"रश्मिरथी प्रथम सर्ग": अवतरणों में अंतर
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'''रश्मिरथी''' जिसका अर्थ 'सूर्य की सारथी' है, [[हिन्दी]] [[कवि]] [[रामधारी सिंह दिनकर]] के सबसे लोकप्रिय [[महाकाव्य]] कविताओं में से एक है। इसमें 7 सर्ग हैं। 'रश्मिरथी' में कर्ण कथा को विषयवस्तु के रूप में चुनकर लेखक ने सर्जक के नए आयाम का | | | ||
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! रामधारी सिंह दिनकर की रचनाएँ | |||
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{{रामधारी सिंह दिनकर की रचनाएँ}} | |||
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'''रश्मिरथी''' जिसका अर्थ 'सूर्य की सारथी' है, [[हिन्दी]] [[कवि]] [[रामधारी सिंह दिनकर]] के सबसे लोकप्रिय [[महाकाव्य]] कविताओं में से एक है। इसमें 7 सर्ग हैं। 'रश्मिरथी' में कर्ण कथा को विषयवस्तु के रूप में चुनकर लेखक ने सर्जक के नए आयाम का उद्घाटन किया है। यह [[महाभारत]] की कहानी है। महाभारत सामूहिक लेखन की देन है। इस अर्थ में दिनकर ने एकदम नयी समस्या की ओर ध्यान खींचा है। [[कर्ण]] की कहानी हम वर्षों से सुनते आ रहे हैं। कहानी पुरानी है, काव्य प्रस्तुति नयी है। प्रथम सर्ग की कथा इस प्रकार है - | |||
==प्रथम सर्ग== | ==प्रथम सर्ग== | ||
[[कौरव |कौरव]] और [[पाण्डव]] जब छात्रावास में थे, तब उन्हें शस्त्रास्त्र की शिक्षा देने के लिए [[द्रोणाचार्य]] नियुक्त किये गये। जब कुमारों की शिक्षा पूर्ण हो गयी, | [[कौरव |कौरव]] और [[पाण्डव]] जब छात्रावास में थे, तब उन्हें शस्त्रास्त्र की शिक्षा देने के लिए [[द्रोणाचार्य]] नियुक्त किये गये। जब कुमारों की शिक्षा पूर्ण हो गयी, तब उनके रण कौशल का जनता के समक्ष प्रदर्शन करने को एक सार्वजनिक आयोजन किया गया। इसी आयोजन में अचानक कर्ण प्रकट हुआ और चूँकि उस दिन सभा में सबसे अधिक प्रशंसा [[अर्जुन]] के अस्त्र चालन की हुई थी, इस लिए कर्ण ने अपने साथ भिड़ने की चुनौती भी उसे ही दी। किंतु [[कृपाचार्य]] ने कहा कि जब तक यह विदित नहीं हो जाय कि कर्ण की जाति क्या है तथा वह राजपूत्र है या नहीं, तब तक अर्जुन उसके साथ लड़कर उसे सम्मान नहीं देगा। | ||
<poem>‘‘क्षत्रिय है, यह | <poem>‘‘क्षत्रिय है, यह राजपूत्र है, यों ही नहीं लड़ेगा, | ||
जिस-तिस से हाथापाई में कैसे कूद पड़ेगा ? | जिस-तिस से हाथापाई में कैसे कूद पड़ेगा ? | ||
अर्जुन से लड़ना हो तो मत गहो सभा में मौन, | अर्जुन से लड़ना हो तो मत गहो सभा में मौन, | ||
नाम-धाम कुछ कहो, बताओ कि तुम जाति हो कौन ? | नाम-धाम कुछ कहो, बताओ कि तुम जाति हो कौन ?<ref>{{cite book | last ='दिनकर' | first =रामधारी सिंह | title =रश्मिरथी | edition = | publisher =लोकभारती प्रकाशन | location =भारत डिस्कवरी पुस्तकालय | language =हिंदी | pages =पृष्ठ 11 | chapter =प्रथम सर्ग}}</ref> | ||
*कृपाचार्य ने कर्ण से कहा- | *कृपाचार्य ने कर्ण से कहा- | ||
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कृपाचार्य ने कहा- ‘‘वृथा तुम क्रुद्ध हुए जाते हो, | कृपाचार्य ने कहा- ‘‘वृथा तुम क्रुद्ध हुए जाते हो, | ||
साधारण-सी बात, उसे भी समझ नहीं पाते हो। | साधारण-सी बात, उसे भी समझ नहीं पाते हो। | ||
राजपूत्र से लड़े बिना होता हो अगर अकाज, | |||
अर्जित करना तुम्हें चाहिए पहले कोई राज। | अर्जित करना तुम्हें चाहिए पहले कोई राज।<ref>{{cite book | last ='दिनकर' | first =रामधारी सिंह | title =रश्मिरथी | edition = | publisher =लोकभारती प्रकाशन | location =भारत डिस्कवरी पुस्तकालय | language =हिंदी | pages =पृष्ठ 11 | chapter =प्रथम सर्ग}}</ref> | ||
*[[दुर्योधन]] को अर्जुन से द्वेष तो था ही, उसने सभा के समक्ष ही कर्ण को अंग देश का राजा बना दिया।- | *[[दुर्योधन]] को अर्जुन से द्वेष तो था ही, उसने सभा के समक्ष ही कर्ण को अंग देश का राजा बना दिया।- | ||
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मानवता की इस विभूति का, धरती के इस धन का ? | मानवता की इस विभूति का, धरती के इस धन का ? | ||
बिना राज्य यदि नहीं वीरता का इसको अधिकार, | बिना राज्य यदि नहीं वीरता का इसको अधिकार, | ||
तो मेरी यह खुली घोषणा सुने सकल संसार। | तो मेरी यह खुली घोषणा सुने सकल संसार।<ref>{{cite book | last ='दिनकर' | first =रामधारी सिंह | title =रश्मिरथी | edition = | publisher =लोकभारती प्रकाशन | location =भारत डिस्कवरी पुस्तकालय | language =हिंदी | pages =पृष्ठ 12 | chapter =प्रथम सर्ग}}</ref> | ||
‘‘अंगदेश का मुकुट कर्ण के मस्तक पर धरता हूँ, | ‘‘अंगदेश का मुकुट कर्ण के मस्तक पर धरता हूँ, | ||
एक राज्य इस महावीर के हित अर्पित करता हूँ। | एक राज्य इस महावीर के हित अर्पित करता हूँ। | ||
रखा कर्ण के सिर पर उसने अपना मुकुट उतार, | रखा कर्ण के सिर पर उसने अपना मुकुट उतार, | ||
गूँजी रंगभूमि में दुर्योधन की जय-जय-कार। | गूँजी रंगभूमि में दुर्योधन की जय-जय-कार।<ref>{{cite book | last ='दिनकर' | first =रामधारी सिंह | title =रश्मिरथी | edition = | publisher =लोकभारती प्रकाशन | location =भारत डिस्कवरी पुस्तकालय | language =हिंदी | pages =पृष्ठ 12 | chapter =प्रथम सर्ग}}</ref> | ||
*फिर [[भीम]] और दुर्योधन में गाली गलौज होने लगी, जिसे कृपाचार्य ने रोक दिया। जब सभा विसर्जित हुई और लोग अपने अपने घर जाने लगे, तब रास्ते में द्रोणाचार्य ने अर्जुन से कहा कि 'अर्जुन, कर्ण तुम्हारा बैरी और प्रतिबल होगा। मैंने [[एकलव्य]] का अँगूठा तो इसलिए कटवा लिया कि तुम्हारे समान धनुर्धर और कोई ना हो, किंतु, इस कर्ण के साथ क्या बर्ताव करें? एक बात तो ठीक है कि मैं उसे अपना शिष्य नहीं बनाऊँगा?'- | *फिर [[भीम]] और दुर्योधन में गाली गलौज होने लगी, जिसे कृपाचार्य ने रोक दिया। जब सभा विसर्जित हुई और लोग अपने अपने घर जाने लगे, तब रास्ते में द्रोणाचार्य ने अर्जुन से कहा कि 'अर्जुन, कर्ण तुम्हारा बैरी और प्रतिबल होगा। मैंने [[एकलव्य]] का अँगूठा तो इसलिए कटवा लिया कि तुम्हारे समान धनुर्धर और कोई ना हो, किंतु, इस कर्ण के साथ क्या बर्ताव करें? एक बात तो ठीक है कि मैं उसे अपना शिष्य नहीं बनाऊँगा?'- | ||
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टँगा रहा है एक इसी पर ध्यान आज तक मेरा। | टँगा रहा है एक इसी पर ध्यान आज तक मेरा। | ||
एकलव्य से लिया अँगूठा, कढ़ी न मुख से आह, | एकलव्य से लिया अँगूठा, कढ़ी न मुख से आह, | ||
रखा चाहता हूँ निष्कण्टक बेटा ! तेरी राह। | रखा चाहता हूँ निष्कण्टक बेटा ! तेरी राह।<ref>{{cite book | last ='दिनकर' | first =रामधारी सिंह | title =रश्मिरथी | edition = | publisher =लोकभारती प्रकाशन | location =भारत डिस्कवरी पुस्तकालय | language =हिंदी | pages =पृष्ठ 14 | chapter =प्रथम सर्ग}}</ref> | ||
‘‘मगर, आज जो कुछ देखा, उससे धीरज हिलता है, | ‘‘मगर, आज जो कुछ देखा, उससे धीरज हिलता है, | ||
मुझे कर्ण में चरम वीरता का लक्षण मिलता है। | मुझे कर्ण में चरम वीरता का लक्षण मिलता है। | ||
बढ़ता गया अगर निष्कण्टक यह उद्भट भट बाल, | बढ़ता गया अगर निष्कण्टक यह उद्भट भट बाल, | ||
अर्जुन ! तेरे लिए कभी वह हो सकता है काल ! | अर्जुन ! तेरे लिए कभी वह हो सकता है काल !<ref>{{cite book | last ='दिनकर' | first =रामधारी सिंह | title =रश्मिरथी | edition = | publisher =लोकभारती प्रकाशन | location =भारत डिस्कवरी पुस्तकालय | language =हिंदी | pages =पृष्ठ 14 | chapter =प्रथम सर्ग}}</ref> | ||
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शरमाते हैं नहीं जगत् में जाति पूछनेवाले। | शरमाते हैं नहीं जगत् में जाति पूछनेवाले। | ||
सूतपुत्र हूँ मैं, लेकिन, थे पिता पार्थ के कौन ? | सूतपुत्र हूँ मैं, लेकिन, थे पिता पार्थ के कौन ? | ||
साहस हो तो कहो, ग्लानि से रह जाओ मत मौन। | साहस हो तो कहो, ग्लानि से रह जाओ मत मौन।<ref>{{cite book | last ='दिनकर' | first =रामधारी सिंह | title =रश्मिरथी | edition = | publisher =लोकभारती प्रकाशन | location =भारत डिस्कवरी पुस्तकालय | language =हिंदी | pages =पृष्ठ 11 | chapter =प्रथम सर्ग}}</ref> | ||
‘‘मस्तक ऊँचा किये, जाति का नाम लिये चलते हो, | ‘‘मस्तक ऊँचा किये, जाति का नाम लिये चलते हो, | ||
पर, अधर्ममय शोषण के बल से सुख में पलते हो। | पर, अधर्ममय शोषण के बल से सुख में पलते हो। | ||
अधम जातियों से थर-थर काँपते तुम्हारे प्राण, | अधम जातियों से थर-थर काँपते तुम्हारे प्राण, | ||
छल से माँग लिया करते हो अँगूठे का दान। | छल से माँग लिया करते हो अँगूठे का दान।<ref>{{cite book | last ='दिनकर' | first =रामधारी सिंह | title =रश्मिरथी | edition = | publisher =लोकभारती प्रकाशन | location =भारत डिस्कवरी पुस्तकालय | language =हिंदी | pages =पृष्ठ 11 | chapter =प्रथम सर्ग}}</ref> | ||
*जब कृपाचार्य ने सभा में कर्ण की जाति पूछी थी, उस समय [[कुंती]] परदे के पीछे रनिवास में बैठी हुई थी। किंतु उन्हें इतना साहस नहीं हुआ कि बढ़कर कृपाचार्य से यह कहा दें कि कर्ण की माता मैं ही हूँ। फिर भी, शोक के कारण वह मूर्छित हो गयीं और जब घर लौटने लगीं, तब रथ तक जाने में भी उनके पाँव डगमगाने लगे।- | *जब कृपाचार्य ने सभा में कर्ण की जाति पूछी थी, उस समय [[कुंती]] परदे के पीछे रनिवास में बैठी हुई थी। किंतु उन्हें इतना साहस नहीं हुआ कि बढ़कर कृपाचार्य से यह कहा दें कि कर्ण की माता मैं ही हूँ। फिर भी, शोक के कारण वह मूर्छित हो गयीं और जब घर लौटने लगीं, तब रथ तक जाने में भी उनके पाँव डगमगाने लगे।- | ||
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सबके पीछे चलीं एक विकला मसोसती मन को। | सबके पीछे चलीं एक विकला मसोसती मन को। | ||
उजड़ गये हों स्वप्न कि जैसे हार गयी हों दाँव, | उजड़ गये हों स्वप्न कि जैसे हार गयी हों दाँव, | ||
नहीं उठाये भी उठ पाते थे कुन्ती के पाँव। </poem> | नहीं उठाये भी उठ पाते थे कुन्ती के पाँव। <ref>{{cite book | last ='दिनकर' | first =रामधारी सिंह | title =रश्मिरथी | edition = | publisher =लोकभारती प्रकाशन | location =भारत डिस्कवरी पुस्तकालय | language =हिंदी | pages =पृष्ठ 14 | chapter =प्रथम सर्ग}}</ref></poem> | ||
==कर्ण-चरित== | ==कर्ण-चरित== | ||
कर्ण-चरित के उद्धार की चिन्ता इस बात का प्रमाण है कि हमसे समाज में मानवीय गुणों को पहचान बढ़ने वाली है। कुल और जाति का अहंकार विदा हो रहा है। आगे मनुष्य केवल उसी पद का अधिकारी होगा जो उसके अपने सामर्थ्य से सूचित होता हो, उस पद का नहीं, जो उसके माता-पिता या वंश की देन है। इसी प्रकार व्यक्ति अपने निजी गुणों के कारण जिस पद का अधिकारी है वह उसे मिलकर रहेगा, यहाँ तक कि उसके माता-पिता के दोष भी इसमें कोई बाधा नहीं डाल सकेंगे। '''कर्णचरित का उद्धार एक तरह से, नयी मानवता की स्थापना का ही प्रयास है''' | कर्ण-चरित के उद्धार की चिन्ता इस बात का प्रमाण है कि हमसे समाज में मानवीय गुणों को पहचान बढ़ने वाली है। कुल और जाति का अहंकार विदा हो रहा है। आगे मनुष्य केवल उसी पद का अधिकारी होगा जो उसके अपने सामर्थ्य से सूचित होता हो, उस पद का नहीं, जो उसके माता-पिता या वंश की देन है। इसी प्रकार व्यक्ति अपने निजी गुणों के कारण जिस पद का अधिकारी है वह उसे मिलकर रहेगा, यहाँ तक कि उसके माता-पिता के दोष भी इसमें कोई बाधा नहीं डाल सकेंगे। '''कर्णचरित का उद्धार एक तरह से, नयी मानवता की स्थापना का ही प्रयास है'''। | ||
*रश्मिरथी में स्वयं कर्ण के मुख से निकला है- | *रश्मिरथी में स्वयं कर्ण के मुख से निकला है- | ||
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पूछेगा जग, किन्तु पिता का नाम न बोल सकेंगे, | पूछेगा जग, किन्तु पिता का नाम न बोल सकेंगे, | ||
जिनका निखिल विश्व में कोई कहीं न अपना होगा, | जिनका निखिल विश्व में कोई कहीं न अपना होगा, | ||
मन में लिये उमंग जिन्हें चिर-काल कलपना होगा।<ref>{{cite web |url= http://pustak.org/home.php?bookid=1996#|title= रश्मिरथी|accessmonthday=22 सितम्बर |accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=भारतीय साहित्य संग्रह |language=हिंदी }}</ref></poem> | मन में लिये उमंग जिन्हें चिर-काल कलपना होगा।<ref>{{cite book | last ='दिनकर' | first =रामधारी सिंह | title =रश्मिरथी | edition = | publisher =लोकभारती प्रकाशन | location =भारत डिस्कवरी पुस्तकालय | language =हिंदी | pages =पृष्ठ 57 | chapter =चतुर्थ सर्ग}}</ref><ref>{{cite web |url= http://pustak.org/home.php?bookid=1996#|title= रश्मिरथी|accessmonthday=22 सितम्बर |accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=भारतीय साहित्य संग्रह |language=हिंदी }}</ref></poem> | ||
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07:57, 7 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण
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रश्मिरथी जिसका अर्थ 'सूर्य की सारथी' है, हिन्दी कवि रामधारी सिंह दिनकर के सबसे लोकप्रिय महाकाव्य कविताओं में से एक है। इसमें 7 सर्ग हैं। 'रश्मिरथी' में कर्ण कथा को विषयवस्तु के रूप में चुनकर लेखक ने सर्जक के नए आयाम का उद्घाटन किया है। यह महाभारत की कहानी है। महाभारत सामूहिक लेखन की देन है। इस अर्थ में दिनकर ने एकदम नयी समस्या की ओर ध्यान खींचा है। कर्ण की कहानी हम वर्षों से सुनते आ रहे हैं। कहानी पुरानी है, काव्य प्रस्तुति नयी है। प्रथम सर्ग की कथा इस प्रकार है -
प्रथम सर्ग
कौरव और पाण्डव जब छात्रावास में थे, तब उन्हें शस्त्रास्त्र की शिक्षा देने के लिए द्रोणाचार्य नियुक्त किये गये। जब कुमारों की शिक्षा पूर्ण हो गयी, तब उनके रण कौशल का जनता के समक्ष प्रदर्शन करने को एक सार्वजनिक आयोजन किया गया। इसी आयोजन में अचानक कर्ण प्रकट हुआ और चूँकि उस दिन सभा में सबसे अधिक प्रशंसा अर्जुन के अस्त्र चालन की हुई थी, इस लिए कर्ण ने अपने साथ भिड़ने की चुनौती भी उसे ही दी। किंतु कृपाचार्य ने कहा कि जब तक यह विदित नहीं हो जाय कि कर्ण की जाति क्या है तथा वह राजपूत्र है या नहीं, तब तक अर्जुन उसके साथ लड़कर उसे सम्मान नहीं देगा।
‘‘क्षत्रिय है, यह राजपूत्र है, यों ही नहीं लड़ेगा,
जिस-तिस से हाथापाई में कैसे कूद पड़ेगा ?
अर्जुन से लड़ना हो तो मत गहो सभा में मौन,
नाम-धाम कुछ कहो, बताओ कि तुम जाति हो कौन ?[1]
- कृपाचार्य ने कर्ण से कहा-
कृपाचार्य ने कहा- ‘‘वृथा तुम क्रुद्ध हुए जाते हो,
साधारण-सी बात, उसे भी समझ नहीं पाते हो।
राजपूत्र से लड़े बिना होता हो अगर अकाज,
अर्जित करना तुम्हें चाहिए पहले कोई राज।[2]
- दुर्योधन को अर्जुन से द्वेष तो था ही, उसने सभा के समक्ष ही कर्ण को अंग देश का राजा बना दिया।-
‘‘करना क्या अपमान ठीक है इस अनमोल रतन का,
मानवता की इस विभूति का, धरती के इस धन का ?
बिना राज्य यदि नहीं वीरता का इसको अधिकार,
तो मेरी यह खुली घोषणा सुने सकल संसार।[3]
‘‘अंगदेश का मुकुट कर्ण के मस्तक पर धरता हूँ,
एक राज्य इस महावीर के हित अर्पित करता हूँ।
रखा कर्ण के सिर पर उसने अपना मुकुट उतार,
गूँजी रंगभूमि में दुर्योधन की जय-जय-कार।[4]
- फिर भीम और दुर्योधन में गाली गलौज होने लगी, जिसे कृपाचार्य ने रोक दिया। जब सभा विसर्जित हुई और लोग अपने अपने घर जाने लगे, तब रास्ते में द्रोणाचार्य ने अर्जुन से कहा कि 'अर्जुन, कर्ण तुम्हारा बैरी और प्रतिबल होगा। मैंने एकलव्य का अँगूठा तो इसलिए कटवा लिया कि तुम्हारे समान धनुर्धर और कोई ना हो, किंतु, इस कर्ण के साथ क्या बर्ताव करें? एक बात तो ठीक है कि मैं उसे अपना शिष्य नहीं बनाऊँगा?'-
‘‘जनमे नहीं जगत् में अर्जुन ! कोई प्रतिबल तेरा,
टँगा रहा है एक इसी पर ध्यान आज तक मेरा।
एकलव्य से लिया अँगूठा, कढ़ी न मुख से आह,
रखा चाहता हूँ निष्कण्टक बेटा ! तेरी राह।[5]
‘‘मगर, आज जो कुछ देखा, उससे धीरज हिलता है,
मुझे कर्ण में चरम वीरता का लक्षण मिलता है।
बढ़ता गया अगर निष्कण्टक यह उद्भट भट बाल,
अर्जुन ! तेरे लिए कभी वह हो सकता है काल ![6]
- कर्ण ने कहा भी है-
‘‘ऊपर सिर पर कनक-छत्र, भीतर काले-के-काले,
शरमाते हैं नहीं जगत् में जाति पूछनेवाले।
सूतपुत्र हूँ मैं, लेकिन, थे पिता पार्थ के कौन ?
साहस हो तो कहो, ग्लानि से रह जाओ मत मौन।[7]
‘‘मस्तक ऊँचा किये, जाति का नाम लिये चलते हो,
पर, अधर्ममय शोषण के बल से सुख में पलते हो।
अधम जातियों से थर-थर काँपते तुम्हारे प्राण,
छल से माँग लिया करते हो अँगूठे का दान।[8]
- जब कृपाचार्य ने सभा में कर्ण की जाति पूछी थी, उस समय कुंती परदे के पीछे रनिवास में बैठी हुई थी। किंतु उन्हें इतना साहस नहीं हुआ कि बढ़कर कृपाचार्य से यह कहा दें कि कर्ण की माता मैं ही हूँ। फिर भी, शोक के कारण वह मूर्छित हो गयीं और जब घर लौटने लगीं, तब रथ तक जाने में भी उनके पाँव डगमगाने लगे।-
और हाय, रनिवास चला वापस जब राजभवन को,
सबके पीछे चलीं एक विकला मसोसती मन को।
उजड़ गये हों स्वप्न कि जैसे हार गयी हों दाँव,
नहीं उठाये भी उठ पाते थे कुन्ती के पाँव। [9]
कर्ण-चरित
कर्ण-चरित के उद्धार की चिन्ता इस बात का प्रमाण है कि हमसे समाज में मानवीय गुणों को पहचान बढ़ने वाली है। कुल और जाति का अहंकार विदा हो रहा है। आगे मनुष्य केवल उसी पद का अधिकारी होगा जो उसके अपने सामर्थ्य से सूचित होता हो, उस पद का नहीं, जो उसके माता-पिता या वंश की देन है। इसी प्रकार व्यक्ति अपने निजी गुणों के कारण जिस पद का अधिकारी है वह उसे मिलकर रहेगा, यहाँ तक कि उसके माता-पिता के दोष भी इसमें कोई बाधा नहीं डाल सकेंगे। कर्णचरित का उद्धार एक तरह से, नयी मानवता की स्थापना का ही प्रयास है।
- रश्मिरथी में स्वयं कर्ण के मुख से निकला है-
मैं उनका आदर्श, कहीं जो व्यथा न खोल सकेंगे
पूछेगा जग, किन्तु पिता का नाम न बोल सकेंगे,
जिनका निखिल विश्व में कोई कहीं न अपना होगा,
मन में लिये उमंग जिन्हें चिर-काल कलपना होगा।[10][11]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “प्रथम सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 11।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “प्रथम सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 11।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “प्रथम सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 12।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “प्रथम सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 12।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “प्रथम सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 14।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “प्रथम सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 14।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “प्रथम सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 11।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “प्रथम सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 11।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “प्रथम सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 14।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “चतुर्थ सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 57।
- ↑ रश्मिरथी (हिंदी) भारतीय साहित्य संग्रह। अभिगमन तिथि: 22 सितम्बर, 2013।
बाहरी कड़ियाँ
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