"रश्मिरथी तृतीय सर्ग": अवतरणों में अंतर
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'''रश्मिरथी''' जिसका अर्थ 'सूर्य की सारथी' है, [[हिन्दी]] [[कवि]] [[रामधारी सिंह दिनकर]] के सबसे लोकप्रिय [[महाकाव्य]] कविताओं में से एक है। इसमें 7 सर्ग हैं। 'रश्मिरथी' में [[कर्ण]] कथा को विषयवस्तु के रूप में चुनकर लेखक ने सर्जक के नए आयाम का | '''रश्मिरथी''' जिसका अर्थ 'सूर्य की सारथी' है, [[हिन्दी]] [[कवि]] [[रामधारी सिंह दिनकर]] के सबसे लोकप्रिय [[महाकाव्य]] कविताओं में से एक है। इसमें 7 सर्ग हैं। 'रश्मिरथी' में [[कर्ण]] कथा को विषयवस्तु के रूप में चुनकर लेखक ने सर्जक के नए आयाम का उद्घाटन किया है। यह [[महाभारत]] की कहानी है। महाभारत सामूहिक लेखन की देन है। इस अर्थ में दिनकर ने एकदम नयी समस्या की ओर ध्यान खींचा है। कर्ण की कहानी हम वर्षों से सुनते आ रहे हैं। कहानी पुरानी है, काव्य प्रस्तुति नयी है। तृतीय सर्ग की कथा इस प्रकार है - | ||
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*[[कौरव|कौरवों]] ने द्यूत के छ्ल से [[पाण्डव|पाण्डवों]] को तेरह [[वर्ष|वर्षों]] तक वनवास झेलने को विवश किया था। | *[[कौरव|कौरवों]] ने द्यूत के छ्ल से [[पाण्डव|पाण्डवों]] को तेरह [[वर्ष|वर्षों]] तक वनवास झेलने को विवश किया था। | ||
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यह देख, [[महाभारत]] का रण, | यह देख, [[महाभारत]] का रण, | ||
मृतकों से पटी हुई भू है, | मृतकों से पटी हुई भू है, |
07:59, 7 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण
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रश्मिरथी जिसका अर्थ 'सूर्य की सारथी' है, हिन्दी कवि रामधारी सिंह दिनकर के सबसे लोकप्रिय महाकाव्य कविताओं में से एक है। इसमें 7 सर्ग हैं। 'रश्मिरथी' में कर्ण कथा को विषयवस्तु के रूप में चुनकर लेखक ने सर्जक के नए आयाम का उद्घाटन किया है। यह महाभारत की कहानी है। महाभारत सामूहिक लेखन की देन है। इस अर्थ में दिनकर ने एकदम नयी समस्या की ओर ध्यान खींचा है। कर्ण की कहानी हम वर्षों से सुनते आ रहे हैं। कहानी पुरानी है, काव्य प्रस्तुति नयी है। तृतीय सर्ग की कथा इस प्रकार है -
तृतीय सर्ग
वर्षों तक वन में घूम-घूम,
बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर,
पांडव आये कुछ और निखर।
सौभाग्य न सब दिन सोता है,
देखें, आगे क्या होता है।[1]
- इन तेरह वर्षों में से बारह वर्षों तक पाण्डव वनों में खुलकर रह सकते थे, किंतु तेरहवें वर्ष उन्हें अज्ञातवास करना था, जिसमें उन्हें कोई पहचान ना सके।
हो गया पूर्ण अज्ञात वास,
पाडंव लौटे वन से सहास,
पावक में कनक-सदृश तप कर,
वीरत्व लिए कुछ और प्रखर,
नस-नस में तेज-प्रवाह लिये,
कुछ और नया उत्साह लिये।[2]
- जब अज्ञातवास भी पूरा हो गया, तब पाण्डव इंद्रप्रस्थ वापस आये और कौरवों तथा पाण्डवों के बीच संधि कराने को भगवान कृष्ण हस्तिनापुर गये, जो कौरवों की राजधानी थी।
'दो न्याय अगर तो आधा दो,
पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
रक्खो अपनी धरती तमाम।
हम वहीं खुशी से खायेंगे,
परिजन पर असि न उठायेंगे![3]
- लेकिन संधि की कौन कहे, दुर्योधन ने उल्टे भगवान कृष्ण को गिरफ़्तार करना चाहा।
दुर्योधन वह भी दे ना सका,
आशिष समाज की ले न सका,
उलटे, हरि को बाँधने चला,
जो था असाध्य, साधने चला।
जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।[4]
- उस पर भगवान को क्रोध आ गया और भरी सभा में उन्होंने अपना विराट रूप प्रकट किया। कहते हैं, उनका विराट क्रुद्ध रूप देखते ही लोग मूर्छित हो गये।
हरि ने भीषण हुंकार किया,
अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले,
भगवान् कुपित होकर बोले-
'जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।[5]
- केवल विदुर जी की चेतना ठीक रही। उन्होंने धृतराष्ट्र से कहा, 'महाराज आश्चर्य की बात है कि भगवान अपने विराट रूप में विराज रहे हैं।' इस पर धृतराष्ट्र ने अपने अंधे होने पर पश्चात्ताप किया। कहते हैं कि पश्चात्ताप करते ही विराट रूप देखने तक के लिए उनको दृष्टि मिल गयी।
थी सभा सन्न, सब लोग डरे,
चुप थे या थे बेहोश पड़े।
केवल दो नर ना अघाते थे,
धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।
कर जोड़ खड़े प्रमुदित, निर्भय,
दोनों पुकारते थे 'जय-जय'![6]
- विराट रूप समेट कर जब भगवान कृष्ण कौरवों की सभा छोड़कर चले, तब उन्हें आदरपूर्वक नगर से कुछ दूर पहुँचाने के लिए उनके साथ कर्ण गया था। भगवान को गिरफ़्तार करने की दुराभिसंधि में कर्ण का भी हाथ था। अतएव वह लज्जित होकर ही भगवान के सामने आया था।
भगवान सभा को छोड़ चले,
करके रण गर्जन घोर चले
सामने कर्ण सकुचाया सा,
आ मिला चकित भरमाया सा
हरि बड़े प्रेम से कर धर कर,
ले चढ़े उसे अपने रथ पर।[7]
- किंतु, राजनीति विशारद कृष्ण ने बाँह पकड़कर उसे अपने रथ में बिठा लिया और रास्ते में वे उसे समझाने लगे लगे कि 'तू वास्तव में कुंती का पुत्र है। अतएव, तुझे चाहिए कि कौरवों को छोड़कर पाण्डवों के पक्ष में आ जाये। तू तो कुंती का पहला ही पुत्र है, अतएव, पाण्डवों की ओर से राज्याभिषेक हम तेरा ही करेंगे। सभी पाण्डव तेरे पीछे पीछे चलेगें और मैं भी तेरे पीछे ही चलूँगा।'
"कुन्ती का तू ही तनय ज्येष्ठ,
बल बुद्धि, शील में परम श्रेष्ठ
मस्तक पर मुकुट धरेंगे हम,
तेरा अभिषेक करेंगे हम
आरती समोद उतारेंगे,
सब मिलकर पाँव पखारेंगे।[8]
- किंतु, कर्ण इससे विचलित नहीं हुआ।
"कुन्ती ने केवल जन्म दिया,
राधा ने माँ का कर्म किया
पर कहते जिसे असल जीवन,
देने आया वह दुर्योधन
वह नहीं भिन्न माता से है
बढ़ कर सोदर भ्राता से है ।[9]
- उसने कहा कि 'जो रहस्य आप बतला रहे हैं, उसकी सूचना मुझे सूर्यदेव से पहले ही मिल चुकी है। किंतु, कुंती ने मेरे साथ माता का बर्ताव नहीं किया। जो बात आप आज कह रहे हैं, उसे कुंती को उस दिन बतला देना चाहिए था, जिस दिन सबके सामने कृपाचार्य ने मेरी जाति पूछी थी।
"जो आज आप कह रहे आर्य,
कुन्ती के मुख से कृपाचार्य
सुन वही हुए लज्जित होते,
हम क्यों रण को सज्जित होते
मिलता न कर्ण दुर्योधन को,
पांडव न कभी जाते वन को।[10]
- अब भला कौन विश्वास करेगा कि मैं कुंती का ही पुत्र हूँ? इससे तो मुझे और अर्जुन, दोनों को कलंक लगने वाला है। इसके सिवा ज़रा यह भी तो सोचिए कि दुर्योधन ने मेरे प्रति कैसा निश्छ्ल व्यवहार किया है? अब आज उस पर आपदाएँ आयी हैं, मैं उसे कैसे छोड़ सकता हूँ? वह मेरा परम मित्र है और विपत्ति में मित्र का साथ ना देना सबसे बड़ा पाप है।
"रह साथ सदा खेला खाया,
सौभाग्य-सुयश उससे पाया
अब जब विपत्ति आने को है,
घनघोर प्रलय छाने को है
तज उसे भाग यदि जाऊंगा
कायर, कृतघ्न कहलाऊँगा।[11]
- मैं राजा बनना नहीं चाहता, न यही चाहता हूँ कि संसार मुझे युधिष्ठिर के अग्रज के रूप में जानकर मेरा सम्मान करे। मैं तो युद्ध के निमित्त तत्पर हूँ, यह इसलिए कि दुर्योधन का मेरे रोम रोम पर ऋण है और मैं प्राण देकर भी उस ऋण को चुकाना चाहता हूँ।
"सम्राट बनेंगे धर्मराज,
या पाएगा कुरूरज ताज,
लड़ना भर मेरा कम रहा,
दुर्योधन का संग्राम रहा,
मुझको न कहीं कुछ पाना है,
केवल ऋण मात्र चुकाना है।[12]
- अतएव, अब युद्ध को रोक रखने का प्रयत्न व्यर्थ है। अब तो कोई शुभ दिन देखकर लड़ाई शुरू करा दीजिए।'
"अब देर नही कीजै केशव,
अवसेर नही कीजै केशव.
धनु की डोरी तन जाने दें,
संग्राम तुरत ठन जाने दें,
तांडवी तेज लहराएगा,
संसार ज्योति कुछ पाएगा।[13]
- युधिष्ठिर के विषय में कर्ण आग्रह करता है कि कृष्ण इस बारे में उसे ना बतायें-
"पर, एक विनय है मधुसूदन,
मेरी यह जन्मकथा गोपन,
मत कभी युधिष्ठिर से कहिए,
जैसे हो इसे छिपा रहिए,
वे इसे जान यदि पाएँगे,
सिंहासन को ठुकराएँगे।[14]
- और कृष्ण कर्ण की प्रशंसा करते हैं-
रथ से राधेय उतार आया,
हरि के मन मे विस्मय छाया,
बोले कि "वीर शत बार धन्य,
तुझसा न मित्र कोई अनन्य,
तू कुरूपति का ही नही प्राण,
नरता का है भूषण महान।"[15]
कर्ण-चरित
कर्ण-चरित के उद्धार की चिन्ता इस बात का प्रमाण है कि हमसे समाज में मानवीय गुणों को पहचान बढ़ने वाली है। कुल और जाति का अहंकार विदा हो रहा है। आगे मनुष्य केवल उसी पद का अधिकारी होगा जो उसके अपने सामर्थ्य से सूचित होता हो, उस पद का नहीं,जो उसके माता-पिता या वंश की देन है। इसी प्रकार व्यक्ति अपने निजी गुणों के कारण जिस पद का अधिकारी है वह उसे मिलकर रहेगा, यहाँ तक कि उसके माता-पिता के दोष भी इसमें कोई बाधा नहीं डाल सकेंगे। कर्णचरित का उद्धार एक तरह से, नयी मानवता की स्थापना का ही प्रयास है। रश्मिरथी में स्वयं कर्ण के मुख से निकला है-
मैं उनका आदर्श, कहीं जो व्यथा न खोल सकेंगे
पूछेगा जग, किन्तु पिता का नाम न बोल सकेंगे,
जिनका निखिल विश्व में कोई कहीं न अपना होगा,
मन में लिये उमंग जिन्हें चिर-काल कलपना होगा।[16][17]
मैत्री की राह बताने को, |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “तृतीय सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 28।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “तृतीय सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 26।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “तृतीय सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 28।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “तृतीय सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 29।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “तृतीय सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 29।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “तृतीय सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 31।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “तृतीय सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 31।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “तृतीय सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 33।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “तृतीय सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 38।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “तृतीय सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 398।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “तृतीय सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 38।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “तृतीय सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 41।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “तृतीय सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 44।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “तृतीय सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 44।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “तृतीय सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 45।
- ↑ 'दिनकर', रामधारी सिंह “चतुर्थ सर्ग”, रश्मिरथी (हिंदी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: लोकभारती प्रकाशन, पृष्ठ 57।
- ↑ रश्मिरथी (हिंदी) भारतीय साहित्य संग्रह। अभिगमन तिथि: 22 सितम्बर, 2013।
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