"आज़ाद हिन्द फ़ौज": अवतरणों में अंतर

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[[चित्र:Azad-Hind-Fauj.jpg|thumb|आज़ाद हिन्द फ़ौज का ध्वज]]
{{सूचना बक्सा संक्षिप्त परिचय
'''आज़ाद हिन्द फ़ौज''' (गठन-[[21 अक्टूबर]], [[1943]]) [[सुभाष चन्द्र बोस]] का [[गांधीजी]] से मतभेद होने के कारण वे [[कांग्रेस]] से अलग हो गए और ब्रिटिश जेल से भागकर [[जापान]] पहुँच गए। बोस ने जापानियों के प्रभाव और सहायता से, दक्षिण-पूर्वी एशिया से [[जापान]] द्वारा एकत्रित क़रीब 40,000 भारतीय स्त्री-पुरुषों की प्रशिक्षित सेना का गठन शुरू कर दिया।
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==स्थापना==  
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'नेताजी' के नाम से विख्यात सुभाष चन्द्र ने सशक्त क्रान्ति द्वारा भारत को स्वतंत्र कराने के उद्देश्य से 21 अक्टूबर, 1943 को 'आज़ाद हिन्द सरकार' की स्थापना की तथा 'आज़ाद हिन्द फ़ौज' का गठन किया इस संगठन के प्रतीक चिह्न पर एक झंडे पर दहाड़ते हुए [[बाघ]] का चित्र बना होता था।<br /><blockquote><span style="color: #8f5d31">क़दम-क़दम बढाए जा, खुशी के गीत गाए जा-इस संगठन का वह गीत था, जिसे गुनगुना कर संगठन के सेनानी जोश और उत्साह से भर उठते थे।</span></blockquote>जापानी सैनिकों के साथ उनकी तथाकथित आज़ाद हिंद फ़ौज [[रंगून]] (यांगून) से होती हुई थल मार्ग से भारत की ओर बढ़ती, [[18 मार्च]] सन् 1944 ई. की [[कोहिमा]] और [[इम्फाल|इम्फ़ाल]] के भारतीय मैदानी क्षेत्रों में पहुँच गई। [[चित्र:Azad-Hind-Fauj-Groupphoto.jpg|thumb|250px|left|[[सुभाष चन्द्र बोस]] और आज़ाद हिन्द फ़ौज के सदस्य]] जापानी वायुसेना से सहायता न मिलने के कारण एक भीषण लड़ाई में भारतीयों और जापानियों की मिली-जुली सेना हार गई और उसे पीछे हटना पड़ा। लेकिन आज़ाद हिंद फ़ौज कुछ अर्से तक बर्मा और बाद में हिंद-चीन में अड्डों वाली मुक्तिवाहिनी सेना के रूप में अपनी पहचान बनाए रखने में सफल रही। इसी सेना ने 1943 से 1945 तक शक्तिशाली अंग्रेज़ों से युद्ध किया था तथा उन्हें भारत को स्वतंत्रता प्रदान कर देने के विषय में सोचने के लिए मजबूर किया था। सन् 1943 से 1945 तक 'आज़ाद हिन्द सेना' अंग्रेज़ों से युद्ध करती रही। अन्ततः ब्रिटिश शासन को उन्होंने महसूस करा दिया कि [[भारत]] को स्वतंत्रता देनी ही पड़ेगी।
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'''आज़ाद हिन्द फ़ौज''' या 'इंडियन नेशनल आर्मी' का गठन [[1942]] ई. में किया गया था। 28-30 मार्च, 1942 ई. को टोक्यो ([[जापान]]) में रह रहे भारतीय [[रासबिहारी बोस]] ने 'इण्डियन नेशनल आर्मी' (आज़ाद हिन्द फ़ौज) के गठन पर विचार के लिए एक सम्मेलन बुलाया। [[कैप्टन मोहन सिंह]], [[रासबिहारी बोस]] एवं निरंजन सिंह गिल के सहयोग से 'इण्डियन नेशनल आर्मी' का गठन किया गया। 'आज़ाद हिन्द फ़ौज' की स्थापना का विचार सर्वप्रथम मोहन सिंह के मन में आया था। इसी बीच विदेशों में रह रहे भारतीयों के लिए 'इंडियन इंडिपेंडेंस लीग' की स्थापना की गई, जिसका प्रथम सम्मेलन [[जून]] 1942 ई, को बैंकाक में हुआ।
==स्थापना==
आज़ाद हिन्द फ़ौज की प्रथम डिवीजन का गठन [[1 दिसम्बर]], 1942 ई. को मोहन सिंह के अधीन हुआ। इसमें लगभग 16,300 सैनिक थे। कालान्तर में [[जापान]] ने 60,000 युद्ध बंदियों को आज़ाद हिन्द फ़ौज में शामिल होने के लिए छोड़ दिया। जापानी सरकार और मोहन सिंह के अधीन भारतीय सैनिकों के बीच आज़ाद हिन्द फ़ौज की भूमिका के संबध में विवाद उत्पन्न हो जाने के कारण मोहन सिंह एवं निरंजन सिंह गिल को गिरफ्तार कर लिया गया। आज़ाद हिन्द फ़ौज का दूसरा चरण तब प्रारम्भ हुआ, जब सुभाषचन्द्र बोस [[सिंगापुर]] गये। सुभाषचन्द्र बोस ने [[1941]] ई. में बर्लिन में 'इंडियन लीग' की स्थापना की, किन्तु जब जर्मनी ने उन्हें [[रूस]] के विरुद्ध प्रयुक्त करने का प्रयास किया, तब कठिनाई उत्पन्न हो गई और बोस ने दक्षिण पूर्व [[एशिया]] जाने का निश्चय किया।
====सुभाषचन्द्र बोस का नेतृत्व====
[[जुलाई]], [[1943]] ई. में सुभाषचन्द्र बोस पनडुब्बी द्वारा जर्मनी से जापानी नियंत्रण वाले सिंगापुर पहुँचे। वहाँ उन्होंने '''दिल्ली चलो''' का प्रसिद्ध नारा दिया। [[4 जुलाई]], 1943 ई. को सुभाषचन्द्र बोस ने 'आज़ाद हिन्द फ़ौज' एवं 'इंडियन लीग' की कमान को संभाला। आज़ाद हिन्द फ़ौज के सिपाही सुभाषचन्द्र बोस को नेताजी कहते थे। बोस ने अपने अनुयायियों को 'जय हिन्द' का नारा दिया। उन्होंने [[21 अक्टूबर]], 1943 ई. को सिंगापुर में अस्थायी भारत सरकार 'आज़ाद हिन्द सरकार' की स्थापना की। सुभाषचन्द्र बोस इस सरकार के [[राष्ट्रपति]], [[प्रधानमंत्री]] तथा सेनाध्यक्ष तीनों थे। वित्त विभाग एस.सी चटर्जी को, प्रचार विभाग एस.ए. अय्यर को तथा महिला संगठन लक्ष्मी स्वामीनाथन को सौंपा गया।
==प्रतीक चिह्न==
'आज़ाद हिन्द फ़ौज' के प्रतीक चिह्न के लिए एक झंडे पर दहाड़ते हुए [[बाघ]] का चित्र बना होता था।<br /><blockquote><span style="color: #8f5d31">'क़दम-क़दम बढाए जा, खुशी के गीत गाए जा'- इस संगठन का वह गीत था, जिसे गुनगुना कर संगठन के सेनानी जोश और उत्साह से भर उठते थे।</span></blockquote>जापानी सैनिकों के साथ तथाकथित आज़ाद हिन्द फ़ौज [[रंगून]] (यांगून) से होती हुई थलमार्ग से [[भारत]] की ओर बढ़ती हुई [[18 मार्च]] सन [[1944]] ई. को [[कोहिमा]] और [[इम्फाल|इम्फ़ाल]] के भारतीय मैदानी क्षेत्रों में पहुँच गई। [[चित्र:Azad-Hind-Fauj-Groupphoto.jpg|thumb|250px|left|[[सुभाष चन्द्र बोस]] और आज़ाद हिन्द फ़ौज के सदस्य]]
====फ़ौज की बिग्रेड====
[[जर्मनी]], [[जापान]] तथा उनके समर्थक देशों द्वारा 'आज़ाद हिन्द सरकार' को मान्यता प्रदान की गई। इसके पश्चात् नेताजी बोस ने [[सिंगापुर]] एवं [[रंगून]] में आज़ाद हिन्द फ़ौज का मुख्यालय बनाया। पहली बार सुभाषचन्द्र बोस द्वारा ही [[गाँधी जी]] के लिए '''राष्ट्रपिता''' शब्द का प्रयोग किया गया। [[जुलाई]], 1944 ई. को सुभाषचन्द्र बोस ने रेडियो पर गाँधी जी को संबोधित करते हुए कहा "[[भारत]] की स्वाधीनता का आख़िरी युद्ध शुरू हो चुका हैं। हे राष्ट्रपिता! भारत की मुक्ति के इस पवित्र युद्ध में हम आपका आशीर्वाद और शुभकामनाएँ चाहते हैं।" इसके अतिरिक्त फ़ौज की बिग्रेड को नाम भी दिये गए- 'महात्मा गाँधी ब्रिगेड', 'अबुल कलाम आज़ाद ब्रिगेड', 'जवाहरलाल नेहरू ब्रिगेड' तथा 'सुभाषचन्द्र बोस ब्रिगेड'। सुभाषचन्द्र बोस ब्रिगेड के सेनापति शाहनवाज ख़ाँ थे। सुभाषचन्द्र बोस ने सैनिकों का आहवान करते हुए कहा '''तुम मुझे ख़ून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा।'''


जापान की हार के साथ बोस का भविष्य भी डूब गया। माना जाता है कि जापान के आत्मसमर्पण की घोषणा के कुछ दिन बाद, दक्षिण-पूर्वी एशिया से भागते हुए एक हवाई दुर्घटना में जल जाने से हुए घावों के कारण ताइवान के एक जापानी अस्पताल में 18 अगस्त सन् 1945 ई. में बोस की मृत्यु हो गई। किसी को विश्वास ही नहीं हुआ। लोगों को लगा कि किसी दिन वे फिर सामने आ खड़े होंगे। आज इतने वर्षों बाद भी जन मानस उनकी राह देखता है।  
==जापान की पराजय तथा बोस की मृत्यु==
[[फ़रवरी]] से [[जून]], 1944 ई. के मध्य आज़ाद हिन्द फ़ौज की तीन ब्रिगेडों ने जापानियों के साथ मिलकर [[भारत]] की पूर्वी सीमा एवं [[बर्मा]] से युद्ध लड़ा, परन्तु दुर्भाग्यवश दूसरे विश्व युद्ध में जापान की सेनाओं के मात खाने के साथ ही आज़ाद हिन्द फ़ौज को भी पराजय का सामना करना पड़ा। आज़ाद हिन्द फ़ौज के सैनिक एवं अधिकारियों को अंग्रेज़ों ने [[1945]] ई. में गिरफ़्तार कर लिया। साथ ही एक हवाई दुर्घटना में सुभाषचन्द्र बोस की भी [[18 अगस्त]], 1945 ई. को मृत्यु हो गई। हालांकि हवाई दुर्घटना में उनकी मृत्यु अभी भी संदेह के घेरे में है। बोस की मृत्यु का किसी को विश्वास ही नहीं हुआ। लोगों को लगा कि किसी दिन वे फिर सामने आ खड़े होंगे। आज इतने वर्षों बाद भी जनमानस उनकी राह देखता है।


{{Seealso|सुभाष चन्द्र बोस}}
आज़ाद हिन्द फ़ौज के गिरफ़्तार सैनिकों एवं अधिकारियों पर [[अंग्रेज़]] सरकार ने [[दिल्ली]] के [[लाल क़िला दिल्ली|लाल क़िले]] में [[नवम्बर]], [[1945]] ई. को मुकदमा चलाया। इस मुकदमें के मुख्य अभियुक्त कर्नल सहगल, कर्नल ढिल्लों एवं मेजर शाहवाज ख़ाँ पर राजद्रोह का आरोप लगाया गया। इनके पक्ष में सर तेजबहादुर सप्रू, [[जवाहरलाल नेहरू]], भूला भाई देसाई और [[के.एन. काटजू]] ने दलीलें दी। लेकिन फिर भी इन तीनों की फाँसी को सज़ा सुनाई गयी। इस निर्णय के ख़िलाफ़ पूरे देश में कड़ी प्रतिक्रिया हुई, नारे लगाये गये- "लाल क़िले को तोड़ दो, आज़ाद हिन्द फ़ौज को छोड़ दो।" विवश होकर तत्कालीन [[वायसराय]] [[लॉर्ड वेवेल]] ने अपने विशेषाधिकार का प्रयोग कर इनकी मृत्युदण्ड की सज़ा को माफ कर दिया।
 
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चित्र:Azad-Hind-Fauj-Stamps.jpg|द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापानियों द्वारा आज़ाद हिन्द फ़ौज के लिए जारी डाक टिकट  
चित्र:Azad-Hind-Fauj-Stamps.jpg|द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापानियों द्वारा आज़ाद हिन्द फ़ौज के लिए जारी डाक टिकट  
चित्र:Netaji-Kohima-Nagaland-.jpg|[[कोहिमा]], [[नागालैंड]] के आक्रमण की विफलता पर नेताजी [[सुभाष चन्द्र बोस]] और भारतमाता ग़ुलामी की हथकड़ी पहने हुए  
चित्र:Netaji-Kohima-Nagaland-.jpg|[[कोहिमा]], [[नागालैंड]] के आक्रमण की विफलता पर नेताजी [[सुभाष चन्द्र बोस]] और भारतमाता ग़ुलामी की हथकड़ी पहने हुए  
चित्र:Graves-Of-British.jpg|[[कोहिमा]] के युद्ध में मारे गये अंग्रेज़ी की क़ब्रे
चित्र:Graves-Of-British.jpg|[[कोहिमा]] के युद्ध में मारे गये सैनिकों की क़ब्रें
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{{संदर्भ ग्रंथ}}
 
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
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आज़ाद हिन्द फ़ौज
आज़ाद हिन्द फ़ौज का ध्वज
आज़ाद हिन्द फ़ौज का ध्वज
विवरण आज़ाद हिन्द फ़ौज या 'इंडियन नेशनल आर्मी' का गठन 1942 ई. में किया गया था।
उद्देश्य भारत को स्वतंत्र कराने के लिए
स्थापना 21 अक्टूबर, 1943
प्रतीक चिह्न एक झंडे पर दहाड़ते हुए बाघ का चित्र
संबंधित लेख सुभाष चंद्र बोस, कैप्टन मोहन सिंह, रासबिहारी बोस
अन्य जानकारी फ़ौज की बिग्रेड को नाम भी दिये गए- 'महात्मा गाँधी ब्रिगेड', 'अबुल कलाम आज़ाद ब्रिगेड', 'जवाहरलाल नेहरू ब्रिगेड' तथा 'सुभाषचन्द्र बोस ब्रिगेड'।

आज़ाद हिन्द फ़ौज या 'इंडियन नेशनल आर्मी' का गठन 1942 ई. में किया गया था। 28-30 मार्च, 1942 ई. को टोक्यो (जापान) में रह रहे भारतीय रासबिहारी बोस ने 'इण्डियन नेशनल आर्मी' (आज़ाद हिन्द फ़ौज) के गठन पर विचार के लिए एक सम्मेलन बुलाया। कैप्टन मोहन सिंह, रासबिहारी बोस एवं निरंजन सिंह गिल के सहयोग से 'इण्डियन नेशनल आर्मी' का गठन किया गया। 'आज़ाद हिन्द फ़ौज' की स्थापना का विचार सर्वप्रथम मोहन सिंह के मन में आया था। इसी बीच विदेशों में रह रहे भारतीयों के लिए 'इंडियन इंडिपेंडेंस लीग' की स्थापना की गई, जिसका प्रथम सम्मेलन जून 1942 ई, को बैंकाक में हुआ।

स्थापना

आज़ाद हिन्द फ़ौज की प्रथम डिवीजन का गठन 1 दिसम्बर, 1942 ई. को मोहन सिंह के अधीन हुआ। इसमें लगभग 16,300 सैनिक थे। कालान्तर में जापान ने 60,000 युद्ध बंदियों को आज़ाद हिन्द फ़ौज में शामिल होने के लिए छोड़ दिया। जापानी सरकार और मोहन सिंह के अधीन भारतीय सैनिकों के बीच आज़ाद हिन्द फ़ौज की भूमिका के संबध में विवाद उत्पन्न हो जाने के कारण मोहन सिंह एवं निरंजन सिंह गिल को गिरफ्तार कर लिया गया। आज़ाद हिन्द फ़ौज का दूसरा चरण तब प्रारम्भ हुआ, जब सुभाषचन्द्र बोस सिंगापुर गये। सुभाषचन्द्र बोस ने 1941 ई. में बर्लिन में 'इंडियन लीग' की स्थापना की, किन्तु जब जर्मनी ने उन्हें रूस के विरुद्ध प्रयुक्त करने का प्रयास किया, तब कठिनाई उत्पन्न हो गई और बोस ने दक्षिण पूर्व एशिया जाने का निश्चय किया।

सुभाषचन्द्र बोस का नेतृत्व

जुलाई, 1943 ई. में सुभाषचन्द्र बोस पनडुब्बी द्वारा जर्मनी से जापानी नियंत्रण वाले सिंगापुर पहुँचे। वहाँ उन्होंने दिल्ली चलो का प्रसिद्ध नारा दिया। 4 जुलाई, 1943 ई. को सुभाषचन्द्र बोस ने 'आज़ाद हिन्द फ़ौज' एवं 'इंडियन लीग' की कमान को संभाला। आज़ाद हिन्द फ़ौज के सिपाही सुभाषचन्द्र बोस को नेताजी कहते थे। बोस ने अपने अनुयायियों को 'जय हिन्द' का नारा दिया। उन्होंने 21 अक्टूबर, 1943 ई. को सिंगापुर में अस्थायी भारत सरकार 'आज़ाद हिन्द सरकार' की स्थापना की। सुभाषचन्द्र बोस इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री तथा सेनाध्यक्ष तीनों थे। वित्त विभाग एस.सी चटर्जी को, प्रचार विभाग एस.ए. अय्यर को तथा महिला संगठन लक्ष्मी स्वामीनाथन को सौंपा गया।

प्रतीक चिह्न

'आज़ाद हिन्द फ़ौज' के प्रतीक चिह्न के लिए एक झंडे पर दहाड़ते हुए बाघ का चित्र बना होता था।

'क़दम-क़दम बढाए जा, खुशी के गीत गाए जा'- इस संगठन का वह गीत था, जिसे गुनगुना कर संगठन के सेनानी जोश और उत्साह से भर उठते थे।

जापानी सैनिकों के साथ तथाकथित आज़ाद हिन्द फ़ौज रंगून (यांगून) से होती हुई थलमार्ग से भारत की ओर बढ़ती हुई 18 मार्च सन 1944 ई. को कोहिमा और इम्फ़ाल के भारतीय मैदानी क्षेत्रों में पहुँच गई।

सुभाष चन्द्र बोस और आज़ाद हिन्द फ़ौज के सदस्य

फ़ौज की बिग्रेड

जर्मनी, जापान तथा उनके समर्थक देशों द्वारा 'आज़ाद हिन्द सरकार' को मान्यता प्रदान की गई। इसके पश्चात् नेताजी बोस ने सिंगापुर एवं रंगून में आज़ाद हिन्द फ़ौज का मुख्यालय बनाया। पहली बार सुभाषचन्द्र बोस द्वारा ही गाँधी जी के लिए राष्ट्रपिता शब्द का प्रयोग किया गया। जुलाई, 1944 ई. को सुभाषचन्द्र बोस ने रेडियो पर गाँधी जी को संबोधित करते हुए कहा "भारत की स्वाधीनता का आख़िरी युद्ध शुरू हो चुका हैं। हे राष्ट्रपिता! भारत की मुक्ति के इस पवित्र युद्ध में हम आपका आशीर्वाद और शुभकामनाएँ चाहते हैं।" इसके अतिरिक्त फ़ौज की बिग्रेड को नाम भी दिये गए- 'महात्मा गाँधी ब्रिगेड', 'अबुल कलाम आज़ाद ब्रिगेड', 'जवाहरलाल नेहरू ब्रिगेड' तथा 'सुभाषचन्द्र बोस ब्रिगेड'। सुभाषचन्द्र बोस ब्रिगेड के सेनापति शाहनवाज ख़ाँ थे। सुभाषचन्द्र बोस ने सैनिकों का आहवान करते हुए कहा तुम मुझे ख़ून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा।

जापान की पराजय तथा बोस की मृत्यु

फ़रवरी से जून, 1944 ई. के मध्य आज़ाद हिन्द फ़ौज की तीन ब्रिगेडों ने जापानियों के साथ मिलकर भारत की पूर्वी सीमा एवं बर्मा से युद्ध लड़ा, परन्तु दुर्भाग्यवश दूसरे विश्व युद्ध में जापान की सेनाओं के मात खाने के साथ ही आज़ाद हिन्द फ़ौज को भी पराजय का सामना करना पड़ा। आज़ाद हिन्द फ़ौज के सैनिक एवं अधिकारियों को अंग्रेज़ों ने 1945 ई. में गिरफ़्तार कर लिया। साथ ही एक हवाई दुर्घटना में सुभाषचन्द्र बोस की भी 18 अगस्त, 1945 ई. को मृत्यु हो गई। हालांकि हवाई दुर्घटना में उनकी मृत्यु अभी भी संदेह के घेरे में है। बोस की मृत्यु का किसी को विश्वास ही नहीं हुआ। लोगों को लगा कि किसी दिन वे फिर सामने आ खड़े होंगे। आज इतने वर्षों बाद भी जनमानस उनकी राह देखता है।

आज़ाद हिन्द फ़ौज के गिरफ़्तार सैनिकों एवं अधिकारियों पर अंग्रेज़ सरकार ने दिल्ली के लाल क़िले में नवम्बर, 1945 ई. को मुकदमा चलाया। इस मुकदमें के मुख्य अभियुक्त कर्नल सहगल, कर्नल ढिल्लों एवं मेजर शाहवाज ख़ाँ पर राजद्रोह का आरोप लगाया गया। इनके पक्ष में सर तेजबहादुर सप्रू, जवाहरलाल नेहरू, भूला भाई देसाई और के.एन. काटजू ने दलीलें दी। लेकिन फिर भी इन तीनों की फाँसी को सज़ा सुनाई गयी। इस निर्णय के ख़िलाफ़ पूरे देश में कड़ी प्रतिक्रिया हुई, नारे लगाये गये- "लाल क़िले को तोड़ दो, आज़ाद हिन्द फ़ौज को छोड़ दो।" विवश होकर तत्कालीन वायसराय लॉर्ड वेवेल ने अपने विशेषाधिकार का प्रयोग कर इनकी मृत्युदण्ड की सज़ा को माफ कर दिया।


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