"भारतीय परिषद अधिनियम- 1861": अवतरणों में अंतर
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इस अधिनियम के द्वारा भारतीयों के असन्तोष में वृद्धि हुई, भारतीय जनता को वास्तविक प्रतिनिधित्व नहीं प्राप्त हो सका और विधान परिषद के अधिकार अत्यन्त सीमित हो गये। विधान परिषद का कार्य केवल क़ानून बनाना था। [[गवर्नर-जनरल]] को संकट कालीन अवस्था में विधान परिषद की अनुमति के बिना ही अध्यादेश जारी करने की अनुमति थी। यह अध्यादेश अधिकतम छ: [[माह]] तक ही लागू रह सकता था। विधान परिषदों में राजा, महाराजा या ज़मींदार की ही नियुक्ति की जाती थी। इस अधिनियम द्वारा विकेन्द्रीकरण की नीति को प्रोत्साहन मिला। अनेक अच्छाइयों एवं बुराइयों को लिए हुए इस अधिनियम के बारे में यह कहना | इस अधिनियम के द्वारा भारतीयों के असन्तोष में वृद्धि हुई, भारतीय जनता को वास्तविक प्रतिनिधित्व नहीं प्राप्त हो सका और विधान परिषद के अधिकार अत्यन्त सीमित हो गये। विधान परिषद का कार्य केवल क़ानून बनाना था। [[गवर्नर-जनरल]] को संकट कालीन अवस्था में विधान परिषद की अनुमति के बिना ही अध्यादेश जारी करने की अनुमति थी। यह अध्यादेश अधिकतम छ: [[माह]] तक ही लागू रह सकता था। विधान परिषदों में राजा, महाराजा या ज़मींदार की ही नियुक्ति की जाती थी। इस अधिनियम द्वारा विकेन्द्रीकरण की नीति को प्रोत्साहन मिला। अनेक अच्छाइयों एवं बुराइयों को लिए हुए इस अधिनियम के बारे में यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि इसने भावी विकास एवं संवैधानिक प्रगति के मार्ग को प्रशस्त किया। | ||
07:55, 6 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण
भारतीय परिषद अधिनियम (1861) भारत के संवैधानिक इतिहास की एक युगांतकारी तथा महत्त्वपूर्ण घटना है। यह मुख्य रूप से दो कारणों से विशेष है। एक तो यह कि इसने गवर्नर-जनरल को अपनी विस्तारित परिषद में भारतीय जनता के प्रतिनिधियों को नामजद करके उन्हें विधायी कार्य से संबद्ध करने का अधिकार प्रदान दिया तथा दूसरा यह कि इसने गवर्नर-जनरल की परिषद की विधायी शक्तियों का विकेन्द्रीकरण कर दिया, जिससे बम्बई और मद्रास की सरकारों को भी विधायी शक्ति प्रदान की गयी।
पारित समय
वर्ष 1858 ई. का अधिनियम अपनी कसौटी पर पूर्णतः खरा नहीं उतर सका, जिसके परिणामस्वरूप 3 वर्ष बाद ही 1861 ई. में ब्रिटिश संसद ने 'भारतीय परिषद अधिनियम' पारित किया। यह पहला ऐसा अधिनियम था, जिसमें 'विभागीय प्रणाली' एवं 'मंत्रिमण्डलीय प्रणाली' की नींव रखी गयी थी। पहली बार विधि निर्माण कार्य में भारतीयों का सहयोग लेने का प्रयास किया गया।
विशेषताएँ
'भारतीय परिषद अधिनियम' की निम्नलिखित विशेषताएँ थीं-
- वायसराय की परिषद में एक सदस्य और बढ़ा कर सदस्यों की संख्या 5 कर दी गयी। 5वाँ सदस्य विधि विशेषज्ञ होता था।
- क़ानून निर्माण के लिए वायसराय की काउन्सिल में कम से कम 6 एवं अधिकतम 12 अतिरिक्त सदस्यों की नियुक्ति का अधिकार वायसराय को दिया गया। इन सदस्यों का कार्यकाल 2 वर्ष का होता था।
- गैर सरकारी सदस्यों में कुछ उच्च श्रेणी के थे, पर भरतीय सदस्यों की नियुक्ति के प्रति वायसराय बाध्य नहीं था, किन्तु व्यवहार में कुछ गैर सरकारी सदस्य 'उच्च श्रेणी के भारतीय' थे। इस परिषद का कार्य क्षेत्र क़ानून निर्माण तक ही सीमित था।
- इस अधिनियम की व्यवस्था के अनुसार बम्बई (वर्तमान मुम्बई) एवं मद्रास (वर्तमान चेन्नई) प्रान्तों को विधि निर्माण एवं उनमें संशोधन का अधिकार पुनः प्रदान कर दिया गया, किन्तु इनके द्वारा निर्मित क़ानून तभी वैध माने जाते थे, जब उन्हें वायसराय वैध ठहराता था।
- वायसराय को प्रान्तों में विधान परिषद की स्थापना का तथा लेफ़्टीनेन्ट गवर्नर की नियुक्ति का अधिकार प्राप्त हो गया।
भारतीयों का असंतोष
इस अधिनियम के द्वारा भारतीयों के असन्तोष में वृद्धि हुई, भारतीय जनता को वास्तविक प्रतिनिधित्व नहीं प्राप्त हो सका और विधान परिषद के अधिकार अत्यन्त सीमित हो गये। विधान परिषद का कार्य केवल क़ानून बनाना था। गवर्नर-जनरल को संकट कालीन अवस्था में विधान परिषद की अनुमति के बिना ही अध्यादेश जारी करने की अनुमति थी। यह अध्यादेश अधिकतम छ: माह तक ही लागू रह सकता था। विधान परिषदों में राजा, महाराजा या ज़मींदार की ही नियुक्ति की जाती थी। इस अधिनियम द्वारा विकेन्द्रीकरण की नीति को प्रोत्साहन मिला। अनेक अच्छाइयों एवं बुराइयों को लिए हुए इस अधिनियम के बारे में यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि इसने भावी विकास एवं संवैधानिक प्रगति के मार्ग को प्रशस्त किया।
इन्हें भी देखें: भारत का संवैधानिक विकास
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