"ग्रीष्म ऋतु": अवतरणों में अंतर
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'''ग्रीष्म ऋतु''' [[भारत]] की प्रमुख 4 ऋतुओं में से एक [[ऋतु]] है। ग्रीष्म ऋतु में मानूसन के आगमन के पूर्व पश्चिमी तटीय मैदानी भागों में भी कुछ [[वर्षा]] प्राप्त होती है, जिसे 'मैंगों शावर' कहा जाता है। इसके अतिरिक्त [[असम]] तथा [[पश्चिम बंगाल]] राज्यों में भी तीव्र एवं आर्द्र हवाएं चलने लगती हैं, जिनसे गरज के साथ वर्षा हो जाती है। यह वर्षा असम में 'चाय वर्षा' कहलाती है। इन हवाओं को 'नारवेस्टर' अथवा 'काल वैशाखी' के नाम से जाना जाता है। यह वर्षा पूर्व-मानसून वर्षा कहलाती है। | |चित्र=Summer-Goa.jpg | ||
==समय== | |चित्र का नाम=ग्रीष्म ऋतु | ||
भारत में सामान्यतया [[15 मार्च]] से [[15 जून]] तक ग्रीष्म मानी जाती है। इस समय तक [[सूर्य]] [[भूमध्य रेखा]] से [[कर्क रेखा]] की ओर बढ़ता है, जिससे सम्पूर्ण देश में [[तापमान]] में वृद्धि होने लगती है। इस समय सूर्य के कर्क रेखा की ओर अग्रसर होने के साथ ही तापमान का अधिकतम बिन्दु भी क्रमशः दक्षिण से उत्तर की ओर बढ़ता जाता है और [[मई]] के अन्त में देश के उत्तरी-पश्चिमी भाग में यह 480 सें.गे. तक पहुँच जाता है। इस समय [[उत्तरी भारत]] अधिकतम तापमान तथा न्यूनतम [[वायुदाब]] के क्षेत्र में परिवर्तित होने लगता है। उत्तर-पश्चिमी भारत में स्थित [[थार मरुस्थल]] पर मिलने वाला न्यूनतम वायुदाब क्षेत्र बढ़कर सम्पूर्ण [[छोटा नागपुर पठार]] को भी आवृत कर लेता है, जिसके कारण स्थानीय एवं सागरीय आर्द्र हवाओं का परिसंचरण इस ओर प्रारम्भ हो जाता है और स्थानीय प्रबल तूफानों का जन्म होता है। मूसलाधर वर्षा एवं ओलों के गिरने यहाँ | |विवरण='''ग्रीष्म ऋतु''' [[भारत]] की प्रमुख 4 ऋतुओं में से एक [[ऋतु]] है। भारतीय गणना के अनुसार [[ज्येष्ठ]]-[[आषाढ़]] के महीनों में ग्रीष्म ऋतु होती है। ग्रीष्म ऋतु में मानूसन के आगमन के पूर्व पश्चिमी तटीय मैदानी भागों में भी कुछ [[वर्षा]] प्राप्त होती है, जिसे 'मैंगों शावर' कहा जाता है। | ||
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'''ग्रीष्म ऋतु''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Summer Season'') [[भारत]] की प्रमुख 4 ऋतुओं में से एक [[ऋतु]] है। भारतीय गणना के अनुसार [[ज्येष्ठ]]-[[आषाढ़]] के महीनों में ग्रीष्म ऋतु होती है। ग्रीष्म ऋतु में मानूसन के आगमन के पूर्व पश्चिमी तटीय मैदानी भागों में भी कुछ [[वर्षा]] प्राप्त होती है, जिसे 'मैंगों शावर' कहा जाता है। इसके अतिरिक्त [[असम]] तथा [[पश्चिम बंगाल]] राज्यों में भी तीव्र एवं आर्द्र हवाएं चलने लगती हैं, जिनसे गरज के साथ वर्षा हो जाती है। यह वर्षा असम में 'चाय वर्षा' कहलाती है। इन हवाओं को 'नारवेस्टर' अथवा 'काल वैशाखी' के नाम से जाना जाता है। यह वर्षा पूर्व-मानसून वर्षा कहलाती है। | |||
==ग्रीष्म ऋतु का समय== | |||
भारत में सामान्यतया [[15 मार्च]] से [[15 जून]] तक ग्रीष्म मानी जाती है। इस समय तक [[सूर्य]] [[भूमध्य रेखा]] से [[कर्क रेखा]] की ओर बढ़ता है, जिससे सम्पूर्ण देश में [[तापमान]] में वृद्धि होने लगती है। इस समय सूर्य के कर्क रेखा की ओर अग्रसर होने के साथ ही तापमान का अधिकतम बिन्दु भी क्रमशः दक्षिण से उत्तर की ओर बढ़ता जाता है और [[मई]] के अन्त में देश के उत्तरी-पश्चिमी भाग में यह 480 सें.गे. तक पहुँच जाता है। इस समय [[उत्तरी भारत]] अधिकतम तापमान तथा न्यूनतम [[वायुदाब]] के क्षेत्र में परिवर्तित होने लगता है। उत्तर-पश्चिमी भारत में स्थित [[थार मरुस्थल]] पर मिलने वाला न्यूनतम वायुदाब क्षेत्र बढ़कर सम्पूर्ण [[छोटा नागपुर पठार]] को भी आवृत कर लेता है, जिसके कारण स्थानीय एवं सागरीय आर्द्र हवाओं का परिसंचरण इस ओर प्रारम्भ हो जाता है और स्थानीय प्रबल तूफानों का जन्म होता है। मूसलाधर वर्षा एवं ओलों के गिरने यहाँ तीव्र गति वाले प्रचण्ड तूफान भी बन जाते हैं, जिनका कारण स्थलीय गर्म एवं शुष्क वायु का सागरीय आर्द्र वायु से मिलना है। | |||
==मौसम== | ==मौसम== | ||
उत्तर पश्चिमी भारत के शुष्क भागों में इस समय चलने वाली गर्म एवं शुष्क हवाओं को '[[लू]]' कहा जाता है। [[राजस्थान]], [[पंजाब]], [[हरियाणा]] तथा पश्चिमी [[उत्तर प्रदेश]] में प्रायः शाम के समय धूल भरी आँधियाँ आती है, जिनके कारण दृश्यता तक कम हो जाती है। धूल की प्रकृति एवं [[रंग]] के आधार पर इन्हें [[काला रंग|काली]] अथवा [[पीला रंग|पीली]] आँधियां कहा जाता है। सामुद्रिक प्रभाव के कारण [[दक्षिण भारत]] में इन गर्म पवनों तथा आँधियों का अभाव पाया जाता है। | उत्तर पश्चिमी भारत के शुष्क भागों में इस समय चलने वाली गर्म एवं शुष्क हवाओं को '[[लू]]' कहा जाता है। [[राजस्थान]], [[पंजाब]], [[हरियाणा]] तथा पश्चिमी [[उत्तर प्रदेश]] में प्रायः शाम के समय धूल भरी आँधियाँ आती है, जिनके कारण दृश्यता तक कम हो जाती है। धूल की प्रकृति एवं [[रंग]] के आधार पर इन्हें [[काला रंग|काली]] अथवा [[पीला रंग|पीली]] आँधियां कहा जाता है। सामुद्रिक प्रभाव के कारण [[दक्षिण भारत]] में इन गर्म पवनों तथा आँधियों का अभाव पाया जाता है। | ||
==साहित्यिक उल्लेख== | |||
काल-क्रम से [[बसन्त ऋतु]] के बाद ग्रीष्म ऋतु आती है। इस ऋतु के प्रारम्भ होते ही बसन्त की कोमलता और मादकता समाप्त हो जाती है और मौसम गर्म होने लगता है। धीरे-धीरे गर्मी इतनी बढ़ जाती है कि प्रात: 8 बजे के बाद ही घर से बाहर निकलना कठिन हो जाता है। शरीर पसीने से नहाने लगता है, प्यास से गला सूखता रहता है, सड़कों पर कोलतार पिघल जाता है, सुबह से ही लू चलने लगती है, कभी–कभी तो रात को भी लू चलती है। गर्मी की दोपहर में सारी सृष्टि तड़प उठती है, छाया भी ढूँढ़ती है।<br /> | |||
कवि बिहारी कहते हैं-<br /> | |||
'''बैठि रही अति सहन बन, पैठि सदन तन माँह,'''<br /> | |||
'''देखि दुपहरी जेठ की, छाअहौ चाहति छाँह ।''' | |||
एक और दोहे में कवि [[बिहारी]] कहते हैं कि ग्रीष्म की दोपहरी में गर्मी से व्याकुल प्राणी वैर-विरोध की भावना को भूल जाते हैं। परस्पर विरोध भाव वाले जन्तु एक साथ पड़े रहते हैं। उन्हें देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो यह संसार कोई तपोवन में रहने वाले प्राणियों में किसी के प्रति दुर्भावना नहीं होतीं। बिहारी का दोहा इस प्रकार है- | |||
'''कहलाने एकत वसत, अहि मयूर मृग-बाघ।'''<br /> | |||
'''जगत तपोवन सों कियो, दीरघ दाघ निदाघ।'''<br /> | |||
गर्मी में दिन लम्बे और रातें छोटी होती हैं। दोपहर का भोजन करने पर सोने व आराम करने की तबियत होती है। पक्की सड़कों का तारकोल पिघल जाता है। सड़कें तवे के समान तप जाती हैं-<br /> | |||
'''बरसा रहा है, रवि अनल भूतल तवा-सा जल रहा।'''<br /> | |||
'''है चल रहा सन-सन पवन, तन से पसीना ढ़ल रहा॥'''<br /> | |||
रेतीले प्रदेशों जैसे [[राजस्थान]] व [[हरियाणा]] में रेत उड़-उड़कर आँखों में पड़ती है। जब तेज आँधी आती है तो सर्वनाश का दृश्य उपस्थित हो जाता है। धनी लोग इस भयंकर गर्मी के प्रकोप से बचने के लिये पहाड़ों पर जाते हैं। कुछ लोग घरों में पंखे और कूलर लगाकर गर्मी को दूर भगाते हैं।<ref>{{cite web |url=http://anushactivity.blogspot.in/2015/05/blog-post.html |title= ग्रीष्म (गर्मी) ऋतु |accessmonthday=23 जनवरी|accessyear=2018 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=अनुष (ब्लॉग)|language=हिंदी }}</ref> | |||
==पौराणिक उल्लेख== | |||
[[भागवत पुराण]] में ग्रीष्म ऋतु में [[कृष्ण]] द्वारा कालिया नाग के दमन की कथा आती है जिसको उपरोक्त आधार पर समझा जा सकता है। भागवत पुराण का द्वितीय स्कन्ध सृष्टि से सम्बन्धित है जिसकी व्याख्या अपेक्षित है। [[शतपथ ब्राह्मण]] में ग्रीष्म का स्तनयन/गर्जन से तादात्म्य कहा गया है जिसकी व्याख्या अपेक्षित है। | |||
[[जैमिनीय ब्राह्मण]]<ref> जैमिनीय ब्राह्मण 2.51</ref> में वाक् या अग्नि को ग्रीष्म कहा गया है। | |||
[[तैत्तिरीय संहिता]] में ग्रीष्म ऋतु यव प्राप्त करती है। तैत्तिरीय ब्राह्मण में ग्रीष्म में रुद्रों की स्तुति का निर्देश है। तैत्तरीय संहिता में ऋतुओं एवं मासों के नाम बताये गये हैं। जैसे- बसंत ऋतु के दो मास- मधु माधव, ग्रीष्म ऋतु के शुक्र-शुचि, वर्षा के नभ और नभस्य, शरद के इष ऊर्ज, हेमन्त के सह सहस्य और शिशिर ऋतु के दो माह तपस और तपस्य बताये गये हैं। | |||
[[चरक संहिता]] में कहा गया है- [[शिशिर ऋतु]] उत्तम बलवाली, [[वसन्त ऋतु]] मध्यम बलवाली और ग्रीष्म ऋतु दौर्बल्यवाली होती है। ग्रीष्म ऋतु में गरम जलवायु पित्त एकत्र करती है। प्रकृति में होने वाले परिवर्तन शरीर को प्रभावित करते हैं। इसलिए व्यक्ति को साधारण रूप से भोजन तथा आचार-व्यवहार के साथ प्रकृति और उसके परिवर्तनों के साथ सामंजस्य स्थापित करना चाहिए। तापमान बढ़ने पर पित्त उत्तेजित होता है तथा शरीर में जमा हो जाता है। व्याधियों से बचाव के लिए ऋतु के अनुकूल आहार तथा गतिविधियों का पालन जरूरी है।<ref name="keyborad"/> | |||
==हिन्दी काव्य में ग्रीष्म ऋतु== | |||
ग्रीष्म का आतप बढ़ते ही चहल–पहल कम हो जाती है। वृक्षों के साथ हमारी निकटता बढ़ जाती है‚ वृक्ष हमें जीवनदाता से प्रतीत होने लगते हैं। लोग घरों में कैद होने लगते हैं। ऐसे में ग्रीष्म की अनुभूति का एक बड़ा हिस्सा तो पसीना बनकर ही निकल जाता है फिर भी कुछ रह जाता है जिसे कविताओं के माध्यम से अभिव्यक्त किया जाता रहा है। वसन्त और पावस की तुलना में ग्रीष्म पर कम कविताएँ लिखी गई हैं। ग्रीष्म की अभिव्यक्ति सभी प्रकार की कविताओं में मिलती है चाहे वे बाल कविताएँ हो या प्रौढ़ कविताएँ। अधिकांशतः ग्रीष्म से उत्पन्न सभी स्थितियों को प्रतीकों में प्रयुक्त किया है परन्तु अनेक कविताओं में अभिधा में भी इनका प्रयोग देखने को मिलता है। [[रीतिकाल]] में तो ऋतु वर्णन पर न जाने कितना श्रेष्ठ और विषद साहित्य लिखा गया है। आधुनिक साहित्य में भी ग्रीष्म पर केन्द्रित कविताएँ खूब लिखी जा रही हैं। कुछ कविताएँ जिनमें ग्रीष्म के विविध क्षणों की अनुभूति कवियों ने की है। सूरज हमारी पृथ्वी पर जीवन बनाए रखने के लिए अनिवार्य है परन्तु उसका अतिशय ताप हमारे मन में झुँझलाहट ही पैदा करता है। [[रामदरश मिश्र|डॉ. रामदरश मिश्र]] की कविताओं में ग्रीष्म के सूर्य को कष्टों को प्रतीक बनाकर प्रस्तुत किया गया है- | |||
<poem> | |||
किसने बैठा दिया है मेरे कंधे पर सूरज | |||
एक जलता हुआ असह्य बोझ कब से ढो रहा हूँ | |||
</poem> | |||
हमारे जीवन में दुख और सुख आते जाते रहते हैं यही जीवन है‚ दुख के समय हम घबराएँ नहीं और सुख के समय अभिमानी न हो जाएँ इसलिए यह परिवर्तन होता रहता है। ग्रीष्म के आतप के उपरान्त तप्त व्योम के हृदय पर मेघों की माला सुशोभित हो जाती है। यह आशावादी दृष्टि ग्रीष्म का आतप हमें भी दे जाता है कि हम आशावादी रहें। | |||
[[सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला]] के शब्दों में- | |||
<poem> | |||
जला है जीवन यह | |||
आतप में दीर्घकाल | |||
सूखी भूमि‚ सूखे तरु | |||
सूखे सिक्त आल बाल | |||
बन्द हुआ गुंज‚ धूलि | |||
धूसर हो गए कुंज | |||
किन्तु पड़ी व्योम–उर | |||
बन्धु‚ नील मेघ–माल।<ref name="keyborad"/> | |||
</poem> | |||
==रीतिकालीन साहित्य में उल्लेख== | |||
रीतिकालीन कवियों में [[सेनापति कवि|सेनापति]] का ग्रीष्म ऋतु वर्णन अत्यन्त प्रसिद्ध है– | |||
<poem> | |||
वृष को तरनि तेज सहसौं किरन करि | |||
ज्वालन के जाल बिकराल बरखत हैं। | |||
तचति धरनि, जग जरत झरनि, सीरी | |||
छाँह को पकरि पंथी पंछी बिरमत हैं॥ | |||
सेनापति नैकु दुपहरी के ढरत, होत | |||
धमका विषम, जो नपात खरकत हैं। | |||
मेरे जान पौनों सीरी ठौर कौ पकरि कोनों | |||
घरी एक बैठी कहूँ घामैं बितवत हैं॥<ref name="keyborad">{{cite web |url=https://drsandeepkr.wordpress.com/2013/03/15/%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%B7%E0%A5%8D%E0%A4%AE-%E0%A4%8B%E0%A4%A4%E0%A5%81/ |title= ग्रीष्म ऋतु|accessmonthday=25 जनवरी|accessyear=2018 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=कीबोर्ड के पत्रकार|language=हिंदी }}</ref> | |||
</poem> | |||
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
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ग्रीष्म ऋतु
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विवरण | ग्रीष्म ऋतु भारत की प्रमुख 4 ऋतुओं में से एक ऋतु है। भारतीय गणना के अनुसार ज्येष्ठ-आषाढ़ के महीनों में ग्रीष्म ऋतु होती है। ग्रीष्म ऋतु में मानूसन के आगमन के पूर्व पश्चिमी तटीय मैदानी भागों में भी कुछ वर्षा प्राप्त होती है, जिसे 'मैंगों शावर' कहा जाता है। |
समय | ज्येष्ठ-आषाढ़ (मई-जून) |
मौसम | उत्तर पश्चिमी भारत के शुष्क भागों में इस ऋतु में चलने वाली गर्म एवं शुष्क हवाओं को 'लू' कहा जाता है। राजस्थान, पंजाब, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्रायः शाम के समय धूल भरी आँधियाँ चलती हैं। |
चाय वर्षा | ग्रीष्म ऋतु में असम तथा पश्चिम बंगाल राज्यों में भी तीव्र एवं आर्द्र हवाएं चलने लगती हैं, जिनसे गरज के साथ वर्षा हो जाती है। यह वर्षा असम में 'चाय वर्षा' कहलाती है। |
अन्य जानकारी | ग्रीष्म ऋतु में उत्तर-पश्चिमी भारत में स्थित थार मरुस्थल पर मिलने वाला न्यूनतम वायुदाब क्षेत्र बढ़कर सम्पूर्ण छोटा नागपुर पठार को भी आवृत कर लेता है, जिसके कारण स्थानीय एवं सागरीय आर्द्र हवाओं का परिसंचरण इस ओर प्रारम्भ हो जाता है और स्थानीय प्रबल तूफानों का जन्म होता है। |
ग्रीष्म ऋतु (अंग्रेज़ी: Summer Season) भारत की प्रमुख 4 ऋतुओं में से एक ऋतु है। भारतीय गणना के अनुसार ज्येष्ठ-आषाढ़ के महीनों में ग्रीष्म ऋतु होती है। ग्रीष्म ऋतु में मानूसन के आगमन के पूर्व पश्चिमी तटीय मैदानी भागों में भी कुछ वर्षा प्राप्त होती है, जिसे 'मैंगों शावर' कहा जाता है। इसके अतिरिक्त असम तथा पश्चिम बंगाल राज्यों में भी तीव्र एवं आर्द्र हवाएं चलने लगती हैं, जिनसे गरज के साथ वर्षा हो जाती है। यह वर्षा असम में 'चाय वर्षा' कहलाती है। इन हवाओं को 'नारवेस्टर' अथवा 'काल वैशाखी' के नाम से जाना जाता है। यह वर्षा पूर्व-मानसून वर्षा कहलाती है।
ग्रीष्म ऋतु का समय
भारत में सामान्यतया 15 मार्च से 15 जून तक ग्रीष्म मानी जाती है। इस समय तक सूर्य भूमध्य रेखा से कर्क रेखा की ओर बढ़ता है, जिससे सम्पूर्ण देश में तापमान में वृद्धि होने लगती है। इस समय सूर्य के कर्क रेखा की ओर अग्रसर होने के साथ ही तापमान का अधिकतम बिन्दु भी क्रमशः दक्षिण से उत्तर की ओर बढ़ता जाता है और मई के अन्त में देश के उत्तरी-पश्चिमी भाग में यह 480 सें.गे. तक पहुँच जाता है। इस समय उत्तरी भारत अधिकतम तापमान तथा न्यूनतम वायुदाब के क्षेत्र में परिवर्तित होने लगता है। उत्तर-पश्चिमी भारत में स्थित थार मरुस्थल पर मिलने वाला न्यूनतम वायुदाब क्षेत्र बढ़कर सम्पूर्ण छोटा नागपुर पठार को भी आवृत कर लेता है, जिसके कारण स्थानीय एवं सागरीय आर्द्र हवाओं का परिसंचरण इस ओर प्रारम्भ हो जाता है और स्थानीय प्रबल तूफानों का जन्म होता है। मूसलाधर वर्षा एवं ओलों के गिरने यहाँ तीव्र गति वाले प्रचण्ड तूफान भी बन जाते हैं, जिनका कारण स्थलीय गर्म एवं शुष्क वायु का सागरीय आर्द्र वायु से मिलना है।
मौसम
उत्तर पश्चिमी भारत के शुष्क भागों में इस समय चलने वाली गर्म एवं शुष्क हवाओं को 'लू' कहा जाता है। राजस्थान, पंजाब, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्रायः शाम के समय धूल भरी आँधियाँ आती है, जिनके कारण दृश्यता तक कम हो जाती है। धूल की प्रकृति एवं रंग के आधार पर इन्हें काली अथवा पीली आँधियां कहा जाता है। सामुद्रिक प्रभाव के कारण दक्षिण भारत में इन गर्म पवनों तथा आँधियों का अभाव पाया जाता है।
साहित्यिक उल्लेख
काल-क्रम से बसन्त ऋतु के बाद ग्रीष्म ऋतु आती है। इस ऋतु के प्रारम्भ होते ही बसन्त की कोमलता और मादकता समाप्त हो जाती है और मौसम गर्म होने लगता है। धीरे-धीरे गर्मी इतनी बढ़ जाती है कि प्रात: 8 बजे के बाद ही घर से बाहर निकलना कठिन हो जाता है। शरीर पसीने से नहाने लगता है, प्यास से गला सूखता रहता है, सड़कों पर कोलतार पिघल जाता है, सुबह से ही लू चलने लगती है, कभी–कभी तो रात को भी लू चलती है। गर्मी की दोपहर में सारी सृष्टि तड़प उठती है, छाया भी ढूँढ़ती है।
कवि बिहारी कहते हैं-
बैठि रही अति सहन बन, पैठि सदन तन माँह,
देखि दुपहरी जेठ की, छाअहौ चाहति छाँह ।
एक और दोहे में कवि बिहारी कहते हैं कि ग्रीष्म की दोपहरी में गर्मी से व्याकुल प्राणी वैर-विरोध की भावना को भूल जाते हैं। परस्पर विरोध भाव वाले जन्तु एक साथ पड़े रहते हैं। उन्हें देखकर ऐसा प्रतीत होता है मानो यह संसार कोई तपोवन में रहने वाले प्राणियों में किसी के प्रति दुर्भावना नहीं होतीं। बिहारी का दोहा इस प्रकार है-
कहलाने एकत वसत, अहि मयूर मृग-बाघ।
जगत तपोवन सों कियो, दीरघ दाघ निदाघ।
गर्मी में दिन लम्बे और रातें छोटी होती हैं। दोपहर का भोजन करने पर सोने व आराम करने की तबियत होती है। पक्की सड़कों का तारकोल पिघल जाता है। सड़कें तवे के समान तप जाती हैं-
बरसा रहा है, रवि अनल भूतल तवा-सा जल रहा।
है चल रहा सन-सन पवन, तन से पसीना ढ़ल रहा॥
रेतीले प्रदेशों जैसे राजस्थान व हरियाणा में रेत उड़-उड़कर आँखों में पड़ती है। जब तेज आँधी आती है तो सर्वनाश का दृश्य उपस्थित हो जाता है। धनी लोग इस भयंकर गर्मी के प्रकोप से बचने के लिये पहाड़ों पर जाते हैं। कुछ लोग घरों में पंखे और कूलर लगाकर गर्मी को दूर भगाते हैं।[1]
पौराणिक उल्लेख
भागवत पुराण में ग्रीष्म ऋतु में कृष्ण द्वारा कालिया नाग के दमन की कथा आती है जिसको उपरोक्त आधार पर समझा जा सकता है। भागवत पुराण का द्वितीय स्कन्ध सृष्टि से सम्बन्धित है जिसकी व्याख्या अपेक्षित है। शतपथ ब्राह्मण में ग्रीष्म का स्तनयन/गर्जन से तादात्म्य कहा गया है जिसकी व्याख्या अपेक्षित है।
जैमिनीय ब्राह्मण[2] में वाक् या अग्नि को ग्रीष्म कहा गया है।
तैत्तिरीय संहिता में ग्रीष्म ऋतु यव प्राप्त करती है। तैत्तिरीय ब्राह्मण में ग्रीष्म में रुद्रों की स्तुति का निर्देश है। तैत्तरीय संहिता में ऋतुओं एवं मासों के नाम बताये गये हैं। जैसे- बसंत ऋतु के दो मास- मधु माधव, ग्रीष्म ऋतु के शुक्र-शुचि, वर्षा के नभ और नभस्य, शरद के इष ऊर्ज, हेमन्त के सह सहस्य और शिशिर ऋतु के दो माह तपस और तपस्य बताये गये हैं।
चरक संहिता में कहा गया है- शिशिर ऋतु उत्तम बलवाली, वसन्त ऋतु मध्यम बलवाली और ग्रीष्म ऋतु दौर्बल्यवाली होती है। ग्रीष्म ऋतु में गरम जलवायु पित्त एकत्र करती है। प्रकृति में होने वाले परिवर्तन शरीर को प्रभावित करते हैं। इसलिए व्यक्ति को साधारण रूप से भोजन तथा आचार-व्यवहार के साथ प्रकृति और उसके परिवर्तनों के साथ सामंजस्य स्थापित करना चाहिए। तापमान बढ़ने पर पित्त उत्तेजित होता है तथा शरीर में जमा हो जाता है। व्याधियों से बचाव के लिए ऋतु के अनुकूल आहार तथा गतिविधियों का पालन जरूरी है।[3]
हिन्दी काव्य में ग्रीष्म ऋतु
ग्रीष्म का आतप बढ़ते ही चहल–पहल कम हो जाती है। वृक्षों के साथ हमारी निकटता बढ़ जाती है‚ वृक्ष हमें जीवनदाता से प्रतीत होने लगते हैं। लोग घरों में कैद होने लगते हैं। ऐसे में ग्रीष्म की अनुभूति का एक बड़ा हिस्सा तो पसीना बनकर ही निकल जाता है फिर भी कुछ रह जाता है जिसे कविताओं के माध्यम से अभिव्यक्त किया जाता रहा है। वसन्त और पावस की तुलना में ग्रीष्म पर कम कविताएँ लिखी गई हैं। ग्रीष्म की अभिव्यक्ति सभी प्रकार की कविताओं में मिलती है चाहे वे बाल कविताएँ हो या प्रौढ़ कविताएँ। अधिकांशतः ग्रीष्म से उत्पन्न सभी स्थितियों को प्रतीकों में प्रयुक्त किया है परन्तु अनेक कविताओं में अभिधा में भी इनका प्रयोग देखने को मिलता है। रीतिकाल में तो ऋतु वर्णन पर न जाने कितना श्रेष्ठ और विषद साहित्य लिखा गया है। आधुनिक साहित्य में भी ग्रीष्म पर केन्द्रित कविताएँ खूब लिखी जा रही हैं। कुछ कविताएँ जिनमें ग्रीष्म के विविध क्षणों की अनुभूति कवियों ने की है। सूरज हमारी पृथ्वी पर जीवन बनाए रखने के लिए अनिवार्य है परन्तु उसका अतिशय ताप हमारे मन में झुँझलाहट ही पैदा करता है। डॉ. रामदरश मिश्र की कविताओं में ग्रीष्म के सूर्य को कष्टों को प्रतीक बनाकर प्रस्तुत किया गया है-
किसने बैठा दिया है मेरे कंधे पर सूरज
एक जलता हुआ असह्य बोझ कब से ढो रहा हूँ
हमारे जीवन में दुख और सुख आते जाते रहते हैं यही जीवन है‚ दुख के समय हम घबराएँ नहीं और सुख के समय अभिमानी न हो जाएँ इसलिए यह परिवर्तन होता रहता है। ग्रीष्म के आतप के उपरान्त तप्त व्योम के हृदय पर मेघों की माला सुशोभित हो जाती है। यह आशावादी दृष्टि ग्रीष्म का आतप हमें भी दे जाता है कि हम आशावादी रहें। सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला के शब्दों में-
जला है जीवन यह
आतप में दीर्घकाल
सूखी भूमि‚ सूखे तरु
सूखे सिक्त आल बाल
बन्द हुआ गुंज‚ धूलि
धूसर हो गए कुंज
किन्तु पड़ी व्योम–उर
बन्धु‚ नील मेघ–माल।[3]
रीतिकालीन साहित्य में उल्लेख
रीतिकालीन कवियों में सेनापति का ग्रीष्म ऋतु वर्णन अत्यन्त प्रसिद्ध है–
वृष को तरनि तेज सहसौं किरन करि
ज्वालन के जाल बिकराल बरखत हैं।
तचति धरनि, जग जरत झरनि, सीरी
छाँह को पकरि पंथी पंछी बिरमत हैं॥
सेनापति नैकु दुपहरी के ढरत, होत
धमका विषम, जो नपात खरकत हैं।
मेरे जान पौनों सीरी ठौर कौ पकरि कोनों
घरी एक बैठी कहूँ घामैं बितवत हैं॥[3]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ग्रीष्म (गर्मी) ऋतु (हिंदी) अनुष (ब्लॉग)। अभिगमन तिथि: 23 जनवरी, 2018।
- ↑ जैमिनीय ब्राह्मण 2.51
- ↑ 3.0 3.1 3.2 ग्रीष्म ऋतु (हिंदी) कीबोर्ड के पत्रकार। अभिगमन तिथि: 25 जनवरी, 2018।