"रामचरितमानस": अवतरणों में अंतर

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'रामचरितमानस' [[तुलसीदास]] की सबसे प्रमुख कृति है। इसकी रचना संवत 1631 ई. की [[रामनवमी]] को [[अयोध्या]] में प्रारम्भ हुई थी किन्तु इसका कुछ अंश [[काशी]] (वाराणसी) में भी निर्मित हुआ था, यह इसके [[किष्किन्धा काण्ड वा. रा.|किष्किन्धा काण्ड]] के प्रारम्भ में आने वाले एक [[सोरठा|सोरठे]] से निकलती है, उसमें काशी सेवन का उल्लेख है। इसकी समाप्ति संवत 1633 ई. की मार्गशीर्ष, शुक्ल 5, रविवार को हुई थी किन्तु उक्त तिथि गणना से शुद्ध नहीं ठहरती, इसलिए विश्वसनीय नहीं कही जा सकती। यह रचना [[अवधी भाषा|अवधी बोली]] में लिखी गयी है। इसके मुख्य छन्द [[चौपाई]] और [[दोहा]] हैं,बीच-बीच में कुछ अन्य प्रकार के भी छन्दों का प्रयोग हुआ है। प्राय: 8 या अधिक अर्द्धलियों के बाद दोहा होता है और इन दोहों के साथ कड़वक संख्या दी गयी है। इस प्रकार के समस्त कड़वकों की संख्या 1074 है। सम्पूर्ण रचना सात काण्डों में विभक्त है-
|चित्र=Sri-ramcharitmanas.jpg
#[[बाल काण्ड वा. रा.|बालकाण्ड]]
|चित्र का नाम=रामचरितमानस
#[[अयोध्या काण्ड वा. रा.|अयोध्याकाण्ड]]
|लेखक=
#[[अरण्य काण्ड वा. रा.|अरण्यकाण्ड]]
|कवि= [[तुलसीदास|गोस्वामी तुलसीदास]]
#[[किष्किन्धा काण्ड वा. रा.|किष्किन्धाकाण्ड]]
|मूल_शीर्षक = रामचरितमानस
#[[सुन्दर काण्ड वा. रा.|सुन्दरकाण्ड]]
|मुख्य पात्र = [[राम]], [[सीता]], [[लक्ष्मण]], [[हनुमान]], [[रावण]], [[भरत (दशरथ पुत्र)|भरत]], [[शत्रुघ्न]]
#[[लंका काण्ड वा. रा.|लंकाकाण्ड]]
|कथानक =
#[[उत्तर काण्ड वा. रा.|उत्तरकाण्ड]]। जिस प्रकार '[[रामायण|वाल्मीकि-रामायण]]' अथवा '[[अध्यात्म रामायण]]' है।
|अनुवादक =
|संपादक =
|प्रकाशक = [[गीता प्रेस गोरखपुर]]
|प्रकाशन_तिथि =
|भाषा = [[अवधी]]
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|विषय = चरित-काव्य
|शैली =[[चौपाई]] और [[दोहा]]
|मुखपृष्ठ_रचना = सजिल्द
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|शीर्षक 1=संबंधित लेख
|पाठ 1=[[दोहावली]], [[कवितावली]], [[गीतावली]], [[विनय पत्रिका]], [[हनुमान चालीसा]]
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|भाग =कुल सात काण्डों में विभाजित 
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}}
'''रामचरितमानस''' ([[अंग्रेज़ी]]:''Ramcharitmanas'') [[तुलसीदास]] की सबसे प्रमुख कृति है। इसकी रचना [[संवत]] 1631 ई. की [[रामनवमी]] को [[अयोध्या]] में प्रारम्भ हुई थी किन्तु इसका कुछ अंश [[काशी]] (वाराणसी) में भी निर्मित हुआ था, यह इसके [[किष्किन्धा काण्ड वा. रा.|किष्किन्धा काण्ड]] के प्रारम्भ में आने वाले एक [[सोरठा|सोरठे]] से निकलती है, उसमें काशी सेवन का उल्लेख है। इसकी समाप्ति संवत 1633 ई. की मार्गशीर्ष, शुक्ल 5, [[रविवार]] को हुई थी किन्तु उक्त तिथि गणना से शुद्ध नहीं ठहरती, इसलिए विश्वसनीय नहीं कही जा सकती। यह रचना [[अवधी भाषा|अवधी बोली]] में लिखी गयी है। इसके मुख्य छन्द [[चौपाई]] और [[दोहा]] हैं, बीच-बीच में कुछ अन्य प्रकार के भी [[छन्द|छन्दों]] का प्रयोग हुआ है। प्राय: 8 या अधिक अर्द्धलियों के बाद दोहा होता है और इन दोहों के साथ [[कड़वक]] संख्या दी गयी है। इस प्रकार के समस्त कड़वकों की संख्या 1074 है।  
;विशेष नोट- [[रामचरितमानस (सम्पूर्ण)|सम्पूर्ण रामचरितमानस पढ़ें]]
==रामचरितमानस चरित-काव्य==
==रामचरितमानस चरित-काव्य==
'रामचरितमानस' एक चरित-काव्य है, जिसमें [[राम]] का सम्पूर्ण जीवन-चरित वर्णित हुआ है। इसमें 'चरित' और 'काव्य' दोनों के गुण समान रूप से मिलते हैं। इस काव्य के चरितनायक कवि के आराध्य भी हैं, इसलिए वह 'चरित' और 'काव्य' होने के साथ-साथ कवि की भक्ति का प्रतीक भी है। रचना के इन तीनों रूपों में उसका विवरण इस प्रकार है-
'रामचरितमानस' एक चरित-काव्य है, जिसमें [[राम]] का सम्पूर्ण जीवन-चरित वर्णित हुआ है। इसमें 'चरित' और 'काव्य' दोनों के गुण समान रूप से मिलते हैं। इस काव्य के चरितनायक कवि के आराध्य भी हैं, इसलिए वह 'चरित' और 'काव्य' होने के साथ-साथ कवि की भक्ति का प्रतीक भी है। रचना के इन तीनों रूपों में उसका विवरण इस प्रकार है-
==संक्षिप्त कथा==  
==संक्षिप्त कथा==  
'रामचरितमानस' की कथा संक्षेप में इस प्रकार है-<br/ >
'रामचरितमानस' की कथा संक्षेप में इस प्रकार है-<br/ >
दक्षों से [[लंका]] को जीतकर राक्षसराज [[रावण]] वहाँ राज्य करने लगा। उसके अनाचारों-अत्याचारों से [[पृथ्वी देवी|पृथ्वी]] त्रस्त हो गयी और वह देवताओं की शरण में गयी। इन सब ने मिलकर [[विष्णु|हरि]] की स्तुति की, जिसके उत्तर में आकाशवाणी हुई कि हरि [[दशरथ]]-[[कौशल्या]] के पुत्र राम के रूप में [[अयोध्या]] में अवतार ग्रहण करेंगे और राक्षसों का नाश कर भूमि-भार हरण करेंगे। इस आश्वासन के अनुसार [[चैत्र]] के शुक्ल पक्ष की [[रामनवमी|नवमी]] को हरि ने कौशल्या के पुत्र के रूप में अवतार धारण किया। दशरथ की दो रानियाँ और थीं-[[कैकेयी]] और [[सुमित्रा]]। उनसे दशरथ के तीन और पुत्रों-[[भरत (दशरथ पुत्र)|भरत]], [[लक्ष्मण]] और [[शत्रुघ्न]] ने जन्म ग्रहण किया।
दक्षों से [[लंका]] को जीतकर राक्षसराज [[रावण]] वहाँ राज्य करने लगा। उसके अनाचारों-अत्याचारों से [[पृथ्वी देवी|पृथ्वी]] त्रस्त हो गयी और वह देवताओं की शरण में गयी। इन सब ने मिलकर [[विष्णु|हरि]] की स्तुति की, जिसके उत्तर में आकाशवाणी हुई कि हरि [[दशरथ]]-[[कौशल्या]] के पुत्र राम के रूप में [[अयोध्या]] में अवतार ग्रहण करेंगे और राक्षसों का नाश कर भूमि-भार हरण करेंगे। इस आश्वासन के अनुसार [[चैत्र]] के शुक्ल पक्ष की [[रामनवमी|नवमी]] को हरि ने कौशल्या के पुत्र के रूप में अवतार धारण किया। दशरथ की दो रानियाँ और थीं- [[कैकेयी]] और [[सुमित्रा]]। उनसे दशरथ के तीन और पुत्रों-[[भरत (दशरथ पुत्र)|भरत]], [[लक्ष्मण]] और [[शत्रुघ्न]] ने जन्म ग्रहण किया।
 
[[चित्र:Tulsidas.jpg|thumb|left|गोस्वामी तुलसीदास]]
==विश्वामित्र के आश्रम में राम==
====विश्वामित्र के आश्रम में राम====
[[चित्र:Tulsidas.jpg|thumb|गोस्वामी तुलसीदास]]
इस समय राक्षसों का अत्याचार [[उत्तर भारत]] में भी कुछ क्षेत्रों में प्रारम्भ हो गया था, जिसके कारण मुनि [[विश्वामित्र]] यज्ञ नहीं कर पा रहे थे। उन्हें जब यह ज्ञात हुआ कि दशरथ के पुत्र राम के रूप में हरि अवतरित हुए हैं, वे अयोध्या आये और जब राम बालक ही थे, उन्होंने राक्षसों के दमन के लिए दशरथ से राम की याचना की। राम तथा लक्ष्मण की सहायता से उन्होंने अपना यज्ञ पूरा किया। इन उपद्रवकारी राक्षसों में से एक [[सुबाहु (ताड़का पुत्र)|सुबाहु]] था, जो मारा गया और दूसरा [[मारीच]] था, जो राम के बाणों से आहत होकर सौ [[योजन]] की दूरी पर [[समुद्र]] के पार चला गया। जिस समय राम-लक्ष्मण [[विश्वामित्र आश्रम|विश्वामित्र के आश्रम]] में रह रहे थे, [[मिथिला]] में धनुर्यज्ञ का आयोजन किया गया था, जिसके लिए मुनि को निमन्त्रण प्राप्त हुआ। अत: मुनि राम-लक्ष्मण को लेकर मिथिला गये। मिथिला के राजा [[जनक]] ने देश-विदेश के समस्त राजाओं को अपनी पुत्री [[सीता]] के स्वयंवर हेतु आमन्त्रित किया था। [[रावण]] और [[बाणासुर]] जैसे बलशाली राक्षस नरेश भी इस आमन्त्रण पर वहाँ गये थे किन्तु अपने को इस कार्य के लिए असमर्थ मानकर लौट चुके थे। दूसरे राजाओं ने सम्मिलित होकर भी इसे तोड़ने का प्रयत्न किया, किन्तु वे अकृत कार्य रहे। राम ने इसे सहज ही तोड़ दिया और सीता का वरण किया। [[विवाह]] के अवसर पर अयोध्या निमन्त्रण भेजा गया। दशरथ अपने शेष पुत्रों के साथ बारात लेकर मिथिला आये और विवाह के अनन्तर अपने चारों पुत्रों को लेकर अयोध्या लौटे।
इस समय राक्षसों का अत्याचार उत्तर [[भारत]] में भी कुछ क्षेत्रों में प्रारम्भ हो गया था, जिसके कारण मुनि [[विश्वामित्र]] यज्ञ नहीं कर पा रहे थे। उन्हें जब यह ज्ञात हुआ कि दशरथ के पुत्र राम के रूप में हरि अवतरित हुए हैं, वे अयोध्या आये और जब राम बालक ही थे, उन्होंने राक्षसों के दमन के लिए दशरथ से राम की याचना की। राम तथा लक्ष्मण की सहायता से उन्होंने अपना यज्ञ पूरा किया। इन उपद्रवकारी राक्षसों में से एक [[सुबाहु (ताड़का पुत्र)|सुबाहु]] था, जो मारा गया और दूसरा [[मारीच]] था, जो राम के बाणों से आहत होकर सौ यौजन के दूर पर समुद्र पार चला गया। जिस समय राम-लक्ष्मण विश्वामित्र के आश्रम में रह रहे थे, [[मिथिला]] में धनुर्यज्ञ का आयोजन किया गया था, जिसके लिए मुनि को निमन्त्रण प्राप्त हुआ था। अत: मुनि राम-लक्ष्मण को लिवाकर मिथिला गये। मिथिला के राजा [[जनक]] ने देश-विदेश के समस्त राजाओं को अपनी पुत्री [[सीता]] के स्वयंवर हेतु आमन्त्रित किया था। रावण और [[बाणासुर]] जैसे बलशाली राक्षस नरेश भी इस आमन्त्रण पर वहाँ गये थे किन्तु अपने को इस कार्य के लिए असमर्थ मानकर लौट चुके थे। दूसरे राजाओं ने सम्मिलित होकर भी इसे तोड़ने का प्रयत्न किया, किन्तु वे अकृत कार्य रहे। राम ने इसे सहज में ही तोड़ दिया और सीता का वरण किया। विवाह के अवसर पर अयोध्या निमन्त्रण भेजा गया। दशरथ अपने शेष पुत्रों के साथ बारात लेकर मिथिला आये और विवाह के अनन्तर अपने चारों पुत्रों को लेकर अयोध्या लौटे।
====कैकेयी और कोपभवन====
 
दशरथ की अवस्था धीरे-धीरे ढलने लगी थी, इसलिए उन्होंने राम को अपना युवराज पद देना चाहा। संयोग से इस समय [[कैकेयी]]-पुत्र [[भरत (दशरथ पुत्र)|भरत]] [[सुमित्रा]]-पुत्र [[शत्रुघ्न]] के साथ ननिहाल गये हुए थे। कैकेयी की एक दासी [[मन्थरा]] को जब यह समाचार ज्ञात हुआ, उसने कैकेयी को सुनाया। पहले तो कैकेयी ने यह कहकर उसका अनुमोदन किया कि पिता के अनेक पुत्रों में से ज्येष्ठ पुत्र ही राज्य का अधिकारी होता है, यह उसके राजकुल की परम्परा है किन्तु मन्थरा के यह सुझाने पर कि भरत की अनुपस्थिति में जो यह आयोजन किया जा रहा है, उसमें कोई दुरभि-सन्धि है, कैकेयी ने उस आयोजन को विफल बनाने का निश्चय किया और कोप भवन में चली गयी। तदनन्तर उसने दशरथ से, उनके मनाने पर, दो वर देने के लिए वचन; एक से राम के लिए 14 वर्षों का वनवास और दूसरे से भरत के लिए युवराज पद माँग लिये। इनमें से प्रथम वचन के अनुसार राम ने वन के लिए प्रस्थान किया तो उनके साथ सीता और लक्ष्मण ने भी वन के लिए प्रस्थान किया।<br />
==कैकेयी और कोपभवन==
कुछ ही दिनों बाद जब दशरथ ने राम के विरह में शरीर त्याग दिया, भरत ननिहाल से बुलाये गये और उन्हें अयोध्या का सिंहासन दिया गया, किन्तु भरत ने उसे स्वीकार नहीं किया और वे राम को वापस लाने के लिए [[चित्रकूट]] जा पहुँचे, जहाँ उस समय राम निवास कर रहे थे किन्तु राम ने लौटना स्वीकार न किया। भरत के अनुरोध पर उन्होंने अपनी चरण-पादुकाएँ उन्हें दे दीं, जिन्हें अयोध्या लाकर भरत ने सिंहासन पर रखा और वे राज्य का कार्य देखने लगे। चित्रकूट से चलकर राम दक्षिण के जंगलों की ओर बढ़े। जब वे [[पंचवटी]] में निवास कर रहे थे रावण की एक भगिनी [[शूर्पणखा]] एक मनोहर रूप धारण कर वहाँ आयी और राम के सौन्दर्य पर मुग्ध होकर उनसे विवाह का प्रस्ताव किया। राम ने जब इसे अस्वीकार किया तो उसने अपना भयंकर रूप प्रकट किया। यह देखकर राम के संकेतों से लक्ष्मण ने उसके नाक-कान काट लिये।  इस प्रकार कुरूप की हुई शूर्पणखा अपने भाइयों-[[खर दूषण|खर और दूषण]] के पास गयी और उन्हें राम से युद्ध करने को प्रेरित किया। खर-दूषण ने अपनी सेना लेकर राम पर आक्रमण कर दिया किन्तु वे अपनी समस्त सेना के साथ युद्ध में मारे गये। तदनन्तर शूर्पणखा रावण के पास गयी और उसने उसे सारी घटना सुनायी। रावण ने [[मारीच]] की सहायता से, जिसे विश्वामित्र के आश्रम में राम ने युद्ध में आहत किया था, [[सीता हरण|सीता का हरण]] किया, जिसके परिणामस्वरूप राम को रावण से युद्ध करना पड़ा।
दशरथ की अवस्था धीरे-धीरे ढलने लगी थी, इसलिए उन्होंने राम को अपना युवराज पद देना चाहा। संयोग से इस समय कैकेयी-पुत्र भरत सुमित्रा-पुत्र शत्रुघ्न के साथ ननिहाल गये हुए थे। कैकेयी की एक दासी [[मन्थरा]] को जब यह समाचार ज्ञात हुआ, उसने कैकेयी को सुनाया। पहले तो कैकेयी ने यह कहकर उसका अनुमोदन किया कि पिता के अनेक पुत्रों में से ज्येष्ठ पुत्र ही राज्य का अधिकारी होता है, यह उसके राजकुल की परम्परा है किन्तु मन्थरा के यह सुझाने पर कि भरत की अनुपस्थिति में जो यह आयोजन किया जा रहा है, उसमें कोई दुरभि-सन्धि है, कैकेयी ने उस आयोजन को विफल बनाने का निश्चय किया और कोप भवन में चली गयी। तदनन्तर उसने दशरथ से, उनके मनाने पर, दो वर देने के लिए वचन
====राम और रावण युद्ध====
*एक से राम के लिए 14 वर्षों का वनवास और  
इस परिस्थिति में राम ने [[किष्किन्धा]] के वानरों की सहायता ली और रावण पर आक्रमण कर दिया। इस आक्रमण के साथ रावण का भाई [[विभीषण]] भी आकर राम के साथ हो गया। राम ने [[अंगद]] नाम के वानर को रावण के पास दूत के रूप में अन्तिम बार सावधान करने के लिए भेजा कि वह सीता को लौटा दे, किन्तु रावण ने अपने अभिमान के बल से इसे स्वीकार नहीं किया और राम तथा रावण के दलों में युद्ध छिड़ गया।  उस महायुद्ध में रावण तथा उसके बन्धु-बान्धव मारे गये। तदनन्तर लंका का राज्य उसके भाई विभीषण को देकर सीता को साथ लेकर राम और लक्ष्मण [[अयोध्या]] वापस आये। राम का राज्याभिषेक किया गया और दीर्घकाल तक उन्होंने प्रजारंजन करते हुए शासन किया। इस मूल कथा के पूर्व 'रामचरितमानस' में रावण के कुछ पूर्वभवों की तथा राम के कुछ पूर्ववर्ती अवतारों की कथाएँ हैं, जो संक्षेप में दी गयी है। कथा के अन्त में [[गरुड़]] और काग भुशुण्डि का एक विस्तृत संवाद है, जिसमें अनेक प्रकार के आध्यात्मिक विषयों का विवेचन हुआ है। कथा के प्रारम्भ होने के पूर्व शिव-चरित्र, [[शिव]]-[[पार्वती देवी|पार्वती]] संवाद, [[याज्ञवलक्य]]-[[भारद्वाज]] संवाद तथा काग भुशुण्डि-[[गरुड़]] संवाद के रूप में कथा की भूमिकाएँ हैं। और उनके भी पूर्व कवि की भूमिका और प्रस्तावना है।
*दूसरे से भरत के लिए युवराज पद माँग लिये। इनमें से प्रथम वचन के अनुसार राम ने वन के लिए प्रस्थान किया तो उनके साथ सीता और लक्ष्मण ने भी वन के लिए प्रस्थान किया।
[[चित्र:Tulsidas-Ramacharitamanasa.jpg|रामचरितमानस|thumb|left]]
कुछ ही दिनों बाद जब दशरथ ने राम के विरह में शरीर त्याग दिया, भरत ननिहाल से बुलाये गये और उन्हें अयोध्या का सिंहासन दिया गया, किन्तु भरत ने उसे स्वीकार नहीं किया और वे राम को वापस लाने के लिए [[चित्रकूट]] जा पहुँचे, जहाँ उस समय राम निवास कर रहे थे किन्तु राम ने लौटना स्वीकार न किया। भरत के अनुरोध पर उन्होंने अपनी चरण-पादुकाएँ उन्हें दे दीं, जिन्हें अयोध्या लाकर भरत ने सिंहासन पर रखा और वे राज्य का कार्य देखने लगे। चित्रकूट से चलकर राम दक्षिण के जंगलों की ओर बढ़े। जब वे [[पंचवटी]] में निवास कर रहे थे रावण की एक भगिनी [[शूर्पणखा]] एक मनोहर रूप धारण कर वहाँ आयी और राम के सौन्दर्य पर मुग्ध होकर उनसे विवाह का प्रस्ताव किया। राम ने जब इसे अस्वीकार किया तो उसने अपना भयंकर रूप प्रकट किया। यह देखकर राम के संकेतों से लक्ष्मण ने उसके नाक-कान काट लिये।  इस प्रकार कुरुप की हुई शूर्पणखा अपने भाइयों-[[खर दूषण|खर और दूषण]] के पास गयी, और उन्हें राम से युद्ध करने को प्रेरित किया। खर-दूषण ने अपनी सेना लेकर राम पर आक्रमण कर दिया किन्तु वे अपनी समस्त सेना के साथ युद्ध में मारे गये। तदनन्तर शूर्पणखा रावण के पास गयी और उसने उसे सारी घटना सुनायी। रावण ने [[मारीच]] की सहायता से, जिसे विश्वामित्र के आश्रम में राम ने युद्ध में आहत किया था, सीता का हरण किया, जिसके परिणामस्वरूप राम को रावण से युद्ध करना पड़ा।
==राम और रावण युद्ध==
इस परिस्थिति में राम ने [[किष्किन्धा]] के वानरों की सहायता ली और रावण पर आक्रमण कर दिया। इस आक्रमण के साथ रावण का भाई [[विभीषण]] भी आकर राम के साथ हो गया। राम ने [[अंगद]] नाम के वानर को रावण के पास दूत के रूप में अन्तिम बार सावधान करने के लिए भेजा कि वह सीता को लौटा दे, किन्तु रावण ने अपने अभिमान के बल से इसे स्वीकार नहीं किया और राम तथा रावण के दलों में युद्ध छिड़ गया।  उस महायुद्ध में रावण तथा उसके बन्धु-बान्धव मारे गये। तदनन्तर लंका का राज्य उसके भाई विभीषण को देकर सीता को साथ लेकर राम और लक्ष्मण [[अयोध्या]] वापस आये। राम का राज्याभिषेक किया गया और दीर्घकाल तक उन्होंने प्रजारंजन करते हुए शासन किया। इस मूल कथा के पूर्व 'रामचरितमानस' में रावण के कुछ पूर्वभवों की तथा राम के कुछ पूर्ववर्ती अवतारों की कथाएँ हैं, जो संक्षेप में दी गयी है। कथा के अन्त में [[गरुड़]] और [[काग भुशुण्डि]] का एक विस्तृत संवाद है, जिसमें अनेक प्रकार के आध्यात्मिक विषयों का विवेचन हुआ है। कथा के प्रारम्भ होने के पूर्व शिव-चरित्र, [[शिव]]-[[पार्वती देवी|पार्वती]] संवाद, [[याज्ञवलक्य]]-[[भारद्वाज]] संवाद तथा काग भुशुण्डि-[[गरुड़]] संवाद के रूप में कथा की भूमिकाएँ हैं। और उनके भी पूर्व कवि की भूमिका और प्रस्तावना है।
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'चरित' की दृष्टि से यह रचना पर्याप्त सफल हुई है। इसमें राम के जीवन की समस्त घटनाएँ आवश्यक विस्तार के साथ एक पूर्वाकार की कथाओं से लेकर राम के राज्य-वर्णन तक कवि ने कोई भी प्रासंगिक कथा रचना में नहीं आने दी है। इस सम्बन्ध में यदि वाल्मीकीय तथा अन्य अधिकतर राम-कथा ग्रन्थों से 'रामचरितमानस' की तुलना की जाय तो [[तुलसीदास]] की विशेषता प्रमाणित होगी। अन्य रामकथा ग्रन्थों में बीच-बीच में कुछ प्रासंगिक कथाएँ देखकर अनेक क्षेपककारों ने 'रामचरितमानस' में प्रक्षिप्त प्रसंग रखे और कथाएँ मिलायीं, किन्तु राम-कथा के पाठकों ने उन्हें स्वीकार नहीं किया और वे रचना को मूल रूप में ही पढ़ते और उसका पारायण करते हैं। चरित-काव्यों की एक बड़ी विशेषता उनकी सहज और प्रयासहीन शैली मानी गयी है, और इस दृष्टि से 'मानस' एक अत्यन्त सफल चरित है। रचना भर में तुलसीदास ने कहीं भी अपना काव्य कौशल, अपना पाण्डित्य, अपनी बहुज्ञता आदि के प्रदर्शन का कोई प्रयास नहीं किया है। सर्वत्र वे अपने वर्ण्य विषय में इतने तन्मय रहे हैं कि उन्हें अपना ध्यान नहीं रहा। रचना को पढ़कर ऐसा लगता है कि राम के चरित ने ही उन्हें वह वाणी प्रदान की है, जिसके द्वारा वे सुन्दर कृति का निर्माण कर सके।
'चरित' की दृष्टि से यह रचना पर्याप्त सफल हुई है। इसमें राम के जीवन की समस्त घटनाएँ आवश्यक विस्तार के साथ एक पूर्वाकार की कथाओं से लेकर राम के राज्य-वर्णन तक कवि ने कोई भी प्रासंगिक कथा रचना में नहीं आने दी है। इस सम्बन्ध में यदि वाल्मीकीय तथा अन्य अधिकतर राम-कथा ग्रन्थों से 'रामचरितमानस' की तुलना की जाय तो [[तुलसीदास]] की विशेषता प्रमाणित होगी। अन्य रामकथा ग्रन्थों में बीच-बीच में कुछ प्रासंगिक कथाएँ देखकर अनेक क्षेपककारों ने 'रामचरितमानस' में प्रक्षिप्त प्रसंग रखे और कथाएँ मिलायीं, किन्तु राम-कथा के पाठकों ने उन्हें स्वीकार नहीं किया और वे रचना को मूल रूप में ही पढ़ते और उसका पारायण करते हैं। चरित-काव्यों की एक बड़ी विशेषता उनकी सहज और प्रयासहीन शैली मानी गयी है, और इस दृष्टि से 'मानस' एक अत्यन्त सफल चरित है। रचना भर में तुलसीदास ने कहीं भी अपना काव्य कौशल, अपना पाण्डित्य, अपनी बहुज्ञता आदि के प्रदर्शन का कोई प्रयास नहीं किया है। सर्वत्र वे अपने वर्ण्य विषय में इतने तन्मय रहे हैं कि उन्हें अपना ध्यान नहीं रहा। रचना को पढ़कर ऐसा लगता है कि राम के चरित ने ही उन्हें वह वाणी प्रदान की है, जिसके द्वारा वे सुन्दर कृति का निर्माण कर सके।
==उत्कृष्ट महाकाव्य==
==उत्कृष्ट महाकाव्य==
'काव्य' की दृष्टि से 'रामचरितमानस' एक अति उत्कृष्ट महाकाव्य है। भारतीय साहित्य –शास्त्र में 'महाकाव्य' के जितने लक्षण दिये गये हैं, वे उसमें पूर्ण रूप से पाये जाते है।
'काव्य' की दृष्टि से 'रामचरितमानस' एक अति उत्कृष्ट [[महाकाव्य]] है। भारतीय साहित्य-शास्त्र में 'महाकाव्य' के जितने लक्षण दिये गये हैं, वे उसमें पूर्ण रूप से पाये जाते हैं।
*कथा-प्रबन्ध का सर्गबद्ध होना ,  
*कथा-प्रबन्ध का सर्गबद्ध होना ,  
*उच्चकुल सम्भूत धीरोदात्त नायक का होना,  
*उच्चकुल सम्भूत धीरोदात्त नायक का होना,  
*श्रृंगार, शान्त और वीर रसों में से किसी एक का उसका लक्ष्य होना आदि सभी लक्षण उसमें मिलते हैं। पाश्चात्य साहित्यालोचन में 'इपिक' की जो विभिन्न आवश्यकताएँ बतलायी गयी हैं, यथा-उसकी कथा का किसी गौरवपूर्ण अतीत से सम्बद्ध होना, अतिप्राकृत शक्तियों का उसकी कथा में भाग लेना, कथा के अन्त में किन्हीं आदर्शों की विजय का चित्रित होना आदि, सभी 'रामचरितमानस' में पाई जाती हैं। इस प्रकार किसी भी दृष्टि से देखा जाय तो 'रामचरितमानस' एक अत्यन्त उत्कृष्ट महाकाव्य ठहरता है। मुख्यत: यही कारण है कि संसार की महान कृतियों में इसे भी स्थान मिला है।
*[[श्रृंगार रस |श्रृंगार]], [[शान्त रस|शान्त]] और [[वीर रस|वीर रसों]] में से किसी एक का उसका लक्ष्य होना आदि सभी लक्षण उसमें मिलते हैं। पाश्चात्य साहित्यालोचन में 'इपिक' की जो विभिन्न आवश्यकताएँ बतलायी गयी हैं, यथा- उसकी कथा का किसी गौरवपूर्ण अतीत से सम्बद्ध होना, अतिप्राकृत शक्तियों का उसकी कथा में भाग लेना, कथा के अन्त में किन्हीं आदर्शों की विजय का चित्रित होना आदि, सभी 'रामचरितमानस' में पाई जाती हैं। इस प्रकार किसी भी दृष्टि से देखा जाय तो 'रामचरितमानस' एक अत्यन्त उत्कृष्ट महाकाव्य ठहरता है। मुख्यत: यही कारण है कि संसार की महान् कृतियों में इसे भी स्थान मिला है।
====रामचरितमानस में छन्दों की संख्या====
रामचरितमानस में विविध छन्दों की संख्या निम्नवत है-
* चौपाई – 9388
* दोहा – 1172
* सोरठा –87
* श्लोक – 47 (अनुष्टुप्, शार्दूलविक्रीडित, वसन्ततिलका, वंशस्थ,  उपजाति, प्रमाणिका, मालिनी, स्रग्धरा, रथोद्धता, भुजङ्गप्रयात, तोटक)
* छन्द – 208 (हरिगीतिका, चौपैया, त्रिभङ्गी, तोमर)
* कुल 10902 (चौपाई, दोहा, सोरठा, श्लोक, छन्द)<ref>{{cite web |url=http://www.ramcharit.in/%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%AE%E0%A4%9A%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%B8-%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82-%E0%A4%9B%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6/ |title=श्रीरामचरितमानस में छन्द|accessmonthday= 19 मई|accessyear=2016 |last= |first= |authorlink= |format= html|publisher=श्री रामचरित (RamCharit.in) |language=हिन्दी }}</ref>
==तुलसीदास की भक्ति==  
==तुलसीदास की भक्ति==  
तुलसीदास की भक्ति की अभिव्यक्ति भी इसमें अत्यन्त विशद रूप में हुई है। अपने आराध्य के सम्बन्ध में उन्होंने 'रामचरितमानस' और विनय-पत्रिका' में अनेक बार कहा है कि उनके राम का चरित्र ही ऐसा है कि जो एक बार उसे सुन लेता है, वह अनायास उनका भक्त हो जाता है। वास्तव में तुलसीदास ने अपने आराध्य के चरित्र  की ऐसी ही कल्पना की है। यही कारण है कि इसने समस्त उत्तरी [[भारत]] पर सदियों से अपना अद्भुत प्रभाव डाल रखा है और यहाँ के आध्यात्मिक जीवन का निर्माण किया है। घर-घर में 'रामचरितमानस' का पाठ पिछली साढ़े तीन शताब्दियों से बराबर होता आ रहा है। और इसे एक धर्म ग्रन्थ के रूप में देखा जाता है। इसके आधार पर गाँव-गाँव में प्रतिवर्ष [[रामलीला]]ओं का भी आयोजन किया जाता है। फलत: जैसा विदेशी विद्वानों ने भी स्वीकार किया है। उत्तरी [[भारत]] का यह सबसे लोकप्रिय ग्रन्थ है और इसने जीवन के समस्त क्षेत्रों में उच्चाशयता लाने में सफलता प्राप्त की है।
[[तुलसीदास]] की भक्ति की अभिव्यक्ति भी इसमें अत्यन्त विशद रूप में हुई है। अपने आराध्य के सम्बन्ध में उन्होंने 'रामचरितमानस' और [[विनय पत्रिका|विनय-पत्रिका]]' में अनेक बार कहा है कि उनके राम का चरित्र ही ऐसा है कि जो एक बार उसे सुन लेता है, वह अनायास उनका भक्त हो जाता है। वास्तव में तुलसीदास ने अपने आराध्य के चरित्र  की ऐसी ही कल्पना की है। यही कारण है कि इसने समस्त [[उत्तरी भारत]] पर सदियों से अपना अद्भुत प्रभाव डाल रखा है और यहाँ के आध्यात्मिक जीवन का निर्माण किया है। घर-घर में 'रामचरितमानस' का पाठ पिछली साढ़े तीन शताब्दियों से बराबर होता आ रहा है। और इसे एक धर्म ग्रन्थ के रूप में देखा जाता है। इसके आधार पर गाँव-गाँव में प्रतिवर्ष [[रामलीला|रामलीलाओं]] का भी आयोजन किया जाता है। फलत: जैसा विदेशी विद्वानों ने भी स्वीकार किया है। [[उत्तरी भारत]] का यह सबसे लोकप्रिय ग्रन्थ है और इसने जीवन के समस्त क्षेत्रों में उच्चाशयता लाने में सफलता प्राप्त की है।
 
==लोकप्रिय ग्रन्थ==
==लोकप्रिय ग्रन्थ==
यहाँ पर स्वभावत: यह प्रश्न उठता है कि तुलसीदास ने राम तथा उनके भक्तों के चरित्र में ऐसी कौन-सी विलक्षणता उपस्थित की है, जिससे उनकी इस कृति को इतनी अधिक लोकप्रियता प्राप्त हुई है। तुलसीदास की इस रचना में अनेक दुर्लभ गुण हैं किन्तु कदाचित अपने जिस महान गुण के कारण इसने यह असाधारण सम्मान प्राप्त किया है, वह है ऐसी मानवता की कल्पना, जिसमें उदारता, क्षमा, त्याग, निवैरता, धैर्य और सहनशीलता आदि सामाजिक शिवत्व के गुण अपनी पराकाष्ठा के साथ मिलते हों और फिर भी जो अव्यावहारिक न हों। 'रामचरितमानस' के सर्वप्रमुख चरित्र-राम, भरत, सीता आदि इसी प्रकार के हैं। उदाहरण के लिए राम और कौशल्या के चरित्रों को देखते हैं-  
यहाँ पर स्वभावत: यह प्रश्न उठता है कि तुलसीदास ने राम तथा उनके भक्तों के चरित्र में ऐसी कौन-सी विलक्षणता उपस्थित की है, जिससे उनकी इस कृति को इतनी अधिक लोकप्रियता प्राप्त हुई है। तुलसीदास की इस रचना में अनेक दुर्लभ गुण हैं किन्तु कदाचित अपने जिस महान् गुण के कारण इसने यह असाधारण सम्मान प्राप्त किया है, वह है ऐसी मानवता की कल्पना, जिसमें उदारता, क्षमा, त्याग, निवैरता, धैर्य और सहनशीलता आदि सामाजिक शिवत्व के गुण अपनी पराकाष्ठा के साथ मिलते हों और फिर भी जो अव्यावहारिक न हों। 'रामचरितमानस' के सर्वप्रमुख चरित्र-राम, भरत, सीता आदि इसी प्रकार के हैं। उदाहरण के लिए राम और कौशल्या के चरित्रों को देखते हैं-  
*'वाल्मीकि रामायण' में राम जब वनवास का दु:संवाद सुनाने कौशल्या के पास आते हैं, वे कहते हैं: 'देवि, आप जानती नहीं हैं, आपके लिए, सीता के लिए और लक्ष्मण के लिए बड़ा भय आया है, इससे आप लोग दु:खी होंगे। जब मैं दण्डकारण्य जा रहा हूँ, इससे आप लोग दुखी होंगे। भोजन के निमित्त बैठने के लिए रखे गये इस आसन से मुझे क्या करना है? अब मेरे लिए कुशासन चाहिये, आसन नहीं। निर्जन वन में चौदह वर्षो तक निवास करूँगा। मांस, खाना छोड़कर कन्द मूल फल से जीविका चलाऊँगा। महाराज युवराज का पद भरत को दे रहे हैं और तपस्वी वेश में मुझे अरण्य भेज रहे है' <ref>वाल्मीकि रामायण(2-20-25-30)</ref>।
*'वाल्मीकि रामायण' में राम जब वनवास का दु:संवाद सुनाने [[कौशल्या]] के पास आते हैं, वे कहते हैं: 'देवि, आप जानती नहीं हैं, आपके लिए, सीता के लिए और लक्ष्मण के लिए बड़ा भय आया है, इससे आप लोग दु:खी होंगे। अब मैं [[दण्डकारण्य]] जा रहा हूँ, इससे आप लोग दुखी होंगे। भोजन के निमित्त बैठने के लिए रखे गये इस आसन से मुझे क्या करना है? अब मेरे लिए कुशा आसन चाहिये, आसन नहीं। निर्जन वन में चौदह वर्षो तक निवास करूँगा। अब मैं कन्द मूल फल से जीविका चलाऊँगा। महाराज युवराज का पद भरत को दे रहे हैं और तपस्वी वेश में मुझे अरण्य भेज रहे है' <ref>वाल्मीकि रामायण(2-20-25-30</ref>।
*'अध्यात्म रामायण' में राम ने इस प्रसंग में कहा है, 'माता मुझे भोजन करने का समय नहीं है, क्योंकि आज मेरे लिए यह समय शीघ्र ही दण्ड कारण्य जाने के लिए निश्चित किया गया है। मेरे सत्य-प्रतिज्ञ पिता ने माता कैकेयी को वर देकर भरत को राज्य और मुझे अतिउत्तम बनवास दिया। वहाँ मुनि वेश में चौदह वर्ष रहकर मैं शीघ्र ही लौट आऊँगा, आप किसी प्रकार की चिन्ता न करें।'<ref>अध्यात्म रामायण(2-4-4-6)</ref>
*'[[अध्यात्म रामायण]]' में राम ने इस प्रसंग में कहा है, 'माता मुझे भोजन करने का समय नहीं है, क्योंकि आज मेरे लिए यह समय शीघ्र ही दण्डकारण्य जाने के लिए निश्चित किया गया है। मेरे सत्य-प्रतिज्ञ पिता ने माता कैकेयी को वर देकर भरत को राज्य और मुझे अति उत्तम वनवास दिया। वहाँ मुनि वेश में चौदह [[वर्ष]] रहकर मैं शीघ्र ही लौट आऊँगा, आप किसी प्रकार की चिन्ता न करें।'<ref>अध्यात्म रामायण(2-4-4-6</ref>
*'रामचरितमानस' में यह प्रसंग इस प्रकार है-
*'रामचरितमानस' में यह प्रसंग इस प्रकार है-
 
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"मातृ वचन सुनि अति अनुकूला। जनु सनेह सुरतरू के फूला।।  
"मातृ वचन सुनि अति अनुकूला। जनु सनेह सुरतरू के फूला।।  


पंक्ति 50: पंक्ति 78:
आयसु देहि मुदित मन माता। जेहिं मुद मंगल कानन जाता।।   
आयसु देहि मुदित मन माता। जेहिं मुद मंगल कानन जाता।।   


जनि सनेह बस डरपति मोरे। आबहुँ अम्ब अनुग्रह तोरे।।'<ref>रामचरितमानस(2-53-3-8)</ref>
जनि सनेह बस डरपति मोरे। आबहुँ अम्ब अनुग्रह तोरे।।'<ref>रामचरितमानस(2-53-3-8</ref>
</poem>
==तुलनात्मक अध्ययन==
==तुलनात्मक अध्ययन==
यहाँ पर दर्शनीय यह है कि तुलसीदास 'वाल्मीकि-रामायण' के राम को ग्रहण न कर 'अध्यात्म रामायण' के राम को ग्रहण किया है। वाल्मीकि के राम में भरत की ओर से अपने स्नेही स्वजनों के सम्बन्ध में जो अनिष्ट की आशंका है, वह 'अध्यात्म रामायण' के राम में नहीं रह गयी है और तुलसीदास के राम में भी नहीं आने पायी है किन्तु इसी प्रसंग में पिता की आज्ञा के प्रति लक्ष्मण के विद्रोह के शब्दों को सुनकर राम ने संसार की अनित्यता और देहादि से आत्मा की भिन्नता का एक लम्बा उपदेश दिया है<ref>रामचरितमानस(2-4-17-44)</ref>, जिस पर उन्होंने माता से नित्य विचार करने के लिए अनुरोध किया है, 'हे मात:! तुम भी मेरे इस कथन पर नित्य विचार करना और मेरे फिर मिलने की प्रतीक्षा करती रहना। तुम्हें अधिक काल तक दु:ख न होगा। कर्म-बन्धन में बँधे हुए जीवों का सदा एक ही साथ रहना-सहना नहीं हुआ करता, जैसे नदी के प्रवाह में पड़कर बहती हुई डोंगियाँ सदा साथ-साथ ही नहीं चलती'<ref>रामचरितमानस(2।4।44-46)</ref>।
यहाँ पर दर्शनीय यह है कि तुलसीदास 'वाल्मीकि-रामायण' के राम को ग्रहण न कर 'अध्यात्म रामायण' के राम को ग्रहण किया है। वाल्मीकि के राम में भरत की ओर से अपने स्नेही स्वजनों के सम्बन्ध में जो अनिष्ट की आशंका है, वह 'अध्यात्म रामायण' के राम में नहीं रह गयी है और तुलसीदास के राम में भी नहीं आने पायी है किन्तु इसी प्रसंग में पिता की आज्ञा के प्रति लक्ष्मण के विद्रोह के शब्दों को सुनकर राम ने संसार की अनित्यता और देहादि से आत्मा की भिन्नता का एक लम्बा उपदेश दिया है<ref>रामचरितमानस(2-4-17-44</ref>, जिस पर उन्होंने माता से नित्य विचार करने के लिए अनुरोध किया है, 'हे मात:! तुम भी मेरे इस कथन पर नित्य विचार करना और मेरे फिर मिलने की प्रतीक्षा करती रहना। तुम्हें अधिक काल तक दु:ख न होगा। कर्म-बन्धन में बँधे हुए जीवों का सदा एक ही साथ रहना-सहना नहीं हुआ करता, जैसे नदी के प्रवाह में पड़कर बहती हुई डोंगियाँ सदा साथ-साथ ही नहीं चलती'<ref>रामचरितमानस(2।4।44-46</ref>।
 
[[चित्र:Ramacharitmansa.jpg|thumb|300px|[[तुलसीदास|तुलसीदास जी]] [[राम|भगवान राम]], [[लक्ष्मण]] और [[हनुमान|हनुमान जी]] को '''रामचारितमानस''' का पाठ सुनाते हुए।|right]]
==व्यावहारिकता==
==व्यावहारिकता==
तुलसीदास इस अध्यात्मवाद की दुहाई न देकर अपने आदर्शवाद को अव्यावहारिक होने से बचा लेते हैं। वे राम को एक धर्म-निष्ठ नायक के रूप में ही चित्रित करते हैं, जो पिता की आज्ञा का पालन करना अपना एक परम पुनीत कर्तव्य समझता है, इसलिए उन्होंने कहा है:
तुलसीदास इस [[अध्यात्मवाद]] की दुहाई न देकर अपने आदर्शवाद को अव्यावहारिक होने से बचा लेते हैं। वे राम को एक धर्म-निष्ठ नायक के रूप में ही चित्रित करते हैं, जो पिता की आज्ञा का पालन करना अपना एक परम पुनीत कर्तव्य समझता है, इसलिए उन्होंने कहा है:<br/ >  <poem>
'धरम धुरीन धरम गतिजानी।<br/ > 
'धरम धुरीन धरम गतिजानी।
कहेउ मातु सन अति मृदु बानी।।'
कहेउ मातु सन अति मृदु बानी।।'</poem>


'''दूसरा प्रसंग'''
'''दूसरा प्रसंग'''


वनवास के दु:ख संवाद को जब राम सीता को सुनाने जाते हैं,  
वनवास के दु:ख संवाद को जब राम सीता को सुनाने जाते हैं,  
*'वाल्मीकीय रामायण' में वे कहते हैं: "मैं निर्जन वन में जाने के लिए प्रस्तुत हुआ हूँ और तुमसे मिलने के लिए यहाँ आया हूँ। तुम भरत के सामने मेरी प्रशंसा न करना, क्योंकि समृद्धिवान् लोग दूसरों की स्तुति नहीं सक सकते, इसलिए भरत के सामने तुम मेरे गुणों का वर्णन न करना।  भरत के आने पर तुम मुझे श्रेष्ठ न बतलाना, ऐसा करना भरत का प्रतिकूलाचरण कहा जायेगा और अनुकूल रहकर ही भरत के पास रहना सम्भव हो सकता है। परम्परागत राज्य राजा ने भरत को ही दिया है: तुमको चाहिये कि तुम उसे प्रसन्न रखों, क्योंकि वह राजा है" <ref>वाल्मीकीय रामायण(2।25।24-27)</ref>
*'वाल्मीकीय रामायण' में वे कहते हैं: "मैं निर्जन वन में जाने के लिए प्रस्तुत हुआ हूँ और तुमसे मिलने के लिए यहाँ आया हूँ। तुम भरत के सामने मेरी प्रशंसा न करना, क्योंकि समृद्धिवान लोग दूसरों की स्तुति नहीं सह सकते, इसलिए भरत के सामने तुम मेरे गुणों का वर्णन न करना।  भरत के आने पर तुम मुझे श्रेष्ठ न बतलाना, ऐसा करना भरत के प्रतिकूल आचरण कहा जायेगा और अनुकूल रहकर ही भरत के पास रहना सम्भव हो सकता है। परम्परागत राज्य राजा ने भरत को ही दिया है: तुमको चाहिये कि तुम उसे प्रसन्न रखो, क्योंकि वह राजा है" <ref>वाल्मीकीय रामायण(2।25।24-27</ref>
*'अध्यात्म रामायण' में इस प्रसंग में राम ने इतना ही कहा है, हे शुभे! मैं शीघ्र ही उसका प्रबन्ध करने के लिए वहाँ जाऊँगा। मैं आज ही वन को जा रहा हूँ। तुम अपनी सासु के पास जाकर उनकी सेवा-शुश्रूषा में रहो। मैं झूठ नहीं बोलता।...हे अनघे! महाराज ने प्रसन्नतापूर्वक कैकयी को वर देकर भरत को राज्य और मुझे वनवास दिया है। देवी कैकेयी ने भरत को राज्य और मुझे वनवास दिया हैं। देवी कैकेयी ने मेरे लिए चौदह वर्ष तक वन में रहना माँगा था, सो सत्यवादी दयालु महाराज ने देना स्वीकार कर लिया है। अत: हे भामिनि! मैं वहाँ शीघ्र ही जाऊँगा, तुम इसमें किसी प्रकार का विघ्न न खड़ा करना।<ref>अध्यात्म रामायण(2. 4-57-62)</ref>
*'अध्यात्म रामायण' में इस प्रसंग में राम ने इतना ही कहा है, हे शुभे! मैं शीघ्र ही उसका प्रबन्ध करने के लिए वहाँ जाऊँगा। मैं आज ही वन को जा रहा हूँ। तुम अपनी सासू के पास जाकर उनकी सेवा-शुश्रुषा में रहो। मैं झूठ नहीं बोलता।...हे अनघे! महाराज ने प्रसन्नतापूर्वक कैकयी को वर देकर भरत को राज्य और मुझे वनवास दिया है। देवी कैकेयी ने भरत को राज्य और मुझे वनवास दिया हैं। देवी कैकेयी ने मेरे लिए चौदह वर्ष तक वन में रहना माँगा था, सो सत्यवादी दयालु महाराज ने देना स्वीकार कर लिया है। अत: हे भामिनि! मैं वहाँ शीघ्र ही जाऊँगा, तुम इसमें किसी प्रकार का विघ्न न खड़ा करना।<ref>अध्यात्म रामायण (2. 4-57-62</ref>
*'रामचरितमानस' में इस प्रकार सीता से विदा लेने गये हुए राम नहीं दिखलाये जाते हैं, इसमें सीता स्वयं कौशल्या के पास उस समय वनवास का समाचार सुनकर आ जाती हैं, जब राम कौशल्या से वन गमन की आज्ञा लेने के लिए आते हैं और सीता की राम के साथ वन जाने की इच्छा समझकर कौशल्या ही राम से उनकी इच्छा का निवेदन करती हैं। 'अध्यात्म रामायण' में ही भरत के प्रति किसी प्रकार की आशंका और सन्देह के भाव राम के मन में नहीं चित्रित किये गये, 'रामचरितमानस' में भी राम के उसी उदार व्यक्तित्व को अंकित किया गया है।
*'रामचरितमानस' में इस प्रकार सीता से विदा लेने गये हुए राम नहीं दिखलाये जाते हैं, इसमें सीता स्वयं कौशल्या के पास उस समय वनवास का समाचार सुनकर आ जाती हैं, जब राम कौशल्या से वन गमन की आज्ञा लेने के लिए आते हैं और सीता की राम के साथ वन जाने की इच्छा समझकर कौशल्या ही राम से उनकी इच्छा का निवेदन करती हैं। 'अध्यात्म रामायण' में ही भरत के प्रति किसी प्रकार की आशंका और सन्देह के भाव राम के मन में नहीं चित्रित किये गये, 'रामचरितमानस' में भी राम के उसी उदार व्यक्तित्व को अंकित किया गया है।
==भरत प्रेम==
==भरत प्रेम==
तुलसीदास राम के चरित्र में भरत प्रेम का एक अद्भुत विकास करते हैं, जो अन्य राम-कथा ग्रन्थों में नहीं मिलता। उदाहरणार्थ-
तुलसीदास राम के चरित्र में भरत प्रेम का एक अद्भुत विकास करते हैं, जो अन्य राम-कथा ग्रन्थों में नहीं मिलता। उदाहरणार्थ-
*चित्रकूट में राम के रहन-सहन का वर्णन करते हुए वे कहते है-  
*चित्रकूट में राम के रहन-सहन का वर्णन करते हुए वे कहते है-  
 
<poem>
"जब-जब राम अवध सुधि करहीं। तब-तब बारि बिलोचन भरहीं।
"जब-जब राम अवध सुधि करहीं। तब-तब बारि बिलोचन भरहीं।  
 
सुमिरि मातु पितु परिजन भाई। भरत सनेह सील सेवकाई।  
सुमिरि मातु पितु परिजन भाई। भरत सनेह सील सेवकाई।  
 
कृपासिन्धु प्रभु होहिं दुखारी। धीरज धरहिं कुसमय बिचारी॥'<ref>रामचरितमानस(2. 141. 3-5</ref>
कृपासिन्धु प्रभु होहिं दुखारी। धीरज धरहिं कुसमय बिचारी' <ref>रामचरितमानस(2. 141. 3-5)</ref>
</poem>
*भरत के आगमन का समाचार सुनकर लक्ष्मण जब राम के अनिष्ट की आशंका से उनके विरुद्ध उत्तेजित हो उठते हैं, राम कहते हैं-
*भरत के आगमन का समाचार सुनकर लक्ष्मण जब राम के अनिष्ट की आशंका से उनके विरुद्ध उत्तेजित हो उठते हैं, राम कहते हैं-
<poem>
'कहीं तात तुम्ह नीति सुनाई। सबतें कठिन राजमद भाई॥
जो अँचवत मातहिं नृपतेई। नाहिंन साधु समाजिहिं सेई॥
सुनहु लषन भल भरत सरीखा। विधि प्रपंच महँ सुना न दीषा॥
भरतहिं होई न राज मद, विधि हरिहर पद पाइ। कबहुँ कि कांजी सीकरनि छीर सिन्धु बिनसाइ॥
तिमिर तरून तरिनिहि मकु गिलई। गगन मगन मकु मेघहि मिलई॥
गोपद जल बूड़ति घट जोनी। सहज क्षमा बरू छाड़इ छोनी॥
मसक फूँक मकु मेरू उड़ाई।  होइ न नृप पद भरतहि भाई॥
लषन तुम्हार सपथ पितु आना। सुचि सुबन्धु नहिं भरत समाना॥
सगुन क्षीर अवगुन जल ताता। मिलइ रचइ परपंच विधाता॥
भरत हंस रवि बंस तड़ागा। जनमि लीन्ह गुन शेष विभागा॥
गहि गुन पय तजि अवगुन बारी। निज जस जगत कीन्ह उजियारी॥
कहत भरत सुन सील सुभाऊ। प्रेम पयोधि मगन रघुराऊ॥"<ref>रामचरितमानस(2,231,6, से 2, 232, 8 तक</ref>
</poem>
*चित्रकूट में भरत की विनय सुनने के लिए किये गये वशिष्ठ के कथन पर राम कह उठते हैं-
<poem>
"गुरु अनुराग भरत पर देखी। राम हृदय आनन्द विसेषी॥
भरतहिं धरम धुरन्धर जानी।। निज सेवक तन मानस बानी॥
बोले गुरु आयसु अनुकूला। बचन मंजु मृदु मंगल मूला॥
नाथ सपथ पितु चरन दोहाई। भयउ न भुवन भरत सन भाई॥
जो गुरु पर अंबुज अनुरागी। ते लोक हूं वेदहुं बड़ भागी॥
लखि लघु बन्धु बुद्धि सकुचाई। करत बदन पर भरत बड़ाई॥
भरत कहहिं सोइ किये भलाई। अस कहि राम रहे अरगाई॥"<ref>रामचरितमानस(2. 249, 1-8</ref>
</poem>
ये तीनों विस्तार मौलिक हैं और 'रामचरितमानस' के पूर्व किसी राम-कथा [[ग्रन्थ]] में नहीं मिलते। भरत के प्रति राम के प्रेम का यह विकास तुलसीदास की विशेषता है और पूरे 'रामचरितमानस' में उन्होंने इसका निर्वाह भली भांति किया है। भरत ननिहाल से लौटते हैं तो कौशल्या से उनसे मिलने के लिए दौड़ पड़ती हैं और उनके स्तनों से दूध की धारा बहने लगती है।<ref>'भरतहि देखि मतु उठि धाई। मुरछित अवनि परी झईं आई॥
<poem>
सरल सुभाय माय हिय लाये। अति हित मनहुँ राम फिर आये॥
भेटउ बहुरि लषन लघु भाई। सोक सनेह न हृदय समाई॥
</poem>
देखि सुभाउ कहत सब कोई। राम मातु अस काहे न होई॥"रामचरितमानस(2,164, 1-2, 165,3</ref>
राम-माता का यह चित्र 'अध्यात्म रामायण' में भी नहीं है, यद्यपि उसमें भरत के प्रति कौसल्या की वह संकीर्ण-हृदयता भी नहीं है, जो 'वाल्मीकि रामायण' में पायी जाती है। 'वाल्मीकि-रामायण' में तो कौशल्या भरत से कहती हैं, 'यह शत्रुहीन राज्य तुम को मिला, तुमने राज्य चाहा और वह तुम्हें मिला। कैकेयी ने बड़े ही निन्दित कर्म के द्वारा इस राज्य को राजा से पाया है.. धन-धान्य से युक्त हाथी, घोड़ों और रथों से पूर्ण यह विशाल राज्य कैकेयी ने राजा से लेकर तुमको दे दिया है।" इस प्रकार अनेक कठोर वचनों से कौशल्या ने भरत का तिरस्कार किया, जिनसे वे घाव में सुई छेदने के समान पीड़ा से दुखी हुए।<ref>वाल्मीकि-रामायण(2, 75, 10-17</ref>


'कहीं तात तुम्ह नीति सुनाई। सबतें कठिन राजमद भाई।।
==रामचरितमानस की लोकप्रियता==
 
इसी प्रकार [[भरत (दशरथ पुत्र)|भरत]], [[सीता]], [[कैकेयी]] और कथा के अन्य प्रमुख पात्रों में भी तुलसीदास ने ऐसे सुधार किये हैं कि वे सर्वथा तुलसीदास के हो गये हैं। इन चरित्रों में मानवता का जो निष्कलुष किन्तु व्यावहारिक रूप प्रस्तुत किया गया है, वह केवल तत्कालीन साहित्य में नहीं आया, तुलसी के पूर्व राम-साहित्य में भी नहीं दिखाई पड़ा। कदाचित इसलिए तुलसीदास के 'रामचरितमानस' ने वह लोकप्रियता प्राप्त की, जो तब से आज तक किसी अन्य कृति को नहीं प्राप्त हो सकी। भविष्य में भी इसकी लोकप्रियता में अधिक अन्तर न आयेगा, दृढ़तापूर्वक यह कहना तो किसी के लिए भी असम्भव होगा किन्तु जिस समय तक मानव जाति आदर्शों और जीवन-मूल्यों में विश्वास रखेगी, 'रामचरितमानस' को सम्मानपूर्वक स्मरण किया जाता रहेगा, यह कहने के लिए कदाचित किसी भविष्यत-वक्ता की आवश्यकता नहीं है।
जो अँचवत मातहिं नृपतेई। नाहिंन साधु समाजिहिं सेई।।
 
सुनहु लषन भल भरत सरीखा। विधि प्रपंच महँ सुना न दीषा।।
 
भरतहिं होई न राज मद, विधि हरिहर पद पाइ। कबहुँ कि कांजी सीकरनि छीर सिन्धु बिनसाइ।।
 
तिमिर तरून तरिनिहि मकु गिलई। गगन मगन मकु मेघहि मिलई।।
 
गोपद जल बूड़ति घट जोनी। सहज क्षमा बरू छाड़इ छोनी।।
 
मसक फूँक मकु मेरू उड़ाई।  होइ नृप पद भरतहि भाई।।
 
लषन तुम्हार सपथ पितु आना। सुचि सुबन्धु नहिं भरत समाना।।
 
सगुन क्षीर अवगुन जल ताता। मिलइ रचइ परपंच विधाता।।
 
भरत हंस रवि बंस तड़ागा। जनमि लीन्ह गुन शेष विभागा।।
 
गहि गुन पय तजि अवगुन बारी। निज जस जगत कीन्ह उजियारी।।
 
कहत भरत सुन सील सुभाऊ। प्रेम पयोधि मगन रघुराऊ।।" <ref>रामचरितमानस(2,231,6, से 2, 232, 8 तक)</ref>
*चित्रकुट में भरत की विनय सुनने के लिए किये गये वशिष्ठ के कथन पर राम कह उठते हैं-  
 
"गुरु अनुराग भरत पर देखी। राम हृदय आनन्द विसेषी।।


भरतहिं धरम धुरन्धर जानी।। निज सेवक तन मानस बानी।।


बोले गुरु आयसु अनुकूला। बचन मंजु मृदु मंगल मूला।।
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक3 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}
 
नाथ सपथ पितु चरन दोहाई। भयउ न भुवन भरत सन भाई।।
 
जो गुरु पर अंबुज अनुरागी। ते लोक हूं वेदहुं बड़ भागी।
 
लखि लघु बन्धु बुद्धि सकुचाई। करत बदन पर भरत बड़ाई।।
 
भरत कहहिं सोइ किये भलाई। अस कहि राम रहे अरगाई।।" <ref>रामचरितमानस(2. 249, 1-8)</ref>ये तीनों विस्तार मौलिक हैं और 'रामचरितमानस' के पूर्व किसी राम-कथा ग्रन्थ में नहीं मिलते। भरत के प्रति राम के प्रेम का यह विकास तुलसीदास की विशेषता है और पूरे 'रामचरितमानस' में उन्होंने इसका निर्वाह भली भांति किया है। भरत ननिहाल से लौटते हैं तो कौशल्या से उनसे मिलने के लिए दौड़ पड़ती हैं और उनके स्तनों से दूध की धारा बहने लगती है।
<ref>'भरतहि देखि मतु उठि धाई। मुरछित अवनि परी झईं आई।।
 
सरल सुभाय माय हिय लाये। अति हित मनहुँ राम फिर आये।।
 
भेटउ बहुरि लषन लघु भाई। सोक सनेह न हृदय समाई।।
 
देखि सुभाउ कहत सब कोई। राम मातु अस काहे न होई।। "रामचरितमानस(2,164, 1-2, 165,3)</ref>
राम-माता का यह चित्र 'अध्यात्म रामायण' में भी नहीं है, यद्यपि उसमें भरत के प्रति कौसल्या की वह संकीर्ण-दृदयता भी नहीं है, जो 'वाल्मीकि रामायण' में पायी जाती है। 'वाल्मीकि-रामायण' में तो कौसल्या भरत से कहती हैं, 'यह शत्रुहीन राज्य तुम को मिला, तुमने राज्य चाहा और वह तुम्हें मिला। कैकेयी ने बड़े ही निन्दित कर्म के द्वारा इस राज्य को राजा से पाया है.. धन-धान्य से युक्त हाथी, घोड़ों और रथों से पूर्ण यह विशाल राज्य कैकेयी ने राजा से लेकर तुमको दे दिया है।" इस प्रकार अनेक कठोर वचनों से कौशल्या ने भरत का तिरस्कार किया, जिनसे वे घाव में सुई छेदने के समान पीड़ा से दुखी हुए।<ref>वाल्मीकि-रामायण(2, 75, 10-17)</ref>
==रामचरितमानस की लोकप्रियता==
इसी प्रकार भरत, सीता, कैकेयी और कथा के अन्य प्रमुख पात्रों में भी तुलसीदास ने ऐसे सुधार किये हैं कि वे सर्वथा तुलसीदास के हो गये हैं। इन चरित्रों में मानवता का जो निष्कलुष किन्तु व्यवहारिक रूप प्रस्तुत किया गया है, वह न केवल तत्कालीन साहित्य में नहीं आया, तुलसी के पूर्व राम-साहित्य में भी नहीं दिखाई पड़ा। कदाचित इसलिए तुलसीदास के 'रामचरितमानस' ने वह लोकप्रियता प्राप्त की, जो तब से आज तक किसी अन्य कृति को नहीं प्राप्त हो सकी। भविष्य में भी इसकी लोकप्रियता में अधिक अन्तर न आयेगा, दृढ़तापूर्वक यह कहना तो किसी के लिए भी असम्भव होगा किन्तु जिस समय तक मानव जाति आदर्शों और जीवन-मूल्यों में विश्वास रखेगी, 'रामचरितमानस' को सम्मानपूर्वक स्मरण किया जाता रहेगा, यह कहने के लिए कदाचित किसी भविष्यत-वक्ता की आवश्यकता नहीं है।


==टीका टिप्पणी और संदर्भ==                                                       
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==                                                       
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==बाहरी कड़ियाँ==
*[http://ramayan.wordpress.com/ श्री रामचरितमानस]
*[http://hindi.webdunia.com/religion/religion/hindu/ramcharitmanas/ श्रीरामचरितमानस]
==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==
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11:23, 5 अगस्त 2020 के समय का अवतरण

रामचरितमानस
रामचरितमानस
रामचरितमानस
कवि गोस्वामी तुलसीदास
मूल शीर्षक रामचरितमानस
मुख्य पात्र राम, सीता, लक्ष्मण, हनुमान, रावण, भरत, शत्रुघ्न
प्रकाशक गीता प्रेस गोरखपुर
देश भारत
भाषा अवधी
शैली चौपाई और दोहा
विषय चरित-काव्य
प्रकार प्रबन्ध काव्य
भाग कुल सात काण्डों में विभाजित
मुखपृष्ठ रचना सजिल्द
संबंधित लेख दोहावली, कवितावली, गीतावली, विनय पत्रिका, हनुमान चालीसा

रामचरितमानस (अंग्रेज़ी:Ramcharitmanas) तुलसीदास की सबसे प्रमुख कृति है। इसकी रचना संवत 1631 ई. की रामनवमी को अयोध्या में प्रारम्भ हुई थी किन्तु इसका कुछ अंश काशी (वाराणसी) में भी निर्मित हुआ था, यह इसके किष्किन्धा काण्ड के प्रारम्भ में आने वाले एक सोरठे से निकलती है, उसमें काशी सेवन का उल्लेख है। इसकी समाप्ति संवत 1633 ई. की मार्गशीर्ष, शुक्ल 5, रविवार को हुई थी किन्तु उक्त तिथि गणना से शुद्ध नहीं ठहरती, इसलिए विश्वसनीय नहीं कही जा सकती। यह रचना अवधी बोली में लिखी गयी है। इसके मुख्य छन्द चौपाई और दोहा हैं, बीच-बीच में कुछ अन्य प्रकार के भी छन्दों का प्रयोग हुआ है। प्राय: 8 या अधिक अर्द्धलियों के बाद दोहा होता है और इन दोहों के साथ कड़वक संख्या दी गयी है। इस प्रकार के समस्त कड़वकों की संख्या 1074 है।

विशेष नोट- सम्पूर्ण रामचरितमानस पढ़ें

रामचरितमानस चरित-काव्य

'रामचरितमानस' एक चरित-काव्य है, जिसमें राम का सम्पूर्ण जीवन-चरित वर्णित हुआ है। इसमें 'चरित' और 'काव्य' दोनों के गुण समान रूप से मिलते हैं। इस काव्य के चरितनायक कवि के आराध्य भी हैं, इसलिए वह 'चरित' और 'काव्य' होने के साथ-साथ कवि की भक्ति का प्रतीक भी है। रचना के इन तीनों रूपों में उसका विवरण इस प्रकार है-

संक्षिप्त कथा

'रामचरितमानस' की कथा संक्षेप में इस प्रकार है-
दक्षों से लंका को जीतकर राक्षसराज रावण वहाँ राज्य करने लगा। उसके अनाचारों-अत्याचारों से पृथ्वी त्रस्त हो गयी और वह देवताओं की शरण में गयी। इन सब ने मिलकर हरि की स्तुति की, जिसके उत्तर में आकाशवाणी हुई कि हरि दशरथ-कौशल्या के पुत्र राम के रूप में अयोध्या में अवतार ग्रहण करेंगे और राक्षसों का नाश कर भूमि-भार हरण करेंगे। इस आश्वासन के अनुसार चैत्र के शुक्ल पक्ष की नवमी को हरि ने कौशल्या के पुत्र के रूप में अवतार धारण किया। दशरथ की दो रानियाँ और थीं- कैकेयी और सुमित्रा। उनसे दशरथ के तीन और पुत्रों-भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न ने जन्म ग्रहण किया।

गोस्वामी तुलसीदास

विश्वामित्र के आश्रम में राम

इस समय राक्षसों का अत्याचार उत्तर भारत में भी कुछ क्षेत्रों में प्रारम्भ हो गया था, जिसके कारण मुनि विश्वामित्र यज्ञ नहीं कर पा रहे थे। उन्हें जब यह ज्ञात हुआ कि दशरथ के पुत्र राम के रूप में हरि अवतरित हुए हैं, वे अयोध्या आये और जब राम बालक ही थे, उन्होंने राक्षसों के दमन के लिए दशरथ से राम की याचना की। राम तथा लक्ष्मण की सहायता से उन्होंने अपना यज्ञ पूरा किया। इन उपद्रवकारी राक्षसों में से एक सुबाहु था, जो मारा गया और दूसरा मारीच था, जो राम के बाणों से आहत होकर सौ योजन की दूरी पर समुद्र के पार चला गया। जिस समय राम-लक्ष्मण विश्वामित्र के आश्रम में रह रहे थे, मिथिला में धनुर्यज्ञ का आयोजन किया गया था, जिसके लिए मुनि को निमन्त्रण प्राप्त हुआ। अत: मुनि राम-लक्ष्मण को लेकर मिथिला गये। मिथिला के राजा जनक ने देश-विदेश के समस्त राजाओं को अपनी पुत्री सीता के स्वयंवर हेतु आमन्त्रित किया था। रावण और बाणासुर जैसे बलशाली राक्षस नरेश भी इस आमन्त्रण पर वहाँ गये थे किन्तु अपने को इस कार्य के लिए असमर्थ मानकर लौट चुके थे। दूसरे राजाओं ने सम्मिलित होकर भी इसे तोड़ने का प्रयत्न किया, किन्तु वे अकृत कार्य रहे। राम ने इसे सहज ही तोड़ दिया और सीता का वरण किया। विवाह के अवसर पर अयोध्या निमन्त्रण भेजा गया। दशरथ अपने शेष पुत्रों के साथ बारात लेकर मिथिला आये और विवाह के अनन्तर अपने चारों पुत्रों को लेकर अयोध्या लौटे।

कैकेयी और कोपभवन

दशरथ की अवस्था धीरे-धीरे ढलने लगी थी, इसलिए उन्होंने राम को अपना युवराज पद देना चाहा। संयोग से इस समय कैकेयी-पुत्र भरत सुमित्रा-पुत्र शत्रुघ्न के साथ ननिहाल गये हुए थे। कैकेयी की एक दासी मन्थरा को जब यह समाचार ज्ञात हुआ, उसने कैकेयी को सुनाया। पहले तो कैकेयी ने यह कहकर उसका अनुमोदन किया कि पिता के अनेक पुत्रों में से ज्येष्ठ पुत्र ही राज्य का अधिकारी होता है, यह उसके राजकुल की परम्परा है किन्तु मन्थरा के यह सुझाने पर कि भरत की अनुपस्थिति में जो यह आयोजन किया जा रहा है, उसमें कोई दुरभि-सन्धि है, कैकेयी ने उस आयोजन को विफल बनाने का निश्चय किया और कोप भवन में चली गयी। तदनन्तर उसने दशरथ से, उनके मनाने पर, दो वर देने के लिए वचन; एक से राम के लिए 14 वर्षों का वनवास और दूसरे से भरत के लिए युवराज पद माँग लिये। इनमें से प्रथम वचन के अनुसार राम ने वन के लिए प्रस्थान किया तो उनके साथ सीता और लक्ष्मण ने भी वन के लिए प्रस्थान किया।
कुछ ही दिनों बाद जब दशरथ ने राम के विरह में शरीर त्याग दिया, भरत ननिहाल से बुलाये गये और उन्हें अयोध्या का सिंहासन दिया गया, किन्तु भरत ने उसे स्वीकार नहीं किया और वे राम को वापस लाने के लिए चित्रकूट जा पहुँचे, जहाँ उस समय राम निवास कर रहे थे किन्तु राम ने लौटना स्वीकार न किया। भरत के अनुरोध पर उन्होंने अपनी चरण-पादुकाएँ उन्हें दे दीं, जिन्हें अयोध्या लाकर भरत ने सिंहासन पर रखा और वे राज्य का कार्य देखने लगे। चित्रकूट से चलकर राम दक्षिण के जंगलों की ओर बढ़े। जब वे पंचवटी में निवास कर रहे थे रावण की एक भगिनी शूर्पणखा एक मनोहर रूप धारण कर वहाँ आयी और राम के सौन्दर्य पर मुग्ध होकर उनसे विवाह का प्रस्ताव किया। राम ने जब इसे अस्वीकार किया तो उसने अपना भयंकर रूप प्रकट किया। यह देखकर राम के संकेतों से लक्ष्मण ने उसके नाक-कान काट लिये। इस प्रकार कुरूप की हुई शूर्पणखा अपने भाइयों-खर और दूषण के पास गयी और उन्हें राम से युद्ध करने को प्रेरित किया। खर-दूषण ने अपनी सेना लेकर राम पर आक्रमण कर दिया किन्तु वे अपनी समस्त सेना के साथ युद्ध में मारे गये। तदनन्तर शूर्पणखा रावण के पास गयी और उसने उसे सारी घटना सुनायी। रावण ने मारीच की सहायता से, जिसे विश्वामित्र के आश्रम में राम ने युद्ध में आहत किया था, सीता का हरण किया, जिसके परिणामस्वरूप राम को रावण से युद्ध करना पड़ा।

राम और रावण युद्ध

इस परिस्थिति में राम ने किष्किन्धा के वानरों की सहायता ली और रावण पर आक्रमण कर दिया। इस आक्रमण के साथ रावण का भाई विभीषण भी आकर राम के साथ हो गया। राम ने अंगद नाम के वानर को रावण के पास दूत के रूप में अन्तिम बार सावधान करने के लिए भेजा कि वह सीता को लौटा दे, किन्तु रावण ने अपने अभिमान के बल से इसे स्वीकार नहीं किया और राम तथा रावण के दलों में युद्ध छिड़ गया। उस महायुद्ध में रावण तथा उसके बन्धु-बान्धव मारे गये। तदनन्तर लंका का राज्य उसके भाई विभीषण को देकर सीता को साथ लेकर राम और लक्ष्मण अयोध्या वापस आये। राम का राज्याभिषेक किया गया और दीर्घकाल तक उन्होंने प्रजारंजन करते हुए शासन किया। इस मूल कथा के पूर्व 'रामचरितमानस' में रावण के कुछ पूर्वभवों की तथा राम के कुछ पूर्ववर्ती अवतारों की कथाएँ हैं, जो संक्षेप में दी गयी है। कथा के अन्त में गरुड़ और काग भुशुण्डि का एक विस्तृत संवाद है, जिसमें अनेक प्रकार के आध्यात्मिक विषयों का विवेचन हुआ है। कथा के प्रारम्भ होने के पूर्व शिव-चरित्र, शिव-पार्वती संवाद, याज्ञवलक्य-भारद्वाज संवाद तथा काग भुशुण्डि-गरुड़ संवाद के रूप में कथा की भूमिकाएँ हैं। और उनके भी पूर्व कवि की भूमिका और प्रस्तावना है।

रामचरितमानस

'चरित' की दृष्टि से यह रचना पर्याप्त सफल हुई है। इसमें राम के जीवन की समस्त घटनाएँ आवश्यक विस्तार के साथ एक पूर्वाकार की कथाओं से लेकर राम के राज्य-वर्णन तक कवि ने कोई भी प्रासंगिक कथा रचना में नहीं आने दी है। इस सम्बन्ध में यदि वाल्मीकीय तथा अन्य अधिकतर राम-कथा ग्रन्थों से 'रामचरितमानस' की तुलना की जाय तो तुलसीदास की विशेषता प्रमाणित होगी। अन्य रामकथा ग्रन्थों में बीच-बीच में कुछ प्रासंगिक कथाएँ देखकर अनेक क्षेपककारों ने 'रामचरितमानस' में प्रक्षिप्त प्रसंग रखे और कथाएँ मिलायीं, किन्तु राम-कथा के पाठकों ने उन्हें स्वीकार नहीं किया और वे रचना को मूल रूप में ही पढ़ते और उसका पारायण करते हैं। चरित-काव्यों की एक बड़ी विशेषता उनकी सहज और प्रयासहीन शैली मानी गयी है, और इस दृष्टि से 'मानस' एक अत्यन्त सफल चरित है। रचना भर में तुलसीदास ने कहीं भी अपना काव्य कौशल, अपना पाण्डित्य, अपनी बहुज्ञता आदि के प्रदर्शन का कोई प्रयास नहीं किया है। सर्वत्र वे अपने वर्ण्य विषय में इतने तन्मय रहे हैं कि उन्हें अपना ध्यान नहीं रहा। रचना को पढ़कर ऐसा लगता है कि राम के चरित ने ही उन्हें वह वाणी प्रदान की है, जिसके द्वारा वे सुन्दर कृति का निर्माण कर सके।

उत्कृष्ट महाकाव्य

'काव्य' की दृष्टि से 'रामचरितमानस' एक अति उत्कृष्ट महाकाव्य है। भारतीय साहित्य-शास्त्र में 'महाकाव्य' के जितने लक्षण दिये गये हैं, वे उसमें पूर्ण रूप से पाये जाते हैं।

  • कथा-प्रबन्ध का सर्गबद्ध होना ,
  • उच्चकुल सम्भूत धीरोदात्त नायक का होना,
  • श्रृंगार, शान्त और वीर रसों में से किसी एक का उसका लक्ष्य होना आदि सभी लक्षण उसमें मिलते हैं। पाश्चात्य साहित्यालोचन में 'इपिक' की जो विभिन्न आवश्यकताएँ बतलायी गयी हैं, यथा- उसकी कथा का किसी गौरवपूर्ण अतीत से सम्बद्ध होना, अतिप्राकृत शक्तियों का उसकी कथा में भाग लेना, कथा के अन्त में किन्हीं आदर्शों की विजय का चित्रित होना आदि, सभी 'रामचरितमानस' में पाई जाती हैं। इस प्रकार किसी भी दृष्टि से देखा जाय तो 'रामचरितमानस' एक अत्यन्त उत्कृष्ट महाकाव्य ठहरता है। मुख्यत: यही कारण है कि संसार की महान् कृतियों में इसे भी स्थान मिला है।

रामचरितमानस में छन्दों की संख्या

रामचरितमानस में विविध छन्दों की संख्या निम्नवत है-

  • चौपाई – 9388
  • दोहा – 1172
  • सोरठा –87
  • श्लोक – 47 (अनुष्टुप्, शार्दूलविक्रीडित, वसन्ततिलका, वंशस्थ, उपजाति, प्रमाणिका, मालिनी, स्रग्धरा, रथोद्धता, भुजङ्गप्रयात, तोटक)
  • छन्द – 208 (हरिगीतिका, चौपैया, त्रिभङ्गी, तोमर)
  • कुल 10902 (चौपाई, दोहा, सोरठा, श्लोक, छन्द)[1]

तुलसीदास की भक्ति

तुलसीदास की भक्ति की अभिव्यक्ति भी इसमें अत्यन्त विशद रूप में हुई है। अपने आराध्य के सम्बन्ध में उन्होंने 'रामचरितमानस' और विनय-पत्रिका' में अनेक बार कहा है कि उनके राम का चरित्र ही ऐसा है कि जो एक बार उसे सुन लेता है, वह अनायास उनका भक्त हो जाता है। वास्तव में तुलसीदास ने अपने आराध्य के चरित्र की ऐसी ही कल्पना की है। यही कारण है कि इसने समस्त उत्तरी भारत पर सदियों से अपना अद्भुत प्रभाव डाल रखा है और यहाँ के आध्यात्मिक जीवन का निर्माण किया है। घर-घर में 'रामचरितमानस' का पाठ पिछली साढ़े तीन शताब्दियों से बराबर होता आ रहा है। और इसे एक धर्म ग्रन्थ के रूप में देखा जाता है। इसके आधार पर गाँव-गाँव में प्रतिवर्ष रामलीलाओं का भी आयोजन किया जाता है। फलत: जैसा विदेशी विद्वानों ने भी स्वीकार किया है। उत्तरी भारत का यह सबसे लोकप्रिय ग्रन्थ है और इसने जीवन के समस्त क्षेत्रों में उच्चाशयता लाने में सफलता प्राप्त की है।

लोकप्रिय ग्रन्थ

यहाँ पर स्वभावत: यह प्रश्न उठता है कि तुलसीदास ने राम तथा उनके भक्तों के चरित्र में ऐसी कौन-सी विलक्षणता उपस्थित की है, जिससे उनकी इस कृति को इतनी अधिक लोकप्रियता प्राप्त हुई है। तुलसीदास की इस रचना में अनेक दुर्लभ गुण हैं किन्तु कदाचित अपने जिस महान् गुण के कारण इसने यह असाधारण सम्मान प्राप्त किया है, वह है ऐसी मानवता की कल्पना, जिसमें उदारता, क्षमा, त्याग, निवैरता, धैर्य और सहनशीलता आदि सामाजिक शिवत्व के गुण अपनी पराकाष्ठा के साथ मिलते हों और फिर भी जो अव्यावहारिक न हों। 'रामचरितमानस' के सर्वप्रमुख चरित्र-राम, भरत, सीता आदि इसी प्रकार के हैं। उदाहरण के लिए राम और कौशल्या के चरित्रों को देखते हैं-

  • 'वाल्मीकि रामायण' में राम जब वनवास का दु:संवाद सुनाने कौशल्या के पास आते हैं, वे कहते हैं: 'देवि, आप जानती नहीं हैं, आपके लिए, सीता के लिए और लक्ष्मण के लिए बड़ा भय आया है, इससे आप लोग दु:खी होंगे। अब मैं दण्डकारण्य जा रहा हूँ, इससे आप लोग दुखी होंगे। भोजन के निमित्त बैठने के लिए रखे गये इस आसन से मुझे क्या करना है? अब मेरे लिए कुशा आसन चाहिये, आसन नहीं। निर्जन वन में चौदह वर्षो तक निवास करूँगा। अब मैं कन्द मूल फल से जीविका चलाऊँगा। महाराज युवराज का पद भरत को दे रहे हैं और तपस्वी वेश में मुझे अरण्य भेज रहे है' [2]
  • 'अध्यात्म रामायण' में राम ने इस प्रसंग में कहा है, 'माता मुझे भोजन करने का समय नहीं है, क्योंकि आज मेरे लिए यह समय शीघ्र ही दण्डकारण्य जाने के लिए निश्चित किया गया है। मेरे सत्य-प्रतिज्ञ पिता ने माता कैकेयी को वर देकर भरत को राज्य और मुझे अति उत्तम वनवास दिया। वहाँ मुनि वेश में चौदह वर्ष रहकर मैं शीघ्र ही लौट आऊँगा, आप किसी प्रकार की चिन्ता न करें।'[3]
  • 'रामचरितमानस' में यह प्रसंग इस प्रकार है-

"मातृ वचन सुनि अति अनुकूला। जनु सनेह सुरतरू के फूला।।

सुख मकरन्द भरे श्रिय मूला। निरखि राम मन भंवरू न भूला।।

धरम धुरीन धरम गनि जानी। कहेउ मातृ सन अमृत वानी।।

पिता दीन्ह मोहिं कानन राजू। जहँ सब भाँति मोर बड़ काजू।।

आयसु देहि मुदित मन माता। जेहिं मुद मंगल कानन जाता।।

जनि सनेह बस डरपति मोरे। आबहुँ अम्ब अनुग्रह तोरे।।'[4]

तुलनात्मक अध्ययन

यहाँ पर दर्शनीय यह है कि तुलसीदास 'वाल्मीकि-रामायण' के राम को ग्रहण न कर 'अध्यात्म रामायण' के राम को ग्रहण किया है। वाल्मीकि के राम में भरत की ओर से अपने स्नेही स्वजनों के सम्बन्ध में जो अनिष्ट की आशंका है, वह 'अध्यात्म रामायण' के राम में नहीं रह गयी है और तुलसीदास के राम में भी नहीं आने पायी है किन्तु इसी प्रसंग में पिता की आज्ञा के प्रति लक्ष्मण के विद्रोह के शब्दों को सुनकर राम ने संसार की अनित्यता और देहादि से आत्मा की भिन्नता का एक लम्बा उपदेश दिया है[5], जिस पर उन्होंने माता से नित्य विचार करने के लिए अनुरोध किया है, 'हे मात:! तुम भी मेरे इस कथन पर नित्य विचार करना और मेरे फिर मिलने की प्रतीक्षा करती रहना। तुम्हें अधिक काल तक दु:ख न होगा। कर्म-बन्धन में बँधे हुए जीवों का सदा एक ही साथ रहना-सहना नहीं हुआ करता, जैसे नदी के प्रवाह में पड़कर बहती हुई डोंगियाँ सदा साथ-साथ ही नहीं चलती'[6]

तुलसीदास जी भगवान राम, लक्ष्मण और हनुमान जी को रामचारितमानस का पाठ सुनाते हुए।

व्यावहारिकता

तुलसीदास इस अध्यात्मवाद की दुहाई न देकर अपने आदर्शवाद को अव्यावहारिक होने से बचा लेते हैं। वे राम को एक धर्म-निष्ठ नायक के रूप में ही चित्रित करते हैं, जो पिता की आज्ञा का पालन करना अपना एक परम पुनीत कर्तव्य समझता है, इसलिए उन्होंने कहा है:

'धरम धुरीन धरम गतिजानी।
कहेउ मातु सन अति मृदु बानी।।'

दूसरा प्रसंग

वनवास के दु:ख संवाद को जब राम सीता को सुनाने जाते हैं,

  • 'वाल्मीकीय रामायण' में वे कहते हैं: "मैं निर्जन वन में जाने के लिए प्रस्तुत हुआ हूँ और तुमसे मिलने के लिए यहाँ आया हूँ। तुम भरत के सामने मेरी प्रशंसा न करना, क्योंकि समृद्धिवान लोग दूसरों की स्तुति नहीं सह सकते, इसलिए भरत के सामने तुम मेरे गुणों का वर्णन न करना। भरत के आने पर तुम मुझे श्रेष्ठ न बतलाना, ऐसा करना भरत के प्रतिकूल आचरण कहा जायेगा और अनुकूल रहकर ही भरत के पास रहना सम्भव हो सकता है। परम्परागत राज्य राजा ने भरत को ही दिया है: तुमको चाहिये कि तुम उसे प्रसन्न रखो, क्योंकि वह राजा है" [7]
  • 'अध्यात्म रामायण' में इस प्रसंग में राम ने इतना ही कहा है, हे शुभे! मैं शीघ्र ही उसका प्रबन्ध करने के लिए वहाँ जाऊँगा। मैं आज ही वन को जा रहा हूँ। तुम अपनी सासू के पास जाकर उनकी सेवा-शुश्रुषा में रहो। मैं झूठ नहीं बोलता।...हे अनघे! महाराज ने प्रसन्नतापूर्वक कैकयी को वर देकर भरत को राज्य और मुझे वनवास दिया है। देवी कैकेयी ने भरत को राज्य और मुझे वनवास दिया हैं। देवी कैकेयी ने मेरे लिए चौदह वर्ष तक वन में रहना माँगा था, सो सत्यवादी दयालु महाराज ने देना स्वीकार कर लिया है। अत: हे भामिनि! मैं वहाँ शीघ्र ही जाऊँगा, तुम इसमें किसी प्रकार का विघ्न न खड़ा करना।[8]
  • 'रामचरितमानस' में इस प्रकार सीता से विदा लेने गये हुए राम नहीं दिखलाये जाते हैं, इसमें सीता स्वयं कौशल्या के पास उस समय वनवास का समाचार सुनकर आ जाती हैं, जब राम कौशल्या से वन गमन की आज्ञा लेने के लिए आते हैं और सीता की राम के साथ वन जाने की इच्छा समझकर कौशल्या ही राम से उनकी इच्छा का निवेदन करती हैं। 'अध्यात्म रामायण' में ही भरत के प्रति किसी प्रकार की आशंका और सन्देह के भाव राम के मन में नहीं चित्रित किये गये, 'रामचरितमानस' में भी राम के उसी उदार व्यक्तित्व को अंकित किया गया है।

भरत प्रेम

तुलसीदास राम के चरित्र में भरत प्रेम का एक अद्भुत विकास करते हैं, जो अन्य राम-कथा ग्रन्थों में नहीं मिलता। उदाहरणार्थ-

  • चित्रकूट में राम के रहन-सहन का वर्णन करते हुए वे कहते है-

"जब-जब राम अवध सुधि करहीं। तब-तब बारि बिलोचन भरहीं।
सुमिरि मातु पितु परिजन भाई। भरत सनेह सील सेवकाई।
कृपासिन्धु प्रभु होहिं दुखारी। धीरज धरहिं कुसमय बिचारी॥'[9]

  • भरत के आगमन का समाचार सुनकर लक्ष्मण जब राम के अनिष्ट की आशंका से उनके विरुद्ध उत्तेजित हो उठते हैं, राम कहते हैं-

'कहीं तात तुम्ह नीति सुनाई। सबतें कठिन राजमद भाई॥
जो अँचवत मातहिं नृपतेई। नाहिंन साधु समाजिहिं सेई॥
सुनहु लषन भल भरत सरीखा। विधि प्रपंच महँ सुना न दीषा॥
भरतहिं होई न राज मद, विधि हरिहर पद पाइ। कबहुँ कि कांजी सीकरनि छीर सिन्धु बिनसाइ॥
तिमिर तरून तरिनिहि मकु गिलई। गगन मगन मकु मेघहि मिलई॥
गोपद जल बूड़ति घट जोनी। सहज क्षमा बरू छाड़इ छोनी॥
मसक फूँक मकु मेरू उड़ाई। होइ न नृप पद भरतहि भाई॥
लषन तुम्हार सपथ पितु आना। सुचि सुबन्धु नहिं भरत समाना॥
सगुन क्षीर अवगुन जल ताता। मिलइ रचइ परपंच विधाता॥
भरत हंस रवि बंस तड़ागा। जनमि लीन्ह गुन शेष विभागा॥
गहि गुन पय तजि अवगुन बारी। निज जस जगत कीन्ह उजियारी॥
कहत भरत सुन सील सुभाऊ। प्रेम पयोधि मगन रघुराऊ॥"[10]

  • चित्रकूट में भरत की विनय सुनने के लिए किये गये वशिष्ठ के कथन पर राम कह उठते हैं-

"गुरु अनुराग भरत पर देखी। राम हृदय आनन्द विसेषी॥
भरतहिं धरम धुरन्धर जानी।। निज सेवक तन मानस बानी॥
बोले गुरु आयसु अनुकूला। बचन मंजु मृदु मंगल मूला॥
नाथ सपथ पितु चरन दोहाई। भयउ न भुवन भरत सन भाई॥
जो गुरु पर अंबुज अनुरागी। ते लोक हूं वेदहुं बड़ भागी॥
लखि लघु बन्धु बुद्धि सकुचाई। करत बदन पर भरत बड़ाई॥
भरत कहहिं सोइ किये भलाई। अस कहि राम रहे अरगाई॥"[11]

ये तीनों विस्तार मौलिक हैं और 'रामचरितमानस' के पूर्व किसी राम-कथा ग्रन्थ में नहीं मिलते। भरत के प्रति राम के प्रेम का यह विकास तुलसीदास की विशेषता है और पूरे 'रामचरितमानस' में उन्होंने इसका निर्वाह भली भांति किया है। भरत ननिहाल से लौटते हैं तो कौशल्या से उनसे मिलने के लिए दौड़ पड़ती हैं और उनके स्तनों से दूध की धारा बहने लगती है।[12] राम-माता का यह चित्र 'अध्यात्म रामायण' में भी नहीं है, यद्यपि उसमें भरत के प्रति कौसल्या की वह संकीर्ण-हृदयता भी नहीं है, जो 'वाल्मीकि रामायण' में पायी जाती है। 'वाल्मीकि-रामायण' में तो कौशल्या भरत से कहती हैं, 'यह शत्रुहीन राज्य तुम को मिला, तुमने राज्य चाहा और वह तुम्हें मिला। कैकेयी ने बड़े ही निन्दित कर्म के द्वारा इस राज्य को राजा से पाया है.. धन-धान्य से युक्त हाथी, घोड़ों और रथों से पूर्ण यह विशाल राज्य कैकेयी ने राजा से लेकर तुमको दे दिया है।" इस प्रकार अनेक कठोर वचनों से कौशल्या ने भरत का तिरस्कार किया, जिनसे वे घाव में सुई छेदने के समान पीड़ा से दुखी हुए।[13]

रामचरितमानस की लोकप्रियता

इसी प्रकार भरत, सीता, कैकेयी और कथा के अन्य प्रमुख पात्रों में भी तुलसीदास ने ऐसे सुधार किये हैं कि वे सर्वथा तुलसीदास के हो गये हैं। इन चरित्रों में मानवता का जो निष्कलुष किन्तु व्यावहारिक रूप प्रस्तुत किया गया है, वह न केवल तत्कालीन साहित्य में नहीं आया, तुलसी के पूर्व राम-साहित्य में भी नहीं दिखाई पड़ा। कदाचित इसलिए तुलसीदास के 'रामचरितमानस' ने वह लोकप्रियता प्राप्त की, जो तब से आज तक किसी अन्य कृति को नहीं प्राप्त हो सकी। भविष्य में भी इसकी लोकप्रियता में अधिक अन्तर न आयेगा, दृढ़तापूर्वक यह कहना तो किसी के लिए भी असम्भव होगा किन्तु जिस समय तक मानव जाति आदर्शों और जीवन-मूल्यों में विश्वास रखेगी, 'रामचरितमानस' को सम्मानपूर्वक स्मरण किया जाता रहेगा, यह कहने के लिए कदाचित किसी भविष्यत-वक्ता की आवश्यकता नहीं है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीरामचरितमानस में छन्द (हिन्दी) (html) श्री रामचरित (RamCharit.in)। अभिगमन तिथि: 19 मई, 2016।
  2. वाल्मीकि रामायण(2-20-25-30
  3. अध्यात्म रामायण(2-4-4-6
  4. रामचरितमानस(2-53-3-8
  5. रामचरितमानस(2-4-17-44
  6. रामचरितमानस(2।4।44-46
  7. वाल्मीकीय रामायण(2।25।24-27
  8. अध्यात्म रामायण (2. 4-57-62
  9. रामचरितमानस(2. 141. 3-5
  10. रामचरितमानस(2,231,6, से 2, 232, 8 तक
  11. रामचरितमानस(2. 249, 1-8
  12. 'भरतहि देखि मतु उठि धाई। मुरछित अवनि परी झईं आई॥

    सरल सुभाय माय हिय लाये। अति हित मनहुँ राम फिर आये॥
    भेटउ बहुरि लषन लघु भाई। सोक सनेह न हृदय समाई॥

    देखि सुभाउ कहत सब कोई। राम मातु अस काहे न होई॥"रामचरितमानस(2,164, 1-2, 165,3

  13. वाल्मीकि-रामायण(2, 75, 10-17

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