"लिंगराज मन्दिर": अवतरणों में अंतर
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धार्मिक कथा है कि लिट्टी तथा वसा नाम के दो भयंकर राक्षसों का वध | |चित्र का नाम=लिंगराज मन्दिर | ||
== | |विवरण='लिंगराज मन्दिर' [[भुवनेश्वर]] का सबसे बड़ा मंदिर है। मंदिर [[शिव|भगवान शिव]] के एक रूप 'हरिहार' को समर्पित है और शहर का एक प्रमुख प्रतीक चिह्न है। | ||
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|अन्य जानकारी=लिंगराज का अर्थ असल में 'लिंगम के राजा' से होता है, जो यहाँ भगवान शिव को कहा गया है। वास्तव में यहाँ भगवान शिव की पूजा पहले किर्तिवास के रूप में की जाती थी और बाद में उनकी पूजा हरिहर के नाम से की जाने लगी | |||
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'''लिंगराज मन्दिर''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Lingaraja Temple'') भारतीय राज्य [[उड़ीसा]] की प्राचीन राजधानी [[भुवनेश्वर]] में स्थित है। यह इस शहर के प्राचीनतम मंदिरों में से एक है। हालांकि भगवान त्रिभुवनेश्वर को समर्पित इस मंदिर का वर्तमान स्वरूप 1090-1104 ई. में बना, किंतु इसके कुछ हिस्से 1400 वर्ष से भी ज्यादा पुराने हैं। इस मंदिर का वर्णन छठी शताब्दी के लेखों में भी आता है। लिंगराज मन्दिर को ललाटेडुकेशरी (ललाट इंदु केशरी) ने 615-657 ई. में बनवाया था। वास्तुशिल्प की दृष्टि से मंदिर की बनावट भी बेहद उत्कृष्ट है और यह [[भारत]] के कुछ बेहतरीन गिने चुने [[हिन्दू]] मंदिरों में से एक है। इस मंदिर की ऊंचाई 55 मीटर है। पूरे मंदिर में बेहद उत्कृष्ट नक़्क़ाशी की गई है। लिंगराज मंदिर कुछ कठोर परंपराओं का अनुसरण भी करता है और गैर-हिन्दुओं को मंदिर के अंदर प्रवेश की अनुमति नहीं देता। हालांकि मंदिर के ठीक बगल में एक ऊंचा चबूतरा बनवाया गया है, जिससे दूसरे धर्म के लोग मंदिर को देख सकते हैं। यहाँ पूरे साल पर्यटक और श्रद्धालू आते हैं। | |||
==धार्मिक मान्यता== | |||
धार्मिक [[कथा]] है कि लिट्टी तथा वसा नाम के दो भयंकर राक्षसों का वध [[पार्वती|देवी पार्वती]] ने यहीं पर किया था। संग्राम के बाद उन्हें प्यास लगी, तो [[शिव|शिव जी]] ने कूप बनाकर सभी पवित्र नदियों को योगदान के लिए बुलाया। यहीं पर बिन्दूसागर सरोवर है तथा उसके निकट ही लिंगराज का विशालकाय मन्दिर है। सैकड़ों वर्षों से [[भुवनेश्वर]] यहीं पूर्वोत्तर भारत में शैव सम्प्रदाय का मुख्य केन्द्र रहा है। कहते हैं कि मध्य युग में यहाँ सात हज़ार से अधिक मन्दिर और पूजास्थल थे, जिनमें से अब क़रीब पाँच सौ ही शेष बचे हैं। यह मंदिर वैसे तो भगवान शिव को समर्पित है, परन्तु शालिग्राम के रूप में भगवान विष्णु भी यहां मौजूद हैं। | |||
==निर्माण== | |||
लिंगराज का अर्थ असल में 'लिंगम के राजा' से होता है, जो यहाँ भगवान शिव को कहा गया है। वास्तव में यहाँ भगवान शिव की पूजा पहले किर्तिवास के रूप में की जाती थी और बाद में उनकी पूजा हरिहर के नाम से की जाने लगी और भुवनेश्वर में उन्हें त्रिभुवनेश्वर या भुवनेश्वर भी कहा जाता है। त्रिभुवनेश्वर का अर्थ तीनों लोकों के स्वामी से होता है। इन तीनों लोकों में धरती, स्वर्ग, और पातालकोट शामिल हैं। भगवान शिव की पत्नी को यहाँ भुवनेश्वरी कहा जाता है। | |||
{{ | कहा जाता है कि वर्तमान मंदिर के आकार का निर्माण प्राचीन समय में किया गया था। मंदिर के कुछ भाग का निर्माण छठी शताब्दी में किया गया था, क्योकि इनका वर्णन हमें सातवीं सदी के [[संस्कृत]] लेखों में दिखाई देता है। [[फ़र्ग्युसन]] का मानना है कि इस मंदिर की शुरुवात ललाट इंदु केशरी ने 615 से 657 ई. में की थी। इसके बाद जगमोहन (प्रार्थना कक्ष), मुख्य मंदिर और मंदिर के टावर का निर्माण 11वीं शताब्दी में किया गया है, जबकि भोग-मंडप का निर्माण 12वीं शताब्दी में किया गया है। इसके बाद 1099 और 1104 ई. के बीच शालिनी की पत्नी ने नाटमंदिर का निर्माण करवाया था। समय के साथ-साथ लिंगराज मंदिर का पूरा निर्माण हो चूका था और फिर यहाँ जगन्नाथ ([[विष्णु]] का रूप) की प्रतिमा भी स्थापित की गयी थी। कहा जाता है कि विष्णु और शिव दोनों के ही रूप इस मंदिर में बसते है।<ref name ="aa">{{cite web |url=http://www.gyanipandit.com/lingaraja-temple-history/|title= भुवनेश्वर का सबसे बड़ा मंदिर “लिंगराज मंदिर”|accessmonthday=22 दिसम्बर |accessyear=2017 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=gyanipandit.com |language=हिन्दी }}</ref> | ||
{{लेख प्रगति | ==मंदिर के उत्सव== | ||
|आधार= | [[हिन्दू]] मान्यताओं के अनुसार, लिंगराज मंदिर से होकर एक नदी गुजरती है। इस नदी के पानी से मंदिर का बिन्दुसार टैंक भरा जाता है और कहा जाता है कि यह पानी शारीरिक और मानसिक बीमारियों को दूर करता है। लोग अक्सर इस पानी को अमृत के रूप में पीते हैं और उत्सव के समय लोग इस टैंक में [[स्नान]] भी करते है। मंदिर की मुख्य मूर्ति लिंगराज की पूजा, [[शिव|भगवान शिव]] और [[विष्णु]] दोनों ही रूप में की जाती है। मंदिर में हिंदुत्व, शिवत्व और वैष्णत्व के बीच सामंजस्य भली-भांति दिखाई देता है। | ||
|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1 | |||
|माध्यमिक= | मंदिर में मनाया जाने वाला मुख्य त्यौहार [[शिवरात्रि]] है। जो हर साल [[फाल्गुन]] के महीने में हज़ारों, लाखों श्रद्धालु एकसाथ मनाते हैं। पूरे दिन उपवास करने के अलावा शिवरात्रि के दिन लिंगराज को बेल पत्ती भी चढ़ाई जाती है। शिवरात्रि का मुख्य पर्व रात में मनाया जाता है, जब सारे श्रद्धालु रात भर भगवान का पाठ करते हैं। मंदिर के शिखर पर जब महादीप ज्योतिमग्न होता है, तभी भक्त उपवास छोड़ते है। कहा जाता है कि इस दिन भगवान शिव ने राक्षस का वध किया था और तभी से यह दिन शिवरात्रि के रूप में मनाया जाता है। [[श्रावण]] मास में सुबह-सुबह हज़ारों लोग [[महानदी]] से पानी भरकर लाते हैं और रास्ते में पैदल चलकर मंदिर आते हैं। इसके साथ-साथ राजा-महाराजों के समय से ही यहाँ [[भाद्रपद]] महीने में सुनियन दिवस मनाया जाता है, इस दिन मंदिर के नौकर, किसान और दूसरे लोग लिंगराजा को निष्ठा और श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। | ||
|पूर्णता= | |||
|शोध= | इसके साथ-साथ मंदिर में चंदन यात्रा नाम का 22 दिनों तक चलने वाला त्यौहार मनाया जाता है। साथ ही मंदिर के देवताओं और नौकरों को गर्मी से बचाने के लिए उन पर चंदन का लेप भी लगाया जाता है। इसके साथ-साथ महिलाएँ त्यौहार के दिन भगवान शिव के पारंपरिक नृत्य का प्रदर्शन भी करती हैं। हर साल लिंगराज की रथयात्रा अशोक अष्टमी के दिन निकलती है। जिसमें देवताओं को रथ में बिठाकर [[रामेश्वर]] के देवला मंदिर ले जाया जाता है। वास्तव में अत्यंत सुशोभित और फूलों से सज्ज रथ में लिंगराज की मूर्ति का उनकी बहन [[रुक्मिणी]] के साथ स्थानापन्न किया जाता है।<ref name ="aa"/> | ||
}} | ==रचना सौंदर्य== | ||
[[चित्र:Lingaraj-Temple-Orissa.jpg|thumb|200px|left|लिंगराज मन्दिर, [[भुवनेश्वर]]]] | |||
यह जगत प्रसिद्ध मन्दिर [[उत्तरी भारत]] के मन्दिरों में रचना सौंदर्य तथा शोभा और अलंकरण की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। लिंगराज का विशाल मन्दिर अपनी अनुपम स्थात्य कला के लिए भी प्रसिद्ध है। मन्दिर में प्रत्येक शिला पर कारीगरी और मूर्तिकला का चमत्कार है। इस मन्दिर का शिखर भारतीय मन्दिरों के शिखरों के विकास क्रम में प्रारम्भिक अवस्था का शिखर माना जाता है। यह नीचे तो प्रायः सीधा तथा समकोण है, किन्तु ऊपर पहुँचकर धीरे-धीरे वक्र होता चला गया है और शीर्ष पर प्रायः वर्तुल दिखाई देता है। इसका शीर्ष [[चालुक्य वंश|चालुक्य]] मन्दिरों के शिखरों पर बने छोटे गुम्बदों की भाँति नहीं है। मन्दिर की पार्श्व-भित्तियों पर अत्यधिक सुन्दर नक़्क़ाशी की हुई है। यहाँ तक कि मन्दिर के प्रत्येक पाषाण पर कोई न कोई अलंकरण उत्कीर्ण है। जगह-जगह मानवाकृतियों तथा पशु-पक्षियों से सम्बद्ध सुन्दर मूर्तिकारी भी प्रदर्शित है। | |||
सर्वांग रूप से देखने पर मन्दिर चारों ओर से स्थूल व लम्बी पुष्पमालाएँ या फूलों के मोटे गजरे पहने हुए जान पड़ता है। मन्दिर के शिखर की ऊँचाई 180 फुट है। [[गणेश]], [[कार्तिकेय]] तथा [[गौरी]] के तीन छोटे मन्दिर भी मुख्य मन्दिर के विमान से संलग्न हैं। गौरीमन्दिर में [[पार्वती]] की काले पत्थर की बनी प्रतिमा है। मन्दिर के चतुर्दिक गज सिंहों की उकेरी हुई मूर्तियाँ दिखाई पड़ती हैं। गर्भग्रह के अलावा जगमोहन तथा भोगमण्डप में सुन्दर सिंहमूर्तियों के साथ देवी-देवताओं की कलात्मक प्रतिमाएँ हैं। | |||
==पूजा पद्धति== | |||
यहाँ की पूजा पद्धति के अनुसार सर्वप्रथम बिन्दुसरोवर में स्नान किया जाता है, फिर क्षेत्रपति अनंत वासुदेव के दर्शन किए जाते हैं, जिनका निर्माणकाल नवीं से दसवीं [[सदी]] का रहा है।। [[गणेश]] पूजा के बाद गोपालनी देवी, फिर शिव जी के वाहन [[नंदी]] की पूजा के बाद लिंगराज के दर्शन के लिए मुख्य स्थान में प्रवेश किया जाता है, जहाँ आठ फ़ीट मोटा तथा क़रीब एक फ़ीट ऊँचा ग्रेनाइट पत्थर का स्वयंभू लिंग स्थित है। | |||
==कठोर परंपराओं का अनुसरण== | |||
लिंगराज मंदिर कुछ कठोर परंपराओं का अनुसरण भी करता है। मंदिर में [[हिन्दू]] जाति के लोगों को ही प्रवेश दिया जाता है, गैर हिन्दू लोगों को मंदिर में प्रवेश करने की इजाजत नहीं है। लेकिन गैर हिन्दू लोग भी बाहर से मंदिर के दर्शन कर सकते हैं। साथ ही मंदिर की पवित्रता को बरक़रार रखने के लिए यहाँ [[स्नान]] न किये हुए, मासिक धर्म के समय महिला और जिनके घर में पिछले 12 दिनों में कोई मृत्यु हुई है, ऐसे लोगों को यहाँ प्रवेश नहीं दिया जाता। मंदिर में समय-समय पर प्रसाद का वितरण भी किया जाता है। | |||
==अन्य प्रसिद्ध मन्दिर== | |||
[[चित्र:Lingaraj-Temple.jpg|thumb|250px|लिंगराज मन्दिर, [[भुवनेश्वर]]]] | |||
यहाँ से पूरब की ओर ब्रह्मेश्वर, भास्करेश्वर समुदाय के मन्दिर हैं। यहीं पर राजा-रानी का सुप्रसिद्ध कलात्मक मन्दिर है, जिसका निर्माण सम्भवतः सातवीं [[सदी]] में हुआ था। किन्तु मुख्य मन्दिर में प्रतिमा ध्वस्त कर दी गई थी, अतः पूजा अर्चना नहीं होती है। इसके पास ही मन्दिरों का सिद्धारण्य क्षेत्र है, जिसमें मुक्तेश्वर, केदारेश्वर, सिद्धेश्वर तथा परशुरामेश्वर मन्दिर सबसे प्राचीन माना जाता है। ये मन्दिर [[कलिंग]] और [[द्रविड़]] स्थापत्य कला के बेजोड़ नमूने हैं, जिन पर जगह-जगह पर बौद्ध कला का प्रभाव भी दृष्टिगोचर होता है। | |||
[[भुवनेश्वर]] के प्राचीन मन्दिरों के समूह में बैताल मन्दिर का विशेष स्थान है। चामुण्डादेवी और महिषमर्दिनी [[दुर्गा|देवीदुर्गा]] की प्राचीन प्रतिमाओं वाले इस मन्दिर में तंत्र-साधना करके आलौकिक सिद्धियाँ प्राप्त की जाती हैं। इसके साथ ही [[सूर्य]] उपासना स्थल है, जहाँ सूर्य-रथ के साथ [[उषा]], [[अरुण]] और [[संध्या]] की प्रतिमाएँ हैं। भुवनेश्वर में [[शिवरात्रि|महाशिवरात्रि]] के दिन विशेष समारोह होता है। लिंगराज मन्दिर में सनातन विधि से चौबीस घंटे पूरे विधि-विधान के साथ महादेव [[शिव|शिवशंकर]] की पूजा-अर्चना की जाती है। | |||
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1|माध्यमिक=|पूर्णता=|शोध=}} | |||
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
*(पुस्तक ‘हमारे तीर्थ स्थल’) पृष्ठ संख्या-166 | *(पुस्तक ‘हमारे तीर्थ स्थल’) पृष्ठ संख्या-166 | ||
*(पुस्तक 'ऐतिहासिक स्थानावली' से) पेज | *(पुस्तक 'ऐतिहासिक स्थानावली' से) पेज नं. 647 | ||
<references/> | <references/> | ||
[[ | ==बाहरी कड़ियाँ== | ||
[[Category:धार्मिक स्थल कोश]] | *[https://hindi.nativeplanet.com/bhubaneswar/attractions/lingaraj-temple/ लिंगराज मंदिर, भुवनेश्वर] | ||
[[Category:भुवनेश्वर]] | *[https://achhigyan.com/lingaraj-temple-history/ लिंगराज मंदिर का इतिहास] | ||
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11:07, 22 दिसम्बर 2017 के समय का अवतरण
लिंगराज मन्दिर
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विवरण | 'लिंगराज मन्दिर' भुवनेश्वर का सबसे बड़ा मंदिर है। मंदिर भगवान शिव के एक रूप 'हरिहार' को समर्पित है और शहर का एक प्रमुख प्रतीक चिह्न है। |
राज्य | उड़ीसा |
ज़िला | खुर्दा |
निर्माता | ललाट इंदु केशरी |
निर्माण काल | 615-657 ई. |
प्रसिद्धि | भगवान शिव को समर्पित हिन्दू धार्मिक स्थल |
भुवनेश्वर | |
संबंधित लेख | उड़ीसा, उड़ीसा के पर्यटन स्थल, शिव, विष्णु
|
अन्य जानकारी | लिंगराज का अर्थ असल में 'लिंगम के राजा' से होता है, जो यहाँ भगवान शिव को कहा गया है। वास्तव में यहाँ भगवान शिव की पूजा पहले किर्तिवास के रूप में की जाती थी और बाद में उनकी पूजा हरिहर के नाम से की जाने लगी |
लिंगराज मन्दिर (अंग्रेज़ी: Lingaraja Temple) भारतीय राज्य उड़ीसा की प्राचीन राजधानी भुवनेश्वर में स्थित है। यह इस शहर के प्राचीनतम मंदिरों में से एक है। हालांकि भगवान त्रिभुवनेश्वर को समर्पित इस मंदिर का वर्तमान स्वरूप 1090-1104 ई. में बना, किंतु इसके कुछ हिस्से 1400 वर्ष से भी ज्यादा पुराने हैं। इस मंदिर का वर्णन छठी शताब्दी के लेखों में भी आता है। लिंगराज मन्दिर को ललाटेडुकेशरी (ललाट इंदु केशरी) ने 615-657 ई. में बनवाया था। वास्तुशिल्प की दृष्टि से मंदिर की बनावट भी बेहद उत्कृष्ट है और यह भारत के कुछ बेहतरीन गिने चुने हिन्दू मंदिरों में से एक है। इस मंदिर की ऊंचाई 55 मीटर है। पूरे मंदिर में बेहद उत्कृष्ट नक़्क़ाशी की गई है। लिंगराज मंदिर कुछ कठोर परंपराओं का अनुसरण भी करता है और गैर-हिन्दुओं को मंदिर के अंदर प्रवेश की अनुमति नहीं देता। हालांकि मंदिर के ठीक बगल में एक ऊंचा चबूतरा बनवाया गया है, जिससे दूसरे धर्म के लोग मंदिर को देख सकते हैं। यहाँ पूरे साल पर्यटक और श्रद्धालू आते हैं।
धार्मिक मान्यता
धार्मिक कथा है कि लिट्टी तथा वसा नाम के दो भयंकर राक्षसों का वध देवी पार्वती ने यहीं पर किया था। संग्राम के बाद उन्हें प्यास लगी, तो शिव जी ने कूप बनाकर सभी पवित्र नदियों को योगदान के लिए बुलाया। यहीं पर बिन्दूसागर सरोवर है तथा उसके निकट ही लिंगराज का विशालकाय मन्दिर है। सैकड़ों वर्षों से भुवनेश्वर यहीं पूर्वोत्तर भारत में शैव सम्प्रदाय का मुख्य केन्द्र रहा है। कहते हैं कि मध्य युग में यहाँ सात हज़ार से अधिक मन्दिर और पूजास्थल थे, जिनमें से अब क़रीब पाँच सौ ही शेष बचे हैं। यह मंदिर वैसे तो भगवान शिव को समर्पित है, परन्तु शालिग्राम के रूप में भगवान विष्णु भी यहां मौजूद हैं।
निर्माण
लिंगराज का अर्थ असल में 'लिंगम के राजा' से होता है, जो यहाँ भगवान शिव को कहा गया है। वास्तव में यहाँ भगवान शिव की पूजा पहले किर्तिवास के रूप में की जाती थी और बाद में उनकी पूजा हरिहर के नाम से की जाने लगी और भुवनेश्वर में उन्हें त्रिभुवनेश्वर या भुवनेश्वर भी कहा जाता है। त्रिभुवनेश्वर का अर्थ तीनों लोकों के स्वामी से होता है। इन तीनों लोकों में धरती, स्वर्ग, और पातालकोट शामिल हैं। भगवान शिव की पत्नी को यहाँ भुवनेश्वरी कहा जाता है।
कहा जाता है कि वर्तमान मंदिर के आकार का निर्माण प्राचीन समय में किया गया था। मंदिर के कुछ भाग का निर्माण छठी शताब्दी में किया गया था, क्योकि इनका वर्णन हमें सातवीं सदी के संस्कृत लेखों में दिखाई देता है। फ़र्ग्युसन का मानना है कि इस मंदिर की शुरुवात ललाट इंदु केशरी ने 615 से 657 ई. में की थी। इसके बाद जगमोहन (प्रार्थना कक्ष), मुख्य मंदिर और मंदिर के टावर का निर्माण 11वीं शताब्दी में किया गया है, जबकि भोग-मंडप का निर्माण 12वीं शताब्दी में किया गया है। इसके बाद 1099 और 1104 ई. के बीच शालिनी की पत्नी ने नाटमंदिर का निर्माण करवाया था। समय के साथ-साथ लिंगराज मंदिर का पूरा निर्माण हो चूका था और फिर यहाँ जगन्नाथ (विष्णु का रूप) की प्रतिमा भी स्थापित की गयी थी। कहा जाता है कि विष्णु और शिव दोनों के ही रूप इस मंदिर में बसते है।[1]
मंदिर के उत्सव
हिन्दू मान्यताओं के अनुसार, लिंगराज मंदिर से होकर एक नदी गुजरती है। इस नदी के पानी से मंदिर का बिन्दुसार टैंक भरा जाता है और कहा जाता है कि यह पानी शारीरिक और मानसिक बीमारियों को दूर करता है। लोग अक्सर इस पानी को अमृत के रूप में पीते हैं और उत्सव के समय लोग इस टैंक में स्नान भी करते है। मंदिर की मुख्य मूर्ति लिंगराज की पूजा, भगवान शिव और विष्णु दोनों ही रूप में की जाती है। मंदिर में हिंदुत्व, शिवत्व और वैष्णत्व के बीच सामंजस्य भली-भांति दिखाई देता है।
मंदिर में मनाया जाने वाला मुख्य त्यौहार शिवरात्रि है। जो हर साल फाल्गुन के महीने में हज़ारों, लाखों श्रद्धालु एकसाथ मनाते हैं। पूरे दिन उपवास करने के अलावा शिवरात्रि के दिन लिंगराज को बेल पत्ती भी चढ़ाई जाती है। शिवरात्रि का मुख्य पर्व रात में मनाया जाता है, जब सारे श्रद्धालु रात भर भगवान का पाठ करते हैं। मंदिर के शिखर पर जब महादीप ज्योतिमग्न होता है, तभी भक्त उपवास छोड़ते है। कहा जाता है कि इस दिन भगवान शिव ने राक्षस का वध किया था और तभी से यह दिन शिवरात्रि के रूप में मनाया जाता है। श्रावण मास में सुबह-सुबह हज़ारों लोग महानदी से पानी भरकर लाते हैं और रास्ते में पैदल चलकर मंदिर आते हैं। इसके साथ-साथ राजा-महाराजों के समय से ही यहाँ भाद्रपद महीने में सुनियन दिवस मनाया जाता है, इस दिन मंदिर के नौकर, किसान और दूसरे लोग लिंगराजा को निष्ठा और श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
इसके साथ-साथ मंदिर में चंदन यात्रा नाम का 22 दिनों तक चलने वाला त्यौहार मनाया जाता है। साथ ही मंदिर के देवताओं और नौकरों को गर्मी से बचाने के लिए उन पर चंदन का लेप भी लगाया जाता है। इसके साथ-साथ महिलाएँ त्यौहार के दिन भगवान शिव के पारंपरिक नृत्य का प्रदर्शन भी करती हैं। हर साल लिंगराज की रथयात्रा अशोक अष्टमी के दिन निकलती है। जिसमें देवताओं को रथ में बिठाकर रामेश्वर के देवला मंदिर ले जाया जाता है। वास्तव में अत्यंत सुशोभित और फूलों से सज्ज रथ में लिंगराज की मूर्ति का उनकी बहन रुक्मिणी के साथ स्थानापन्न किया जाता है।[1]
रचना सौंदर्य
यह जगत प्रसिद्ध मन्दिर उत्तरी भारत के मन्दिरों में रचना सौंदर्य तथा शोभा और अलंकरण की दृष्टि से सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। लिंगराज का विशाल मन्दिर अपनी अनुपम स्थात्य कला के लिए भी प्रसिद्ध है। मन्दिर में प्रत्येक शिला पर कारीगरी और मूर्तिकला का चमत्कार है। इस मन्दिर का शिखर भारतीय मन्दिरों के शिखरों के विकास क्रम में प्रारम्भिक अवस्था का शिखर माना जाता है। यह नीचे तो प्रायः सीधा तथा समकोण है, किन्तु ऊपर पहुँचकर धीरे-धीरे वक्र होता चला गया है और शीर्ष पर प्रायः वर्तुल दिखाई देता है। इसका शीर्ष चालुक्य मन्दिरों के शिखरों पर बने छोटे गुम्बदों की भाँति नहीं है। मन्दिर की पार्श्व-भित्तियों पर अत्यधिक सुन्दर नक़्क़ाशी की हुई है। यहाँ तक कि मन्दिर के प्रत्येक पाषाण पर कोई न कोई अलंकरण उत्कीर्ण है। जगह-जगह मानवाकृतियों तथा पशु-पक्षियों से सम्बद्ध सुन्दर मूर्तिकारी भी प्रदर्शित है।
सर्वांग रूप से देखने पर मन्दिर चारों ओर से स्थूल व लम्बी पुष्पमालाएँ या फूलों के मोटे गजरे पहने हुए जान पड़ता है। मन्दिर के शिखर की ऊँचाई 180 फुट है। गणेश, कार्तिकेय तथा गौरी के तीन छोटे मन्दिर भी मुख्य मन्दिर के विमान से संलग्न हैं। गौरीमन्दिर में पार्वती की काले पत्थर की बनी प्रतिमा है। मन्दिर के चतुर्दिक गज सिंहों की उकेरी हुई मूर्तियाँ दिखाई पड़ती हैं। गर्भग्रह के अलावा जगमोहन तथा भोगमण्डप में सुन्दर सिंहमूर्तियों के साथ देवी-देवताओं की कलात्मक प्रतिमाएँ हैं।
पूजा पद्धति
यहाँ की पूजा पद्धति के अनुसार सर्वप्रथम बिन्दुसरोवर में स्नान किया जाता है, फिर क्षेत्रपति अनंत वासुदेव के दर्शन किए जाते हैं, जिनका निर्माणकाल नवीं से दसवीं सदी का रहा है।। गणेश पूजा के बाद गोपालनी देवी, फिर शिव जी के वाहन नंदी की पूजा के बाद लिंगराज के दर्शन के लिए मुख्य स्थान में प्रवेश किया जाता है, जहाँ आठ फ़ीट मोटा तथा क़रीब एक फ़ीट ऊँचा ग्रेनाइट पत्थर का स्वयंभू लिंग स्थित है।
कठोर परंपराओं का अनुसरण
लिंगराज मंदिर कुछ कठोर परंपराओं का अनुसरण भी करता है। मंदिर में हिन्दू जाति के लोगों को ही प्रवेश दिया जाता है, गैर हिन्दू लोगों को मंदिर में प्रवेश करने की इजाजत नहीं है। लेकिन गैर हिन्दू लोग भी बाहर से मंदिर के दर्शन कर सकते हैं। साथ ही मंदिर की पवित्रता को बरक़रार रखने के लिए यहाँ स्नान न किये हुए, मासिक धर्म के समय महिला और जिनके घर में पिछले 12 दिनों में कोई मृत्यु हुई है, ऐसे लोगों को यहाँ प्रवेश नहीं दिया जाता। मंदिर में समय-समय पर प्रसाद का वितरण भी किया जाता है।
अन्य प्रसिद्ध मन्दिर
यहाँ से पूरब की ओर ब्रह्मेश्वर, भास्करेश्वर समुदाय के मन्दिर हैं। यहीं पर राजा-रानी का सुप्रसिद्ध कलात्मक मन्दिर है, जिसका निर्माण सम्भवतः सातवीं सदी में हुआ था। किन्तु मुख्य मन्दिर में प्रतिमा ध्वस्त कर दी गई थी, अतः पूजा अर्चना नहीं होती है। इसके पास ही मन्दिरों का सिद्धारण्य क्षेत्र है, जिसमें मुक्तेश्वर, केदारेश्वर, सिद्धेश्वर तथा परशुरामेश्वर मन्दिर सबसे प्राचीन माना जाता है। ये मन्दिर कलिंग और द्रविड़ स्थापत्य कला के बेजोड़ नमूने हैं, जिन पर जगह-जगह पर बौद्ध कला का प्रभाव भी दृष्टिगोचर होता है।
भुवनेश्वर के प्राचीन मन्दिरों के समूह में बैताल मन्दिर का विशेष स्थान है। चामुण्डादेवी और महिषमर्दिनी देवीदुर्गा की प्राचीन प्रतिमाओं वाले इस मन्दिर में तंत्र-साधना करके आलौकिक सिद्धियाँ प्राप्त की जाती हैं। इसके साथ ही सूर्य उपासना स्थल है, जहाँ सूर्य-रथ के साथ उषा, अरुण और संध्या की प्रतिमाएँ हैं। भुवनेश्वर में महाशिवरात्रि के दिन विशेष समारोह होता है। लिंगराज मन्दिर में सनातन विधि से चौबीस घंटे पूरे विधि-विधान के साथ महादेव शिवशंकर की पूजा-अर्चना की जाती है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- (पुस्तक ‘हमारे तीर्थ स्थल’) पृष्ठ संख्या-166
- (पुस्तक 'ऐतिहासिक स्थानावली' से) पेज नं. 647
- ↑ 1.0 1.1 भुवनेश्वर का सबसे बड़ा मंदिर “लिंगराज मंदिर” (हिन्दी) gyanipandit.com। अभिगमन तिथि: 22 दिसम्बर, 2017।