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| |कवि =[[कुलदीप शर्मा]] | | |कवि =[[कुलदीप शर्मा]] |
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| |जन्म स्थान=([[ऊना, हिमाचल प्रदेश]]) | | |जन्म स्थान=([[उना हिमाचल|उना]], [[हिमाचल प्रदेश]]) |
| |मुख्य रचनाएँ= | | |मुख्य रचनाएँ= |
| |यू-ट्यूब लिंक= | | |यू-ट्यूब लिंक= |
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| अब जबकि बिल्कुल निहत्थे हो गए हो तुम | | अब जबकि बिल्कुल निहत्थे हो गए हो तुम |
| और शत्रु कर चुका है जयघोष | | और शत्रु कर चुका है जयघोष |
| लड़ना और भी जरूरी हो गया है | | लड़ना और भी ज़रूरी हो गया है |
| अब जबकि खण्ड खण्ड गिरी पड़ी है अस्मिता | | अब जबकि खण्ड खण्ड गिरी पड़ी है अस्मिता |
| और सारा युद्ध क्षेत्र | | और सारा युद्ध क्षेत्र |
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| जहां से लड़ा जा सके | | जहां से लड़ा जा सके |
| अपने पक्ष में | | अपने पक्ष में |
| लड़ना और भी जरूरी हो गया है | | लड़ना और भी ज़रूरी हो गया है |
| अब जबकि लगता है | | अब जबकि लगता है |
| कि लड़ाई का नहीं है कोई अर्थ | | कि लड़ाई का नहीं है कोई अर्थ |
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| इसलिए लड़ो कि | | इसलिए लड़ो कि |
| इस हहराते अंधकार को | | इस हहराते अंधकार को |
| ङिालमिल उजाले में बदलने के लिए
| | झिलमिल उजाले में बदलने के लिए |
| ज़रूरी है लड़ना | | ज़रूरी है लड़ना |
| बेषक बदल दिए है उन्होने
| | बेशक बदल दिए है उन्होंने |
| रातों रात युद्ध के सारे नियम | | रातों रात युद्ध के सारे नियम |
| अपने पक्ष में कर लिए हैं सारे शस्त्र | | अपने पक्ष में कर लिए हैं सारे शस्त्र |
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| जीती जा सकती है लड़ाई | | जीती जा सकती है लड़ाई |
| तुम सच मानो | | तुम सच मानो |
| कि लड़ना और भी जरूरी हो गया है | | कि लड़ना और भी ज़रूरी हो गया है |
| और यह भी कि | | और यह भी कि |
| हर लड़ाई जीत के लिए नहीं लड़ी जाती | | हर लड़ाई जीत के लिए नहीं लड़ी जाती |
| पर अगर लड़ो तो | | पर अगर लड़ो तो |
| निश्चय ही अंत में जीत | | निश्चय ही अंत में जीत |
| तुम्हारे पक्ष में चली आती है | | तुम्हारे पक्ष में चली आती है। |
| '''(2)'''
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| तुामने तो की थी प्रतिज्ञा
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| कि लड़ोगे तुम
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| अन्तिम कारण तक
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| उन सबके लिए
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| जो लड़ना और जीना भूल चुके हैं
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| जो न परास्त हुए न मरे हैं
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| अद्र्घ विक्षिप्त से रणभूमि के किनारे
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| कनकौए की तरह खड़े हैं
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| जिनके अधिकार और हथियार
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| पहले ही छिन चुके हैं
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| लोकतन्त्र के इस जंगल में
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| जिन एकलव्यों के अंगूठे कट चुके हैं
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| जिनका जीवित सर
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| बीरबल की तरह युद्घभूमि के किनारे
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| बांस के खम्भे पर टांग दिया गया है
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| जिन्हें भाषा और धर्म
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| रंग और जात के नाम पर
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| अलग अलग बांट दिया गया है
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| तुमने तो कहा था
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| तुमने तो कहा था-
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| हम लड़ेंगे अन्तिम सॉंस तक
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| न्याय के लिए़
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| तुमने तिरंगे तले की थी घोषणा
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| कि तमाम खतरों के बावजूद
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| जिन्दा रहेगा सच
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| तुमने लिया था संकल्प
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| कि अपनी आत्मा की अस्मिता
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| रखोगे अक्षुण्ण
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| रक्त की अन्तिम बूंद तक़
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| पर तुम्हीं ने बांध ली
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| आंखों पर पटृी
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| और चुन लिया अपने लिए अंधेरा
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| ताकि देखना न पड़े
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| न्याय के लिए जूझते
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| दम तोड़ते आदमी का चेहरा
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| तुम्हें पता था
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| न्याय और जीवन के लिए
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| लड़ते आदमी का चेहरा देखना
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| सचमुच मुष्किल होता है
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| तब और भी ज्यादा
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| जब तुम अन्धेरे में हो
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| और चेहरा मशाल की तरह जल रहा हो़
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| तब और भी ज्यादा
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| जब तुम खड़े हो
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| मूक दर्शकों की पंक्ति में
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| तुम देखते हो और ओढ़ लेते हो मौन
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| मक्कारी में डूबे पूछते हो
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| आराम में खलल डालता यह आदमी
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| आखिर है कौन
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| उधर अदालत की चौखट पर
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| सर पटकती है
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| न्याय की उम्मीद
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| भीतर बेसाख्ता झूठ बोलता है चश्मदीद़
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| वहां हथौड़े की ठक ठक के नीचे
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| कराहता है आहत सच
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| और सहम कर वहीं दुबक जाता है
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| असहाय सा कोने में
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| काले कव्वे से नहीं डरता है झूठ
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| काले कव्वे की षह पर
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| इतराता है, गुर्राता है
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| कानून की किसी उपधारा को
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| ढाल बनाकर निकल जाता है
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| प्रजातन्त्र के जंगल में
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| नए तरीके के साथ नए शिकार पऱ
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| क्या तुमने सुना है
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| सिसक- सिसक कर रोता सच
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| अदालत के उठ जाने के बाद
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| वहीं किसी अंधेरे कोने में
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| पत्थर पर सिर टिकाए
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| दीवारों में तलाशता हुआ संवेदना ?
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| जहाँ तुम जाते हो न्याय की उम्मीद में
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| वहाँ धृतराष्टृ की बगल में
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| सदियों से खड़ी है गांधारी
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| अंधी मर्यादा में गर्वोन्नत
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| देखती नहीं कुछ
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| सुनती है बस
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| पर फर्क नहीं कर सकती
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| घायल की कराहट
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| और अपराधी की गुर्राहट के बीच़
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| रेवड़ियां बाँटती है खैरात में
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| पर अपना ही कुनबा
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| आ जाता है सामने हरबाऱ
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| सदियों से खड़ी है गांधारी
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| जिसकी आंखों पर पटृी
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| हाथ में तराजू है
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| और तोलने को कुछ भी नहीं
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| संविधान की आड़ी तिरछी रेखाओं ने
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| जिसे ऊँची कुर्सी पर टॉंग रखा है
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| उसके एक हाथ में
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| मरी हुई परिभाषाओं से भरी
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| एक भारी किताब है
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| दूसरे हाथ में लकड़ी का हथौड़ा है
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| जिसे दिन दिहाड़े धर दबोचा चौक पर
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| कानून उस पर बरसता संवैधानिक कोड़ा है
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| यहां हर नागरिक लकड़ी का घोड़ा है़
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| वह गूँगा नहीं है
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| नक्कारखाने में उसका मौन
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| एक लाचारी है
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| जिस अपराधी के पक्ष में
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| एक डरी हुई चुप्पी है
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| डसके लिए हथौड़े की ठक- ठक कर
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| ऑर्डर-ऑर्डर कहता जज
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| महज़ डुगडुगी बजाता मदारी है़
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| जिन्दा आदमी के जले गोष्त की
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| गन्ध से घबराई ज़ाहिरा
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| एक और बुर्का ओढ़ लेती है झूठ का
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| जब मोदी पूछता है
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| अलग अलग करके बताओ
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| कितने हिन्दू हैं मरने वालों में
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| कितने मुस्व्लमान ?
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| संसद की दीर्घा में बैठा प्रहरी
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| कुछ और पसर जाता है आराम से
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| जब समवेत स्वर में कहते हैं सभी
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| जैसिका को किसी ने नहीं मारा
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| जैसिका कभी मरी ही नहीं
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| उसे दफन किया गया है फाईलों में जिन्दा़
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| गांधारी के शब्दकोष में आदमी
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| न जिंदा है न मरा है
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| अदालत का एक कटघरा है
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| जहां उसका सच सलीब पर तुलता है
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| गवाह और अपराधी के बीच
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| एक अदालती रिश्ता है
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| जो सच की कब्र पर
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| फूल की तरह खिलता है़
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| [[Category:समकालीन साहित्य]][[Category:कुलदीप शर्मा]][[Category:कविता]] | | [[Category:समकालीन साहित्य]][[Category:कुलदीप शर्मा]][[Category:कविता]] |
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