"प्रेमचंद": अवतरणों में अंतर

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{{सूचना बक्सा साहित्यकार
{{प्रेमचंद विषय सूची}}{{चयनित लेख}}
|चित्र=Premchand.jpg
{{प्रेमचंद संक्षिप्त परिचय}}
|पूरा नाम=मुंशी प्रेमचंद
'''मुंशी प्रेमचंद''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Munshi Premchand'', जन्म: [[31 जुलाई]], [[1880]] - मृत्यु: [[8 अक्टूबर]], [[1936]]) [[भारत]] के उपन्यास सम्राट माने जाते हैं जिनके युग का विस्तार सन् 1880 से 1936 तक है। यह कालखण्ड [[भारत का इतिहास|भारत के इतिहास]] में बहुत महत्त्व का है। इस युग में [[स्वतंत्रता संग्राम|भारत का स्वतंत्रता-संग्राम]] नई मंज़िलों से गुज़रा। प्रेमचंद का वास्तविक नाम '''धनपत राय श्रीवास्तव''' था। वे एक सफल लेखक, देशभक्त नागरिक, कुशल वक्ता, ज़िम्मेदार संपादक और संवेदनशील रचनाकार थे। बीसवीं शती के पूर्वार्द्ध में जब [[हिन्दी]] में काम करने की तकनीकी सुविधाएँ नहीं थीं फिर भी इतना काम करने वाला लेखक उनके सिवा कोई दूसरा नहीं हुआ।<ref name="pbk">{{cite book |last=गुप्त |first=प्रकाशचन्द्र|title=प्रेमचंद भारतीय साहित्य के निर्माता |year=1984 |publisher=साहित्य अकादमी|location=नई दिल्ली |id= |page= |accessday=|accessmonth=|accessyear=}}</ref>
|अन्य नाम=
==जीवन परिचय==
|जन्म=[[31 जुलाई]], [[1880]]
{{Main|प्रेमचंद का जीवन परिचय}}
|जन्म भूमि=लमही गाँव, [[बनारस]], [[उत्तर प्रदेश]]
प्रेमचंद का जन्म [[वाराणसी]] से लगभग चार मील दूर, लमही नाम के गाँव में [[31 जुलाई]], [[1880]] को हुआ। प्रेमचंद के पिताजी मुंशी अजायब लाल और माता आनन्दी देवी थीं। प्रेमचंद का बचपन [[गाँव]] में बीता था। वे नटखट और खिलाड़ी बालक थे और खेतों से शाक-सब्ज़ी और पेड़ों से फल चुराने में दक्ष थे। उन्हें मिठाई का बड़ा शौक़ था और विशेष रूप से गुड़ से उन्हें बहुत प्रेम था। बचपन में उनकी शिक्षा-दीक्षा लमही में हुई और एक मौलवी साहब से उन्होंने [[उर्दू भाषा|उर्दू]] और [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] पढ़ना सीखा। एक रुपया चुराने पर ‘बचपन’ में उन पर बुरी तरह मार पड़ी थी। उनकी कहानी, ‘कज़ाकी’, उनकी अपनी बाल-स्मृतियों पर आधारित है। कज़ाकी डाक-विभाग का हरकारा था और बड़ी लम्बी-लम्बी यात्राएँ करता था। वह बालक प्रेमचंद के लिए सदैव अपने साथ कुछ सौगात लाता था। कहानी में वह बच्चे के लिये हिरन का छौना लाता है और डाकघर में देरी से पहुँचने के कारण नौकरी से अलग कर दिया जाता है। हिरन के बच्चे के पीछे दौड़ते-दौड़ते वह अति विलम्ब से डाक घर लौटा था। कज़ाकी का व्यक्तित्व अतिशय मानवीयता में डूबा है। वह शालीनता और आत्मसम्मान का पुतला है, किन्तु मानवीय करुणा से उसका हृदय भरा है।  
|अविभावक=मुंशी अजायब लाल और आनन्दी देवी
{{दाँयाबक्सा|पाठ=प्रेमचंद जी कहते हैं कि समाज में ज़िन्दा रहने में जितनी कठिनाइयों का सामना लोग करेंगे उतना ही वहाँ गुनाह होगा। अगर समाज में लोग खुशहाल होंगे तो समाज में अच्छाई ज़्यादा होगी और समाज में गुनाह नहीं के बराबर होगा। प्रेमचन्द ने शोषितवर्ग के लोगों को उठाने का हर संभव प्रयास किया। उन्होंने आवाज़ लगाई 'ए लोगो जब तुम्हें संसार में रहना है तो जिन्दों की तरह रहो, मुर्दों की तरह ज़िन्दा रहने से क्या फ़ायदा।'|विचारक=}}
|पति/पत्नी=शिवरानी देवी
|संतान=श्रीपत राय और अमृत राय (पुत्र)
|कर्म भूमि=
|कर्म-क्षेत्र=अध्यापक, लेखक, उपन्यासकार
|मृत्यु=[[8 अक्तूबर]] [[1936]]
|मृत्यु स्थान=
|मुख्य रचनाएँ=ग़बन, गोदान और बड़े घर की बेटी
|विषय=सामजिक
|भाषा=[[हिन्दी]]
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|नागरिकता=भारतीय
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|अन्य जानकारी=मुंशी प्रेमचंद का वास्तविक नाम '''धनपत राय श्रीवास्तव''' था।
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}}
*[[भारत]] के उपन्यास सम्राट '''मुंशी प्रेमचंद''' ([[31 जुलाई]], [[1880]] - [[8 अक्टूबर]], [[1936]]) के युग का विस्तार सन 1880 से 1936 तक है। यह कालखण्ड भारत के इतिहास में बहुत महत्त्व का है। इस युग में भारत का स्वतंत्रता-संग्राम नई मंजिलों से गुज़रा। यह संघर्ष अधिक सशक्त और गहरा हुआ।
*प्रेमचंद का वास्तविक नाम '''धनपत राय श्रीवास्तव''' था। वे एक सफल लेखक, देशभक्त नागरिक, कुशल वक्ता, ज़िम्मेदार संपादक और संवेदनशील रचनाकार थे। बीसवीं शती के पूर्वार्द्ध में जब [[हिन्दी]] में काम करने की तकनीकी सुविधाएँ नहीं थीं फिर भी इतना काम करने वाला लेखक उनके सिवा कोई दूसरा नहीं हुआ। <ref>{{cite book |last=गुप्त |first=प्रकाशचन्द्र|title=प्रेमचंद भारतीय साहित्य के निर्माता |year=1984 |publisher=साहित्य अकादेमी|location=नई दिल्ली |id= |page= |accessday=|accessmonth=|accessyear=}}</ref>
==जन्म==
प्रेमचंद का जन्म [[बनारस]] से लगभग चार मील दूर, लमही नाम के गाँव में [[31 जुलाई]], [[1880]] को हुआ। प्रेमचंद के पिताजी मुंशी अजायब लाल और माता आनन्दी देवी थीं। प्रेमचंद का बचपन गाँव में बीता था। वे नटखट और खिलाड़ी बालक थे और खेतों से शाक-सब्ज़ी और पेड़ों से फल चुराने में दक्ष थे। उन्हें मिठाई का बड़ा शौक़ था और विशेष रूप से गुड़ से उन्हें बहुत प्रेम था। बचपन में उनकी शिक्षा-दीक्षा लमही में हुई और एक मौलवी साहब से उन्होंने उर्दू और फ़ारसी पढ़ना सीखा। एक रुपया चुराने पर ‘बचपन’ में उन पर बुरी तरह मार पड़ी थी। उनकी कहानी, ‘कज़ाकी’, उनकी अपनी बाल-स्मृतियों पर आधारित है। कज़ाकी डाक-विभाग का हरकारा था और बड़ी लम्बी लम्बी यात्राएं करता था। वह बालक प्रेमचंद के लिए सदैव अपने साथ कुछ सौगात लाता था। कहानी में वह बच्चे के लिये हिरन का छौना लाता है और डाकघर में देरी से पहुंचने के कारण नौकरी से अलग कर दिया जाता है। हिरन के बच्चे के पीछे दौड़ते-दौड़ते वह अति विलम्ब से डाक घर लौटा था। कज़ाकी का व्यक्तित्व अतिशय मानवीयता में डूबा है। वह शालीनता और आत्मसम्मान का पुतला है, किन्तु मानवीय करुणा से उसका ह्रदय भरा है।  
==व्यक्तित्व==
==व्यक्तित्व==
सादा एवं सरल जीवन के मालिक प्रेमचन्द सदा मस्त रहते थे। उनके जीवन में विषमताओं और कटुताओं से वह लगातार खेलते रहे। इस खेल को उन्होंने बाजी मान लिया जिसको हमेशा जीतना चाहते थे। कहा जाता है कि प्रेमचन्द हंसोड़ प्रकृति के मालिक थे। विषमताओं भरे जीवन में हंसोड़ होना एक बहादुर का काम है। इससे इस बात को भी समझा जा सकता है कि वह अपूर्व जीवनी-शक्ति का द्योतक थे। सरलता, सौजन्यता और उदारता के वह मूर्ति थे। जहाँ उनके हृदय में मित्रों के लिए उदार भाव था वहीं उनके हृदय में गरीबों एवं पीड़ितों के लिए सहानुभूति का अथाह सागर था। प्रेमचन्द उच्चकोटि के मानव थे। आपको गाँव जीवन से अच्छा प्रेम था। वह सदा साधारण गंवई लिबास में रहते थे। जीवन का अधिकांश भाग उन्होंने गाँव में ही गुजारा। बाहर से बिल्कुल साधारण दिखने वाले प्रेमचन्द अन्दर से जीवनी-शक्ति के मालिक थे। अन्दर से जरा सा भी किसी ने देखा तो उसे प्रभावित होना ही था। वह आडम्बर एवं दिखावा से मीलों दूर रहते थे। जीवन में न तो उनको विलास मिला और न ही उनको इसकी तमन्ना थी। तमाम महापुरुषों की तरह अपना काम स्वयं करना पसंद करते थे।
{{Main|प्रेमचंद का व्यक्तित्व}}
==पारिवारिक जीवन==
सादा एवं सरल जीवन के मालिक प्रेमचन्द सदा मस्त रहते थे। उनके जीवन में विषमताओं और कटुताओं से वह लगातार खेलते रहे। इस खेल को उन्होंने बाज़ी मान लिया जिसको हमेशा जीतना चाहते थे। कहा जाता है कि प्रेमचन्द हंसोड़ प्रकृति के मालिक थे। विषमताओं भरे जीवन में हंसोड़ होना एक बहादुर का काम है। इससे इस बात को भी समझा जा सकता है कि वह अपूर्व जीवनी-शक्ति का द्योतक थे। सरलता, सौजन्य और उदारता की वह मूर्ति थे। जहाँ उनके हृदय में मित्रों के लिए उदार भाव था वहीं उनके हृदय में ग़रीबों एवं पीड़ितों के लिए सहानुभूति का अथाह सागर था। प्रेमचन्द उच्चकोटि के मानव थे। इनको गाँव जीवन से अच्छा प्रेम था। वह सदा साधारण गंवई लिबास में रहते थे। जीवन का अधिकांश भाग उन्होंने गाँव में ही गुज़ारा। बाहर से बिल्कुल साधारण दिखने वाले प्रेमचन्द अन्दर से जीवनी-शक्ति के मालिक थे। अन्दर से जरा सा भी किसी ने देखा तो उसे प्रभावित होना ही था। वह आडम्बर एवं दिखावा से मीलों दूर रहते थे। जीवन में न तो उनको विलास मिला और न ही उनको इसकी तमन्ना थी। तमाम महापुरुषों की तरह अपना काम स्वयं करना पसंद करते थे।<ref name="prm">{{cite web |url=http://tdil.mit.gov.in/CoilNet/IGNCA/prem001.htm#ishwar |title=प्रेमचन्द : जीवन परिचय |accessmonthday=[[9 नवंबर]] |accessyear=[[2010]] |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher= |language=[[हिन्दी]]}}</ref>
उनका कुल फटेहाल कायस्थों का था, जिनके पास क़रीब छै बीघे ज़मीन थी और जिनका परिवार बड़ा था। प्रेमचंद के पितामह, मुंशी गुरुसहाय लाल, पटवारी थे। उनके पिता, मुंशी अजायब लाल, डाकमुंशी थे और उनका वेतन लगभग पच्चीस रुपये मासिक था। उनकी मां, आनन्द देवी, सुन्दर सुशील और सुघड़ महिला थीं। छ: महीने की बीमारी के बाद प्रेमचंद की मां की मृत्यु हो गई। तब वे आठवीं कक्षा में पढ़ रहे थे। दो वर्ष के बाद उनके पिता ने फिर विवाह कर लिया और उनके जीवन में विमाता का अवतरण हुआ। प्रेमचंद के इतिहास में विमाता के अनेक वर्णन हैं। यह स्पष्ट है कि प्रेमचंद के जीवन में मां के अभाव की पूर्ति विमाता द्वारा न हो सकी थी।
;शादी
जब प्रेमचंद पंद्रह वर्ष के थे, उनका विवाह हो गया। वह विवाह उनके सौतेले नाना ने तय किया था। उस काल के विवरण से लगता है कि लड़की न तो देखने में सुंदर थी, न वह स्वभाव से शीलवती थी। वह झगड़ालू भी थी। प्रेमचंद के कोमल मन का कल्पना-भवन मानो नींव रखते-रखते ही ढह गया। प्रेमचंद का यह पहला विवाह था। इस विवाह का टूटना आश्चर्य न था। प्रेमचंद की पत्नी के लिए यह विवाह एक दु:खद घटना रहा होगा। जीवन पर्यन्त यह उनका अभिशाप बन गया। इस सब का दोष भारत की परम्पराग्रस्त विवाह-प्रणाली पर है, जिसके कारण यह व्यवस्था आवश्यकता से भी अधिक जुए का खेल बन जाती है। प्रेमचंद ने निश्चय किया कि अपना दूसरा विवाह वे किसी विधवा कन्या से करेंगे। यह निश्चय उनके उच्च विचारों और आदर्शों के ही अनुरूप था।
;प्रेमचन्द की दूसरी शादी
सन 1905 के अन्तिम दिनों में आपने शिवरानी देवी से शादी कर ली। शिवरानी देवी बाल-विधवा थीं। उनके पिता [[फ़तेहपुर]] के पास के इलाक़े में एक साहसी ज़मीदार थे और शिवरानी जी के पुनर्विवाह के लिए उत्सुक थे। सन [[1916]] के आदिम युग में ऐसे विचार-मात्र की साहसिकता का अनुमान किया जा सकता है। यह कहा जा सकता है कि दूसरी शादी के पश्चात् आपके जीवन में परिस्थितियां कुछ बदली और आय की आर्थिक तंगी कम हुई। आपके लेखन में अधिक सजगता आई। आपकी पदोन्नति हुई तथा आप स्कूलों के डिप्टी इन्सपेक्टर बना दिये गए। इसी खुशहाली के जमाने में आपकी पाँच कहानियों का संग्रह सोजे वतन प्रकाश में आया। यह संग्रह काफी मशहूर हुआ। शिवरानी जी की पुस्तक ‘प्रेमचंद-घर में’, प्रेमचंद के घरेलू जीवन का सजीव और अंतरंग चित्र प्रस्तुत करती है। प्रेमचंद अपने पिता की तरह पेचिश के शिकार थे और निरंतर पेट की व्याधियों से पीड़ित रहते थे। प्रेमचंद स्वभाव से सरल, आदर्शवादी व्यक्ति थे। वे सभी का विश्वास करते थे, किन्तु निरंतर उन्हें धोखा खाना पड़ा। उन्होंने अनेक लोगों को धन-राशि कर्ज़ दी, किन्तु बहुधा यह धन लौटा ही नहीं । शिवरानी देवी की दृष्टि कुछ अधिक सांसारिक और व्यवहार-कुशल थी। वे निरंतर प्रेमचंद की उदार-ह्रदयता पर ताने कसती थीं, क्योंकि अनेक बार कुपात्र ने ही इस उदारता का लाभ उठाया। प्रेमचंद स्वयं सम्पन्न न थे और अपनी उदारता के कारण अर्थ-संकट में फंस जाते थे। ‘ढपोरशंख’ शीर्षक कहानी में प्रेमचंद एक कपटी साहित्यिक द्वारा अपने ठगे जाने की मार्मिक कथा कहते हैं।
;शिक्षा
ग़रीबी से लड़ते हुए प्रेमचन्द ने अपनी पढ़ाई मैट्रिक तक पहुंचाई। जीवन के आरंभ में ही गाँव से दूर [[बनारस]] पढ़ने के लिए नंगे पाँव जाना पड़ता था। इसी बीच पिता का देहान्त हो गया। पढ़ने का शौक था, आगे चलकर वकील बनना चाहते थे, मगर ग़रीबी ने तोड़ दिया। स्कूल आने - जाने के झंझट से बचने के लिए एक वकील साहब के यहाँ ट्यूशन पकड़ लिया और उसी के घर में एक कमरा लेकर रहने लगे। ट्यूशन का पाँच रुपया मिलता था। पाँच रुपये में से तीन रुपये घर वालों को और दो रुपये से अपनी ज़िन्दगी की गाड़ी को आगे बढ़ाते रहे। महीना भर तंगी और अभाव का जीवन बिताते थे। इन्हीं जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों में प्रेमचन्द ने मैट्रिक पास किया। उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य, पर्सियन और इतिहास विषयों से स्नातक की उपाधि द्वितीय श्रेणी में प्राप्त की थी। इंटरमीडिएट कक्षा में भी उन्होंने अंग्रेजी साहित्य एक विषय के रूप में पढा था। <ref name="prem"></ref>  
==साहित्यिक जीवन==
==साहित्यिक जीवन==
{{highright}}प्रेमचंद उनका साहित्यिक नाम था और बहुत वर्षों बाद उन्होंने यह नाम अपनाया था। उनका वास्तविक नाम ‘धनपत राय’ था। जब उन्होंने सरकारी सेवा करते हुए कहानी लिखना आरम्भ किया, तब उन्होंने नवाब राय नाम अपनाया। बहुत से मित्र उन्हें जीवन-पर्यन्त नवाब के नाम से ही सम्बोधित करते रहे।{{highclose}}
{{Main|प्रेमचंद का साहित्यिक जीवन}}
प्रेमचंद उनका साहित्यिक नाम था और बहुत वर्षों बाद उन्होंने यह नाम अपनाया था। उनका वास्तविक नाम ‘धनपत राय’ था। जब उन्होंने सरकारी सेवा करते हुए कहानी लिखना आरम्भ किया, तब उन्होंने नवाब राय नाम अपनाया। बहुत से मित्र उन्हें जीवन-पर्यन्त नवाब के नाम से ही सम्बोधित करते रहे। जब सरकार ने उनका पहला कहानी-संग्रह, ‘सोज़े वतन’ ज़ब्त किया, तब उन्हें नवाब राय नाम छोड़ना पड़ा। बाद का उनका अधिकतर साहित्य प्रेमचंद के नाम से प्रकाशित हुआ। इसी काल में प्रेमचंद ने कथा-साहित्य बड़े मनोयोग से पढ़ना शुरू किया। एक तम्बाकू-विक्रेता की दुकान में उन्होंने कहानियों के अक्षय भण्डार, ‘तिलिस्मे होशरूबा’ का पाठ सुना। इस पौराणिक गाथा के लेखक फ़ैज़ी बताए जाते हैं, जिन्होंने [[अकबर]] के मनोरंजन के लिए ये कथाएं लिखी थीं। एक पूरे वर्ष प्रेमचंद ये कहानियां सुनते रहे और इन्हें सुनकर उनकी कल्पना को बड़ी उत्तेजना मिली। कथा साहित्य की अन्य अमूल्य कृतियां भी प्रेमचंद ने पढ़ीं। इनमें ‘सरशार’ की कृतियां और रेनाल्ड की ‘लन्दन-रहस्य’ भी थी। [[गोरखपुर]] में बुद्धिलाल नाम के पुस्तक-विक्रेता से उनकी मित्रता हुई। वे उनकी दुकान की कुंजियां स्कूल में बेचते थे और इसके बदले में वे कुछ [[उपन्यास]] अल्प काल के लिए पढ़ने को घर ले जा सकते थे। इस प्रकार उन्होंने दो-तीन वर्षों में सैकड़ों उपन्यास पढ़े होंगे। इस समय प्रेमचंद के पिता गोरखपुर में डाकमुंशी की हैसियत से काम कर रहे थे। गोरखपुर मे ही प्रेमचंद ने अपनी सबसे पहली साहित्यिक कृति रची। यह रचना एक अविवाहित मामा से सम्बंधित प्रसहन था। मामा का प्रेम एक छोटी जाति की स्त्री से हो गया था। वे प्रेमचंद को उपन्यासों पर समय बर्बाद करने के लिए निरन्तर डांटते रहते थे। मामा की प्रेम-कथा को नाटक का रूप देकर प्रेमचंद ने उनसे बदला लिया। यह प्रथम रचना उपलब्ध नहीं है, क्योंकि उनके मामा ने क्रुद्ध होकर पांडुलिपि को अग्नि को समर्पित कर दिया। गोरखपुर में प्रेमचंद को एक नये मित्र महावीर प्रसाद पोद्दार मिले और इनसे परिचय के बाद प्रेमचंद और भी तेज़ी से हिन्दी की ओर झुके। उन्होंने हिन्दी में शेख़ सादी पर एक छोटी-सी पुस्तक लिखी थी, टॉल्सटॉय की कुछ कहानियों का हिन्दी में अनुवाद किया था और ‘प्रेम-पचीसी’ की कुछ कहानियों का रूपान्तर भी हिन्दी में कर रहे थे। ये कहानियां ‘सप्त-सरोज’ शीर्षक से हिन्दी संसार के सामने सर्वप्रथम सन 1917 में आयीं। ये सात कहानियां थीं:-  
प्रेमचंद उनका साहित्यिक नाम था और बहुत वर्षों बाद उन्होंने यह नाम अपनाया था। उनका वास्तविक नाम ‘धनपत राय’ था। जब उन्होंने सरकारी सेवा करते हुए कहानी लिखना आरम्भ किया, तब उन्होंने नवाब राय नाम अपनाया। बहुत से मित्र उन्हें जीवन-पर्यन्त नवाब के नाम से ही सम्बोधित करते रहे। उन्होंने [[हिन्दी]] में शेख़ सादी पर एक छोटी-सी पुस्तक लिखी थी, टॉल्सटॉय की कुछ कहानियों का हिन्दी में अनुवाद किया था और ‘प्रेम-पचीसी’ की कुछ कहानियों का रूपान्तर भी हिन्दी में कर रहे थे। ये कहानियाँ ‘सप्त-सरोज’ शीर्षक से हिन्दी संसार के सामने सर्वप्रथम सन् [[1917]] में आयीं। ये सात कहानियाँ थीं:-  
# बड़े घर की बेटी,
{{दाँयाबक्सा|पाठ=शायद कम लोग जानते हैं कि प्रख्यात कथाकार मुंशी प्रेमचंद अपनी महान् रचनाओं की रूपरेखा पहले [[अंग्रेज़ी]] में लिखते थे और इसके बाद उसे [[हिन्दी]] अथवा [[उर्दू]] में अनूदित कर विस्तारित करते थे।|विचारक=}}
# सौत,
# [[बड़े घर की बेटी -प्रेमचंद|बड़े घर की बेटी]]
# सज्जनता का दण्ड,
# [[सौत -प्रेमचंद|सौत]]
# पंच परमेश्वर,
# [[सज्जनता का दंड -प्रेमचंद|सज्जनता का दण्ड]]
# नमक का दारोग़ा,
# [[पंच-परमेश्‍वर -प्रेमचंद|पंच परमेश्वर]]
# उपदेश,
# [[नमक का दारोगा -प्रेमचंद|नमक का दारोग़ा]]
# परीक्षा।
# [[उपदेश -प्रेमचंद|उपदेश]]
# [[परीक्षा -प्रेमचंद|परीक्षा]]
प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियों में इन कहानियों की गणना होती है।
प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियों में इन कहानियों की गणना होती है।
==साहित्य की विशेषताएँ==
==साहित्य की विशेषताएँ==
{{tocright}}
{{Main|प्रेमचंद के साहित्य की विशेषताएँ}}
प्रेमचन्द की रचना-दृष्टि, विभिन्न साहित्य रूपों में, अभिव्यक्त हुई। वह बहुमुखी प्रतिभा संपन्न साहित्यकार थे। प्रेमचंद की रचनाओं में तत्कालीन इतिहास बोलता है। उन्होंने अपनी रचनाओं में जन साधारण की भावनाओं, परिस्थितियों और उनकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण किया। उनकी कृतियाँ भारत के सर्वाधिक विशाल और विस्तृत वर्ग की कृतियाँ हैं। अपनी कहानियों से प्रेमचंद मानव-स्वभाव की आधारभूत महत्ता पर बल देते हैं। '''‘बड़े घर की बेटी,’ आनन्दी, अपने देवर से अप्रसन्न हुई, क्योंकि वह गंवार उससे कर्कशता से बोलता है और उस पर खींचकर खड़ाऊं फेंकता है। जब उसे अनुभव होता है कि उनका परिवार टूट रहा है और उसका देवर परिताप से भरा है, तब वह उसे क्षमा कर देती है और अपने पति को शांत करती है'''। इसी प्रकार नमक का दारोग़ा बहुत ईमानदार व्यक्ति है। घूस देकर उसे बिगाड़ने में सभी असमर्थ हैं। सरकार उसे, सख्ती से उचित कार्यवाही करने के कारण, नौकरी से बर्खास्त कर देती है, किन्तु जिस सेठ की घूस उसने अस्वीकार की थी, वह उसे अपने यहाँ ऊंचे पद पर नियुक्त करता है। वह अपने यहाँ ईमानदार और कर्तव्यपरायण कर्मचारी रखना चाहता है। इस प्रकार प्रेमचंद के संसार में सत्कर्म का फल सुखद होता है। वास्तविक जीवन में ऐसी आश्चर्यप्रद घटनाएं कम घटती हैं। '''गाँव का पंच भी व्यक्तिगत विद्वेष और शिकायतों को भूलकर सच्चा न्याय करता है। उसकी आत्मा उसे इसी दिशा में ठेलती है। असंख्य भेदों, पूर्वाग्रहों, अन्धविश्वासों, जात-पांत के झगड़ों और हठधर्मियों से जर्जर ग्राम-समाज में भी ऐसा न्याय-धर्म कल्पनातीत लगता है'''। हिन्दी में प्रेमचंद की कहानियों का एक संग्रह [[बम्बई]] के एक सुप्रसिद्ध प्रकाशन गृह, हिन्दी ग्रन्थ-रत्नाकर ने प्रकाशित किया। यह संग्रह ‘नवनिधि’ शीर्षक से निकला और इसमें ‘राजा हरदौल’ और ‘रानी सारन्धा’ जैसी बुन्देल वीरता की सुप्रसिद्ध कहानियाँ शामिल थीं। इसके कुछ समय के बाद प्रेमचंद ने हिन्दी में कहानियों का एक और संग्रह प्रकाशित किया। इस संग्रह का शीर्षक था ‘प्रेम-पूर्णिमा’। ‘बड़े घर की बेटी’ और ‘पंच परमेश्वर’ की ही परम्परा की एक और अद्भुत कहानी ‘ईश्वरीय न्याय’ इस संग्रह में थी।
प्रेमचन्द की रचना-दृष्टि, विभिन्न साहित्य रूपों में, अभिव्यक्त हुई। वह बहुमुखी प्रतिभा संपन्न साहित्यकार थे। प्रेमचंद की रचनाओं में तत्कालीन इतिहास बोलता है। उन्होंने अपनी रचनाओं में जन साधारण की भावनाओं, परिस्थितियों और उनकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण किया। उनकी कृतियाँ भारत के सर्वाधिक विशाल और विस्तृत वर्ग की कृतियाँ हैं। अपनी कहानियों से प्रेमचंद मानव-स्वभाव की आधारभूत महत्ता पर बल देते हैं। '''‘बड़े घर की बेटी,’ आनन्दी, अपने देवर से अप्रसन्न हुई, क्योंकि वह गंवार उससे कर्कशता से बोलता है और उस पर खींचकर खड़ाऊँ फेंकता है। जब उसे अनुभव होता है कि उनका परिवार टूट रहा है और उसका देवर परिताप से भरा है, तब वह उसे क्षमा कर देती है और अपने पति को शांत करती है'''।
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==प्रेमचंद के पत्र==
शायद कम लोग जानते है कि प्रख्यात कथाकार मुंशी प्रेमचंद अपनी महान रचनाओं की रूपरेखा पहले [[अंग्रेजी]] में लिखते थे और इसके बाद उसे [[हिंदी]] अथवा [[उर्दू]] में अनूदित कर विस्तारित करते थे। [[भोपाल]] स्थित बहुकला केंद्र भारत भवन की रजत जयंती के उपलक्ष्य पर प्रेमचंद के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर यहां आयोजित सात दिवसीय प्रदर्शनी में इस तथ्य का खुलासा करते हुए उनकी कई हिंदी एवं उर्दू रचनाओं की अंग्रेजी में लिखी रूपरेखाएं प्रदर्शित की गई हैं। प्रदर्शनी के संयोजक और हिंदी के समालोचक डॉ कमल किशोर गोयनका ने इस अवसर पर कहा कि प्रेमचंद हिंदी और उर्दू के साथ-साथ अंग्रेजी भाषा के अच्छे जानकार थे। डॉ गोयनका ने बताया कि प्रेमचंद अपनी कृतियों की रूपरेखा पहले अंग्रेजी में ही लिखते थे। उसके बाद उसका अनुवाद करते हुए हिंदी या उर्दू में रचना पूरी कर देते थे। डा. गोयनका ने कहा कि प्रेमचंद ने अपनी महान कृति गोदान की भी रूपरेखा पहले अंग्रेजी में लिखी थी जिसकी मूल प्रति यहां प्रदर्शनी में लगाई गई है। उनके एक अलिखित उपन्यास की रूपरेखा भी अंग्रेजी में लिखी हुई उन्हें मिली है। प्रेमचंद ने रंग भूमि और कायाकल्प उपन्यासों की रूपरेखा भी अंग्रेजी में लिखी थी। उनकी डायरी भी अंगे्रजी में लिखी हुई मिली है। वहीं, प्रदर्शनी में पंडित [[जवाहर लाल नेहरू]] के अपनी पुत्री को अंग्रेजी में लिखे गए पत्रों का अनुवाद हिंदी में करने के आचार्य नरेन्द्र देव का प्रेमचंद को लिखा गया आग्रह पत्र भी रखा गया है। प्रेमचंद ने पं नेहरू के इन पत्रों को हिंदी में रूपान्तरित किया था। दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे डा. गोयनका ने कहा कि वर्ष 1972 में प्रेमचंद पर पीएचडी करने के बाद उन्होंने प्रेमचंद द्वारा रचित 1500 से अधिक पृष्ठों का अप्राप्य साहित्य खोजा। इसमें 30 नई कहानियां मिली।<ref name="prem">{{cite web |url=http://in.jagran.yahoo.com/sahitya/article/index.php?page=article&category=5&articleid=943 |title= कृतियों की रूपरेखा अंग्रेज़ी में लिखते थे प्रेमचंद   |accessmonthday=[[9 अक्टूबर]] |accessyear=[[2010]] |last= |first= |authorlink= |format=एचटीएम |publisher= |language=हिन्दी }}</ref>  
{{Main|प्रेमचंद के पत्र}}
==कृतियाँ==
प्रेमचंद ने अपने जीवन-काल में हज़ारों पत्र लिखे होंगे, लेकिन उनके जो पत्र काल का ग्रास बनने से बचे रह गए और जो सम्प्रति उपलब्ध हैं, उनमें सर्वाधिक पत्र वे हैं जो उन्होंने अपने काल की लोकप्रिय [[उर्दू]] मासिक [[पत्रिका]] ‘ज़माना’ के यशस्वी सम्पादक [[मुंशी दयानारायण निगम]] को लिखे थे। यों तो मुंशी दयानारायण निगम प्रेमचंद से दो वर्ष छोटे थे लेकिन प्रेमचंद उनको सदा बड़े भाई जैसा सम्मान देते रहे। इन दोनों विभूतियों के पारस्परिक सम्बन्धों को परिभाषित करना तो अत्यन्त दुरूह कार्य है, लेकिन प्रेमचंद के इस आदर भाव का कारण यह प्रतीत होता है कि प्रेमचंद को साहित्यिक संसार में पहचान दिलाने का महनीय कार्य निगम साहब ने उनको ‘ज़माना’ में निरन्तर प्रकाशित करके ही सम्पादित किया था, और उस काल की पत्रिकाओं में तो यहाँ तक प्रकाशित हुआ कि प्रेमचंद को प्रेमचंद बनाने का श्रेय यदि किसी को है तो मुंशी दयानारायण निगम को ही है।<ref>{{cite web |url=http://www.hindisamay.com/contentDetail.aspx?id=878&pageno=1 |title=प्रेमचंद के पत्र |accessmonthday=22 मार्च|accessyear=2013 |last=जैन |first=प्रदीप |authorlink= |format= |publisher=हिंदी समय |language=हिंदी }}</ref>
प्रेमचंद की कृतियाँ भारत के सर्वाधिक विशाल और विस्तृत वर्ग की कृतियाँ हैं। उन्होंने [[उपन्यास]], कहानी, नाटक, समीक्षा, लेख, सम्पादकीय, संस्मरण आदि अनेक विधाओं में साहित्य की सृष्टि की, किन्तु प्रमुख रूप से वह कथाकार हैं। उन्हें अपने जीवन काल में ही '''उपन्यास सम्राट''' की पदवी मिल गयी थी। उन्होंने कुल 15 उपन्यास, 300 से कुछ अधिक कहानियाँ, 3 नाटक, 10 अनुवाद, 7 बाल-पुस्तकें तथा हज़ारों पृष्ठों के लेख, सम्पादकीय, भाषण, भूमिका, पत्र आदि की रचना की।
==प्रेमचंद का स्वर्णिम युग==
{{Main|प्रेमचंद का स्वर्णिम युग}}
प्रेमचंद की उपन्यास-कला का यह स्वर्ण युग था। सन् [[1931]] के आरम्भ में '''[[ग़बन]]''' प्रकाशित हुआ था। [[16 अप्रैल]], [[1931]] को प्रेमचंद ने अपनी एक और महान् रचना, '''[[कर्मभूमि]]''' शुरू की। यह अगस्त, [[1932]] में प्रकाशित हुई। प्रेमचंद के पत्रों के अनुसार सन् 1932 में ही वह अपना अन्तिम महान् उपन्यास, '''[[गोदान]]''' लिखने में लग गये थे, यद्यपि ‘हंस’ और ‘जागरण’ से सम्बंधित अनेक कठिनाइयों के कारण इसका प्रकाशन जून, [[1936]] में ही सम्भव हो सका। अपनी अन्तिम बीमारी के दिनों में उन्होंने एक और उपन्यास, ‘[[मंगलसूत्र -प्रेमचंद|मंगलसूत्र]]’, लिखना शुरू किया था, किन्तु अकाल मृत्यु के कारण यह अपूर्ण रह गया। '''‘ग़बन’, ‘कर्मभूमि’ और ‘गोदान’- उपन्यासत्रयी पर विश्व के किसी भी कृतिकार को गर्व हो सकता है। ‘कर्मभूमि’ अपनी क्रांतिकारी चेतना के कारण विशेष महत्त्वपूर्ण है'''।{{दाँयाबक्सा|पाठ=प्रेमचंद उनका साहित्यिक नाम था और बहुत वर्षों बाद उन्होंने यह नाम अपनाया था। उनका वास्तविक नाम ‘धनपत राय’ था। जब उन्होंने सरकारी सेवा करते हुए कहानी लिखना आरम्भ किया, तब उन्होंने नवाब राय नाम अपनाया। बहुत से मित्र उन्हें जीवन-पर्यन्त 'नवाब' के नाम से ही सम्बोधित करते रहे।|विचारक=}}


{| width=100% class="bharattable" border="1"
|+प्रेमचंद की प्रमुख कहानियाँ और उपन्यास
|-
! colspan="7"|प्रमुख कहानियाँ
! उपन्यास
|-
| अंधेर
| अनाथ लड़की
| अपनी करनी
| अमृत
| अलग्योझा
| बाँका ज़मीदार
| बेटों वाली विधवा
| [[सेवासदन]]
|-
| आख़िरी तोहफ़ा
| आख़िरी मंज़िल
| आत्म-संगीत
| आत्माराम
| आधार
| बैंक का दिवाला
| बोहनी
| प्रेमाश्रम
|-
| आल्हा
| इज्ज़त का ख़ून
| इस्तीफ़ा
| ईदगाह
| ईश्वरीय न्याय
| मैकू
| मंत्र
| रंगभूमि
|-
| उद्धार
| एक ऑंच की कसर
| एक्ट्रेस
| कप्तान साहब
| कर्मों का फल
| मंदिर और मस्जिद
| मनावन
| कायाकल्प
|-
| कफ़न
| कवच
| क़ातिल
| कौशल
| ख़ुदी
| मुबारक बीमारी
| ममता
| वरदान
|-
| ग़ैरत की कटार
| गुल्ली डंडा
| घरजमाई
| स्‍वामिनी
| ज्योति
| माँ
| माता का हृदय
| [[निर्मला]]
|-
| जेल
| जुलूस
| ठाकुर का कुआँ
| झाँकी
| तेंतर
| मिलाप
| मोटेराम जी शास्त्री
| [[ग़बन]]
|-
| त्रिया चरित्र
| तांगेवाले की बड़
| दिल की रानी
| दण्ड
| दूसरी शादी
| र्स्वग की देवी
| राजहठ
| कर्मभूमि
|-
| दो सखियाँ
| नेउर मचंद
| नेकी
| नरक का मार्ग
| नैराश्य
| रामलीला
| राष्ट्र का सेवक
| [[गोदान]]
|-
| नैराश्य लीला
| नशा
| नसीहतों का दफ्तर
| नागपूजा
| नादान दोस्त
| लैला
| वफ़ा का खंजर
| कृष्णा
|-
| निर्वासन
| पंच परमेश्वर
| पत्नी से पति
| पुत्र-प्रेम
| पैपुजी
| वासना की कड़ियाँ
| विजय
| प्रतिज्ञा
|-
| प्रतिशोध
| प्रेम-सूत्र
| पर्वत-यात्रा
| प्रायश्चित
| परीक्षा
| विश्वास
| शंखनाद
| प्रतापचन्द्र
|-
| पूस की रात
| बड़े घर की बेटी
| बड़े बाबू
| बड़े भाई साहब
| बन्द दरवाज़ा
| शूद्र
| शराब की दुकान
| श्यामा
|-
| शांति
| शादी की वजह
| शोक का पुरस्कार
| स्त्री और पुरुष
| स्वर्ग की देवी
| स्वांग
| सभ्यता का रहस्य
| मंगलसूत्र (अपूर्ण)
|-
| समर यात्रा
| समस्या
| सैलानी बंदर 
| स्‍वामिनी
| सोहाग का शव
| सौत
| होली की छुट्टी
| असरारे मुआबिद (अपूर्ण)
|}
==प्रेमचंद का स्वर्णिम युग==
प्रेमचंद की उपन्यास-कला का यह स्वर्ण युग था। सन 1931 के आरम्भ में ‘[[ग़बन]]’ प्रकाशित हुआ था। [[16 अप्रॅल]], [[1931]] को प्रेमचंद ने अपनी एक और महान रचना, ‘[[कर्मभूमि]]’ शुरू की। यह अगस्त, 1932 में प्रकाशित हुई। प्रेमचंद के पत्रों के अनुसार सन 1932 में ही वह अपना अन्तिम महान उपन्यास, ‘[[गोदान]]’ लिखने में लग गये थे, यद्यपि ‘हंस’ और ‘जागरण’ से सम्बंधित अनेक कठिनाइयों के कारण इसका प्रकाशन जून, 1936 में ही सम्भव हो सका। अपनी अन्तिम बीमारी के दिनों में उन्होंने एक और उपन्यास, ‘मंगलसूत्र’, लिखना शुरू किया था, किन्तु अकाल मृत्यु के कारण यह अपूर्ण रह गया। '''‘ग़बन’, ‘कर्मभूमि’ और ‘गोदान’- उपन्यासत्रयी पर विश्व के किसी भी कृतिकार को गर्व हो सकता है। ‘कर्मभूमि’ अपनी क्रांतिकारी चेतना के कारण विशेष महत्त्वपूर्ण है'''। लाहौर कांग्रेस के अधिवेशन में अध्यक्ष-पद से भाषण देते हुए [[जवाहरलाल नेहरू]] ने घोषित किया था। ‘मैं गणतंत्रवादी और समाजवादी हूँ।’ कर्मभूमि इस अशान्त काल की प्रतिध्वनियों से भरा हुआ उपन्यास है। गोर्की के उपन्यास, ‘माँ’ के समान ही यह उपन्यास भी क्रान्ति की कला पर लगभग एक प्रबंध-ग्रन्थ है। यह उपन्यास अद्भुत पात्रों की एक सम्पूर्ण श्रंखला प्रस्तुत करता ह। अमर कांत, समरकान्त, सक़ीना, सुखदा, पठानिन, मुन्नी। अमरकान्त और समरकान्त पाठकों को पिता और पुत्र, नेहरू-द्वय का स्मरण दिलाते हैं। मुन्नी, पठानिन, सक़ीना और लाला समरकान्त सभी की परिणति घटनाओं द्वारा होती है।
==प्रेमचंद मुंशी कैसे बने==
सुप्रसिद्ध साहित्यकारों के मूल नाम के साथ कभी-कभी कुछ उपनाम या विशेषण ऐसे घुल-मिल जाते हैं कि साहित्यकार का मूल नाम तो पीछे रह जाता है और यह उपनाम या विशेषण इतने प्रसिद्ध हो जाते हैं कि उनके बिना कवि या रचनाकार का नाम अधूरा-सा लगने लगता है। साथ ही मूल नाम अपनी पहचान ही खोने लगता है। भारतीय जनमानस की संवेदना में बसे उपन्यास सम्राट 'प्रेमचंद' जी भी इस पारंपरिक तथ्य से अछूते नहीं रह सके। उनका नाम यदि मात्र प्रेमचंद लिया जाय तो अधूरा सा प्रतीत होता है। प्रेमचंद जी के नाम के साथ 'मुंशी' कब और कैसे जुड़ गया? इस विषय में अधिकांश लोग यही मान लेते हैं कि प्रारम्भ में प्रेमचंद अध्यापक रहे। अध्यापकों को प्राय: उस समय मुंशी जी कहा जाता था। इसके अतिरिक्त कायस्थों के नाम के पहले सम्मान स्वरूप 'मुंशी' शब्द लगाने की परम्परा रही है। संभवत: प्रेमचंद जी के नाम के साथ मुंशी शब्द जुड़कर रूढ़ हो गया। इस जिज्ञासा की पूर्ति हेतु प्रेमचंद जी के सुपुत्र एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री [[अमृत राय]] जी के अनुसार प्रेमचंद जी ने अपने नाम के आगे 'मुंशी' शब्द का प्रयोग स्वयं कभी नहीं किया। उनका यह भी मानना है कि मुंशी शब्द सम्मान सूचक है, जिसे प्रेमचंद के प्रशंसकों ने कभी लगा दिया होगा। यह तथ्य अनुमान पर आधारित है। यह बात सही है कि मुंशी शब्द सम्मान सूचक है। यह भी सच है कि कायस्थों के नाम के आगे मुंशी लगाने की परम्परा रही है तथा अध्यापकों को भी 'मुंशी जी' कहा जाता था। <ref>{{cite web |url=http://www.abhivyakti-hindi.org/snibandh/2005/premchand.htm |title=प्रेमचंद मुंशी कैसे बने |accessmonthday=[[29 अगस्त]] |accessyear=[[2010]] |last= |first= |authorlink= |format=एचटीएम |publisher=अभिव्यक्ति |language=हिन्दी }}</ref>
==प्रेमचंद और सिनेमा==
==प्रेमचंद और सिनेमा==
{{highright}}साहित्य के भावों की जो उच्चता, भाषा की जो प्रौढ़ता और स्पष्टता, सुन्दरता की जो साधना होती है, वह हमें सिनेमा में नहीं मिलती।{{highclose}}
{{Main|प्रेमचंद और सिनेमा}}
प्रेमचंद की कुछ कहानियों पर फिल्में भी बनी हैं, जैसे [[सत्यजित राय]] की फिल्म '''शतरंज के खिलाड़ी'''<ref name="baljai">{{cite web |url=http://baljaihindi.blogspot.com/2009/05/blog-post_2397.html |title=बाल जयहिंदी |accessmonthday=[[14 अक्टूबर]] |accessyear=[[2010]] |last= |first= |authorlink= |format=एचटीएमएल |publisher= |language=हिन्दी }}</ref>  प्रेमचंद ने ‘[[मज़दूर]]’ शीर्षक फ़िल्म के लिए संवाद लिखे। फ़िल्म के स्वामियों ने कहानी की रूपरेखा तैयार की थी। फ़िल्म में एक देश-प्रेमी मिल-मालिक की कथा थी, किन्तु सेंसर को यह भी सहन न हो सका। फिर भी फ़िल्म का प्रदर्शन [[पंजाब]], [[दिल्ली]], [[उत्तर प्रदेश]] और [[मध्य प्रदेश]] में हुआ। फ़िल्म का मज़दूरों पर इतना असर हुआ कि पुलिस बुलानी पड़ गई। अंत में फ़िल्म के प्रदर्शन पर [[भारत]] सरकार ने रोक लगा दी। इस फ़िल्म में प्रेमचंद स्वयं भी कुछ क्षण के लिए रजतपट पर अवतीर्ण हुए। मज़दूरों और मालिकों के बीच एक संघर्ष में वे पंच की भूमिका में आए थे। एक लेख में प्रेमचंद ने [[सिनेमा]] की हालत पर अपना भरपूर रोष और असन्तोष व्यक्त किया है। वह साहित्य के ध्येय की तुलना करते हैं: <br />
प्रेमचंद [[हिन्दी सिनेमा]] के सबसे अधिक लोकप्रिय साहित्यकारों में से हैं। उनके देहांत के दो वर्षों बाद के. सुब्रमण्यम ने [[1938]] में '''सेवासदन''' उपन्यास पर फ़िल्म बनाई जिसमें [[एम. एस. सुब्बुलक्ष्मी|सुब्बुलक्ष्मी]] ने मुख्य भूमिका निभाई थी। प्रेमचंद की कुछ कहानियों पर और फ़िल्में भी बनी हैं, जैसे [[सत्यजित राय]] की फ़िल्म '''शतरंज के खिलाड़ी'''<ref name="baljai">{{cite web |url=http://baljaihindi.blogspot.com/2009/05/blog-post_2397.html |title=हमारे साहित्यकार - प्रेमचंद |accessmonthday=[[14 अक्टूबर]] |accessyear=[[2010]] |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher=बाल जयहिन्दी |language=[[हिन्दी]] }}</ref>  प्रेमचंद ने '''मज़दूर''' शीर्षक फ़िल्म के लिए संवाद लिखे। फ़िल्म के स्वामियों ने [[कहानी]] की रूपरेखा तैयार की थी। फ़िल्म में एक देश-प्रेमी मिल-मालिक की कथा थी, किन्तु सेंसर को यह भी सहन न हो सका। फिर भी फ़िल्म का प्रदर्शन [[पंजाब]], [[दिल्ली]], [[उत्तर प्रदेश]] और [[मध्य प्रदेश]] में हुआ। फ़िल्म का मज़दूरों पर इतना असर हुआ कि पुलिस बुलानी पड़ गई। अंत में फ़िल्म के प्रदर्शन पर [[भारत सरकार]] ने रोक लगा दी। इस फ़िल्म में प्रेमचंद स्वयं भी कुछ क्षण के लिए रजतपट पर अवतीर्ण हुए। मज़दूरों और मालिकों के बीच एक संघर्ष में वे पंच की भूमिका में आए थे। एक लेख में प्रेमचंद ने सिनेमा की हालत पर अपना भरपूर रोष और असन्तोष व्यक्त किया है। वह साहित्य के ध्येय की तुलना करते हैं: <br />{{दाँयाबक्सा|पाठ=साहित्य के भावों की जो उच्चता, भाषा की प्रौढ़ता और स्पष्टता, सुन्दरता की जो साधना होती है, वह हमें [[सिनेमा]] में नहीं मिलती।|विचारक=प्रेमचंद}}
==पुरस्कार==
“साहित्य के भावों की जो उच्चता, भाषा की जो प्रोढ़ता और स्पष्टता, सुन्दरता की जो साधना होती है, वह हमें वहाँ नहीं मिलती। उनका उद्देश्य केवल पैसा कमाना है, सुरुचि या सुन्दरता से उन्हें कोई प्रयोजन नहीं। व्यापार, व्यापार है। व्यापार में भावुकता आई और व्यापार नष्ट हुआ। वहाँ तो जनता की रुचि पर निगाह रखनी पड़ती है, और चाहे संसार का संचालन देवताओं के ही हाथों में क्यों न हो, मनुष्य पर निम्न मनोवृत्तियों ही का राज्य होता है। ... जिस शौक़ से लोग ताड़ी और शराब पीतें हैं, उसके आधे शौक़ से दूध नहीं पीते। इसकी दवा निर्माता के पास नहीं। जब तक एक चीज़ की मांग है, वह बाज़ार में आएगी। कोई उसे रोक नहीं सकता। अभी वह ज़माना बहुत दूर है, जब सिनेमा और साहित्य का एक रूप होगा। लोक-रुचि जब इतनी परिष्कृत हो जायगी कि वह नीचे ले जाने वाली चीज़ों से घृणा करेगी, तभी सिनेमा में साहित्य की सुरुचि दिखाई पड़ सकती है।”<ref>{{cite book |last=गुप्त |first=प्रकाशचन्द्र|title= प्रेमचंद भारतीय साहित्य के निर्माता |year=1984 |publisher=साहित्य अकादेमी|location=नई दिल्ली |id= |page=46-47 |accessday= |accessmonth=|accessyear= }}</ref> [[1977]] में मृणाल सेन ने प्रेमचंद की कहानी '''कफ़न''' पर आधारित ओका ऊरी कथा से एक तेलुगु फ़िल्म बनाई जिसको सर्वश्रेष्ठ तेलुगु फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला। [[1963]] में '''गोदान''' और [[1966]] में '''ग़बन''' उपन्यास पर लोकप्रिय फ़िल्में बनीं। [[1980]] में उनके उपन्यास पर बना टीवी धारावाहिक निर्मला भी बहुत लोकप्रिय हुआ था। <ref name="pressnot">{{cite web |url=http://www.pressnote.in/profile-of-munshi-premchand_87311.html |title=उपन्यास सम्राट प्रेमचंद |accessmonthday=[[14 अक्टूबर]] |accessyear=[[2010]] |last= |first= |authorlink= |format=एचटीएमएल |publisher= |language=हिन्दी }}</ref>
 
==पुरस्कार और सम्मान==
[[चित्र:Munshi-Premchand.jpg|thumb|प्रेमचंद के सम्मान में जारी डाक टिकट]]
[[चित्र:Munshi-Premchand.jpg|thumb|प्रेमचंद के सम्मान में जारी डाक टिकट]]
मुंशी प्रेमचंद की स्मृति में भारतीय डाक विभाग की ओर से 31 जुलाई 1980 को उनकी जन्मशती के अवसर पर 30 पैसे मूल्य का एक डाक टिकट जारी किया। गोरखपुर के जिस स्कूल में वे शिक्षक थे, वहाँ प्रेमचंद साहित्य संस्थान की स्थापना की गई है। इसके बरामदे में एक भित्तिलेख है जिसका चित्र दाहिनी ओर दिया गया है। यहाँ उनसे संबंधित वस्तुओं का एक संग्रहालय भी है। जहाँ उनकी एक वक्षप्रतिमा भी है।<ref name="pressnot"></ref> प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी ने '''प्रेमचंद घर में''' नाम से उनकी जीवनी लिखी और उनके व्यक्तित्व के उस हिस्से को उजागर किया है, जिससे लोग अनभिज्ञ थे। उनके ही बेटे [[अमृत राय]] ने [[क़लम का सिपाही]] नाम से पिता की जीवनी लिखी है। उनकी सभी पुस्तकों के [[अंग्रेज़ी भाषा|अंग्रेज़ी]] व [[उर्दू भाषा|उर्दू]] रूपांतर तो हुए ही हैं, चीनी, रूसी आदि अनेक विदेशी भाषाओं में उनकी कहानियाँ लोकप्रिय हुई हैं।
मुंशी प्रेमचंद की स्मृति में भारतीय डाक विभाग की ओर से [[31 जुलाई]], [[1980]] को उनकी जन्मशती के अवसर पर 30 पैसे मूल्य का एक [[डाक टिकट]] जारी किया। [[गोरखपुर]] के जिस स्कूल में वे शिक्षक थे, वहाँ प्रेमचंद साहित्य संस्थान की स्थापना की गई है। इसके बरामदे में एक भित्तिलेख है जिसका चित्र दाहिनी ओर दिया गया है। यहाँ उनसे संबंधित वस्तुओं का एक संग्रहालय भी है। जहाँ उनकी एक वक्षप्रतिमा भी है। प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी ने '''प्रेमचंद घर में''' नाम से उनकी जीवनी लिखी और उनके व्यक्तित्व के उस हिस्से को उजागर किया है, जिससे लोग अनभिज्ञ थे। उनके ही बेटे [[अमृत राय]] ने 'क़लम का सिपाही' नाम से पिता की जीवनी लिखी है। उनकी सभी पुस्तकों के [[अंग्रेज़ी भाषा|अंग्रेज़ी]] व [[उर्दू भाषा|उर्दू]] रूपांतर तो हुए ही हैं, चीनी, रूसी आदि अनेक विदेशी भाषाओं में उनकी कहानियाँ लोकप्रिय हुई हैं।
 
==आलोचना==
==आलोचना==
प्रेमचंद की बढ़ती हुई ख्याति से कुछ व्यक्तियों के मन में बड़ी कुढ़न और ईर्ष्या हो रही थी। इनमें से एक, श्री अवध उपाध्याय ने प्रेमचंद के विरुद्ध साहित्यिक चोरी का अभियोग लगाया और उनके विरुद्ध छ: महीने तक लेख लिखे। बीजगणित के मान्य फ़ार्मूलों से वे सिद्ध करते रहे कि—<br />
प्रेमचंद की बढ़ती हुई ख्याति से कुछ व्यक्तियों के मन में बड़ी कुढ़न और ईर्ष्या हो रही थी। इनमें से एक, श्री अवध उपाध्याय ने प्रेमचंद के विरुद्ध साहित्यिक चोरी का अभियोग लगाया और उनके विरुद्ध छह [[महीने]] तक लेख लिखे। बीजगणित के मान्य फ़ार्मूलों से वे सिद्ध करते रहे कि- <br />


क+ख+ग <big>/</big> द = प+फ+ब <big>/</big> घ <br />
क+ख+ग <big>/</big> द = प+फ+ब <big>/</big> घ <br />


यानी प्रेमचंद की 1/3 सोफ़िया थैकरे की ¼ अमीलिया का स्मरण दिलाती है। एक और असफल कथाकार ने आलोचक का बाना धारण करते हुए प्रेमचंद को ‘घृणा का प्रचारक’ कहा था।
यानी प्रेमचंद की 1/3 सोफ़िया थैकरे की ¼ अमीलिया का स्मरण दिलाती है। एक और असफल कथाकार ने आलोचक का बाना धारण करते हुए प्रेमचंद को ‘घृणा का प्रचारक’ कहा था।
==मृत्यु==
==मृत्यु==
अंतिम दिनों के एक वर्ष को छोड़कर (सन 1934-35 जो [[मुंबई]] की फिल्मी दुनिया में बीता), उनका पूरा समय [[बनारस]] और [[लखनऊ]] में गुजरा, जहाँ उन्होंने अनेक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया और अपना साहित्य-सृजन करते रहे। [[8 अक्टूबर]], [[1936]] को जलोदर रोग से उनका देहावसान हुआ।<ref name="baljai"></ref> इस तरह वह दीप सदा के लिए बुझ गया जिसने अपनी जीवन की बत्ती को कण-कण जलाकर भारतीयों का पथ आलोकित किया।
अंतिम दिनों के एक वर्ष को छोड़कर (सन् [[1934]]-[[1935|35]] जो [[मुंबई]] की फ़िल्मी दुनिया में बीता), उनका पूरा समय [[वाराणसी]] और [[लखनऊ]] में गुज़रा, जहाँ उन्होंने अनेक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया और अपना साहित्य-सृजन करते रहे। [[8 अक्टूबर]], [[1936]] को जलोदर रोग से उनका देहावसान हुआ।<ref name="baljai"></ref> इस तरह वह दीप सदा के लिए बुझ गया जिसने अपनी जीवन की बत्ती को कण-कण जलाकर भारतीयों का पथ आलोकित किया।
 
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
<references/>
==बाहरी कड़ियाँ==
==बाहरी कड़ियाँ==
*[http://www.youtube.com/watch?v=fn6CsP7JBq4&feature=youtu.be प्रेमचंद की जीवनी (यू-ट्यूब विडियो)]
*[http://shabdokiunjali.blogspot.com/2009/11/blog-post_30.html प्रेमचंद]
*[http://shabdokiunjali.blogspot.com/2009/11/blog-post_30.html प्रेमचंद]
*[http://tdil.mit.gov.in/CoilNet/IGNCA/prem.htm प्रेमचंद की जीवनी]
*[http://tdil.mit.gov.in/CoilNet/IGNCA/prem.htm प्रेमचंद की जीवनी]
*[http://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%AE%E0%A4%9A%E0%A4%82%E0%A4%A6 प्रेमचंद की कहानियाँ]
*[http://gadyakosh.org/gk/index.php?title=%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%AE%E0%A4%9A%E0%A4%82%E0%A4%A6 प्रेमचंद की कहानियाँ]
*[http://pustak.org/bs/home.php?bookid=635 ग़बन]
*[http://hindikechirag.blogspot.com/2008/09/blog-post_07.html उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद]
*[http://hindikechirag.blogspot.com/2008/09/blog-post_07.html उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद]
[[Category:उपन्यासकार]]
*[http://www.rachanakar.org/2013/08/blog-post.html प्रेमचन्द का कथा-साहित्यः भावगत और भाषिक प्रदेय]
[[Category:साहित्यकार]]
*[http://www.rachanakar.org/2013/08/blog-post.html#ixzz2ah5zQUW6 प्रोफेसर महावीर सरन जैन का आलेख- प्रेमचन्द का कथा-साहित्यः भावगत और भाषिक प्रदेय]
==संबंधित लेख==
{{साहित्यकार}}{{प्रेमचंद की कृतियाँ}}
[[Category:उपन्यासकार]][[Category:कहानीकार]]
[[Category:साहित्यकार]][[Category:लेखक]]
[[Category:जीवनी साहित्य]][[Category:प्रेमचंद]]
[[Category:साहित्य कोश]]
[[Category:साहित्य कोश]]
[[Category:प्रसिद्ध व्यक्तित्व]]
[[Category:प्रसिद्ध व्यक्तित्व]]
[[Category:प्रसिद्ध व्यक्तित्व कोश]]
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05:24, 31 जुलाई 2018 के समय का अवतरण

प्रेमचंद विषय सूची
प्रेमचंद
पूरा नाम मुंशी प्रेमचंद
अन्य नाम नवाब राय
जन्म 31 जुलाई, 1880
जन्म भूमि लमही गाँव, वाराणसी, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 8 अक्तूबर 1936
मृत्यु स्थान वाराणसी, उत्तर प्रदेश
अभिभावक मुंशी अजायब लाल और आनन्दी देवी
पति/पत्नी शिवरानी देवी
संतान श्रीपत राय और अमृत राय (पुत्र)
कर्म भूमि गोरखपुर
कर्म-क्षेत्र अध्यापक, लेखक, उपन्यासकार
मुख्य रचनाएँ ग़बन, गोदान, बड़े घर की बेटी, नमक का दारोग़ा आदि
विषय सामजिक
भाषा हिन्दी
विद्यालय इलाहाबाद विश्वविद्यालय
शिक्षा स्नातक
प्रसिद्धि उपन्यास सम्राट
नागरिकता भारतीय
साहित्यिक आदर्शोन्मुख यथार्थवाद
आन्दोलन प्रगतिशील लेखक आन्दोलन
अन्य जानकारी प्रेमचंद उनका साहित्यिक नाम था और बहुत वर्षों बाद उन्होंने यह नाम अपनाया था। उनका वास्तविक नाम ‘धनपत राय’ था। जब उन्होंने सरकारी सेवा करते हुए कहानी लिखना आरम्भ किया, तब उन्होंने नवाब राय नाम अपनाया। बहुत से मित्र उन्हें जीवन-पर्यन्त नवाब के नाम से ही सम्बोधित करते रहे।
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

मुंशी प्रेमचंद (अंग्रेज़ी: Munshi Premchand, जन्म: 31 जुलाई, 1880 - मृत्यु: 8 अक्टूबर, 1936) भारत के उपन्यास सम्राट माने जाते हैं जिनके युग का विस्तार सन् 1880 से 1936 तक है। यह कालखण्ड भारत के इतिहास में बहुत महत्त्व का है। इस युग में भारत का स्वतंत्रता-संग्राम नई मंज़िलों से गुज़रा। प्रेमचंद का वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। वे एक सफल लेखक, देशभक्त नागरिक, कुशल वक्ता, ज़िम्मेदार संपादक और संवेदनशील रचनाकार थे। बीसवीं शती के पूर्वार्द्ध में जब हिन्दी में काम करने की तकनीकी सुविधाएँ नहीं थीं फिर भी इतना काम करने वाला लेखक उनके सिवा कोई दूसरा नहीं हुआ।[1]

जीवन परिचय

प्रेमचंद का जन्म वाराणसी से लगभग चार मील दूर, लमही नाम के गाँव में 31 जुलाई, 1880 को हुआ। प्रेमचंद के पिताजी मुंशी अजायब लाल और माता आनन्दी देवी थीं। प्रेमचंद का बचपन गाँव में बीता था। वे नटखट और खिलाड़ी बालक थे और खेतों से शाक-सब्ज़ी और पेड़ों से फल चुराने में दक्ष थे। उन्हें मिठाई का बड़ा शौक़ था और विशेष रूप से गुड़ से उन्हें बहुत प्रेम था। बचपन में उनकी शिक्षा-दीक्षा लमही में हुई और एक मौलवी साहब से उन्होंने उर्दू और फ़ारसी पढ़ना सीखा। एक रुपया चुराने पर ‘बचपन’ में उन पर बुरी तरह मार पड़ी थी। उनकी कहानी, ‘कज़ाकी’, उनकी अपनी बाल-स्मृतियों पर आधारित है। कज़ाकी डाक-विभाग का हरकारा था और बड़ी लम्बी-लम्बी यात्राएँ करता था। वह बालक प्रेमचंद के लिए सदैव अपने साथ कुछ सौगात लाता था। कहानी में वह बच्चे के लिये हिरन का छौना लाता है और डाकघर में देरी से पहुँचने के कारण नौकरी से अलग कर दिया जाता है। हिरन के बच्चे के पीछे दौड़ते-दौड़ते वह अति विलम्ब से डाक घर लौटा था। कज़ाकी का व्यक्तित्व अतिशय मानवीयता में डूबा है। वह शालीनता और आत्मसम्मान का पुतला है, किन्तु मानवीय करुणा से उसका हृदय भरा है।

प्रेमचंद जी कहते हैं कि समाज में ज़िन्दा रहने में जितनी कठिनाइयों का सामना लोग करेंगे उतना ही वहाँ गुनाह होगा। अगर समाज में लोग खुशहाल होंगे तो समाज में अच्छाई ज़्यादा होगी और समाज में गुनाह नहीं के बराबर होगा। प्रेमचन्द ने शोषितवर्ग के लोगों को उठाने का हर संभव प्रयास किया। उन्होंने आवाज़ लगाई 'ए लोगो जब तुम्हें संसार में रहना है तो जिन्दों की तरह रहो, मुर्दों की तरह ज़िन्दा रहने से क्या फ़ायदा।'

व्यक्तित्व

सादा एवं सरल जीवन के मालिक प्रेमचन्द सदा मस्त रहते थे। उनके जीवन में विषमताओं और कटुताओं से वह लगातार खेलते रहे। इस खेल को उन्होंने बाज़ी मान लिया जिसको हमेशा जीतना चाहते थे। कहा जाता है कि प्रेमचन्द हंसोड़ प्रकृति के मालिक थे। विषमताओं भरे जीवन में हंसोड़ होना एक बहादुर का काम है। इससे इस बात को भी समझा जा सकता है कि वह अपूर्व जीवनी-शक्ति का द्योतक थे। सरलता, सौजन्य और उदारता की वह मूर्ति थे। जहाँ उनके हृदय में मित्रों के लिए उदार भाव था वहीं उनके हृदय में ग़रीबों एवं पीड़ितों के लिए सहानुभूति का अथाह सागर था। प्रेमचन्द उच्चकोटि के मानव थे। इनको गाँव जीवन से अच्छा प्रेम था। वह सदा साधारण गंवई लिबास में रहते थे। जीवन का अधिकांश भाग उन्होंने गाँव में ही गुज़ारा। बाहर से बिल्कुल साधारण दिखने वाले प्रेमचन्द अन्दर से जीवनी-शक्ति के मालिक थे। अन्दर से जरा सा भी किसी ने देखा तो उसे प्रभावित होना ही था। वह आडम्बर एवं दिखावा से मीलों दूर रहते थे। जीवन में न तो उनको विलास मिला और न ही उनको इसकी तमन्ना थी। तमाम महापुरुषों की तरह अपना काम स्वयं करना पसंद करते थे।[2]

साहित्यिक जीवन

प्रेमचंद उनका साहित्यिक नाम था और बहुत वर्षों बाद उन्होंने यह नाम अपनाया था। उनका वास्तविक नाम ‘धनपत राय’ था। जब उन्होंने सरकारी सेवा करते हुए कहानी लिखना आरम्भ किया, तब उन्होंने नवाब राय नाम अपनाया। बहुत से मित्र उन्हें जीवन-पर्यन्त नवाब के नाम से ही सम्बोधित करते रहे। उन्होंने हिन्दी में शेख़ सादी पर एक छोटी-सी पुस्तक लिखी थी, टॉल्सटॉय की कुछ कहानियों का हिन्दी में अनुवाद किया था और ‘प्रेम-पचीसी’ की कुछ कहानियों का रूपान्तर भी हिन्दी में कर रहे थे। ये कहानियाँ ‘सप्त-सरोज’ शीर्षक से हिन्दी संसार के सामने सर्वप्रथम सन् 1917 में आयीं। ये सात कहानियाँ थीं:-

शायद कम लोग जानते हैं कि प्रख्यात कथाकार मुंशी प्रेमचंद अपनी महान् रचनाओं की रूपरेखा पहले अंग्रेज़ी में लिखते थे और इसके बाद उसे हिन्दी अथवा उर्दू में अनूदित कर विस्तारित करते थे।

  1. बड़े घर की बेटी
  2. सौत
  3. सज्जनता का दण्ड
  4. पंच परमेश्वर
  5. नमक का दारोग़ा
  6. उपदेश
  7. परीक्षा

प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियों में इन कहानियों की गणना होती है।

साहित्य की विशेषताएँ

प्रेमचन्द की रचना-दृष्टि, विभिन्न साहित्य रूपों में, अभिव्यक्त हुई। वह बहुमुखी प्रतिभा संपन्न साहित्यकार थे। प्रेमचंद की रचनाओं में तत्कालीन इतिहास बोलता है। उन्होंने अपनी रचनाओं में जन साधारण की भावनाओं, परिस्थितियों और उनकी समस्याओं का मार्मिक चित्रण किया। उनकी कृतियाँ भारत के सर्वाधिक विशाल और विस्तृत वर्ग की कृतियाँ हैं। अपनी कहानियों से प्रेमचंद मानव-स्वभाव की आधारभूत महत्ता पर बल देते हैं। ‘बड़े घर की बेटी,’ आनन्दी, अपने देवर से अप्रसन्न हुई, क्योंकि वह गंवार उससे कर्कशता से बोलता है और उस पर खींचकर खड़ाऊँ फेंकता है। जब उसे अनुभव होता है कि उनका परिवार टूट रहा है और उसका देवर परिताप से भरा है, तब वह उसे क्षमा कर देती है और अपने पति को शांत करती है

प्रेमचंद के पत्र

प्रेमचंद ने अपने जीवन-काल में हज़ारों पत्र लिखे होंगे, लेकिन उनके जो पत्र काल का ग्रास बनने से बचे रह गए और जो सम्प्रति उपलब्ध हैं, उनमें सर्वाधिक पत्र वे हैं जो उन्होंने अपने काल की लोकप्रिय उर्दू मासिक पत्रिका ‘ज़माना’ के यशस्वी सम्पादक मुंशी दयानारायण निगम को लिखे थे। यों तो मुंशी दयानारायण निगम प्रेमचंद से दो वर्ष छोटे थे लेकिन प्रेमचंद उनको सदा बड़े भाई जैसा सम्मान देते रहे। इन दोनों विभूतियों के पारस्परिक सम्बन्धों को परिभाषित करना तो अत्यन्त दुरूह कार्य है, लेकिन प्रेमचंद के इस आदर भाव का कारण यह प्रतीत होता है कि प्रेमचंद को साहित्यिक संसार में पहचान दिलाने का महनीय कार्य निगम साहब ने उनको ‘ज़माना’ में निरन्तर प्रकाशित करके ही सम्पादित किया था, और उस काल की पत्रिकाओं में तो यहाँ तक प्रकाशित हुआ कि प्रेमचंद को प्रेमचंद बनाने का श्रेय यदि किसी को है तो मुंशी दयानारायण निगम को ही है।[3]

प्रेमचंद का स्वर्णिम युग

प्रेमचंद की उपन्यास-कला का यह स्वर्ण युग था। सन् 1931 के आरम्भ में ग़बन प्रकाशित हुआ था। 16 अप्रैल, 1931 को प्रेमचंद ने अपनी एक और महान् रचना, कर्मभूमि शुरू की। यह अगस्त, 1932 में प्रकाशित हुई। प्रेमचंद के पत्रों के अनुसार सन् 1932 में ही वह अपना अन्तिम महान् उपन्यास, गोदान लिखने में लग गये थे, यद्यपि ‘हंस’ और ‘जागरण’ से सम्बंधित अनेक कठिनाइयों के कारण इसका प्रकाशन जून, 1936 में ही सम्भव हो सका। अपनी अन्तिम बीमारी के दिनों में उन्होंने एक और उपन्यास, ‘मंगलसूत्र’, लिखना शुरू किया था, किन्तु अकाल मृत्यु के कारण यह अपूर्ण रह गया। ‘ग़बन’, ‘कर्मभूमि’ और ‘गोदान’- उपन्यासत्रयी पर विश्व के किसी भी कृतिकार को गर्व हो सकता है। ‘कर्मभूमि’ अपनी क्रांतिकारी चेतना के कारण विशेष महत्त्वपूर्ण है

प्रेमचंद उनका साहित्यिक नाम था और बहुत वर्षों बाद उन्होंने यह नाम अपनाया था। उनका वास्तविक नाम ‘धनपत राय’ था। जब उन्होंने सरकारी सेवा करते हुए कहानी लिखना आरम्भ किया, तब उन्होंने नवाब राय नाम अपनाया। बहुत से मित्र उन्हें जीवन-पर्यन्त 'नवाब' के नाम से ही सम्बोधित करते रहे।


प्रेमचंद और सिनेमा

प्रेमचंद हिन्दी सिनेमा के सबसे अधिक लोकप्रिय साहित्यकारों में से हैं। उनके देहांत के दो वर्षों बाद के. सुब्रमण्यम ने 1938 में सेवासदन उपन्यास पर फ़िल्म बनाई जिसमें सुब्बुलक्ष्मी ने मुख्य भूमिका निभाई थी। प्रेमचंद की कुछ कहानियों पर और फ़िल्में भी बनी हैं, जैसे सत्यजित राय की फ़िल्म शतरंज के खिलाड़ी[4] प्रेमचंद ने मज़दूर शीर्षक फ़िल्म के लिए संवाद लिखे। फ़िल्म के स्वामियों ने कहानी की रूपरेखा तैयार की थी। फ़िल्म में एक देश-प्रेमी मिल-मालिक की कथा थी, किन्तु सेंसर को यह भी सहन न हो सका। फिर भी फ़िल्म का प्रदर्शन पंजाब, दिल्ली, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में हुआ। फ़िल्म का मज़दूरों पर इतना असर हुआ कि पुलिस बुलानी पड़ गई। अंत में फ़िल्म के प्रदर्शन पर भारत सरकार ने रोक लगा दी। इस फ़िल्म में प्रेमचंद स्वयं भी कुछ क्षण के लिए रजतपट पर अवतीर्ण हुए। मज़दूरों और मालिकों के बीच एक संघर्ष में वे पंच की भूमिका में आए थे। एक लेख में प्रेमचंद ने सिनेमा की हालत पर अपना भरपूर रोष और असन्तोष व्यक्त किया है। वह साहित्य के ध्येय की तुलना करते हैं:

साहित्य के भावों की जो उच्चता, भाषा की प्रौढ़ता और स्पष्टता, सुन्दरता की जो साधना होती है, वह हमें सिनेमा में नहीं मिलती।

- प्रेमचंद

पुरस्कार

प्रेमचंद के सम्मान में जारी डाक टिकट

मुंशी प्रेमचंद की स्मृति में भारतीय डाक विभाग की ओर से 31 जुलाई, 1980 को उनकी जन्मशती के अवसर पर 30 पैसे मूल्य का एक डाक टिकट जारी किया। गोरखपुर के जिस स्कूल में वे शिक्षक थे, वहाँ प्रेमचंद साहित्य संस्थान की स्थापना की गई है। इसके बरामदे में एक भित्तिलेख है जिसका चित्र दाहिनी ओर दिया गया है। यहाँ उनसे संबंधित वस्तुओं का एक संग्रहालय भी है। जहाँ उनकी एक वक्षप्रतिमा भी है। प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी ने प्रेमचंद घर में नाम से उनकी जीवनी लिखी और उनके व्यक्तित्व के उस हिस्से को उजागर किया है, जिससे लोग अनभिज्ञ थे। उनके ही बेटे अमृत राय ने 'क़लम का सिपाही' नाम से पिता की जीवनी लिखी है। उनकी सभी पुस्तकों के अंग्रेज़ीउर्दू रूपांतर तो हुए ही हैं, चीनी, रूसी आदि अनेक विदेशी भाषाओं में उनकी कहानियाँ लोकप्रिय हुई हैं।

आलोचना

प्रेमचंद की बढ़ती हुई ख्याति से कुछ व्यक्तियों के मन में बड़ी कुढ़न और ईर्ष्या हो रही थी। इनमें से एक, श्री अवध उपाध्याय ने प्रेमचंद के विरुद्ध साहित्यिक चोरी का अभियोग लगाया और उनके विरुद्ध छह महीने तक लेख लिखे। बीजगणित के मान्य फ़ार्मूलों से वे सिद्ध करते रहे कि-

क+ख+ग / द = प+फ+ब /

यानी प्रेमचंद की 1/3 सोफ़िया थैकरे की ¼ अमीलिया का स्मरण दिलाती है। एक और असफल कथाकार ने आलोचक का बाना धारण करते हुए प्रेमचंद को ‘घृणा का प्रचारक’ कहा था।

मृत्यु

अंतिम दिनों के एक वर्ष को छोड़कर (सन् 1934-35 जो मुंबई की फ़िल्मी दुनिया में बीता), उनका पूरा समय वाराणसी और लखनऊ में गुज़रा, जहाँ उन्होंने अनेक पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया और अपना साहित्य-सृजन करते रहे। 8 अक्टूबर, 1936 को जलोदर रोग से उनका देहावसान हुआ।[4] इस तरह वह दीप सदा के लिए बुझ गया जिसने अपनी जीवन की बत्ती को कण-कण जलाकर भारतीयों का पथ आलोकित किया।

इन्हें भी देखें: प्रेमचंद के अनमोल वचन


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गुप्त, प्रकाशचन्द्र (1984) प्रेमचंद भारतीय साहित्य के निर्माता। नई दिल्ली: साहित्य अकादमी।
  2. प्रेमचन्द : जीवन परिचय (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल)। । अभिगमन तिथि: 9 नवंबर, 2010
  3. जैन, प्रदीप। प्रेमचंद के पत्र (हिंदी) हिंदी समय। अभिगमन तिथि: 22 मार्च, 2013।
  4. 4.0 4.1 हमारे साहित्यकार - प्रेमचंद (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) बाल जयहिन्दी। अभिगमन तिथि: 14 अक्टूबर, 2010

बाहरी कड़ियाँ

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