"बौधायन श्रौतसूत्र": अवतरणों में अंतर
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उपर्युक्त पद्वों में वैजयन्तीकार महादेव ने तैत्तिरीय शाखा के बौधायन, भारद्वाज, आपस्तम्ब, हिरण्यकेशी, वैखानस, वाधूल – इन सूत्रकारों का क्रम से निर्देश करके उन्हें प्रणाम किया है। इनमें बौधायन का नाम प्रथम है।<ref>सायण से पूर्वकालीन भाष्यकार भट्टभास्कर ने भी तैत्तिरीय संहिता–भाष्य में सर्वप्रथम बोधायन को ही प्रणाम किया है – ‘प्रणम्य शिरसाऽऽचार्यान् बोधायनपुर: सरान् व्याख्यैषाध्वर्युवेदस्य यथाबुद्धि विधीयते।’</ref> और अन्य नाम; वाधूल को छोड़कर, ऐतिहासिक क्रम से भी युक्त हैं। पहला नाम बोधायन और बौधायन – इन दो प्रकारों से ही लिखा गया है। व्याकरण की दृष्टि से 'बुध' शब्द से गोत्रापत्यदर्शक बौधायन शब्द सिद्ध होता है तब आदिवृद्धि होती है, किन्तु प्राचीन काल से बोधायन शब्द ही सर्वत्र रूढ़ है। | उपर्युक्त पद्वों में वैजयन्तीकार महादेव ने तैत्तिरीय शाखा के बौधायन, भारद्वाज, आपस्तम्ब, हिरण्यकेशी, वैखानस, वाधूल – इन सूत्रकारों का क्रम से निर्देश करके उन्हें प्रणाम किया है। इनमें बौधायन का नाम प्रथम है।<ref>सायण से पूर्वकालीन भाष्यकार भट्टभास्कर ने भी तैत्तिरीय संहिता–भाष्य में सर्वप्रथम बोधायन को ही प्रणाम किया है – ‘प्रणम्य शिरसाऽऽचार्यान् बोधायनपुर: सरान् व्याख्यैषाध्वर्युवेदस्य यथाबुद्धि विधीयते।’</ref> और अन्य नाम; वाधूल को छोड़कर, ऐतिहासिक क्रम से भी युक्त हैं। पहला नाम बोधायन और बौधायन – इन दो प्रकारों से ही लिखा गया है। व्याकरण की दृष्टि से 'बुध' शब्द से गोत्रापत्यदर्शक बौधायन शब्द सिद्ध होता है तब आदिवृद्धि होती है, किन्तु प्राचीन काल से बोधायन शब्द ही सर्वत्र रूढ़ है। | ||
इन आचार्यों में भारद्वाज से वाधूल तक सूत्रकार कहलाते हैं, जबकि बोधायन को प्रवचनकार की संज्ञा दी गई है।<ref>बौधायन गृह्यसूत्र में उत्सर्जन विधि के अवसर पर [[देवता|देवताओं]], ऋषियों और आचार्यों के लिए आसनों की कल्पना के समय बोधायन को प्रवचनकार कहा गया है – 'काण्वाय बोधायनाय प्रवचनकाराय।'</ref> आचार्य शिष्यों को संबोधित करके प्रवचन करता है, जबकि सूत्रकार सूत्र–प्रणयन करता है। सूत्रकार के सम्मुख शिष्य उपस्थित नहीं होते। वास्तव में ही बौधायन श्रौतसूत्र प्रवचन ही है। उसमें विस्तार है, जबकि सूत्रों की रचना संक्षिप्त होती है। विषय के पुनरुक्त होने पर भी बोधायन संक्षेप नहीं करते। बीच–बीच में विधि की पुष्टि के लिए ब्राह्मण वाक्यों को उद्धृत करते हैं। ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि सामने बैठे हुए शिष्यों को समझाने के लिए आचार्य हर प्रकार से प्रयास कर रहे हों। आवश्यकता होने पर अभिनय के द्वारा भी वह किसी बात को स्पष्ट करते हैं। अग्न्याधान के अवसर पर आहवनीय अग्नि की स्थापना के लिए गार्हपत्य अग्नि से प्रज्वलित काष्ठ को वह हाथ में पकड़ लेते हैं और उस काष्ठ को क्रम से ऊपर लेते हैं। प्रवचनकार का प्रश्न है– 'इत्यग्नेय हरति अर्थवति अर्थयति।' इस प्रकार अपना दाहिना हाथ ऊँचा करके वह अध्वर्यु द्वारा की जाने वाली विधि बतलाते हैं। | इन आचार्यों में भारद्वाज से वाधूल तक सूत्रकार कहलाते हैं, जबकि बोधायन को प्रवचनकार की संज्ञा दी गई है।<ref>बौधायन गृह्यसूत्र में उत्सर्जन विधि के अवसर पर [[देवता|देवताओं]], ऋषियों और आचार्यों के लिए आसनों की कल्पना के समय बोधायन को प्रवचनकार कहा गया है – 'काण्वाय बोधायनाय प्रवचनकाराय।'</ref> आचार्य शिष्यों को संबोधित करके [[प्रवचन]] करता है, जबकि सूत्रकार सूत्र–प्रणयन करता है। सूत्रकार के सम्मुख शिष्य उपस्थित नहीं होते। वास्तव में ही बौधायन श्रौतसूत्र प्रवचन ही है। उसमें विस्तार है, जबकि सूत्रों की रचना संक्षिप्त होती है। विषय के पुनरुक्त होने पर भी बोधायन संक्षेप नहीं करते। बीच–बीच में विधि की पुष्टि के लिए ब्राह्मण वाक्यों को उद्धृत करते हैं। ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि सामने बैठे हुए शिष्यों को समझाने के लिए आचार्य हर प्रकार से प्रयास कर रहे हों। आवश्यकता होने पर अभिनय के द्वारा भी वह किसी बात को स्पष्ट करते हैं। अग्न्याधान के अवसर पर आहवनीय अग्नि की स्थापना के लिए गार्हपत्य अग्नि से प्रज्वलित काष्ठ को वह हाथ में पकड़ लेते हैं और उस काष्ठ को क्रम से ऊपर लेते हैं। प्रवचनकार का प्रश्न है– 'इत्यग्नेय हरति अर्थवति अर्थयति।' इस प्रकार अपना दाहिना हाथ ऊँचा करके वह अध्वर्यु द्वारा की जाने वाली विधि बतलाते हैं। | ||
==तैत्तिरीय शाखा की संहिता== | ==तैत्तिरीय शाखा की संहिता== | ||
यद्यपि बोधायन के समय में तैत्तिरीय शाखा की संहिता, [[ब्राह्मण ग्रन्थ|ब्राह्मण]] और आरण्यक का पाठ सुनिश्चित था, तो भी सूत्र में बहुसंख्यक मन्त्र सकल पाठ के रूप में उद्धृत हैं। इस शाखा के अन्य सूत्रों में मन्त्र प्रतीक रूप में प्रदर्शित हैं। बौधायन के समय तैत्तिरीय शाखा का पाठ सुप्रतिष्ठित था, इसके अनेक प्रमाण सूत्र में मिलते हैं। जब पूर्वापर मन्त्रों का विनियोग अपेक्षित है, तब पहले प्रतीक उद्धृत करके 'इत्यनुहृत्य' कहकर दूसरे मन्त्र का प्रतीक पाठ दिया जाता है। अग्नि–चयन–प्रकरण में जब अग्निचिति की रचना पूरी होती है, तब चिति के उत्तर पक्ष में अन्तिम इष्टका पर तैत्तिरीय संहितागत | यद्यपि बोधायन के समय में तैत्तिरीय शाखा की संहिता, [[ब्राह्मण ग्रन्थ|ब्राह्मण]] और आरण्यक का पाठ सुनिश्चित था, तो भी सूत्र में बहुसंख्यक मन्त्र सकल पाठ के रूप में उद्धृत हैं। इस शाखा के अन्य सूत्रों में मन्त्र प्रतीक रूप में प्रदर्शित हैं। बौधायन के समय तैत्तिरीय शाखा का पाठ सुप्रतिष्ठित था, इसके अनेक प्रमाण सूत्र में मिलते हैं। जब पूर्वापर मन्त्रों का विनियोग अपेक्षित है, तब पहले प्रतीक उद्धृत करके 'इत्यनुहृत्य' कहकर दूसरे मन्त्र का प्रतीक पाठ दिया जाता है। अग्नि–चयन–प्रकरण में जब अग्निचिति की रचना पूरी होती है, तब चिति के उत्तर पक्ष में अन्तिम इष्टका पर तैत्तिरीय संहितागत रुद्राध्याय<ref>तैत्तिरीय संहिता, 4.5</ref> के मन्त्रोच्चारण के साथ अजाक्षीर कर अभिषेक किया जाता है। आगे चलकर अन्य मन्त्रों<ref>तैत्तिरीय संहिता, 4.7</ref> से वसोर्धारा की सन्तत आहुति दी जाती है। यहाँ केवल संहिता के अन्तर्गत अनुवाकों का निर्देश किया जाता है। | ||
==तीस प्रश्न== | ==तीस प्रश्न== | ||
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==यजुर्वेद== | ==यजुर्वेद== | ||
[[यजुर्वेद]] अध्वर्यु–वेद है। [[यज्ञ]] में अध्वर्यु और उसके सहायकों के कार्य का विवरण यजुर्वेद और उससे सम्बद्ध ग्रन्थों में मिलता है। यद्यपि यज्ञ, विशेष रूप से सोमयाग में चार प्रधान ऋत्विज् होते हैं, तो भी उनमें अध्वर्यु का कार्य अधिक | [[यजुर्वेद]] अध्वर्यु–वेद है। [[यज्ञ]] में अध्वर्यु और उसके सहायकों के कार्य का विवरण यजुर्वेद और उससे सम्बद्ध ग्रन्थों में मिलता है। यद्यपि यज्ञ, विशेष रूप से सोमयाग में चार प्रधान ऋत्विज् होते हैं, तो भी उनमें अध्वर्यु का कार्य अधिक महत्त्वपूर्ण होता है। सायणाचार्य ने तैत्तिरीय संहिता–भाष्य के उपोद्घात में लिखा है कि तीन वेदों में से यजुर्वेद भित्तिस्थानीय है। यदि भित्ति न हो तो चित्र कहाँ अंकित किया जाए? यजुर्वेदीय साहित्य में अध्वर्यु के साथ ही यजमान और ब्रह्मा नामक [[ऋत्विक]] का कार्य भी निरूपित है। | ||
==सूत्र–रचना== | ==सूत्र–रचना== | ||
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दूसरे प्रश्न में अग्न्याधेय का विवरण है। [[ब्राह्मण]], क्षत्रिय और वैश्य इन तीनों वर्णों को श्रौताग्नियों की स्थापना करने का मूलत: अधिकार है। विशेष योग्यता वाले निषाद स्थपति को भी यज्ञ करने का अधिकार है। यजमान अपने घर के एक पक्ष में अग्निशाला की योजना करता है तथा शुल्ब सूत्रोक्त नियमों के अनुसार अग्न्यायतन और वेदि बनाई जाती है। अग्नि–स्थापना के लिए विशेष मास और [[नक्षत्र]] विहित हैं। इसमें गृहस्थ ही अधिकृत हैं। यजुर्वेद के सभी श्रौतसूत्रों में अग्न्याधेय की विधि वर्णित है, किन्तु बौधायनोक्त विधि में कुछ विशेषताएँ हैं। यजमान जब सोमयाग करता है, तब उसे अपने निवास से दूर नदी या जलाशय के पास विस्तृत देवयजन भूमि की यज्ञ के लिए आवश्यकता होती है। सोमयाग के लिए सोलह ऋत्विजों का चयन किया जाता है। बौधायन सूत्र में अग्न्याधेय के अवसर पर ही देवयजनयाचन और ऋत्विग्वरण करने की विधि है। उसमें कुछ विधियाँ ऐसी भी हैं जो बौधायन सूत्र के साथ ही | दूसरे प्रश्न में अग्न्याधेय का विवरण है। [[ब्राह्मण]], क्षत्रिय और वैश्य इन तीनों वर्णों को श्रौताग्नियों की स्थापना करने का मूलत: अधिकार है। विशेष योग्यता वाले निषाद स्थपति को भी यज्ञ करने का अधिकार है। यजमान अपने घर के एक पक्ष में अग्निशाला की योजना करता है तथा शुल्ब सूत्रोक्त नियमों के अनुसार अग्न्यायतन और वेदि बनाई जाती है। अग्नि–स्थापना के लिए विशेष मास और [[नक्षत्र]] विहित हैं। इसमें गृहस्थ ही अधिकृत हैं। यजुर्वेद के सभी श्रौतसूत्रों में अग्न्याधेय की विधि वर्णित है, किन्तु बौधायनोक्त विधि में कुछ विशेषताएँ हैं। यजमान जब सोमयाग करता है, तब उसे अपने निवास से दूर नदी या जलाशय के पास विस्तृत देवयजन भूमि की यज्ञ के लिए आवश्यकता होती है। सोमयाग के लिए सोलह ऋत्विजों का चयन किया जाता है। बौधायन सूत्र में अग्न्याधेय के अवसर पर ही देवयजनयाचन और ऋत्विग्वरण करने की विधि है। उसमें कुछ विधियाँ ऐसी भी हैं जो बौधायन सूत्र के साथ ही | ||
अग्न्याधेय विधि की प्राचीनता भी बतलाती हैं। अग्न्याधेय विधि के पहले दिन गोपितृयज्ञ करने का विधान है, जो अन्य सूत्रों में प्रतिपादित नहीं है। तैत्तिरीय शाखा में तो उसका आधार ही नहीं है। यह गृह्यकर्मों में विहित [[श्राद्ध]] का प्राचीन रूप है और एक वैशिष्ट्य पूर्ण विधि बौधायनोक्त अग्न्याधेय के सम्बन्ध में बतलाई गई है। बौधायन श्रौताग्नियों की स्थापना के पूर्व यजमान की अन्तर्बाह्य शुद्धि के समर्थक हैं। इसके लिए उन्होंने अनेक उपाय बताए हैं। 'पाप्मनो विनिधय:' उनमें से एक है। यजमान के आन्तरिक और बाह्य पापों तथा विकारों को अन्य तद्विशिष्ट वस्तुओं और प्राणियों में प्रस्थापित किया जाता है। एतदर्थ | अग्न्याधेय विधि की प्राचीनता भी बतलाती हैं। अग्न्याधेय विधि के पहले दिन गोपितृयज्ञ करने का विधान है, जो अन्य सूत्रों में प्रतिपादित नहीं है। तैत्तिरीय शाखा में तो उसका आधार ही नहीं है। यह गृह्यकर्मों में विहित [[श्राद्ध]] का प्राचीन रूप है और एक वैशिष्ट्य पूर्ण विधि बौधायनोक्त अग्न्याधेय के सम्बन्ध में बतलाई गई है। बौधायन श्रौताग्नियों की स्थापना के पूर्व यजमान की अन्तर्बाह्य शुद्धि के समर्थक हैं। इसके लिए उन्होंने अनेक उपाय बताए हैं। 'पाप्मनो विनिधय:' उनमें से एक है। यजमान के आन्तरिक और बाह्य पापों तथा विकारों को अन्य तद्विशिष्ट वस्तुओं और प्राणियों में प्रस्थापित किया जाता है। एतदर्थ संग्रहीत मन्त्र ('सिंहे मे मन्यु:' तथा 'व्याघ्रे मेऽन्तरामय: प्रभृति') ही 'पाप्मनो विनिधय:' कहलाते हैं। ये केवल बौधायन श्रौतसूत्र में ही हैं। अग्न्याधान की यह विशेषता है कि उसमें सामगान होता है। वैसे तो सामगान सोमयाग में होता है, जहाँ तीनों सामगायक शस्त्र–शंसन से पूर्व विहित स्तोत्र गाते हैं। इनमें से प्रत्येक सामगायक अपने–अपने अंश का गायन करता है। किन्तु सोमयाग से पूर्व अग्न्याधान विधि में अकेले उद्गाता ही पूरा साम गाता है। | ||
==पुनराधान का विधान== | ==पुनराधान का विधान== | ||
'दृशाध्यायिक' संज्ञक तृतीय प्रश्न के प्रथम अध्याय में, जिसमें कि तीन खण्ड हैं, पुनराधान का विधान है। श्रौताग्नियों की स्थापना के अनन्तर एक वर्ष की अवधि में यदि यजमान आपत्तिग्रस्त हो जाए, तो यह मान्यता थी कि उसके लिए लाभकारक नहीं सिद्ध हुआ। अत: उसे पुन: अग्नि–स्थापना करनी चाहिए। एतदर्थ ब्राह्मण ग्रन्थों में पुनराधेय विधि विहित है। इसमें वे ही पदार्थ प्रयोज्य हैं, जिन्हें जीर्ण होने के कारण नया रूप दिया गया हो। | 'दृशाध्यायिक' संज्ञक तृतीय प्रश्न के प्रथम अध्याय में, जिसमें कि तीन खण्ड हैं, पुनराधान का विधान है। श्रौताग्नियों की स्थापना के अनन्तर एक वर्ष की अवधि में यदि यजमान आपत्तिग्रस्त हो जाए, तो यह मान्यता थी कि उसके लिए लाभकारक नहीं सिद्ध हुआ। अत: उसे पुन: अग्नि–स्थापना करनी चाहिए। एतदर्थ ब्राह्मण ग्रन्थों में पुनराधेय विधि विहित है। इसमें वे ही पदार्थ प्रयोज्य हैं, जिन्हें जीर्ण होने के कारण नया रूप दिया गया हो। | ||
==अग्निहोत्र का विधान== | ==अग्निहोत्र का विधान== | ||
छह खण्डों वाले द्वितीय तथा तृतीय अध्यायों में अग्निहोत्र का विधान है। श्रौताग्नियों की स्थापना के | छह खण्डों वाले द्वितीय तथा तृतीय अध्यायों में अग्निहोत्र का विधान है। श्रौताग्नियों की स्थापना के पश्चात् यजमान दिन में दो बार सूर्यास्त और सूर्योदय के समय अग्नियों में स्वयं अथवा पुरोहित के माध्यम से आहुतियों का प्रक्षेप करता है। सामान्यत: ये आहुतियाँ गाय के दूध की होती हैं। इसके लिए यजमान एक विशेष अग्निहोत्री गाय का पालन करता है। अग्निहोत्रजन्य आहुतियों के लिए अन्य द्रव्यों के विकल्प भी हैं। सांयकालिक अग्निहोत्र के पश्चात् यजमान देवताओं का उपस्थान करता है। आहिताग्नि यजमान होने के लिए पत्नी सहित विशिष्ट नियमों का पालन करना पड़ता है। किसी कार्यवश अकेले अथवा पत्नी के साथ प्रवास पर जाते और वापस आते समय वह अपनी अग्नियों की प्रार्थना करता है। ये नियम 'प्रवासविधि' नाम से छठे अध्याय के दो खण्डों में संकलित हैं। | ||
==आग्रयणेष्टि== | ==आग्रयणेष्टि== | ||
वैदिक धर्म में अमावस्या पर्व में पितरों की पूजा विहित है। गृहस्थ पुरुष उस दिन और अन्य अवसरों पर भी स्मार्त्त सूत्रानुसार श्राद्ध करता है। आहिताग्नि व्यक्ति को अमावस्या के दिन अपराह्ण काल में पिण्डपितृयज्ञ करना चाहिए। बौधायन ने चतुर्थ अध्याय के दो खण्डों में उसकी विधि बताई है। पाँचवे अध्याय (इसमें केवल एक खण्ड है– 1) में आग्रयणेष्टि का विवरण है। इस इष्टि का सम्बन्ध नवीन धान्य से है। पहले देवताओं को नवीन धान्य की आहुति देकर तब उसका अपने आहार में उपयोग किया जाए, यह विचार इस इष्टि के स्वरूप में निहित है। वर्षाकाल में श्यामाक धान्य उत्पन्न होता है। इसका याग देवताओं के लिए किया जाता है। शरद ऋतु में व्रीह्याग्रयण तथा बसन्त में यवाग्रयण की इष्टि की जाती है। | वैदिक धर्म में अमावस्या पर्व में पितरों की पूजा विहित है। गृहस्थ पुरुष उस दिन और अन्य अवसरों पर भी स्मार्त्त सूत्रानुसार श्राद्ध करता है। आहिताग्नि व्यक्ति को अमावस्या के दिन अपराह्ण काल में पिण्डपितृयज्ञ करना चाहिए। बौधायन ने चतुर्थ अध्याय के दो खण्डों में उसकी विधि बताई है। पाँचवे अध्याय (इसमें केवल एक खण्ड है– 1) में आग्रयणेष्टि का विवरण है। इस इष्टि का सम्बन्ध नवीन धान्य से है। पहले देवताओं को नवीन धान्य की आहुति देकर तब उसका अपने आहार में उपयोग किया जाए, यह विचार इस इष्टि के स्वरूप में निहित है। वर्षाकाल में श्यामाक धान्य उत्पन्न होता है। इसका याग देवताओं के लिए किया जाता है। शरद ऋतु में व्रीह्याग्रयण तथा बसन्त में यवाग्रयण की इष्टि की जाती है। | ||
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चौथे प्रश्न में पशुबन्ध का विवरण है। यह प्रश्न तीन अध्यायों और 11 खण्डों में विभक्त है। पशुबन्ध का ही नामान्तर निरूढ पशुबन्ध भी है। इसका साक्षात् विवरण तैत्तिरीय संहिता में नहीं है। अग्निष्टोम क्रतु के अंगरूप में अग्नीषोमीय पशुयाग उपवसथ के दिन अनुष्ठेय है। इसके देवता अग्नि और सोम हैं, जबकि निरूढ पशुबन्ध के देवता इन्द्राग्नी है। | चौथे प्रश्न में पशुबन्ध का विवरण है। यह प्रश्न तीन अध्यायों और 11 खण्डों में विभक्त है। पशुबन्ध का ही नामान्तर निरूढ पशुबन्ध भी है। इसका साक्षात् विवरण तैत्तिरीय संहिता में नहीं है। अग्निष्टोम क्रतु के अंगरूप में अग्नीषोमीय पशुयाग उपवसथ के दिन अनुष्ठेय है। इसके देवता अग्नि और सोम हैं, जबकि निरूढ पशुबन्ध के देवता इन्द्राग्नी है। | ||
==चातुर्मास्य याग== | ==चातुर्मास्य याग== | ||
पाँचवें प्रश्न में चातुर्मास्य याग का विवरण है। वास्तव में, तैत्तीरीय शाखा में यह याग राजसूय के अंगरूप में विहित है। वहाँ से लेकर सूत्र में उसका अनुष्ठान | पाँचवें प्रश्न में चातुर्मास्य याग का विवरण है। वास्तव में, तैत्तीरीय शाखा में यह याग राजसूय के अंगरूप में विहित है। वहाँ से लेकर सूत्र में उसका अनुष्ठान पृथक् रूप से दिया गया है। इस प्रश्न में छह अध्याय और 18 खण्ड हैं। चातुर्मास्य याग चार पर्वों में विहित हैं– | ||
*वैश्वदेव, | *वैश्वदेव, | ||
*वरुण प्रघास, | *वरुण प्रघास, | ||
*साकमेध और | *साकमेध और | ||
*शुनासीरीय। | *शुनासीरीय। | ||
प्रथम पर्व के चार मासों के अनन्तर दूसरे पर्व का अनुष्ठान होता है। संवत्सर के अन्त में शुनासीरीय पर्व किया जाता है। इस याग के अनुष्ठानार्थ छह ऋत्विजों की आवश्यकता होती है। ये सभी याग अग्निष्टोम नामक प्रकृति–भूत सोमयाग के पूर्व किए जाते हैं, इसलिए इन सबको 'प्राक्सोम' विभाग या प्रकरण की संज्ञा दी गई है। इनके | प्रथम पर्व के चार मासों के अनन्तर दूसरे पर्व का अनुष्ठान होता है। संवत्सर के अन्त में शुनासीरीय पर्व किया जाता है। इस याग के अनुष्ठानार्थ छह ऋत्विजों की आवश्यकता होती है। ये सभी याग अग्निष्टोम नामक प्रकृति–भूत सोमयाग के पूर्व किए जाते हैं, इसलिए इन सबको 'प्राक्सोम' विभाग या प्रकरण की संज्ञा दी गई है। इनके पश्चात् तीन प्रश्नों (6–8) में अग्निष्टोम का विवरण है, जिसका आधार तैत्तिरीय संहिता में है। इसमें प्रधान द्रव्य सोम है, सोलह ऋत्विक होते हैं जो जो होतृ, अध्वर्यु, उद्गातृ और ब्रह्म संज्ञक गणों में विभक्त हैं। इस प्रकरण में उनके कार्यों का विवरण है। ब्रह्मगण के चार ऋत्विजों के लिए वेद सम्बन्धी कोई नियम नहीं है। हाँ, [[ब्रह्मा]] को तीनों वेदों का ज्ञान होना आवश्यक है। किसी भी अनुष्ठान में त्रुटि होने पर प्रायश्चित्त का अधिकारी वही है। | ||
सोमयाग के प्रधान अनुष्ठान के पूर्व अनुष्ठान के पूर्व यजमान दीक्षा ग्रहण करता है। दीक्षा दिनों की संख्या सोमयाग के | सोमयाग के प्रधान अनुष्ठान के पूर्व अनुष्ठान के पूर्व यजमान दीक्षा ग्रहण करता है। दीक्षा दिनों की संख्या सोमयाग के महत्त्व पर निर्भर है। कम से कम एक दिन दीक्षा का होना चाहिए। आगे उपसद् दिन होते हैं, जिनकी न्यूनतम संख्या तीन होती है। तदनन्तर उपवसथ और बाद में सुत्या दिन। प्रथम दिवस प्रारम्भिक सिद्धता का है और यजमान तथा उसकी पत्नी की दीक्षा होती है। दूसरे दिन सोम वनस्पति का संपादन होता है। दूसरे, तीसरे और चौथे दिनों में प्रतिदिन प्रात: और अपराह्ण काल में प्रवर्ग्य और उपसद् नामक कर्म होते हैं। महावेदिका और शालाओं का निर्माण होता है। अग्नीषोमीय पशु–याग होता है। पाँचवें दिन, ऊषा काल से लेकर रात्रि तक विधियाँ चलती रहती हैं जो चार विभागों में विभक्त होती हैं– प्रात: सवन, माध्यन्दिन सवन, तृतीय सवन और यज्ञपुच्छ। तीनों सवनों में सोमरस का सृजन, सवनीय पशु–याग, दक्षिणा दान आदि किए जाते हैं। सोमरस से भरे हुए ग्रहों और चमसों का याग स्तोत्रगान और शस्त्र–शंसन के साथ होता है। यज्ञपुच्छ में अनुष्ठान का उपसंहार होता है। अग्निष्टोमगत प्रवर्ग्य नामक कर्म, जो तीन दिनों में छह बार होता है, का पूरा विवरण 9वें प्रश्न में है। | ||
==अग्नि चयन== | ==अग्नि चयन== | ||
10वें प्रश्न में अग्नि–चयन की विधि विस्तार से उपवर्णित है। सोमयागगत उत्तरवेदी के स्थान में इष्टकाओं की पाँच चितियाँ एक के ऊपर दूसरी के क्रम से रची जाती हैं। इस चिति पर आहवनीयाग्नि की प्रतिष्ठापना करके उसमें सोमयागादि सम्पन्न किए जाते हैं। [[अग्निदेव|अग्नि]]–चयन एक विस्तृत कर्म है, अत: इसे याग नहीं कहा जा सकता। | 10वें प्रश्न में अग्नि–चयन की विधि विस्तार से उपवर्णित है। सोमयागगत उत्तरवेदी के स्थान में इष्टकाओं की पाँच चितियाँ एक के ऊपर दूसरी के क्रम से रची जाती हैं। इस चिति पर आहवनीयाग्नि की प्रतिष्ठापना करके उसमें सोमयागादि सम्पन्न किए जाते हैं। [[अग्निदेव|अग्नि]]–चयन एक विस्तृत कर्म है, अत: इसे याग नहीं कहा जा सकता। | ||
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13वें प्रश्न में अनेक काम्य इष्टियों का विवरण है। | 13वें प्रश्न में अनेक काम्य इष्टियों का विवरण है। | ||
==औपानुवाक्य== | ==औपानुवाक्य== | ||
14वें प्रश्न का विषय है औपानुवाक्य। इसका आधार तैत्तिरीय संहिता का तीसरा काण्ड है जो औपानुवाक्य ही कहलाता है। इसमें मन्त्र–ब्राह्मण मिश्रित अनेक विषय हैं। चौथे वैश्वदेव काण्ड में जो विषय अन्तर्भूत हैं, उनमें एक है औपानुवाक्य, अर्थात् सारस्वतपाठ<ref> तैत्तिरीय शाखा की दो पाठ–परम्पराएँ हैं, सारस्वत पाठ और आर्षेय पाठ। संहिता, ब्राह्मण और आरण्यक – इन तीनों | 14वें प्रश्न का विषय है औपानुवाक्य। इसका आधार तैत्तिरीय संहिता का तीसरा काण्ड है जो औपानुवाक्य ही कहलाता है। इसमें मन्त्र–ब्राह्मण मिश्रित अनेक विषय हैं। चौथे वैश्वदेव काण्ड में जो विषय अन्तर्भूत हैं, उनमें एक है औपानुवाक्य, अर्थात् सारस्वतपाठ<ref> तैत्तिरीय शाखा की दो पाठ–परम्पराएँ हैं, सारस्वत पाठ और आर्षेय पाठ। संहिता, ब्राह्मण और आरण्यक – इन तीनों पृथक् ग्रन्थों के द्वारा रूढ़ परम्परा सारस्वत–पाठानुसारिणी है। आर्षेय पाठ में संहिता, ब्राह्मण और आरण्यक को एक में मिला दिया गया है। बौधायन गृह्यसूत्र(3.3) के अनुसार यह पाठ पाँच भागों में विभक्त है– प्राजापत्य काण्ड, सौम्य काण्ड, आग्नेय काण्ड, वैश्वदेव काण्ड और स्वायम्भुव काण्ड। इनके ऋषि क्रमश: प्रजापति, सोम, अग्नि, विश्वेदेवा: और स्वयम्भू हैं।</ref> की तैत्तिरीय संहिता का सम्पूर्ण तीसरा काण्ड। इस काण्ड में क्रम से जो विषय आए हैं, चाहे वे मन्त्र हों या ब्राह्मण, उनका उसी क्रम से विवरण बौधायन सूत्र के 14वें प्रश्न में है। अत: उसका स्वरूप अन्य प्रश्नों से भिन्न है। स्वाभाविक था कि इसमें ब्राह्मण अंश कुछ अधिक प्रमाण में उद्धृत होता। इससे स्पष्ट है कि बौधायन के समय में तैत्तिरीय शाखा का आर्षेय पाठ सुप्रतिष्ठित था। सत्याषाढ प्रभृति अन्य गृह्यसूत्रों में आर्षेय पाठ के छह, चार या नौ काण्ड माने गए हैं। | ||
==अश्वमेध== | ==अश्वमेध== | ||
15वें प्रश्न में [[अश्वमेध यज्ञ|अश्वमेध]] का विवरण है। 16वें प्रश्न में द्वादशाह, गवामयन और अहीन क्रतुओं से सम्बद्ध सामग्री है। द्वादशाह अहीन और सत्र प्रकार से उभयविध होता है। अहीनरूप हो तो एक ही यजमान होता है। सत्ररूप होने पर ऋत्विक ही उसके सहभागी यजमान होते हैं। इन्हीं में से एक को गृहपति का स्थान देकर कार्य करने को कहा जाता है। गवामयन संवत्सरसत्र है। संवत्सरसत्रों की वह प्रकृति है। काम्य, अहीन क्रतुओं का विवरण भी इस प्रश्न में है। दो से लेकर सहस्त्ररात्र तक अहीन क्रतुओं की विधियाँ संक्षेप में बताई गई हैं। | 15वें प्रश्न में [[अश्वमेध यज्ञ|अश्वमेध]] का विवरण है। 16वें प्रश्न में द्वादशाह, गवामयन और अहीन क्रतुओं से सम्बद्ध सामग्री है। द्वादशाह अहीन और सत्र प्रकार से उभयविध होता है। अहीनरूप हो तो एक ही यजमान होता है। सत्ररूप होने पर ऋत्विक ही उसके सहभागी यजमान होते हैं। इन्हीं में से एक को गृहपति का स्थान देकर कार्य करने को कहा जाता है। गवामयन संवत्सरसत्र है। संवत्सरसत्रों की वह प्रकृति है। काम्य, अहीन क्रतुओं का विवरण भी इस प्रश्न में है। दो से लेकर सहस्त्ररात्र तक अहीन क्रतुओं की विधियाँ संक्षेप में बताई गई हैं। | ||
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24वें प्रश्न के आरम्भिक खण्डों में ऐसे विषय आए हैं, जिन्हें परिभाषा कहा जा सकता है। | 24वें प्रश्न के आरम्भिक खण्डों में ऐसे विषय आए हैं, जिन्हें परिभाषा कहा जा सकता है। | ||
==प्रायश्चित्त सूत्र== | ==प्रायश्चित्त सूत्र== | ||
27वें से 29वें तक के तीन प्रश्न प्रायश्चित्त सूत्र हैं। इनमें अग्निहोत्र से लेकर सत्र तक सभी विधियों के सम्बन्ध में प्रायश्चित्त | 27वें से 29वें तक के तीन प्रश्न प्रायश्चित्त सूत्र हैं। इनमें अग्निहोत्र से लेकर सत्र तक सभी विधियों के सम्बन्ध में प्रायश्चित्त संग्रहीत हैं। नैमित्तिकी विधि भी इसी में समाविष्ट है। | ||
==शुल्बसूत्र== | ==शुल्बसूत्र== | ||
30वाँ प्रश्न शुल्बसूत्र है और उसके | 30वाँ प्रश्न शुल्बसूत्र है और उसके पश्चात् प्रवरसूत्र है, जिसकी प्रश्न संख्या नहीं दी गई है। | ||
==शाखागत क्रम== | ==शाखागत क्रम== | ||
तैत्तिरीय शाखा, जिससे बौधायन श्रौतसूत्र का सम्बन्ध है, सूत्र रचना से पूर्व सुप्रतिष्ठित थी। सूत्रकार ने मन्त्रों को शाखागत क्रम से उद्धृत किया है। ब्राह्मण वाक्यों को उद्धृत करते समय वह 'अथ वै यजति' शब्द देते हैं, किन्तु तैत्तिरीय ब्राह्मण के द्वितीय काण्ड के सप्तम प्रपाठक (अच्छिद्र काण्ड) का कोई अंश बौधायन सूत्र में उद्धृत नहीं किया गया है। काण्डानुक्रम के अनुसार चतुर्थ वैश्वदेव काण्ड में 'अच्छिद्राणि' अन्तर्भूत है। [[तैत्तिरीय ब्राह्मण]]<ref>तैत्तिरीय ब्राह्मण, 3.5</ref> में दर्शपूर्णमासेष्टि का हौत्र | तैत्तिरीय शाखा, जिससे बौधायन श्रौतसूत्र का सम्बन्ध है, सूत्र रचना से पूर्व सुप्रतिष्ठित थी। सूत्रकार ने मन्त्रों को शाखागत क्रम से उद्धृत किया है। ब्राह्मण वाक्यों को उद्धृत करते समय वह 'अथ वै यजति' शब्द देते हैं, किन्तु तैत्तिरीय ब्राह्मण के द्वितीय काण्ड के सप्तम प्रपाठक (अच्छिद्र काण्ड) का कोई अंश बौधायन सूत्र में उद्धृत नहीं किया गया है। काण्डानुक्रम के अनुसार चतुर्थ वैश्वदेव काण्ड में 'अच्छिद्राणि' अन्तर्भूत है। [[तैत्तिरीय ब्राह्मण]]<ref>तैत्तिरीय ब्राह्मण, 3.5</ref> में दर्शपूर्णमासेष्टि का हौत्र संग्रहीत है, जिसका विनियोग बौधायन सूत्र में प्रदत्त है। अपनी शाखा से तो बौधायन एकनिष्ठ है ही, साथ ही काठक शाखा का भी कुछ प्रभाव उनकी रचना पर प्रतीत होता है। इस शाखा के कुछ मन्त्रों का विनियोग बौधायन ने दिया है। बौधायन सूत्र [[ताण्ड्य ब्राह्मण|ताण्ड्यमहाब्राह्मण]], [[षडविंश ब्राह्मण]], पैङ्गलायनि ब्राह्मण, छागलेय ब्राह्मण तथा ऋग्वेद प्रभृति के भी सन्दर्भ मिलते हैं।<ref> द्रष्टव्य, बौधायन सूत्र– 27.4, 2.9, 2.7, 25.5, 26, 13, 27.7।</ref> अनेक सामों का भी निर्देश है। | ||
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*बौधायन श्रौतसूत्र, सम्पादक–विल्हेल्म कालान्द, प्रथम संस्करण 1904 से 1923 के मध्य प्रकाशित। | *बौधायन श्रौतसूत्र, सम्पादक–विल्हेल्म कालान्द, प्रथम संस्करण 1904 से 1923 के मध्य प्रकाशित। | ||
*द्वितीय संस्करण मुंशीराम मनोहरलाल, दिल्ली, भाग–1–2, 1982। | *द्वितीय संस्करण मुंशीराम मनोहरलाल, दिल्ली, भाग–1–2, 1982। | ||
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13:28, 1 अगस्त 2017 के समय का अवतरण
तैत्तिरीय शाखा के छह श्रौतसूत्र हैं:– बौधायन, भारद्वाज, आपस्तम्ब, सत्याषाढ (हिरण्यकेशि), वैखानस और वाधूल। इनमें बौधायन का स्थान प्रथम है। सत्याषाढ श्रौतसूत्र के प्रारम्भिक अंश पर महादेव का ‘वैजयन्ती’ संज्ञक भाष्य है, जिसके मंगल श्लोकों में उन्होंने तैत्तिरीय शाखा के सूत्रकारों को प्रणाम किया है–
यत्राकरोत् सूत्रमतीव गौरवाद् बौधायनाचार्यवरोऽर्थगुप्तये।
तथा भरद्वाज मुनीश्वरस्तथाऽऽपस्तम्ब आचार्य इदं परं स्फुटम्।।
अतीव गूढार्थमनन्यदर्शितं न्यायैश्च युक्तं रचयन्नसौ पुन:।
हिरण्यकेशीति यथार्थनामभाग् अभूद्वरात्तुष्ट मुनीन्द्रसम्मातात्।।
वाधूल आचार्यवरोऽकरोत् परं सूत्रं तु यत् केरल देशसंस्थितम्।
वैखानसाचार्यकृतं त्वथापरं पूर्तेन युक्तं त्विति सूत्र षड्विधा:।।
उपर्युक्त पद्वों में वैजयन्तीकार महादेव ने तैत्तिरीय शाखा के बौधायन, भारद्वाज, आपस्तम्ब, हिरण्यकेशी, वैखानस, वाधूल – इन सूत्रकारों का क्रम से निर्देश करके उन्हें प्रणाम किया है। इनमें बौधायन का नाम प्रथम है।[1] और अन्य नाम; वाधूल को छोड़कर, ऐतिहासिक क्रम से भी युक्त हैं। पहला नाम बोधायन और बौधायन – इन दो प्रकारों से ही लिखा गया है। व्याकरण की दृष्टि से 'बुध' शब्द से गोत्रापत्यदर्शक बौधायन शब्द सिद्ध होता है तब आदिवृद्धि होती है, किन्तु प्राचीन काल से बोधायन शब्द ही सर्वत्र रूढ़ है।
इन आचार्यों में भारद्वाज से वाधूल तक सूत्रकार कहलाते हैं, जबकि बोधायन को प्रवचनकार की संज्ञा दी गई है।[2] आचार्य शिष्यों को संबोधित करके प्रवचन करता है, जबकि सूत्रकार सूत्र–प्रणयन करता है। सूत्रकार के सम्मुख शिष्य उपस्थित नहीं होते। वास्तव में ही बौधायन श्रौतसूत्र प्रवचन ही है। उसमें विस्तार है, जबकि सूत्रों की रचना संक्षिप्त होती है। विषय के पुनरुक्त होने पर भी बोधायन संक्षेप नहीं करते। बीच–बीच में विधि की पुष्टि के लिए ब्राह्मण वाक्यों को उद्धृत करते हैं। ऐसा प्रतीत होता है जैसे कि सामने बैठे हुए शिष्यों को समझाने के लिए आचार्य हर प्रकार से प्रयास कर रहे हों। आवश्यकता होने पर अभिनय के द्वारा भी वह किसी बात को स्पष्ट करते हैं। अग्न्याधान के अवसर पर आहवनीय अग्नि की स्थापना के लिए गार्हपत्य अग्नि से प्रज्वलित काष्ठ को वह हाथ में पकड़ लेते हैं और उस काष्ठ को क्रम से ऊपर लेते हैं। प्रवचनकार का प्रश्न है– 'इत्यग्नेय हरति अर्थवति अर्थयति।' इस प्रकार अपना दाहिना हाथ ऊँचा करके वह अध्वर्यु द्वारा की जाने वाली विधि बतलाते हैं।
तैत्तिरीय शाखा की संहिता
यद्यपि बोधायन के समय में तैत्तिरीय शाखा की संहिता, ब्राह्मण और आरण्यक का पाठ सुनिश्चित था, तो भी सूत्र में बहुसंख्यक मन्त्र सकल पाठ के रूप में उद्धृत हैं। इस शाखा के अन्य सूत्रों में मन्त्र प्रतीक रूप में प्रदर्शित हैं। बौधायन के समय तैत्तिरीय शाखा का पाठ सुप्रतिष्ठित था, इसके अनेक प्रमाण सूत्र में मिलते हैं। जब पूर्वापर मन्त्रों का विनियोग अपेक्षित है, तब पहले प्रतीक उद्धृत करके 'इत्यनुहृत्य' कहकर दूसरे मन्त्र का प्रतीक पाठ दिया जाता है। अग्नि–चयन–प्रकरण में जब अग्निचिति की रचना पूरी होती है, तब चिति के उत्तर पक्ष में अन्तिम इष्टका पर तैत्तिरीय संहितागत रुद्राध्याय[3] के मन्त्रोच्चारण के साथ अजाक्षीर कर अभिषेक किया जाता है। आगे चलकर अन्य मन्त्रों[4] से वसोर्धारा की सन्तत आहुति दी जाती है। यहाँ केवल संहिता के अन्तर्गत अनुवाकों का निर्देश किया जाता है।
तीस प्रश्न
मुद्रित श्रौतसूत्र में तीस प्रश्न हैं, जिनका विषयानुक्रम निम्न प्रकार से है:–
प्रश्न | विषय |
1. | दर्शपूर्णमास |
2. | अग्न्याधेय |
3. | दशाध्यायिक (पुनराधेय, अग्निहोत्र, पिण्डपितृयज्ञ, आग्रयण, याजमान, ब्रह्मत्व, हौत्र) |
4. | पशुबन्ध |
5. | अग्निहोत्र |
6–8. | अग्निहोत्र |
9. | प्रवर्ग्य |
10. | अग्नि–चयन |
11. | वाजपेय |
12. | राजसूय |
13. | इष्टिकल्प |
14. | औपानुवाक्य |
15. | अश्वमेध |
16. | द्वादशाह, गवामयन, अहीन |
17-18. | उत्तरातति (अतिरात्र, एकादशिनी, सत्र, अयन, एकाह) |
19. | काठक |
20-23. | द्वैध |
24-26 | कर्मान्त |
27-29 | प्रायश्चित्त |
30. | शुल्ब, प्रवर। |
यजुर्वेद
यजुर्वेद अध्वर्यु–वेद है। यज्ञ में अध्वर्यु और उसके सहायकों के कार्य का विवरण यजुर्वेद और उससे सम्बद्ध ग्रन्थों में मिलता है। यद्यपि यज्ञ, विशेष रूप से सोमयाग में चार प्रधान ऋत्विज् होते हैं, तो भी उनमें अध्वर्यु का कार्य अधिक महत्त्वपूर्ण होता है। सायणाचार्य ने तैत्तिरीय संहिता–भाष्य के उपोद्घात में लिखा है कि तीन वेदों में से यजुर्वेद भित्तिस्थानीय है। यदि भित्ति न हो तो चित्र कहाँ अंकित किया जाए? यजुर्वेदीय साहित्य में अध्वर्यु के साथ ही यजमान और ब्रह्मा नामक ऋत्विक का कार्य भी निरूपित है।
सूत्र–रचना
यह कहा जा चुका है कि बौधायन सूत्र प्रवचन रूप में है। शिष्य के प्रश्न पूछने पर आचार्य उसका विवरण देते हैं, इसलिए इस सूत्र में प्रकरण को ‘प्रश्न’ संज्ञा दी गई है। कथन का तात्पर्य यद्यपि विध्यर्थरूप है, तथापि सूत्र–रचना में वर्तमान काल का प्रयोग किया गया है। प्राय: सभी सूत्र ग्रन्थों में यही शैली स्वीकृत है। विस्तृत विवरण के फलस्वरूप समग्र विधि स्पष्ट हो जाती है। हाँ; जहाँ पारिभाषिक पद आते हैं, वहाँ सुबोधता के लिए अन्य साधन आवश्यक होते हैं। प्रवचन होने के कारण इसमें सूत्रच्छेद नहीं बतलाया गया है। सूत्र तो हैं ही नहीं, किन्तु सुबोधता के लिए सम्पादक ने वाक्य के अंत में ऊपरी ओर रेखा दी है। प्रत्येक मन्त्र या मन्त्र समूह पूरा–पूरा दिया गया है। दर्शेष्टि में पूर्व दिन अनुष्ठान का आरम्भ होता है और दूसरे दिन प्राय: इष्टि समाप्त होती है। पूर्णमासेष्टि भी दो दिनों में विभक्त होती है, चाहने पर एक दिन में भी पूरी विधि की जा सकती है। इसमें चार ऋत्विज् होते हैं और ऋग्वेद तथा यजुर्वेद से ही कार्य सम्पन्न हो जाता है।
अग्न्याधेय
दूसरे प्रश्न में अग्न्याधेय का विवरण है। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीनों वर्णों को श्रौताग्नियों की स्थापना करने का मूलत: अधिकार है। विशेष योग्यता वाले निषाद स्थपति को भी यज्ञ करने का अधिकार है। यजमान अपने घर के एक पक्ष में अग्निशाला की योजना करता है तथा शुल्ब सूत्रोक्त नियमों के अनुसार अग्न्यायतन और वेदि बनाई जाती है। अग्नि–स्थापना के लिए विशेष मास और नक्षत्र विहित हैं। इसमें गृहस्थ ही अधिकृत हैं। यजुर्वेद के सभी श्रौतसूत्रों में अग्न्याधेय की विधि वर्णित है, किन्तु बौधायनोक्त विधि में कुछ विशेषताएँ हैं। यजमान जब सोमयाग करता है, तब उसे अपने निवास से दूर नदी या जलाशय के पास विस्तृत देवयजन भूमि की यज्ञ के लिए आवश्यकता होती है। सोमयाग के लिए सोलह ऋत्विजों का चयन किया जाता है। बौधायन सूत्र में अग्न्याधेय के अवसर पर ही देवयजनयाचन और ऋत्विग्वरण करने की विधि है। उसमें कुछ विधियाँ ऐसी भी हैं जो बौधायन सूत्र के साथ ही
अग्न्याधेय विधि की प्राचीनता भी बतलाती हैं। अग्न्याधेय विधि के पहले दिन गोपितृयज्ञ करने का विधान है, जो अन्य सूत्रों में प्रतिपादित नहीं है। तैत्तिरीय शाखा में तो उसका आधार ही नहीं है। यह गृह्यकर्मों में विहित श्राद्ध का प्राचीन रूप है और एक वैशिष्ट्य पूर्ण विधि बौधायनोक्त अग्न्याधेय के सम्बन्ध में बतलाई गई है। बौधायन श्रौताग्नियों की स्थापना के पूर्व यजमान की अन्तर्बाह्य शुद्धि के समर्थक हैं। इसके लिए उन्होंने अनेक उपाय बताए हैं। 'पाप्मनो विनिधय:' उनमें से एक है। यजमान के आन्तरिक और बाह्य पापों तथा विकारों को अन्य तद्विशिष्ट वस्तुओं और प्राणियों में प्रस्थापित किया जाता है। एतदर्थ संग्रहीत मन्त्र ('सिंहे मे मन्यु:' तथा 'व्याघ्रे मेऽन्तरामय: प्रभृति') ही 'पाप्मनो विनिधय:' कहलाते हैं। ये केवल बौधायन श्रौतसूत्र में ही हैं। अग्न्याधान की यह विशेषता है कि उसमें सामगान होता है। वैसे तो सामगान सोमयाग में होता है, जहाँ तीनों सामगायक शस्त्र–शंसन से पूर्व विहित स्तोत्र गाते हैं। इनमें से प्रत्येक सामगायक अपने–अपने अंश का गायन करता है। किन्तु सोमयाग से पूर्व अग्न्याधान विधि में अकेले उद्गाता ही पूरा साम गाता है।
पुनराधान का विधान
'दृशाध्यायिक' संज्ञक तृतीय प्रश्न के प्रथम अध्याय में, जिसमें कि तीन खण्ड हैं, पुनराधान का विधान है। श्रौताग्नियों की स्थापना के अनन्तर एक वर्ष की अवधि में यदि यजमान आपत्तिग्रस्त हो जाए, तो यह मान्यता थी कि उसके लिए लाभकारक नहीं सिद्ध हुआ। अत: उसे पुन: अग्नि–स्थापना करनी चाहिए। एतदर्थ ब्राह्मण ग्रन्थों में पुनराधेय विधि विहित है। इसमें वे ही पदार्थ प्रयोज्य हैं, जिन्हें जीर्ण होने के कारण नया रूप दिया गया हो।
अग्निहोत्र का विधान
छह खण्डों वाले द्वितीय तथा तृतीय अध्यायों में अग्निहोत्र का विधान है। श्रौताग्नियों की स्थापना के पश्चात् यजमान दिन में दो बार सूर्यास्त और सूर्योदय के समय अग्नियों में स्वयं अथवा पुरोहित के माध्यम से आहुतियों का प्रक्षेप करता है। सामान्यत: ये आहुतियाँ गाय के दूध की होती हैं। इसके लिए यजमान एक विशेष अग्निहोत्री गाय का पालन करता है। अग्निहोत्रजन्य आहुतियों के लिए अन्य द्रव्यों के विकल्प भी हैं। सांयकालिक अग्निहोत्र के पश्चात् यजमान देवताओं का उपस्थान करता है। आहिताग्नि यजमान होने के लिए पत्नी सहित विशिष्ट नियमों का पालन करना पड़ता है। किसी कार्यवश अकेले अथवा पत्नी के साथ प्रवास पर जाते और वापस आते समय वह अपनी अग्नियों की प्रार्थना करता है। ये नियम 'प्रवासविधि' नाम से छठे अध्याय के दो खण्डों में संकलित हैं।
आग्रयणेष्टि
वैदिक धर्म में अमावस्या पर्व में पितरों की पूजा विहित है। गृहस्थ पुरुष उस दिन और अन्य अवसरों पर भी स्मार्त्त सूत्रानुसार श्राद्ध करता है। आहिताग्नि व्यक्ति को अमावस्या के दिन अपराह्ण काल में पिण्डपितृयज्ञ करना चाहिए। बौधायन ने चतुर्थ अध्याय के दो खण्डों में उसकी विधि बताई है। पाँचवे अध्याय (इसमें केवल एक खण्ड है– 1) में आग्रयणेष्टि का विवरण है। इस इष्टि का सम्बन्ध नवीन धान्य से है। पहले देवताओं को नवीन धान्य की आहुति देकर तब उसका अपने आहार में उपयोग किया जाए, यह विचार इस इष्टि के स्वरूप में निहित है। वर्षाकाल में श्यामाक धान्य उत्पन्न होता है। इसका याग देवताओं के लिए किया जाता है। शरद ऋतु में व्रीह्याग्रयण तथा बसन्त में यवाग्रयण की इष्टि की जाती है।
अध्वर्यु और यजमान
दर्शपूर्णमासेष्टि (जिसका विधान प्रथम प्रश्न में है...) में अध्वर्यु और यजमान की विशेष भूमिका है। सातवें और आठवें अध्यायों में यजमान का कर्त्तव्य बताया गया है। ब्रह्मा नामक ऋत्विक के कर्त्तव्य चार खण्डों वाले नवम अध्याय में प्रदर्शित हैं। दशम अध्याय में हौत्र (जो मुख्यत: ऋग्वेद के क्षेत्र में आता है) का आवश्यक विवरण है।
पशुबन्ध
चौथे प्रश्न में पशुबन्ध का विवरण है। यह प्रश्न तीन अध्यायों और 11 खण्डों में विभक्त है। पशुबन्ध का ही नामान्तर निरूढ पशुबन्ध भी है। इसका साक्षात् विवरण तैत्तिरीय संहिता में नहीं है। अग्निष्टोम क्रतु के अंगरूप में अग्नीषोमीय पशुयाग उपवसथ के दिन अनुष्ठेय है। इसके देवता अग्नि और सोम हैं, जबकि निरूढ पशुबन्ध के देवता इन्द्राग्नी है।
चातुर्मास्य याग
पाँचवें प्रश्न में चातुर्मास्य याग का विवरण है। वास्तव में, तैत्तीरीय शाखा में यह याग राजसूय के अंगरूप में विहित है। वहाँ से लेकर सूत्र में उसका अनुष्ठान पृथक् रूप से दिया गया है। इस प्रश्न में छह अध्याय और 18 खण्ड हैं। चातुर्मास्य याग चार पर्वों में विहित हैं–
- वैश्वदेव,
- वरुण प्रघास,
- साकमेध और
- शुनासीरीय।
प्रथम पर्व के चार मासों के अनन्तर दूसरे पर्व का अनुष्ठान होता है। संवत्सर के अन्त में शुनासीरीय पर्व किया जाता है। इस याग के अनुष्ठानार्थ छह ऋत्विजों की आवश्यकता होती है। ये सभी याग अग्निष्टोम नामक प्रकृति–भूत सोमयाग के पूर्व किए जाते हैं, इसलिए इन सबको 'प्राक्सोम' विभाग या प्रकरण की संज्ञा दी गई है। इनके पश्चात् तीन प्रश्नों (6–8) में अग्निष्टोम का विवरण है, जिसका आधार तैत्तिरीय संहिता में है। इसमें प्रधान द्रव्य सोम है, सोलह ऋत्विक होते हैं जो जो होतृ, अध्वर्यु, उद्गातृ और ब्रह्म संज्ञक गणों में विभक्त हैं। इस प्रकरण में उनके कार्यों का विवरण है। ब्रह्मगण के चार ऋत्विजों के लिए वेद सम्बन्धी कोई नियम नहीं है। हाँ, ब्रह्मा को तीनों वेदों का ज्ञान होना आवश्यक है। किसी भी अनुष्ठान में त्रुटि होने पर प्रायश्चित्त का अधिकारी वही है।
सोमयाग के प्रधान अनुष्ठान के पूर्व अनुष्ठान के पूर्व यजमान दीक्षा ग्रहण करता है। दीक्षा दिनों की संख्या सोमयाग के महत्त्व पर निर्भर है। कम से कम एक दिन दीक्षा का होना चाहिए। आगे उपसद् दिन होते हैं, जिनकी न्यूनतम संख्या तीन होती है। तदनन्तर उपवसथ और बाद में सुत्या दिन। प्रथम दिवस प्रारम्भिक सिद्धता का है और यजमान तथा उसकी पत्नी की दीक्षा होती है। दूसरे दिन सोम वनस्पति का संपादन होता है। दूसरे, तीसरे और चौथे दिनों में प्रतिदिन प्रात: और अपराह्ण काल में प्रवर्ग्य और उपसद् नामक कर्म होते हैं। महावेदिका और शालाओं का निर्माण होता है। अग्नीषोमीय पशु–याग होता है। पाँचवें दिन, ऊषा काल से लेकर रात्रि तक विधियाँ चलती रहती हैं जो चार विभागों में विभक्त होती हैं– प्रात: सवन, माध्यन्दिन सवन, तृतीय सवन और यज्ञपुच्छ। तीनों सवनों में सोमरस का सृजन, सवनीय पशु–याग, दक्षिणा दान आदि किए जाते हैं। सोमरस से भरे हुए ग्रहों और चमसों का याग स्तोत्रगान और शस्त्र–शंसन के साथ होता है। यज्ञपुच्छ में अनुष्ठान का उपसंहार होता है। अग्निष्टोमगत प्रवर्ग्य नामक कर्म, जो तीन दिनों में छह बार होता है, का पूरा विवरण 9वें प्रश्न में है।
अग्नि चयन
10वें प्रश्न में अग्नि–चयन की विधि विस्तार से उपवर्णित है। सोमयागगत उत्तरवेदी के स्थान में इष्टकाओं की पाँच चितियाँ एक के ऊपर दूसरी के क्रम से रची जाती हैं। इस चिति पर आहवनीयाग्नि की प्रतिष्ठापना करके उसमें सोमयागादि सम्पन्न किए जाते हैं। अग्नि–चयन एक विस्तृत कर्म है, अत: इसे याग नहीं कहा जा सकता।
वाजपेय
11वें प्रश्न में वाजपेय का विवरण है। यह एक एकाह सोमयाग है। इसमें 17 रथों की शकटी होती है जो यजमान जनिता है। यजमान और उसकी पत्नी स्वर्गारोहण का अभिनय और भावना करते हैं। यजमान का अभिषेक होता है। क्षोभ के साथ सूरा का भी प्रकम्पन होता है। ब्राह्मण और राजन्य इस याग के अधिकारी हैं। वाजपेय जी को बड़ा सम्मान प्राप्त होता है।
राजसूय
12वें प्रश्न में राजसूय का विवरण है। इस यज्ञ का अधिकारी राजा माना गया है। इसमें अनेक इष्टियाँ और सोमयाग सम्मिलित हैं। अनेक प्रकार की जलराशि से यजमान का अभिषेक होता है। राज्याधिकार के अनुकूल कुछ विधियाँ इसमें समाविष्ट हैं। सामान्यत: एक वर्ष से अधिक काल तक इसका अनुष्ठान चलता है।
काम्य इष्टि
13वें प्रश्न में अनेक काम्य इष्टियों का विवरण है।
औपानुवाक्य
14वें प्रश्न का विषय है औपानुवाक्य। इसका आधार तैत्तिरीय संहिता का तीसरा काण्ड है जो औपानुवाक्य ही कहलाता है। इसमें मन्त्र–ब्राह्मण मिश्रित अनेक विषय हैं। चौथे वैश्वदेव काण्ड में जो विषय अन्तर्भूत हैं, उनमें एक है औपानुवाक्य, अर्थात् सारस्वतपाठ[5] की तैत्तिरीय संहिता का सम्पूर्ण तीसरा काण्ड। इस काण्ड में क्रम से जो विषय आए हैं, चाहे वे मन्त्र हों या ब्राह्मण, उनका उसी क्रम से विवरण बौधायन सूत्र के 14वें प्रश्न में है। अत: उसका स्वरूप अन्य प्रश्नों से भिन्न है। स्वाभाविक था कि इसमें ब्राह्मण अंश कुछ अधिक प्रमाण में उद्धृत होता। इससे स्पष्ट है कि बौधायन के समय में तैत्तिरीय शाखा का आर्षेय पाठ सुप्रतिष्ठित था। सत्याषाढ प्रभृति अन्य गृह्यसूत्रों में आर्षेय पाठ के छह, चार या नौ काण्ड माने गए हैं।
अश्वमेध
15वें प्रश्न में अश्वमेध का विवरण है। 16वें प्रश्न में द्वादशाह, गवामयन और अहीन क्रतुओं से सम्बद्ध सामग्री है। द्वादशाह अहीन और सत्र प्रकार से उभयविध होता है। अहीनरूप हो तो एक ही यजमान होता है। सत्ररूप होने पर ऋत्विक ही उसके सहभागी यजमान होते हैं। इन्हीं में से एक को गृहपति का स्थान देकर कार्य करने को कहा जाता है। गवामयन संवत्सरसत्र है। संवत्सरसत्रों की वह प्रकृति है। काम्य, अहीन क्रतुओं का विवरण भी इस प्रश्न में है। दो से लेकर सहस्त्ररात्र तक अहीन क्रतुओं की विधियाँ संक्षेप में बताई गई हैं।
उत्तरातति:
17वें और 18वें प्रश्नों को 'उत्तरातति:' कहा गया है। 17वें प्रश्न में बहुत से विषय आए हैं, जैसे अतिरात्र, एकादशिनी, सत्रों और अयनों के प्रकार, सौत्रामणि इत्यादि। अन्यत्र गृह्यकर्मों में अन्तर्भूत समावर्तन विधि भी उत्तरातति में वर्णित है। 18वें प्रश्न में काम्य एकाह क्रतुओं का विवरण है।
काठक चयन
19वें प्रश्न में काठक चयन उपवर्णित है। पाँच काठक वचनों में चार का आधार तैत्तिरीय ब्राह्मण में और एक का आरण्यक में निहित है।
द्वैध
20वें से 23वें तक के चार प्रश्न 'द्वैध' के नाम से जाने जाते हैं। यह बौधायन सूत्र की विशेषता है। द्वैधसूत्र में उन विधियों के विषय में विभिन्न मतों का संग्रह है, बौधायनीय परम्परा में जिनके भिन्न सम्प्रदाय थे। आरम्भ में मूलसूत्र का सन्दर्भ देकर उस विषय में जितने आचार्यों के विभिन्न मत हैं, उनका निर्देश है। द्वैधसूत्र में जिन विभिन्न आचार्यों के मत प्रदर्शित हैं, वे ये हैं– आञ्जीगवि, आत्रेय, अर्त्तभागीपुत्र, औपमन्यव, औपमन्यवीपुत्र, भाष्य, कौणपतन्त्रि, गौतम, ज्यायान् कात्यायन, दक्षिणाकार, राथीतर, दीर्घवात्स्य, बौधायन, मांगल, मैत्रेय, मौद्गल्य, वाधूलक और शालीकि। द्वैधसूत्र में कुछ ऐसे स्थल हैं जिनका मूल सूत्र बौधायन सूत्र में नहीं मिलता है। तीन प्रश्न (24–26) 'कर्मान्तसूत्र' के नाम से प्रसिद्ध हैं। मूलसूत्र में जो अंश किसी कारण अधूरा रहा, उसकी इस विभाग में पूर्ति की गई है।
परिभाषा
24वें प्रश्न के आरम्भिक खण्डों में ऐसे विषय आए हैं, जिन्हें परिभाषा कहा जा सकता है।
प्रायश्चित्त सूत्र
27वें से 29वें तक के तीन प्रश्न प्रायश्चित्त सूत्र हैं। इनमें अग्निहोत्र से लेकर सत्र तक सभी विधियों के सम्बन्ध में प्रायश्चित्त संग्रहीत हैं। नैमित्तिकी विधि भी इसी में समाविष्ट है।
शुल्बसूत्र
30वाँ प्रश्न शुल्बसूत्र है और उसके पश्चात् प्रवरसूत्र है, जिसकी प्रश्न संख्या नहीं दी गई है।
शाखागत क्रम
तैत्तिरीय शाखा, जिससे बौधायन श्रौतसूत्र का सम्बन्ध है, सूत्र रचना से पूर्व सुप्रतिष्ठित थी। सूत्रकार ने मन्त्रों को शाखागत क्रम से उद्धृत किया है। ब्राह्मण वाक्यों को उद्धृत करते समय वह 'अथ वै यजति' शब्द देते हैं, किन्तु तैत्तिरीय ब्राह्मण के द्वितीय काण्ड के सप्तम प्रपाठक (अच्छिद्र काण्ड) का कोई अंश बौधायन सूत्र में उद्धृत नहीं किया गया है। काण्डानुक्रम के अनुसार चतुर्थ वैश्वदेव काण्ड में 'अच्छिद्राणि' अन्तर्भूत है। तैत्तिरीय ब्राह्मण[6] में दर्शपूर्णमासेष्टि का हौत्र संग्रहीत है, जिसका विनियोग बौधायन सूत्र में प्रदत्त है। अपनी शाखा से तो बौधायन एकनिष्ठ है ही, साथ ही काठक शाखा का भी कुछ प्रभाव उनकी रचना पर प्रतीत होता है। इस शाखा के कुछ मन्त्रों का विनियोग बौधायन ने दिया है। बौधायन सूत्र ताण्ड्यमहाब्राह्मण, षडविंश ब्राह्मण, पैङ्गलायनि ब्राह्मण, छागलेय ब्राह्मण तथा ऋग्वेद प्रभृति के भी सन्दर्भ मिलते हैं।[7] अनेक सामों का भी निर्देश है।
वैविध्य
बौधायन कल्पसूत्र में शुल्ब सूत्र के अंत तक 32 प्रश्न परिगणित हैं, किन्तु मुद्रित सूत्र में उनकी संख्या 30 है। बौधायन श्रौतसूत्र के हस्तलेखों में पाठक्रम के वैविध्य का अनुभव होता है। किसी हस्तलेख में प्रश्न अग्निष्टोम से पूर्व और किसी में पश्चात्। सौत्रामणी याग दो प्रकार का है– चरक और कौकिली। विद्यमान सूत्र में कौकिली है ही नहीं। बौधायन श्रौतसूत्र के भाष्यकार भवस्वामी ने लिखा है कि बौधायन श्रौतसूत्र का कौकिली सौत्रामणीपरक अंश नष्ट हो गया है। उसके पूर्व अस्तित्व के प्रमाण सूत्र में भी हैं। बौधायन श्रौतसूत्र की भाषा–शैली भाषा के सदृश है। बौधायन श्रौतसूत्र के सम्पादक डॉ. कालान्द ने इसका विस्तृत अध्ययन प्रस्तुत किया है।
भवस्वामी का भाष्य
बौधायन श्रौतसूत्र के 1 से 26 प्रश्नों पर भवस्वामी का भाष्य है। यह भाग संक्षिप्त है और उसके हस्तलेख अत्यन्त दोषपूर्ण हैं। अब तक यह अप्रकाशित है। नि:संदेह इसका प्रकाशन बौधायन श्रौतसूत्र के अध्ययन में अतीव लाभदायक होगा। सायणाचार्य का भी इस सूत्र के प्रथम प्रश्न पर भाष्य उपलब्ध है। यह प्रकाशित भी हुआ है। दशम प्रश्न (अग्निचयनपरक) पर वासुदेव दीक्षितकृत 'महाग्निसर्वस्व' संज्ञक भाष्य है, जो उपादेय है। 17वें प्रश्नगत एकादशिनी पर भी एक भाष्य है। कर्मान्तसूत्र पर वेंकटेश्वर का भाष्य उपलब्ध है। 27वें से 29वें तक के प्रश्नों पर भी भाष्य मिलता है। शुल्बसूत्र पर द्वारकानाथ यज्वन् का भाष्य मुद्रित ही है। तंजाऊर के महादेव वाजपेयी ने प्रथम आठ प्रश्नों पर 'सुबोधिनी' नाम्नी विस्तृत टीका रची है जो अभी तक अप्रकाशित है। केशव स्वामी ने बौधायन श्रौतसूत्रानुसार अनेक यागों के प्रयोग लिखे हैं जो हस्तलेखों के रूप में सुरक्षित हैं। ये यागानुष्ठान कराने वाले ऋत्विजों के लिए बहुत ही उपयोगी हैं। यों भी केशव स्वामी के वय में सर्वशाखीय वैदिकों में अत्यन्त आदरभाव रहा है। 17वीं शताब्दी के अनन्तदेव ने भी अनेक श्रौतप्रयोग और बौधायन शाखापरक ग्रन्थ लिखे हैं। अनन्तदेव के आश्रयदाता थे हिमाचल प्रदेश के राजा बाजबहादुर। महाराष्ट्रीय शेषकुल के ब्राह्मणों ने भी जो 16वीं शती में वाराणसी चले गए थे, अनेक श्रौतयागों के प्रयोग लिखे।
बौधायन श्रौतसूत्र की रचना
बुह्लर ने धर्मसूत्रों के अपने अंग्रेज़ी अनुवाद की प्रस्तावना में कहा है कि तैत्तिरीय शाखा का सूत्रपात दक्षिण भारत में हुआ और वहीं सम्प्रति उसके अनुयायी रहते हैं। अब यह बात नहीं मानी जाती। जब कृष्णयजुर्वेद की अन्य शाखाओं का उद्भव उत्तर भारत में हुआ तो यही मानना युक्तियुक्त है कि तैत्तिरीय शाखा भी वहीं पनपी। इस शाखा के प्राचीनतम सूत्र बौधायन श्रौतसूत्र की रचना भी उत्तर भारत में हुई। व्याकरण–महाभाष्यकार पतञ्जलि के अनुसार (ई. पू. 150) में कठ–कालाप शाखाओं का अध्ययन गाँव–गाँव में प्रचलित था। बौधायन ने काठकचयन काठकशाखा से ही लिए हैं। इससे पष्ट होता है कि वह काठकशाखा के सान्निध्य में रहते थे। बौधायन श्रौतसूत्र में उत्तर भारत के अनेक भौगोलिक निर्देश मिलते हैं। दक्षिण भारत में भारतीयों का विस्तार ई. पू. पाँचवीं शती में हुआ, तभी बौधायन श्रौतसूत्र के अनुयायी भी दक्षिण भारत में जाकर रहे। इसकी पृष्ठभूमि में ऋग्वेदीय (आश्वलायनशाखीय) यजमानों का आग्रह निहित था, क्योंकि उन्हें आध्वर्यव के लिए बौधायनशाखीय ऋत्विजों की आवश्यकता थी। सम्प्रति आन्ध्र और तमिलनाडु की अपेक्षा कर्नाटक और केरल में इस शाखा का विशेष प्रचार है। ब्राह्मण ग्रन्थों के सदृश भाषा–शैली होने के आधार पर कहा जा सकता है कि बौधायन श्रौतसूत्र की रचना पाणिनि और बुद्ध के काल (ई. पू. 500) से पहले हुई। जैमिनि की पूर्वमीमांसा में कल्पसूत्राधिकरण है। वह जिस आधार पर है, उसमें बौधायन का अवश्य अन्तर्भाव होना चाहिए। बौधायन की रचना प्रवचन रूप में है, सूत्राकार रूप में नहीं। इन प्रमाणों के आधार पर यह कहना युक्तियुक्त होगा कि बौधायन श्रौतसूत्र की रचना ई. पूर्व 650 से पहले हुई होगी।
बौधायन श्रौतसूत्र के संस्करण
- बौधायन श्रौतसूत्र, सम्पादक–विल्हेल्म कालान्द, प्रथम संस्करण 1904 से 1923 के मध्य प्रकाशित।
- द्वितीय संस्करण मुंशीराम मनोहरलाल, दिल्ली, भाग–1–2, 1982।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सायण से पूर्वकालीन भाष्यकार भट्टभास्कर ने भी तैत्तिरीय संहिता–भाष्य में सर्वप्रथम बोधायन को ही प्रणाम किया है – ‘प्रणम्य शिरसाऽऽचार्यान् बोधायनपुर: सरान् व्याख्यैषाध्वर्युवेदस्य यथाबुद्धि विधीयते।’
- ↑ बौधायन गृह्यसूत्र में उत्सर्जन विधि के अवसर पर देवताओं, ऋषियों और आचार्यों के लिए आसनों की कल्पना के समय बोधायन को प्रवचनकार कहा गया है – 'काण्वाय बोधायनाय प्रवचनकाराय।'
- ↑ तैत्तिरीय संहिता, 4.5
- ↑ तैत्तिरीय संहिता, 4.7
- ↑ तैत्तिरीय शाखा की दो पाठ–परम्पराएँ हैं, सारस्वत पाठ और आर्षेय पाठ। संहिता, ब्राह्मण और आरण्यक – इन तीनों पृथक् ग्रन्थों के द्वारा रूढ़ परम्परा सारस्वत–पाठानुसारिणी है। आर्षेय पाठ में संहिता, ब्राह्मण और आरण्यक को एक में मिला दिया गया है। बौधायन गृह्यसूत्र(3.3) के अनुसार यह पाठ पाँच भागों में विभक्त है– प्राजापत्य काण्ड, सौम्य काण्ड, आग्नेय काण्ड, वैश्वदेव काण्ड और स्वायम्भुव काण्ड। इनके ऋषि क्रमश: प्रजापति, सोम, अग्नि, विश्वेदेवा: और स्वयम्भू हैं।
- ↑ तैत्तिरीय ब्राह्मण, 3.5
- ↑ द्रष्टव्य, बौधायन सूत्र– 27.4, 2.9, 2.7, 25.5, 26, 13, 27.7।