ियों का साथ ही ऊँची मारवाड़ी पगड़ियां, ऊँट, हिरन तथा बीकानेरी रहन-सहन और राजपूती संस्कृति की छाप इस शैली का अलग शैली मानने को प्रेरित करती है।

बीकानेर की चित्रकला का क्रमिक विकास

बीकानेर शैली के प्रारंभिक चित्र महाराजा राय सिंह के समय (1571-91) चित्रित भागवत पुराण के माने जाते हैं। राजा रायसिंह अकबर का बहादुर सेनापति था तथा उसने मुग़लों की ओर से कई लड़ाइयाँ लड़ी थी। मुग़ल दरबार में उसका सम्मान था तथा उसने अपनी पुत्री की शादी शहजादा सलीम से कर मुग़ल दरबार से संबंध सुदृढ़ किए। राय सिंह कला प्रिय होने के साथ-साथ साहित्यक अभिरुचि से संपन्न व्यक्ति था। उन्होनें स्वयं "रायसिंह महोत्सव' तथा "ज्योतिष रत्नाकर' जैसे ग्रंथों की स्थापना की थी। बीकानेर के प्रारंभिक चित्रों में जैन स्कूल का प्रभाव दर्शनीय है। राजस्थान एक वृहद् प्रदेश है। आपसी संबंधों तथा मुग़लों के प्रभाव के कारण यहाँ की चित्रकला में पारस्परिक प्रभाव विशेष दर्शनीय है। महाराजा राय सिंह का विवाह मेवाड़ के महाराजा उदय सिंह (1537-72 ई.) की पुत्री जसमादे के साथ हुआ तथा दूसरा विवाह सन् 1592 ई. में जैसलमेर में हुआ, अतः बीकानेर शैली का भागवत् पुराण (1590 ई. लगभग) जैसलमेर के कुंहरराज के लिए लिखित एवं चित्रित माधवानल कामकंदला (1603 ई.) तथा मेवाड़ शैली का विल्हण कृत चौर-पंचाशिका (1540 ई.) और नसीरुद्दीन द्वारा चित्रित चावंड की रागमाला (1605 ई.) के चित्रण में शैली-तकनीक और रंगों की दृष्टि से विशेष समता देखने को मिलती है।

बीकानेर चित्र शैली

बीकानेर के राजा कल्याणमल ने अपनी पुत्री का विवाह अकबर से कर मुग़लों से संबंध स्थापित किया। इस दृष्टि से बीकानेर के राजाओं का मुग़ल दरबार में महत्वपूर्ण स्थान था। महाराजा राय सिंह ने सन् 1604 से 1611 ई. तक दक्षिण में बुरहानपुर का गर्वनर रहकर कलाकृतियों का संग्रह किया। रागमाला चित्रावली इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त उन्होंने आमेर, जोधपुर एवं उदयपुर आदि अन्य राजस्थान के राज्यों से भागवत और रसिक-प्रिया के चित्रों का संकलन किया। ऐसा कहा जाता है कि महाराजा कर्ण सिंह (1631-69 ई.) ने अलीरजा नाम के मुग़ल चित्रकार को अपना प्रिय चित्रकार बनाया था।

बीकानेर चित्रशैली का प्रारंभ

इस प्रकार बीकानेर शैली का प्रारंभ 16वीं शताब्दी उत्तरार्ध से माना जाता है। धीरे-धीरे यह शैली अनेक सम्पर्कों के कारण विकसित होती हुई अपनी मौलिक दाय की ओर अग्रसर हुई। बीकानेर शैली का दूसरा मोड़ महाराजा अनूपसिंह के समय (1669-98 ई.) से प्रारंभ होता है, पर बीकानेर शैली की बीच की कड़ी भी कम महत्वपूर्ण नहीं रही होगी। चित्रों की अनुपलब्धता के कारण इस समय के बारे में कुछ कह पाना कठिन है। सूरज सिंह का पुत्र अनूपसिंह के काल में जो चित्र तैयार हुए उनमें विशुद्ध बीकानेरी शैली का दर्शन होता है। महाराजा अनूपसिंह वीर होने के साथ-साथ विद्वान् व संगीतज्ञ भी था। उसके दरबार में भाव भ जैसे संगीतज्ञ और कई विद्वान् आश्रय पाते थे। इनके आश्रय में रहकर तत्कालीन चित्रकारों ने एक मौलिक किंतु स्थानीय परिमार्जित चित्रशैली को जन्म दिया। जहाँगीर और शाहजहाँ के समय में बीकानेर धराने का गहन संबंध रहा जिससे कला और कलाकारों का आदान-प्रदान स्वभाविक था। सन् 1606 ई. में नूर मुहम्मद के पुत्र शाह मुहम्मद का बनाया बीकानेर शैली का सर्वाधिक पुराना व्यक्ति चित्र है। संग्रहालयों एवं निजी संग्रह में बहुत से ऐसे चित्र हैं जिनके माध्यम से इस समय के चित्रों का अध्ययन संभव है।
शाहजहाँ के समय में मुसव्बिरों की भरभार हो गई थी, अतः कलाकार आश्रय पाने के लिए अन्यत्र जाने लगे। औरंगज़ेब की अनुदार नीति के कारण मुग़ल दरबार से कला निष्कासित होकर राजस्थान की रियासतों में प्रश्रय पाने लगे। बीकानेर का प्रसिद्ध उस्ता परिवार, जो मुग़ल काल में लाहौर में केंद्रित था, वह औरंगज़ेब के समय में महाराजा कर्णसिंह और अनूप सिंह के दरबार में बीकानेर आ गया। बीकानेर शैली के चित्रों में कलाकार का नाम, उसके पिता का नाम और संवत् उपलब्ध होता है। उस्ता असीर खाँ कर्णसिंह के समय (1650) में दिल्ली से बीकानेर आया और उत्तम चित्र बनाने लगा। महाराजा अनूप सिंह का साहित्य व कला में रुचि होने के कारण उन्होंने हमेशा दिल्ली और लाहौर के कलाकारों का सम्मान किया। वे चित्रकार मुग़ल शैली में पारंगत थे, पर बीकानेर आकर उन्होंने अनूप सिंह की रुचि के अनुसार हिंदू-कथाओं, संस्कृत, हिन्दी, राजस्थानी काव्यों को आधार बनाकर सैकड़ों चित्र बनाए, जो राजपूती सभ्यता और संस्कृति से मिश्रित होकर बीकानेर शैली के उत्कृष्ट चित्र कहलाए। महाराजा अनूपसिंह के समय में यह विकास विशेष दर्शनीय है। उनके दरबारी मुसब्विर रुक्नुद्दीन का इस दृष्टि से योगदान महत्वपूर्ण है। उसने सैकड़ों चित्र बनाए। केशव की रसिकप्रिया तथा बारहमासा के चित्र इस दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। उसका पूरा परिवार बीकानेर की कला के लिए समर्पित हो गया। उसके बेटे साहबदीन ने भागवत पुराण के चित्र बनाये तथा उसके पोते कायम ने 18 वीं सदी के प्रारंभ में बीकानेर शैली का चित्रण किया।
महाराजा अनूप सिंह के समय में भथेरण परिवार के मुन्नालाल, मुकून्द, चन्दूलाल आदि ने भी बीकानेर शैली के विकास में विशेष योगदान दिया। भथेरण परिवार तथा उस्ता परिवार के कलाकारों के कला-प्रेमी राजा अनूपसिंह के युग में बीकानेर शैली को चर्मोत्कर्ष पर पहुंचा दिया जिसके सचित्र-ग्रंथ तथा लघुचित्र राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली, बड़ौदा संग्रहालय तथा महाराजा बीकानेर कर्णसिंह के निजी संग्रह में आज भी उपलब्ध हैं। 18 वीं शताब्दी में बीकानेर शैली में तृतीय मोड़ आया। मुग़लों के पतन के कारण बीकानेर शैली मुग़ल शैली से मुक्त हो गई तथा आपसी विवाह संबंधों के कारण जयपुर, बूंदी, मेवाड़, पहाड़ी आदि शैलियों का प्रभाव बीकानेर शैली पर आया। मारवाड़ स्कूल के अंतगर्त होने के कारण किशनगढ़ शैली का प्रभाव इस समय के चित्रों में विशेष दर्शनीय है। इस समय ठंढ राजस्थानी शैली में चित्र बने जो कला की दृष्टि से उत्कृष्ट हैं। महाराजा गज सिंह, महाराजा प्रताप सिंह व सूरत सिंह के शासन काल (1746-1828 ई.) में गढ़ के कर्ण महल व चन्द्र महल को चित्रित कराया गया था।

भित्ति-चित्र शैली

बीकानेर चित्र शैली

भित्ति-चित्रों की राजस्थानी परंपरा को भी बीकानेर शैली ने आगे बढ़ाया। बीकानेर किले के महल, लालगढ़ पैलेस, अनेक छतरियाँ आदि का भित्ति-चित्रण इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है। बीकानेर में काष्ठ-पट्टिकाओं पर उत्कृष्ट चित्रण हुआ। राष्ट्रीय संग्रहालय, नई दिल्ली की किंवाड़-जोड़ी पर राधा-कृष्ण की छवि का अंकन इसका उल्लेखनीय उदाहरण है। ऊँट की खाल पर चित्रण भी बीकानेर की निजी विशेषता रही है, जिस परंपरा को उस्ता परिवार आज भी निभा रहे हैं। भथेरण परिवार के चितारों ने अपनी परंपरा को कायम रखा। उन्होंने जैन-ग्रंथों की अनुकृति, धर्म-ग्रंथों का लेखन एवं तीज-त्यौहारों पर राजाओं के व्यक्ति चित्र बनाकर उन्हें भेट किए। मुन्नालाल, मुकुंद (1668 ई.), रामकिशन (1770 ई.) , जयकिशन मथेरण, चन्दूलाल (1678 ई.) आदि चित्रकारों के नाम व संवत् अंकित चित्र आज भी देखने को मिलते हैं। उस समय के कलाकारों में उस्ता परिवार के उस्ता कायम, कासिम, अबुहमीद, शाह मोहम्मद, अहमद अली, शाहबदीन, जीवन आदि प्रमुख हैं, जिन्होंने बीकानेर शैली में रसिकप्रिया, बारहमासा, रागरागिनी, कृष्ण-लीला, रामायण, दरबार, आखेट, सामंती वैभव व श्रृंगारिक विषयों का सृजन किया। महाराजा सूरत सिंह के बाद महाराजा डूंगर सिंह के शासन काल में (1828-87 ई.) मुग़ल प्रभाव काफ़ी कम हो गया तथा यूरोपियन प्रभाव की ओर यहाँ की चित्रकला का झुकाव हो गया।

चित्रों का विषय-वस्तु

बीकानेर चित्र शैली का मुख्य विषय-वस्तु भागवत पुराण, माधवानल कामकेदला, चौर-पंचासिका, चावंड़ की रागमाला, रसिक प्रिया, बारहमासा, रामायण, देवी माहात्म्य, दरबार, आखेट, श्रृंगारिक विषय एवं व्यक्ति चित्रण रहा है। इसके अतिरिक्त नारी-शिबिका, शाल भंजिका, नायिका श्रृंगार, पुरुषक्रीड़ा, फुलझड़ियां लिए हुए स्रियाँ दम्पति द्वारा चौपड़ का खोय आदि विषयों का प्रचुरता से अंकन हुआ है। कोमल और मनोमुडधकारी आकृतियों के साथ-साथ चित्रों में दृष्य चित्र भी सम्मिश्रण भी बड़े समीचीन ढंग से किया गया है। बीकानेर शैली में, ऊँट एवं घोड़े की प्रमुख्त है। इस शैली में आकाश को सुनहरे छल्लों से युक्त मेधाच्छादित दिखाया गया है। पेड़ों के समूहों की पंक्ति छोटे कद के पेड़ों के समूहों की पंक्ति चित्रित कर दूर पृष्ठभूमि का आभास कराते हैं।

बीकानेर चित्रशैली की विशेषताएँ

बीकानेर राज्य का संपर्क मुग़ल दरबार से होने के कारण मुग़ल शैली का प्रभाव इसके आरंभिक काल के चित्रों में देखने को मिलता है। कई समीक्षे तो इसे प्रांतीय मुग़ल शैली का उप-रूप ही मानते हैं, किंतु इकहरी तन्वंगी मृगनैनी कोमल ललनाओं का अंकन, नीले-हरे और लाल रंगों का प्रयोग, शाहजहाँ और औरंगज़ेब की पगड़ियों के साथ ही ऊँची मारवाड़ी पगड़ियां, ऊँट, हिरन तथा बीकानेरी रहन-सहन और राजपूती संस्कृति की छाप हमें अलग शैली मानने को प्रेरित करती है। रघुबीर सिंह का कथन है कि "महान मुग़लों के शासनकाल में जिस नूतन सम्मिश्रित भारतीय संस्कृति का उदय हुआ था, अब इन राज-दरबारों में उसी का पुनः समन्वय और विकास होने लगा। महाराजा अनूप सिंह के समय यह विकास विशेष दर्शनीय है। बीकानेर चित्रशैली की निम्न विशेषताएँ हैं -

  • बीकानेर शैली की मानवकृतियाँ जोधपुर की ही परंपरा पर लंबे कद की है, जिनके सिर पर खिड़कियाँ, पगड़ी, तुर्रे लगे निर्मित है। चेहरा भूरा, मूछों से ढका हुआ, भारी मांसल शरीर, विशाल वक्ष पर मोतियों की कंठी, नीचे जामा, कमर में कटार दुपट्टे में रखी बनाई गई है।
  • नारी आकृतियाँ भी जोधपुर परंपरा पर लम्बी छरहरी नायिकाएँ, खंजन पक्षी से तीखे नेत्र, तंग कंचुकी, धरेदार घाघरे, कसा हुआ शरीर एवं अलंकारिक आभूषणों से सुसज्जित हैं। बीकानेर के राजा अधिकतर दक्षिणी मोर्चों पर मुग़लों के गर्वनर रहे, अतः दक्षिण शैली का प्रभाव बीकानेर शैली पर अधिक है। लंबी इकहरी नायिकाएँ, सरो, नारियल के वृक्षों का दक्कनी अंकन, उछलते फब्बारों, हरे रंग का प्रयोग विशेष दर्शनीय है।
  • बीकानेर शैली में रेखाओं की गत्यात्मकता, कोमलांकन एवं बारीक रेखांकन दर्शनीय है। रेखाओं का संयोजन प्रभावशाली है।
  • चटक रंगों के स्थान पर यहाँ कोमल रंगों का प्रयोग हुआ है। लाल, बैगनी, जामुनी, सलेटी, बादामी रंगों का अधिकाधिक प्रयोग इस शैली की प्रमुख विशेषताएँ हैं।
  • बीकानेर शैली के चित्रों में स्री एवं पुरुषों के पहनावे में मुग़ल एवं राजपूती सम्मिश्रण देखने को मिलता है। मोतियों के आभूषण बीकानेर चित्र शैली में अत्यधिक अंकित किए गए हैं।
  • इस शैली के चित्रों में लघु चित्र एवं भित्ति चित्र दोनों का समान अंकन हुआ है।
  • बीकानेर शैली के चित्रों का मुख्य विषय-वस्तु, महाभारत, रामायण, कृष्णलीला एवं नायक-नायिका भेद है। इसके अतिरिक्त यहाँ रसिकप्रिया, रागमाला, व्यक्ति चित्रण, शिकार का दृश्य, शाल-भंजिका, भागवत पुराण एवं राजस्थानी लोक कथाओं का अंकन यहाँ के चित्रों का मुख्य विषय-वस्तु था।
  • बीकानेर चित्र शैली के प्रमुख चित्रकारों में मुन्नालाल, मुकुन्द (1699 ई.), रामकिशन (1770 ई.), जयकिशन मथेरण, चन्दूलाल (1678 ई.) का नाम उल्लेखनीय है। बीकानेर शैली के चित्रण में उस्ता परिवार के चित्रकारों उस्ता कायम, कासिम, अबुहमीद, शाह मुहम्मद, अहमद अली एवं शाहबदीन आदि प्रमुख चित्रकार थे। इन्होंने रसिकप्रिया, बारहमासा, राग-रागिनी, कृष्णलील, शिकार, महफिल तथा सामंती वैभव का चित्रण किया।
  • यहाँ भवनों के गुम्बदों को विशेष रुप से चित्रित किया गया है।
  • प्रकृति चित्रण में विशेष छल्लेदार बादलों, वर्षा ॠतु में बिजली का अंकन एवं सारस मुग़ल को सुन्दरता से चित्रित किया गया है। आकाश में नीली, सुनहरी एवं लाल आदि आभायुक्त वर्णिका का प्रयोग हुआ है।
  • व्यक्ति चित्रों में टीलों का प्रतीकात्मक अंकन है। चित्रों की पृष्ठभूमि का अंकन कोमल एवं वातावरण के अनुसार परिप्रेक्ष्य का चित्रांकन किया गया है। शाल भंजिका चित्रों में वृक्षों एवं मानव आकृतियों में अधिक लोच व आकर्षण है।
  • किशनगढ़ शैली के समान लंबी तन्वंगी नायिकाऐं, खंजन पक्षी के तीखे नेत्र, तंग कंचुकी, घेरेदार घाघरे तथा भेड़, बकरी, ऊँट, कुत्ते, कुँज, सारस ओर मरुस्थल का चित्रण 18 वीं शताब्दी की बीकानेर शैली में अधिक मिलता है। इसके बाद की शैली में झालरदार बादलों का अंकन, चंद्रमहल, लालनिवास, सरदार महल आदि के भित्ति-चित्रों में विशेष दर्शनीय है। बालू के टीलों का अंकन चीनी और ईरानी कला से प्रभावित मेघ-मंडल, पहाड़ों और फूल-पत्तियों का आलेखन उल्लेखनीय है।
  • बीकानेर शैली में सर्वाधिक चित्र चित्रकारों के नाम संवत् के साथ बनाए गए हैं।

उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि बीकानेर चित्र शैली के आरंभिक चित्रों में जोधपुर का प्रभाव दर्शनीय है, लेकिन कालांतर मे मुग़ल कला के समन्वय से राजस्थानी एवं मुग़ल चित्रकारों ने हिंदू-कथाओं एवं राजस्थानी काव्यों को आधार बनाकर कला का जो स्वरूप प्रस्तुत किया है वह उल्लेखनीय है। यहाँ के चित्रकार मुसलमान थे, जिन्होंने हिंदू विषयों पर चित्रण करके उदार दृष्टिकोण का परिचय दिया। बीकानेर चित्र शैली बारीक रेखांकन, कोमल एवं गत्यात्मक रेखाओं, चटक एवं कोमल रंगों के समन्वय से राजस्थानी चित्रकला में अपना विशिष्ट स्थान एवं महत्व रखती है।[1]


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कुमार, अमितेश। बीकानेर चित्र शैली (हिन्दी) www.ignca.nic.in। अभिगमन तिथि: 5 मार्च, 2015।

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख