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डी. एन. खुरोदे का जन्म 2 जनवरी सन 1906 में [[मध्य प्रदेश]] के महू नामक ग्राम, [[इंदौर]] में हुआ था। उनके [[पिता]] और दादा दोनों सरकारी कर्मचारी थे। [[परिवार]] के लोग भी यही चाहते थे कि खुरोदे भी सरकारी सेवा में जाएँ। किंतु शुरू से ही इनकी दिलचस्पी डेयरी उद्योग की ओर रही, जब ये अपने चाचा की दुग्ध कार्य में सहायता किया करते थे। इनके चाचा महू में सैन्य प्रतिष्ठानों के लिए डेयरी उत्पादों की आपूर्ति करते थे। वर्ष [[1923]] में खुरोदे ने इंपीरियल बंगलौर में पशुपालन संस्थान में प्रवेश ले लिया। [[1925]] में इन्हें अखिल भारतीय डेयरी डिप्लोमा परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करने पर सरकार की ओर से स्वर्ण पदक मिला था।<ref name="a">{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=मैग्सेसे पुरस्कार विजेता भारतीय|अनुवादक=अशोक गुप्ता|आलोचक= |प्रकाशक=नया साहित्य, 1590, मदरसा, रोड, कशमीरी गेट दिल्ली-110006|संकलन=भारत डिस्कवरी पुस्तकालय|संपादन=|पृष्ठ संख्या=23-25|url=}}</ref>
डी. एन. खुरोदे का जन्म 2 जनवरी सन 1906 में [[मध्य प्रदेश]] के महू नामक ग्राम, [[इंदौर]] में हुआ था। उनके [[पिता]] और दादा दोनों सरकारी कर्मचारी थे। [[परिवार]] के लोग भी यही चाहते थे कि खुरोदे भी सरकारी सेवा में जाएँ। किंतु शुरू से ही इनकी दिलचस्पी डेयरी उद्योग की ओर रही, जब ये अपने चाचा की दुग्ध कार्य में सहायता किया करते थे। इनके चाचा महू में सैन्य प्रतिष्ठानों के लिए डेयरी उत्पादों की आपूर्ति करते थे। वर्ष [[1923]] में खुरोदे ने इंपीरियल बंगलौर में पशुपालन संस्थान में प्रवेश ले लिया। [[1925]] में इन्हें अखिल भारतीय डेयरी डिप्लोमा परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करने पर सरकार की ओर से स्वर्ण पदक मिला था।<ref name="a">{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=मैग्सेसे पुरस्कार विजेता भारतीय|अनुवादक=अशोक गुप्ता|आलोचक= |प्रकाशक=नया साहित्य, 1590, मदरसा, रोड, कशमीरी गेट दिल्ली-110006|संकलन=भारत डिस्कवरी पुस्तकालय|संपादन=|पृष्ठ संख्या=23-25|url=}}</ref>
==दूध का उत्पादन==
==दूध का उत्पादन==
लगभग पूरे [[भारत]] में [[दूध]] सभी शाकाहारी जनों का प्रमुख खाद्य है। इससे [[प्रोटीन]] तो मिलता ही है, पकाने के लिए [[घी]] भी मिलता है। बहुत समय तक लोगों ने [[दूध]], [[घी]], [[माखन|मक्खन]] तथा [[दही]]-[[मठ्ठा|मट्ठे]] आदि के लिए अपने पशु, विशेष रूप से भैंस पाल कर रखी थीं। शहरीकरण ने इस व्यवस्था में बाधा पहुँचाई। साफ-सफाई की जरूरत ने इन पशुओं को अवांछित करार दे दिया। इनके लिए चरागह खत्म होने लगे। ऐसे में गाँवों से दूधिए मिलावटी दूध लाकर शहरों में देने लगे, तब भी जरूरत भर आपूर्ति नहीं हो पाई। इस समस्या का हल खुरोदे ने वर्ष [[1940]] से खोजना शुरू किया, जो आज विकसित होकर [[मुम्बई]] की डेयरी के जरिए दूध का उत्पादन तथा विवरण कर रहे हैं।  
लगभग पूरे [[भारत]] में [[दूध]] सभी शाकाहारी जनों का प्रमुख खाद्य है। इससे [[प्रोटीन]] तो मिलता ही है, पकाने के लिए [[घी]] भी मिलता है। बहुत समय तक लोगों ने [[दूध]], [[घी]], [[माखन|मक्खन]] तथा [[दही]]-[[मठ्ठा|मट्ठे]] आदि के लिए अपने पशु, विशेष रूप से भैंस पाल कर रखी थीं। शहरीकरण ने इस व्यवस्था में बाधा पहुँचाई। साफ-सफाई की ज़रूरत ने इन पशुओं को अवांछित करार दे दिया। इनके लिए चरागह खत्म होने लगे। ऐसे में गाँवों से दूधिए मिलावटी दूध लाकर शहरों में देने लगे, तब भी ज़रूरत भर आपूर्ति नहीं हो पाई। इस समस्या का हल खुरोदे ने वर्ष [[1940]] से खोजना शुरू किया, जो आज विकसित होकर [[मुम्बई]] की डेयरी के जरिए दूध का उत्पादन तथा विवरण कर रहे हैं।  
==डेयरी कमिश्नर==
==डेयरी कमिश्नर==
इन्होंने मुम्बई के डेयरी कमिश्नर के रूप में और फिर [[महाराष्ट्र|महाराष्ट्र राज्य]] के सह-सचिव (ज्वाइंट सेक्रेटरी) के रूप में काम किया और फिर अपनी योजना को आरे कॉलोनी में लागू करना प्रारम्भ किया। यह कॉलोनी आरे कॉलोनी के नाम से मुम्बई से बीस मील उत्तरी मुम्बई की ओर बनाई गई, जहाँ दूध को एकत्रित करके एक विशेष प्रक्रिया<ref>पॉश्चुराइजेशन</ref> के बाद पैक कर के वितरित किया जाने लगा। यहीं पर दूध की क्वालिटी तय की गई और निर्धारित मूल्य पर बेचा जाने लगा। इस दूध का लाभ नागरिकों को तो हुआ ही, इसे विभिन्न अस्पतालों में सप्लाई किया गया तथा मुम्बई के 72 हज़ार कुपोषित बच्चों को उनके स्कूलों में मुफ़्त में बाँटा जाने लगा।
इन्होंने [[मुम्बई]] के डेयरी कमिश्नर के रूप में और फिर [[महाराष्ट्र|महाराष्ट्र राज्य]] के सह-सचिव (ज्वाइंट सेक्रेटरी) के रूप में काम किया और फिर अपनी योजना को आरे कॉलोनी में लागू करना प्रारम्भ किया। यह कॉलोनी आरे कॉलोनी के नाम से मुम्बई से बीस मील उत्तरी मुम्बई की ओर बनाई गई, जहाँ दूध को एकत्रित करके एक विशेष प्रक्रिया<ref>पॉश्चुराइजेशन</ref> के बाद पैक कर के वितरित किया जाने लगा। यहीं पर दूध की क्वालिटी तय की गई और निर्धारित मूल्य पर बेचा जाने लगा। इस दूध का लाभ नागरिकों को तो हुआ ही, इसे विभिन्न अस्पतालों में सप्लाई किया गया तथा मुम्बई के 72 हज़ार कुपोषित बच्चों को उनके स्कूलों में मुफ़्त में बाँटा जाने लगा।
==श्वेत क्रांति==
==श्वेत क्रांति==
इस योजना के लागू होने से हज़ारों जानवर शहरी क्षेत्रों से बाहर लाकर बेहतर ढंग से पाले जाने लगे। उनका स्वास्थ्य बेहतर हुआ और इनकी [[दूध]] देने की क्षमता में 20 प्रतिशत तक बढ़ोत्तरी हुई। इस सफलता के बाद दारा खुरोदे ने वरली में एक और प्लांट लगवाया, जिसने इसी क्रम से काम करना शुरू कर दिया। [[मुम्बई]] की इस सफलता ने शहरी क्षेत्र के लिए एक नई धारा का रास्ता खोला। डी. एन. खुरोदे के बाद [[गुजरात]] में [[वर्गीज़ कुरियन]] तथा [[त्रिभुवनदास कृषिभाई पटेल]] ने भी श्वेत क्रांति की नींव डाली।<ref name="a"/>
इस योजना के लागू होने से हज़ारों जानवर शहरी क्षेत्रों से बाहर लाकर बेहतर ढंग से पाले जाने लगे। उनका स्वास्थ्य बेहतर हुआ और इनकी [[दूध]] देने की क्षमता में 20 प्रतिशत तक बढ़ोत्तरी हुई। इस सफलता के बाद दारा खुरोदे ने वरली में एक और प्लांट लगवाया, जिसने इसी क्रम से काम करना शुरू कर दिया। [[मुम्बई]] की इस सफलता ने शहरी क्षेत्र के लिए एक नई धारा का रास्ता खोला। डी. एन. खुरोदे के बाद [[गुजरात]] में [[वर्गीज़ कुरियन]] तथा [[त्रिभुवनदास कृषिभाई पटेल]] ने भी श्वेत क्रांति की नींव डाली।<ref name="a"/>

10:47, 2 जनवरी 2018 के समय का अवतरण

डी. एन. खुरोदे
डी. एन. खुरोदे
डी. एन. खुरोदे
पूरा नाम दारा नुसेरवानजी खुरोदे
जन्म 2 जनवरी, 1906
जन्म भूमि महू, इन्दौर (मध्य प्रदेश)
मृत्यु 1 जनवरी 1983
मृत्यु स्थान मध्य प्रदेश
कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र डेयरी उद्योग
पुरस्कार-उपाधि 'रमन मैगसेसे पुरस्कार' (1963), 'पद्म भूषण (1964)
विशेष योगदान डी. एन. खुरोदे ने खाद्य संसाधनों की आपूर्ति तथा साफ-सुथरे शहरी रख-रखाव की समस्या का लाभकारी हल स्थापित करने में विशेष योगदान दिया।
नागरिकता भारतीय
संबंधित लेख वर्गीज़ कुरियन
अन्य जानकारी सन 1925 में खुरोदे को 'अखिल भारतीय डेयरी डिप्लोमा' परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करने पर सरकार की ओर से स्वर्ण पदक मिला था।
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दारा नुसेरवानजी खुरोदे (अंग्रेज़ी: Dara Nusserwanji Khurody, जन्म: 2 जनवरी, 1906; मृत्यु: 1 जनवरी, 1983) एक प्रसिद्ध भारतीय उद्यमी थे, जिन्हें भारत के दुग्ध उद्योग में उनके योगदान के लिए जाना जाता है। उन्होंने अपने कॅरियर की शुरुआत में कई निजी और सरकारी संगठनों में काम किया। बाद में कई सरकारी उच्च पदों पर भी अपनी सेवाएँ दीं। डी. एन. खुरोदे ने 1946 से 1952 तक मुम्बई के दुग्ध आयुक्त के रूप में भी कार्य किया। 1950 के दशक में भारत में इनका नाम डेयरी का पर्याय बन गया था। वर्ष 1963 में डी. एन. खुरोदे को वर्गीज़ कुरियन के साथ सम्मिलित रूप से 'रेमन मैग्सेसे पुरस्कार' प्रदान किया गया। भारत सरकार ने इनको सन 1964 में 'पद्म भूषण' से सम्मनित किया था।

परिचय

डी. एन. खुरोदे का जन्म 2 जनवरी सन 1906 में मध्य प्रदेश के महू नामक ग्राम, इंदौर में हुआ था। उनके पिता और दादा दोनों सरकारी कर्मचारी थे। परिवार के लोग भी यही चाहते थे कि खुरोदे भी सरकारी सेवा में जाएँ। किंतु शुरू से ही इनकी दिलचस्पी डेयरी उद्योग की ओर रही, जब ये अपने चाचा की दुग्ध कार्य में सहायता किया करते थे। इनके चाचा महू में सैन्य प्रतिष्ठानों के लिए डेयरी उत्पादों की आपूर्ति करते थे। वर्ष 1923 में खुरोदे ने इंपीरियल बंगलौर में पशुपालन संस्थान में प्रवेश ले लिया। 1925 में इन्हें अखिल भारतीय डेयरी डिप्लोमा परीक्षा में प्रथम स्थान प्राप्त करने पर सरकार की ओर से स्वर्ण पदक मिला था।[1]

दूध का उत्पादन

लगभग पूरे भारत में दूध सभी शाकाहारी जनों का प्रमुख खाद्य है। इससे प्रोटीन तो मिलता ही है, पकाने के लिए घी भी मिलता है। बहुत समय तक लोगों ने दूध, घी, मक्खन तथा दही-मट्ठे आदि के लिए अपने पशु, विशेष रूप से भैंस पाल कर रखी थीं। शहरीकरण ने इस व्यवस्था में बाधा पहुँचाई। साफ-सफाई की ज़रूरत ने इन पशुओं को अवांछित करार दे दिया। इनके लिए चरागह खत्म होने लगे। ऐसे में गाँवों से दूधिए मिलावटी दूध लाकर शहरों में देने लगे, तब भी ज़रूरत भर आपूर्ति नहीं हो पाई। इस समस्या का हल खुरोदे ने वर्ष 1940 से खोजना शुरू किया, जो आज विकसित होकर मुम्बई की डेयरी के जरिए दूध का उत्पादन तथा विवरण कर रहे हैं।

डेयरी कमिश्नर

इन्होंने मुम्बई के डेयरी कमिश्नर के रूप में और फिर महाराष्ट्र राज्य के सह-सचिव (ज्वाइंट सेक्रेटरी) के रूप में काम किया और फिर अपनी योजना को आरे कॉलोनी में लागू करना प्रारम्भ किया। यह कॉलोनी आरे कॉलोनी के नाम से मुम्बई से बीस मील उत्तरी मुम्बई की ओर बनाई गई, जहाँ दूध को एकत्रित करके एक विशेष प्रक्रिया[2] के बाद पैक कर के वितरित किया जाने लगा। यहीं पर दूध की क्वालिटी तय की गई और निर्धारित मूल्य पर बेचा जाने लगा। इस दूध का लाभ नागरिकों को तो हुआ ही, इसे विभिन्न अस्पतालों में सप्लाई किया गया तथा मुम्बई के 72 हज़ार कुपोषित बच्चों को उनके स्कूलों में मुफ़्त में बाँटा जाने लगा।

श्वेत क्रांति

इस योजना के लागू होने से हज़ारों जानवर शहरी क्षेत्रों से बाहर लाकर बेहतर ढंग से पाले जाने लगे। उनका स्वास्थ्य बेहतर हुआ और इनकी दूध देने की क्षमता में 20 प्रतिशत तक बढ़ोत्तरी हुई। इस सफलता के बाद दारा खुरोदे ने वरली में एक और प्लांट लगवाया, जिसने इसी क्रम से काम करना शुरू कर दिया। मुम्बई की इस सफलता ने शहरी क्षेत्र के लिए एक नई धारा का रास्ता खोला। डी. एन. खुरोदे के बाद गुजरात में वर्गीज़ कुरियन तथा त्रिभुवनदास कृषिभाई पटेल ने भी श्वेत क्रांति की नींव डाली।[1]

मैग्सेसे पुरस्कार

एशिया के बड़े और घनी जनसंख्या वाले क्षेत्रों में आवश्यक खाद्य संसाधनों की आपूर्ति तथा साफ-सुथरा शहरी रख-रखाव, दोनों बनाए रखना एक समस्या रही है। सरकारी तथा निजी उद्योग व्यवस्थाओं के बीच उत्साही तालमेल बनाए बगैर यह काम सम्भव नहीं है। डी. एन. खुरोदे ने अपने क्षेत्र में इस समस्या का लाभकारी हल स्थापित किया और गाँवों के उत्पादकों के जीवन स्तर उठाने में उपयोगी सिद्ध हुए। उनके इस महत्त्वपूर्ण काम के लिए वर्ष 1963 का मैग्सेसे पुरस्कार प्रदान किया गया। इनके साथ वर्गीज़ कुरियन तथा टी. डी. पटेल भी शामिल थे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 मैग्सेसे पुरस्कार विजेता भारतीय |अनुवादक: अशोक गुप्ता |प्रकाशक: नया साहित्य, 1590, मदरसा, रोड, कशमीरी गेट दिल्ली-110006 |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 23-25 |
  2. पॉश्चुराइजेशन

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख