"वैदेही वनवास त्रयोदश सर्ग": अवतरणों में अंतर
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उन्हें रोकती रहती आश्रम-स्वामिनी। | उन्हें रोकती रहती आश्रम-स्वामिनी। | ||
कह वे बातें जिन्हें उचित थीं जानती॥ | कह वे बातें जिन्हें उचित थीं जानती॥ | ||
किन्तु किसी | किन्तु किसी दु:ख में पतिता को देखकर। | ||
कभी नहीं उनकी ममता थी मानती॥4॥ | कभी नहीं उनकी ममता थी मानती॥4॥ | ||
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क्षमामयी हैं तो भी आप ततोधिका॥25॥ | क्षमामयी हैं तो भी आप ततोधिका॥25॥ | ||
कभी किसी को | कभी किसी को दु:ख पहुँचाती हैं नहीं। | ||
सबको सुख हो यही सोचती हैं सदा॥ | सबको सुख हो यही सोचती हैं सदा॥ | ||
कटु-बातें आनन पर आतीं ही नहीं। | कटु-बातें आनन पर आतीं ही नहीं। | ||
पंक्ति 182: | पंक्ति 182: | ||
लोग हुए उत्फुल्ल दूर चिन्ता हुई॥ | लोग हुए उत्फुल्ल दूर चिन्ता हुई॥ | ||
किन्तु कलेजों में असफल-नृप-वृन्द के। | किन्तु कलेजों में असफल-नृप-वृन्द के। | ||
चुभने लगी अचानक | चुभने लगी अचानक ईर्ष्या की सुई॥32॥ | ||
कहने लगे अनेक नृपति हो संगठित। | कहने लगे अनेक नृपति हो संगठित। | ||
पंक्ति 237: | पंक्ति 237: | ||
वह भी है लोकोत्तर, अद्भुत है महा॥ | वह भी है लोकोत्तर, अद्भुत है महा॥ | ||
चौदह सालों तक वन में पति साथ रह। | चौदह सालों तक वन में पति साथ रह। | ||
किस कुल-बाला ने है इतना | किस कुल-बाला ने है इतना दु:ख सहा॥43॥ | ||
थीं सम्राट्-वधू धराधिपति की सुता। | थीं सम्राट्-वधू धराधिपति की सुता। | ||
पंक्ति 341: | पंक्ति 341: | ||
आह! कहूँ क्या प्राय: जीवन आपका। | आह! कहूँ क्या प्राय: जीवन आपका। | ||
रहा आपदाओं के कर में ही पड़ा। | रहा आपदाओं के कर में ही पड़ा। | ||
देख यहाँ के सुख में भी | देख यहाँ के सुख में भी दु:ख आपका। | ||
मेरा जी बन जाता है व्याकुल बड़ा॥64॥ | मेरा जी बन जाता है व्याकुल बड़ा॥64॥ | ||
पर विलोककर अनुपम-निग्रह आपका। | पर विलोककर अनुपम-निग्रह आपका। | ||
देखे धीर धुरंधर जैसी धीरता॥ | देखे धीर धुरंधर जैसी धीरता॥ | ||
पर | पर दु:ख कातरता उदारता से भरी। | ||
अवलोकन कर नयन-नीर की नीरता॥65॥ | अवलोकन कर नयन-नीर की नीरता॥65॥ | ||
पंक्ति 417: | पंक्ति 417: | ||
यही ध्येय मेरा भी आजीवन रहा॥ | यही ध्येय मेरा भी आजीवन रहा॥ | ||
किन्तु करें संयोग के लिए यत्न क्या। | किन्तु करें संयोग के लिए यत्न क्या। | ||
आकस्मिक-घटना | आकस्मिक-घटना दु:ख देती है महा॥79॥ | ||
कार्य-सिध्द के सारे-साधन मिल गए। | कार्य-सिध्द के सारे-साधन मिल गए। | ||
पंक्ति 482: | पंक्ति 482: | ||
करते आये हैं आजीवन करेंगे॥ | करते आये हैं आजीवन करेंगे॥ | ||
बिना किये परवा दुस्तर-आवत्ता की। | बिना किये परवा दुस्तर-आवत्ता की। | ||
आपदाब्धि-मज्जित-जन का | आपदाब्धि-मज्जित-जन का दु:ख हरेंगे॥92॥ | ||
निज-कुटुम्ब का ही न, एक साम्राज्य का। | निज-कुटुम्ब का ही न, एक साम्राज्य का। |
13:35, 7 अप्रैल 2018 के समय का अवतरण
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तपस्विनी-आश्रम के लिए विदेहजा। |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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