"लॉर्ड कॉर्नवॉलिस": अवतरणों में अंतर
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'''लॉर्ड कॉर्नवॉलिस''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Lord Cornwallis'', जन्म- [[31 दिसंबर]], 1738; मृत्यु- [[5 अक्टूबर]], 1805) फ़ोर्ट विलियम प्रेसिडेंसी के गवर्नर जनरल रहे। 1786 ई. में [[ईस्ट इण्डिया कम्पनी]] ने एक उच्च वंश एवं कुलीन वृत्ति के व्यक्ति लॉर्ड कॉर्नवॉलिस को [[पिट एक्ट|पिट्स इण्डिया एक्ट]] के अन्तर्गत रेखाकिंत शांति स्थापना तथा शासन के पुनर्गठन हेतु [[गवर्नर-जनरल]] नियुक्त करके [[भारत]] भेजा। लॉर्ड कॉर्नवॉलिस दो बार भारत के गवर्नर-जनरल बनाये गये थे। पहली बार वे 1786-1793 ई. तक तथा दूसरी बार 1805 ई. में गवर्नर-जनरल बनाये गये। किन्तु अपने दूसरे कार्यकाल 1805 ई. में लॉर्ड कॉर्नवॉलिस अधिक समय तक गवर्नर-जनरल नहीं रह सके, क्योंकि कुछ समय बाद ही उनकी मृत्यु हो गई। कॉर्नवॉलिस ने अपने कार्यों से सुधारों की एक कड़ी स्थापित कर दी थी। | |||
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[[बंगाल]] में भू-राजस्व वसूली का अधिकार किसे दिया जाय, तथा उसे कितने समय तक के लिए दिया जाय, इस पर अन्तिम निर्णय कॉर्नवॉलिसस ने [[सर जॉन शोर]] के सहयोग से किया, और अन्तिम रूप से ज़मीदारों को भूमि का स्वामी मान लिया गया। ज्ञातव्य है कि, 'जेम्स ग्रांट' ने कॉर्नवॉलिस तथा सर जॉन शोर के विचारों का विरोध करते हुए ज़मीदारों को केवल भूमिकर संग्रहकर्ता ही माना था, तथा समस्त भूमि को 'सरकन की भूमि' के रूप में मान्यता दी थी। 1790 ई. में दस वर्ष की व्यवस्था की गई, जिसे ‘जॉन शोर की व्यवस्था’ के नाम से भी जाना जाता था। परन्तु इस व्यवस्था को 1793 ई. में ‘[[स्थायी बन्दोबस्त]]’ में परिवर्तित कर दिया गया। ज़मीदरों को अब भू-राजस्व का 8/9 भाग [[ईस्ट इण्डिया कम्पनी]] को तथा 1/9 भाग अपनी सेवाओं के लिए अपने पास रखना था। इस व्यवस्था के अनेक दोष सामने आये। यद्यपि कम्पनी ने इसे पूरी तरह अपने हित में बताया, परन्तु शीघ्र ही यह व्यवस्था उत्पीड़न तथा शोषण का साधन बन गई। करों की संख्या 36 से घटाकर 23 कर दी गई। पुरानी राजस्व समिति का नाम 'राजस्व बोर्ड' रख दिया गया। लॉर्ड कॉर्नवॉलिस ने व्यापार बोर्ड के सदस्यों की संख्या घटाकर 11 से 5 कर दी तथा ठेकेदारों के स्थान पर गुमाश्तों तथा व्यापारिक प्रतिनिधियों द्वारा माल लेने की व्यवस्था बना दी। कॉर्नवॉलिस को [[भारत]] में ‘नागरिक सेवा का जनक’ माना जाता है। | [[बंगाल]] में भू-राजस्व वसूली का अधिकार किसे दिया जाय, तथा उसे कितने समय तक के लिए दिया जाय, इस पर अन्तिम निर्णय कॉर्नवॉलिसस ने [[सर जॉन शोर]] के सहयोग से किया, और अन्तिम रूप से ज़मीदारों को भूमि का स्वामी मान लिया गया। ज्ञातव्य है कि, 'जेम्स ग्रांट' ने कॉर्नवॉलिस तथा सर जॉन शोर के विचारों का विरोध करते हुए ज़मीदारों को केवल भूमिकर संग्रहकर्ता ही माना था, तथा समस्त भूमि को 'सरकन की भूमि' के रूप में मान्यता दी थी। 1790 ई. में दस वर्ष की व्यवस्था की गई, जिसे ‘जॉन शोर की व्यवस्था’ के नाम से भी जाना जाता था। परन्तु इस व्यवस्था को 1793 ई. में ‘[[स्थायी बन्दोबस्त]]’ में परिवर्तित कर दिया गया। ज़मीदरों को अब भू-राजस्व का 8/9 भाग [[ईस्ट इण्डिया कम्पनी]] को तथा 1/9 भाग अपनी सेवाओं के लिए अपने पास रखना था। इस व्यवस्था के अनेक दोष सामने आये। यद्यपि कम्पनी ने इसे पूरी तरह अपने हित में बताया, परन्तु शीघ्र ही यह व्यवस्था उत्पीड़न तथा शोषण का साधन बन गई। करों की संख्या 36 से घटाकर 23 कर दी गई। पुरानी राजस्व समिति का नाम 'राजस्व बोर्ड' रख दिया गया। लॉर्ड कॉर्नवॉलिस ने व्यापार बोर्ड के सदस्यों की संख्या घटाकर 11 से 5 कर दी तथा ठेकेदारों के स्थान पर गुमाश्तों तथा व्यापारिक प्रतिनिधियों द्वारा माल लेने की व्यवस्था बना दी। कॉर्नवॉलिस को [[भारत]] में ‘नागरिक सेवा का जनक’ माना जाता है। | ||
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09:24, 19 मार्च 2020 के समय का अवतरण
लॉर्ड कॉर्नवॉलिस (अंग्रेज़ी: Lord Cornwallis, जन्म- 31 दिसंबर, 1738; मृत्यु- 5 अक्टूबर, 1805) फ़ोर्ट विलियम प्रेसिडेंसी के गवर्नर जनरल रहे। 1786 ई. में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने एक उच्च वंश एवं कुलीन वृत्ति के व्यक्ति लॉर्ड कॉर्नवॉलिस को पिट्स इण्डिया एक्ट के अन्तर्गत रेखाकिंत शांति स्थापना तथा शासन के पुनर्गठन हेतु गवर्नर-जनरल नियुक्त करके भारत भेजा। लॉर्ड कॉर्नवॉलिस दो बार भारत के गवर्नर-जनरल बनाये गये थे। पहली बार वे 1786-1793 ई. तक तथा दूसरी बार 1805 ई. में गवर्नर-जनरल बनाये गये। किन्तु अपने दूसरे कार्यकाल 1805 ई. में लॉर्ड कॉर्नवॉलिस अधिक समय तक गवर्नर-जनरल नहीं रह सके, क्योंकि कुछ समय बाद ही उनकी मृत्यु हो गई। कॉर्नवॉलिस ने अपने कार्यों से सुधारों की एक कड़ी स्थापित कर दी थी।
सुधार कार्य
लॉर्ड कॉर्नवॉलिस ने अपने शासन काल में निम्नलिखित सुधार किये-
क़ानून की विशिष्टता
सर्वप्रथम अपने ‘न्यायिक सुधारों’ के अन्तर्गत कॉर्नवॉलिस ने ज़िले की समस्त शक्ति कलेक्टर के हाथों में केन्द्रित कर दी, व 1787 ई. में ज़िले के प्रभारी कलेक्टरों को 'दीवानी अदालत' का 'दीवानी न्यायधीश' नियुक्त कर दिया। 1790-1792 ई. के मध्य भारतीय न्यायाधीशों से युक्त ज़िला फ़ौजदारी अदालतों को समाप्त कर उसके स्थान पर चार भ्रमण करने वाली अदालतें- तीन बंगाल हेतु व एक बिहार हेतु नियुक्त की गई। इन अदालतों की अध्यक्षता यूरोपीय व्यक्ति द्वारा भारतीय क़ाज़ी व मुफ़्ती के सहयोग से की जाती थी। कॉर्नवॉलिस ने ‘क़ानून की विशिष्टता’ का नियम, जो इससे पूर्व नहीं था, भारत में लागू किया।
अन्य क़ानूनी सुधार
लॉर्ड कॉर्नवॉलिस ने 1793 ई. में प्रसिद्ध ‘कॉर्नवॉलिस कोड’ का निर्माण करवाया, जो ‘शक्तियों के पृथकीकरण’ सिद्धान्त पर आधारित था। 'कॉर्नवॉलिस संहिता' से कलेक्टरों की न्यायिक एवं फ़ौजदारी से सम्बन्धित शक्ति का हनन हो गया और अब उनके पास मात्र ‘कर’ सम्बन्धित शक्तियाँ ही रह गयी थीं। उसने वकालत पेशा को नियमित बनाया। 1790-1793 ई. के मध्य कॉर्नवॉलिस ने फ़ौजदारी क़ानून में कुछ परिवर्तन किये, जिन्हें अंग्रेज़ संसद ने 1797 ई. में एक अधिनियम द्वारा प्रमाणित कर दिया। इन सुधारों के अन्तर्गत हत्या के मामले में हत्यारे की भवना पर अधिक बल दिया गया, न कि हत्या के अस्त्र अथवा ढंग पर। इसी प्रकार मृतक के अभिभावकों की इच्छा से क्षमा करना अथवा ‘रक्त का मूल्य’ निर्धारित करना बन्द कर दिया गया तथा अंग विच्छेदन के स्थान पर कड़ी क़ैद की सज़ा की आज्ञा दी गयी। इसी प्रकार 1793 ई. में यह निश्चित किया गया कि साक्षी के धर्म विशेष के मामले पर कोई असर नहीं पड़ेगा।
पुलिस व्यवस्था
लॉर्ड कॉर्नवॉलिस ने ‘पुलिस सुधार’ के अन्तर्गत कम्पनी के अधिकारियों के वेतन में वृद्धि की और ग्रामीण क्षेत्रों में पुलिस अधिकार प्राप्त ज़मीदारों को इस अधिकार से वंचित कर दिया। अंग्रेज़ मजिस्ट्रेटों को ज़िले की पुलिस का भार दे दिया गया। ज़िलों को 400 वर्ग मील क्षेत्र में विभाजित कर दिया गया। ज़िलों में पुलिस थाना की स्थापना कर एक दरोगा को उसका प्रभारी बनाया गया। लॉर्ड कॉर्नवॉलिस को पुलिस व्यवस्था का जनक भी कहा जाता है।
प्रशासनिक सुधार
प्रशासनिक सुधार के अन्तर्गत कम्पनी के अधिकारियों एवं कर्मचारियों के वेतन में वृद्धि की गई और व्यक्तिगत व्यापार पर पाबन्दी लगा दी गई। लॉर्ड कॉर्नवॉलिस ने प्रशासनिक व्यवस्था का यूरोपीयकरण किया। भारतीयों के लिए सेना में 'सूबेदार', 'जमादार', 'प्रशासनिक सेवा' में 'मुंसिफ', 'सदर, अमीर' या 'डिप्टी कलेक्टर' से ऊँचे पद नहीं दिये जाते थे।
स्थायी भूमि कर व्यवस्था
बंगाल में भू-राजस्व वसूली का अधिकार किसे दिया जाय, तथा उसे कितने समय तक के लिए दिया जाय, इस पर अन्तिम निर्णय कॉर्नवॉलिसस ने सर जॉन शोर के सहयोग से किया, और अन्तिम रूप से ज़मीदारों को भूमि का स्वामी मान लिया गया। ज्ञातव्य है कि, 'जेम्स ग्रांट' ने कॉर्नवॉलिस तथा सर जॉन शोर के विचारों का विरोध करते हुए ज़मीदारों को केवल भूमिकर संग्रहकर्ता ही माना था, तथा समस्त भूमि को 'सरकन की भूमि' के रूप में मान्यता दी थी। 1790 ई. में दस वर्ष की व्यवस्था की गई, जिसे ‘जॉन शोर की व्यवस्था’ के नाम से भी जाना जाता था। परन्तु इस व्यवस्था को 1793 ई. में ‘स्थायी बन्दोबस्त’ में परिवर्तित कर दिया गया। ज़मीदरों को अब भू-राजस्व का 8/9 भाग ईस्ट इण्डिया कम्पनी को तथा 1/9 भाग अपनी सेवाओं के लिए अपने पास रखना था। इस व्यवस्था के अनेक दोष सामने आये। यद्यपि कम्पनी ने इसे पूरी तरह अपने हित में बताया, परन्तु शीघ्र ही यह व्यवस्था उत्पीड़न तथा शोषण का साधन बन गई। करों की संख्या 36 से घटाकर 23 कर दी गई। पुरानी राजस्व समिति का नाम 'राजस्व बोर्ड' रख दिया गया। लॉर्ड कॉर्नवॉलिस ने व्यापार बोर्ड के सदस्यों की संख्या घटाकर 11 से 5 कर दी तथा ठेकेदारों के स्थान पर गुमाश्तों तथा व्यापारिक प्रतिनिधियों द्वारा माल लेने की व्यवस्था बना दी। कॉर्नवॉलिस को भारत में ‘नागरिक सेवा का जनक’ माना जाता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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