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==नाम की उत्पत्ति==
==नाम की उत्पत्ति==
भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के पूर्वी भाग को बेहिचक सन्तों की कर्मभूमि कहा जा सकता है । इसी भाग के प्रमुख शहर गोरखपुर के पश्चिम में लगभग तीस किलोमीटर दूर संत कबीर नगर जिला (5 सितम्बर 1997 में बस्ती जिला को तोड़ कर बना) में स्थित है मगहर । मगहर नाम के पीछे किंवदन्ती भी रोचक है । कहा जाता है कि प्राचीन काल में बौध्द भिक्षु इसी मार्ग से कपिलवस्तु, लुम्बिनी जैसे प्रसिध्द बौध्द स्थलों के दर्शन हेतु जाते थे पर अक्सर लूट लिए जाते थे । इस असुरक्षित रहे क्षेत्र का नाम इसी वजह से 'मार्ग-हर' अर्थात 'मार्ग में लूटने वाले से' पङ ग़या जो बिगड़ते-बिगडते मगहर हो गया । कस्बे के एक छोर पर आमी नदी बहती है ।
{{tocright}}
[[भारत]] के उत्तर प्रदेश राज्य के पूर्वी भाग को बेहिचक सन्तों की कर्मभूमि कहा जा सकता है। इसी भाग के प्रमुख शहर [[गोरखपुर]] के पश्चिम में लगभग तीस किलोमीटर दूर [[संत कबीर नगर ज़िला]] (5 सितम्बर 1997 में बस्ती ज़िला को तोड़ कर बना) में स्थित है मगहर। इस कस्बे के एक छोर पर आमी नदी बहती है। मगहर नाम के पीछे किंवदन्ती भी रोचक है। मगहर का नाम कैसे पड़ा इस बारे में कई जनश्रुतियां हैं जिनमें एक यह है कि ईसा पूर्व छठी शताब्दी में बौद्ध भिक्षु इसी मार्ग से [[कपिलवस्तु]], [[लुम्बिनी]] जैसे प्रसिध्द बौद्ध स्थलों के दर्शन हेतु जाते थे और भारतीय स्थलों के भ्रमण के लिए आने पर इस स्थान पर घने वनमार्ग पर लूट-हर लिया जाता था। इस असुरक्षित रहे क्षेत्र का नाम इसी वजह से 'मार्ग-हर' अर्थात् 'मार्ग में लूटने वाले से' पङ ग़या जो कालान्तर में अपभ्रंश होकर मगहर बन गया। एक अन्य जनश्रुति के अनुसार मगधराज [[अजातशत्रु]] ने [[बद्रीनाथ]] जाते समय इसी रास्ते पर पड़ाव डाला और अस्वस्थ होने के कारण कई दिन तक यहां विश्राम किया जिससे उन्हें स्वास्थ्य लाभ हुआ और शांति मिली। तब मगधराज ने इस स्थान को मगधहर बताया। इस शब्द का मगध बाद में मगह हो गया और यह स्थान मगहर कहा जाने लगा। [[कबीरपंथ|कबीरपंथियों]] और महात्माओं ने मगहर शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की है- मर्ग यानी रास्ता और हर यानी ज्ञान अर्थात् ज्ञान प्राप्ति का रास्ता। यह व्युत्पत्ति अधिक सार्थक लगती है क्योंकि यदि देश को साम्प्रदायिक एकता के सूत्र में बांधना है तो इसी स्थान से ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। गोरखपुर राष्ट्रीय राजमार्ग के समीप बस्ती से 43 किलोमीटर और गोरखपुर से 27 किलोमीटर दूरी पर स्थित मगहर 1865 तक गोरखपुर ज़िले का एक गांव था। बाद में यह [[बस्ती ज़िला|बस्ती ज़िले]] में शामिल हो गया। तत्कालीन और वर्तमान [[मुख्यमंत्री]] [[मायावती]] ने सितम्बर [[1997]] में बस्ती ज़िले के कुछ भागों को अलग करके संत कबीर नगर नाम से नए ज़िले के सृजन की घोषणा की जिनमें मगहर भी था। उसी दिन मायावती ने संत कबीर दास की कांस्य प्रतिमा का अनावरण भी किया।


==मगहर और [[कबीर]]==
==मगहर और कबीर==
जब हम राष्ट्रीय राजमार्ग पर बस्ती से गोरखपुर की तरफ चलते है तो राष्ट्रीय राजमार्ग से दाहिने जाती हुई सडक़ पर उतर कर दो-ढाई किलोमीटर अंदर स्थित है कबीर का निर्वाण स्थल । मगहर का पूरा इलाका मेहनतकश तबकों से आबाद है और पूरी जिदंगी पाखण्ड और पलायन पर आधारित धर्म के विपरीत कर्म और अन्तर्दृष्टि पर आधारित धर्म पर जोर देने वाले कबीर के शरीर छोडने के लिए शायद इससे बेहतर इलाका नहीं हो सकता था । वैसे भी कबीर का मरना कोई साधारण रूप से मरना तो था नहीं-<br><br>
[[चित्र:sant kabir das.jpg|thumb|200px|[[कबीर|संत कबीर दास]]]]
''जा मरने सो जग डरे, मेरे मन आनन्द, कब मरिहों कब भेटिहों, पूरण परमानन्द''<br><br>
जब हम राष्ट्रीय राजमार्ग पर बस्ती से गोरखपुर की तरफ चलते है तो राष्ट्रीय राजमार्ग से दाहिने जाती हुई सडक़ पर उतर कर दो-ढाई किलोमीटर अंदर स्थित है [[कबीर]] का निर्वाण स्थल। मगहर का पूरा इलाका मेहनतकश तबकों से आबाद है और पूरी ज़िदंगी पाखण्ड और पलायन पर आधारित धर्म के विपरीत कर्म और अन्तर्दृष्टि पर आधारित धर्म पर ज़ोर देने वाले कबीर के शरीर छोडने के लिए शायद इससे बेहतर इलाका नहीं हो सकता था। वैसे भी कबीर का मरना कोई साधारण रूप से मरना तो था नहीं।
कबीर के समय में काशी विद्या और धर्म साधना का सबसे बड़ा केन्द्र तो था ही, वस्त्र व्यवसायियों, वस्त्र कर्मियों, जुलाहों का भी सबसे बड़ा कर्म क्षेत्र था । देश के चारों ओर से लोग वहां आते रहते थे और उनके अनुरोध पर कबीर को भी दूर-दूर तक जाना पड़ता था ।<br>
<blockquote><span style="color: #8f5d31"><poem>जा मरने सो जग डरे, मेरे मन आनन्द, कब मरिहों कब भेटिहों, पूरण परमानन्द</poem></span></blockquote>
मगहर भी ऐसी ही जगह थी । पर उसके लिए एक अंध मान्यता थी कि यह जमीन अभिशप्त है। कुछ आड़ंबरी तथा पाखंड़ी लोगों ने प्रचार कर रखा था कि वहां मरने से मोक्ष नहीं मिलता है । इसे नर्क द्वार के नाम से जाना जाता था, तथा जिसके बारे में लोकमान्यता थी कि वहां मरने वाला गदहा होता है । <br>
====कबीर का काशी से मगहर आना====
सारे भारत में मुक्तिदायिनी के रूप में मानी जाने वाली काशी को वहीं अपने जीवन का अधिकांश भाग बिता चुके कबीर ने मरने से करीब तीन वर्ष पूर्व छोड दिया और ऐसा करते हुए कहा भी-<br><br>
कबीर के समय में काशी विद्या और धर्म साधना का सबसे बड़ा केन्द्र तो था ही, वस्त्र व्यवसायियों, वस्त्र कर्मियों, जुलाहों का भी सबसे बड़ा कर्म क्षेत्र था। देश के चारों ओर से लोग वहां आते रहते थे और उनके अनुरोध पर कबीर को भी दूर-दूर तक जाना पड़ता था। मगहर भी ऐसी ही जगह थी। पर उसके लिए एक अंध मान्यता थी कि यह ज़मीन अभिशप्त है। कुछ आड़ंबरी तथा पाखंड़ी लोगों ने प्रचार कर रखा था कि वहां मरने से मोक्ष नहीं मिलता है। इसेनरकद्वार के नाम से जाना जाता था, तथा जिसके बारे में लोकमान्यता थी कि वहां मरने वाला गधा होता है। सारे भारत में मुक्तिदायिनी के रूप में मानी जाने वाली काशी को वहीं अपने जीवन का अधिकांश भाग बिता चुके कबीर ने मरने से क़रीब तीन वर्ष पूर्व छोड दिया और ऐसा करते हुए कहा भी-<br />
''लोका मति के भोरा रे, जो काशी तन तजै कबीरा, तौ रामहि कौन निहोरा रे'' <br><br>
'''लोका मति के भोरा रे, जो काशी तन तजै कबीरा, तौ रामहि कौन निहोरा रे''' <br />
उन्हीं दिनों मगहर में भीषण अकाल पड़ा ऊसर क्षेत्र, अकालग्रस्त सूखी धरती, पानी का नामोनिशान नहीं । सारी जनता त्राहि-त्राहि कर उठी । तब खलीलाबाद के नवाब बिजली खां ने कबीर को मगहर चल कर दुखियों के कष्ट निवारण हेतु उपाय करने को कहा । वृद्ध तथा कमजोर होने के बावजूद कबीर वहां जाने के लिए तैयार हो गये । शिष्यों और भक्तों के जोर देकर मना करने पर भी वह ना माने । मित्र व्यास के यह कहने पर कि मगहर में मोक्ष नहीं मिलता है, लेकिन स्थान या तीर्थ विशेष के महत्व की अपेक्षा कर्म और आचरण पर बल देने वाले कबीर ने काशी से मगहर प्रस्थान को अपनी पूरी जिंदगी की सीख के एक प्रतीक के रूप में रखा और स्पष्ट किया -<br><br>
उन्हीं दिनों मगहर में भीषण अकाल पड़ा ऊसर क्षेत्र, अकालग्रस्त सूखी धरती, पानी का नामोनिशान नहीं। सारी जनता त्राहि-त्राहि कर उठी। तब [[खलीलाबाद]] के नवाब बिजली ख़ाँ ने कबीर को मगहर चल कर दुखियों के कष्ट निवारण हेतु उपाय करने को कहा। वृद्ध तथा कमज़ोर होने के बावजूद कबीर वहां जाने के लिए तैयार हो गये। शिष्यों और भक्तों के ज़ोर देकर मना करने पर भी वह ना माने। मित्र व्यास के यह कहने पर कि मगहर में मोक्ष नहीं मिलता है, लेकिन स्थान या तीर्थ विशेष के महत्त्व की अपेक्षा कर्म और आचरण पर बल देने वाले कबीर ने काशी से मगहर प्रस्थान को अपनी पूरी ज़िंदगी की सीख के एक प्रतीक के रूप में रखा और स्पष्ट किया -<br />
''क्या काशी, क्या ऊसर मगहर, जो पै राम बस मोरा । जो कबीर काशी मरे, रामहीं कौन निहोरा''<br><br>
'''क्या काशी, क्या ऊसर मगहर, जो पै राम बस मोरा । जो कबीर काशी मरे, रामहीं कौन निहोरा'''<br />
सबकी प्रार्थनाओं को दरकिनार कर उन्होंने वहां जा कर लोगों की सहायता करने और मगहर के सिर पर लगे कलंक को मिटाने का निश्चय कर लिया । उनका तो जन्म ही हुआ था रूढियों और अंध विश्वासों को तोड़ने के लिए ।<br>
सबकी प्रार्थनाओं को दरकिनार कर उन्होंने वहां जा कर लोगों की सहायता करने और मगहर के सिर पर लगे कलंक को मिटाने का निश्चय कर लिया। उनका तो जन्म ही हुआ था रूढियों और अंध विश्वासों को तोड़ने के लिए ।
मगहर पहुंच कर उन्होंने एक जगह धूनी रमाई । जनश्रुति है कि वहां से चमत्कारी ढंग से एक जलस्रोत निकल आया, जिसने धीरे-धीरे एक तालाब का रूप ले लिया । आज भी इसे गोरख तलैया के नाम से जाना जाता है । तालाब से हट कर उन्होंने आश्रम की स्थापना की । यहीं पर जब उन्होंने अपना शरीर छोड़ने का समय निकट आने पर संत कबीर ने अपने शिष्यों को इसकी पूर्वसूचना दी । शिष्यों में हिन्दू और मुसलमान दोनों थे । सारी जिंदगी साम्प्रदायिक संकीर्णता और उस संकीर्णता के प्रतीक चिन्हों से ऊपर उठकर सही मार्ग पर चलने का उपदेश अपने शिष्यों को देने वाले कबीर के शरीर छोडते ही उनके शिष्य उसी संकीर्णता के वशीभूत होकर गुरु के शरीर के अन्तिम संस्कार को लेकर आमने-सामने खडे हो गए । हिन्दू काशी (रीवां) नरेश बीरसिंह के नेतृत्व में शस्त्र सहित कूच कर गए और उधर मुसलमान नवाब बिजली खां पठान की सेना में गोलबंद हो गए । विवाद में हिन्दू चाहते थे कि कबीर का शव जलाया जाए और मुसलामान उसे दफनाने के लिए कटिबध्द थे । पर सारे विवाद के आश्चर्यजनक समाधान में शव के स्थान पर उन्हें कुछ फूल मिले । आधे फूल बांटकर उस हिस्से से हिन्दुओं ने आधे जमीन पर गुरु की समाधि बना दी और मुसलमानों ने अपने हिस्से के बाकी आधे फूलों से मकबरा तथा आश्रम को समाधि स्थल बना दिया गया । पर यहां भी तंगदिली ने पीछ नहीं छोड़ा है। इस अनूठे सांप्रदायिक सौहार्द के प्रतीक के भी समाधि और मजार के बीच दिवार बना कर दो टुकड़े कर दिये गये हैं। वैसे भी यह समाधि स्थल उपेक्षा का शिकार है। क्या पता, इस पूरे प्रकरण पर अपने 'पूरण परमानन्द' तक पहुंच चुके कबीर एक बार फिर कह उठे होंगे-<br><br>
 
''राम रहीम एक हैं, नाम धराया दोय, कहै कबीर दो नाम सुनि, भरम पङो मति कोय''<br><br>
==कबीर की मजार और समाधि==
कबीर की मजार और समाधि मात्र सौ फिट की दूरी पर अगल-बगल में स्थित हैं । समाधि के भवन की दीवारों पर कबीर के पद उकेरे गए हैं । इस समाधि के पास एक मंदिर भी है जिसे कबीर के हिन्दू शिष्यों ने सन् 1520 ईस्वी में बनवाया था । समाधि से हम मजार की ओर चले । मजार का निर्माण समय सन् 1518 ईस्वी का बताया जाता है । कबीर की मजार के ठीक बगल में उनके शिष्य और स्वयं पहुंचे हुए फकीर कमाल साहब की मजार है। कबीर की मजार में प्रवेश करने के लिए चार फिट से भी कम ऊंचाई का एक छोटा सा द्वार है ।<br>
[[चित्र:26-maghar.jpg|thumb|200px|संत [[कबीरदास]] की मजार और समाधि]]
समाधि स्थल से थोडी ही दूरी पर कबीर की गुफा है जो उत्तर प्रदेश शासन के पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित है । पर यह मूल कबीर-गुफा नहीं है और संभवत: मूल गुफा का जीर्णोद्वार कर दो शताब्दी पूर्व अस्तित्व में आई थी । जमीन के नीचे साठ सीढियां उतरकर गुफा तक पहुंचना होता है । कहते हैं कि साधना और एकान्तवास में कबीर कभी-कभी इस गुफा में प्रवेश कर जाते थे । बाद में कबीरपंथियों ने साधना के लिए इसका उपयोग किया पर अब ये बंद है और एक बार फिर जीर्णोध्दार की प्रतीक्षा कर रही है । मगहर में संत कबीर के निर्वाण स्थल का पूरा परिसर वर्तमान समय में सत्ताईस एकड में फैला हुआ है । इसमें 1982 में अधिग्रहीत कर उद्यान के रूप में परिवर्तित की गई पंद्रह एकड क़ी जमीन शामिल है । परिसर में वृक्ष अच्छी संख्या में लगे हैं और सडक़ से परिसर के भीतर प्रवेश करते ही दोनों ओर लगे हुए विशालकाय वृक्ष एक सुकून भरन एहसास देते हैं । कबीरपंथियों की मूल गद्दी वाराणसी का कबीरचौरा मठ है । इसी गद्दी की छत्रछाया में अवस्थित बलुआ मठ के वर्तमान महंत विचार दास मगहर के कबीर निर्वाण स्थल का पूरा संचालन करते हैं । वे अच्छे विद्वान हैं एवं काशी विद्यापीठ से हिन्दी में स्नाकोत्तर स्तर की शिक्षा प्राप्त हैं ।<br>
मगहर पहुंच कर उन्होंने एक जगह धूनी रमाई। जनश्रुति है कि वहां से चमत्कारी ढंग से एक जलस्रोत निकल आया, जिसने धीरे-धीरे एक तालाब का रूप ले लिया। आज भी इसे गोरख तलैया के नाम से जाना जाता है। तालाब से हट कर उन्होंने आश्रम की स्थापना की। यहीं पर जब उन्होंने अपना शरीर छोड़ने का समय निकट आने पर संत कबीर ने अपने शिष्यों को इसकी पूर्वसूचना दी। शिष्यों में हिन्दू और मुसलमान दोनों थे। सारी ज़िंदगी साम्प्रदायिक संकीर्णता और उस संकीर्णता के प्रतीक चिह्नों से ऊपर उठकर सही मार्ग पर चलने का उपदेश अपने शिष्यों को देने वाले कबीर के शरीर छोडते ही उनके शिष्य उसी संकीर्णता के वशीभूत होकर गुरु के शरीर के अन्तिम संस्कार को लेकर आमने-सामने खडे हो गए। हिन्दू काशी (रीवां) नरेश बीरसिंह के नेतृत्व में शस्त्र सहित कूच कर गए और उधर मुसलमान नवाब बिजली ख़ाँ पठान की सेना में गोलबंद हो गए । विवाद में हिन्दू चाहते थे कि कबीर का शव जलाया जाए और मुसलामान उसे दफनाने के लिए कटिबध्द थे। पर सारे विवाद के आश्चर्यजनक समाधान में शव के स्थान पर उन्हें कुछ फूल मिले । आधे फूल बांटकर उस हिस्से से हिन्दुओं ने आधे ज़मीन पर गुरु की समाधि बना दी और मुसलमानों ने अपने हिस्से के बाकी आधे फूलों से मक़बरा तथा आश्रम को समाधि स्थल बना दिया गया। पर यहां भी तंगदिली ने पीछ नहीं छोड़ा है। इस अनूठे सांप्रदायिक सौहार्द के प्रतीक के भी समाधि और मजार के बीच दिवार बना कर दो टुकड़े कर दिये गये हैं। वैसे भी यह समाधि स्थल उपेक्षा का शिकार है। क्या पता, इस पूरे प्रकरण पर अपने 'पूरण परमानन्द' तक पहुंच चुके कबीर एक बार फिर कह उठे होंगे।
कबीर आश्रम में सफेद वस्त्रों में बेहद सादे ढंग से काया को ढके हुए कबीरपंथी पूरे परिसर में सेवा देते हुए नजर आए। महिलाएं सफेद साडी में और पुरुष धोती आधी उल्टी कर बांधे हुए। चेहरे पर सज्जनता और गले में कण्ठी । संत कबीर के आदर्श के अनुरूप ही कबीरपंथी साधुओं ने मगहर में जनकल्याण हेतु कई संस्थाओं की स्थापना की है। शिक्षा के क्षेत्र में विशेष रूप से पहल की गई है और करीब पचास वर्ष पूर्व पंजीकृत शिक्षा समिति के तत्वाधान में आसपास के क्षेत्रों में एक दर्जन से अधिक महाविद्यालय, इण्टर कॉलेज, जूनियर हाई स्कूल इत्यादि चलाए जा रहे हैं। प्रशंसनीय बात यह है कि अनाथ बच्चों की शिक्षा दीक्षा के लिए नि:शुल्क व्यवस्था पर अतिरिक्त आग्रह है। प्रयास संगीत समिति से मान्यता प्राप्त एक संगीत महाविद्यालय भी चलाया जा रहा है जिसमें कबीर तथा अन्य संतों के पदों पर आधारित संगीत रचनाओं पर विशेष ध्यान दिया जाता है। पिछले दो दशक से हर जनवरी में आयोजित होने वाला मगहर महोत्सव इस इलाके का एक प्रमुख आकर्षण होता है। इस दौरान मेला लगता है और सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। माघशुक्ल एकादशी पर आयोजित कबीर-निर्वाण दिवस समारोह भी महत्वपूर्ण है। संत कबीर शोध संस्थान परिसर में ही स्थित है और यहां शोध के अभिलाषी छात्रों के लिए सारी व्यवस्था का खर्च संस्थान ही उठाता है। संस्थान द्वारा संचालित पुस्तकालय भी है। संतों की बानी पर केन्द्रित प्राचीन पाण्डुलिपियां अगर इस संस्थान में सुनियोजित रूप से संरक्षित की जा सकें तो शोध को नया आयाम मिल सकता है। <br>
<blockquote>राम रहीम एक हैं, नाम धराया दोय,  
किंवदंती कहते है कि साधुओं और भक्तों की सुविधा के लिए कबीर ने जल की धारा उल्टी मोडक़र आश्रम के निकट से बहा दी थी। पुराने जमाने में आमी के जल की महत्ता थी और माना जाता था कि इसमें स्नान करने से असाध्य चर्मरोग दूर हो जाते हैं। आज भी कबीर निर्वाण दिवस पर श्रध्दावश इसके जल से स्नान किया जाता है।
कहै कबीर दो नाम सुनि, भरम पङो मति कोय॥</blockquote>
कबीर की मजार और समाधि मात्र सौ फिट की दूरी पर अगल-बगल में स्थित हैं। समाधि के भवन की दीवारों पर कबीर के पद उकेरे गए हैं। इस समाधि के पास एक मंदिर भी है जिसे कबीर के हिन्दू शिष्यों ने सन् 1520 ईस्वी में बनवाया था। समाधि से हम मजार की ओर चले। मजार का निर्माण समय सन् 1518 ईस्वी का बताया जाता है। कबीर की मजार के ठीक बगल में उनके शिष्य और स्वयं पहुंचे हुए [[फ़कीर कमाल साहब]] की मजार है। कबीर की मजार में प्रवेश करने के लिए चार फिट से भी कम ऊंचाई का एक छोटा सा द्वार है। समाधि स्थल से थोडी ही दूरी पर कबीर की गुफा है जो उत्तर प्रदेश शासन के [[पुरातत्त्व]] विभाग द्वारा संरक्षित है । पर यह मूल कबीर-गुफा नहीं है और संभवत: मूल गुफा का जीर्णोद्वार कर दो शताब्दी पूर्व अस्तित्व में आई थी। ज़मीन के नीचे साठ सीढियां उतरकर गुफा तक पहुंचना होता है। कहते हैं कि साधना और एकान्तवास में कबीर कभी-कभी इस गुफा में प्रवेश कर जाते थे। बाद में कबीरपंथियों ने साधना के लिए इसका उपयोग किया पर अब ये बंद है और एक बार फिर जीर्णोद्धार की प्रतीक्षा कर रही है। मगहर में संत कबीर के निर्वाण स्थल का पूरा परिसर वर्तमान समय में सत्ताईस एकड में फैला हुआ है। इसमें [[1982]] में अधिग्रहीत कर उद्यान के रूप में परिवर्तित की गई पंद्रह एकड क़ी ज़मीन शामिल है। परिसर में वृक्ष अच्छी संख्या में लगे हैं और सडक़ से परिसर के भीतर प्रवेश करते ही दोनों ओर लगे हुए विशालकाय वृक्ष एक सुकून भरन एहसास देते हैं। कबीरपंथियों की मूल गद्दी वाराणसी का कबीरचौरा मठ है। इसी गद्दी की छत्रछाया में अवस्थित बलुआ मठ के वर्तमान महंत विचार दास मगहर के कबीर निर्वाण स्थल का पूरा संचालन करते हैं। वे अच्छे विद्वान् हैं एवं काशी विद्यापीठ से हिन्दी में स्नाकोत्तर स्तर की शिक्षा प्राप्त हैं। कबीर आश्रम में सफ़ेद वस्त्रों में बेहद सादे ढंग से काया को ढके हुए कबीरपंथी पूरे परिसर में सेवा देते हुए नज़र आए। महिलाएं सफ़ेद साडी में और पुरुष धोती आधी उल्टी कर बांधे हुए। चेहरे पर सज्जनता और गले में कण्ठी। संत कबीर के संदेश को जन-जन तक पहुंचाने और कबीर साहित्य के प्रकाशन के उद्देश्य से 1993 में तत्कालीन राज्यपाल मोतीलाल वोरा ने संत कबीर शोध संस्थान की स्थापना कराई थी। मगहर में हर साल तीन बड़े कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है जिनमें 12-16 जनवरी तक मगहर महोत्सव और कबीर मेला, माघ शुक्ल एकादशी को तीन दिवसीय कबीर निर्वाण दिवस समारोह और कबीर जयंती समारोह के अंतर्गत चलाए जाने वाले अनेक कार्यक्रम शामिल हैं। मगहर महोत्सव और कबीर मेला में संगोष्ठी, परिचर्चाएं तथा चित्र एवं पुस्तक प्रदर्शनी के अलावा सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं । कबीर जयंती समारोह में अनेक कार्यक्रमों के माध्यम से संत कबीर के संदेशों का प्रचार-प्रसार किया जाता है। महंत विचार दास ने बताया कि इनके अलावा कबीर मठ सात प्रमुख गतिविधियां संचालित करता है जिनमें संगीत, सत्संग एवं साधना, कबीर साहित्य का प्रचार-प्रसार, शोध साहित्य, कबीर बाल मंदिर संत आश्रम एवं गोसेवा तथा वृद्धाश्रम और यात्रियों की आवासीय व्यवस्था शामिल हैं।<br />
संत कबीर के आदर्श के अनुरूप ही कबीरपंथी साधुओं ने मगहर में जनकल्याण हेतु कई संस्थाओं की स्थापना की है। शिक्षा के क्षेत्र में विशेष रूप से पहल की गई है और क़रीब पचास वर्ष पूर्व पंजीकृत शिक्षा समिति के तत्वाधान में आसपास के क्षेत्रों में एक दर्जन से अधिक महाविद्यालय, इण्टर कॉलेज, जूनियर हाई स्कूल इत्यादि चलाए जा रहे हैं। प्रशंसनीय बात यह है कि अनाथ बच्चों की शिक्षा दीक्षा के लिए नि:शुल्क व्यवस्था पर अतिरिक्त आग्रह है। प्रयास संगीत समिति से मान्यता प्राप्त एक संगीत महाविद्यालय भी चलाया जा रहा है जिसमें कबीर तथा अन्य संतों के पदों पर आधारित संगीत रचनाओं पर विशेष ध्यान दिया जाता है।
 
==मगहर महोत्सव==
[[मकर संक्राति]] के अवसर पर आयोजित होने वाले मगहर महोत्सव का इतिहास काफ़ी पुराना है। पहले इस दिन एक दिन का मेला लगता था। सन् [[1932]] में तत्कालीन कमिश्नर एस.सी.राबर्ट ने मगहर के धनपति स्वर्गीय प्रियाशरण सिंह उर्फ झिनकू बाबू के सहयोग से यहां मेले का आयोजन कराया था। राबर्ट जब तक कमिश्नर रहे तब तक वह हर साल इस मेले में सपरिवार भाग लेते रहे। उसके बाद [[1955]] से [[1957]] तक लगातार तीन साल भव्य मेलों का आयोजन किया गया । सन् 1987 में इस मेले का स्वरूप बदलने का प्रयास शुरू किया गया और 1989 से यह महोत्सव सात दिन और फिर पांच दिन का हो गया। इस महोत्सव में विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम, विचार गोष्ठी, कबीर दरबार, [[कव्वाली]], सत्संग, भजन, कीर्तन तथा अखिल भारतीय कवि सम्मेलन और मुशायरे आयोजित किए जाते हैं। माघशुक्ल एकादशी पर आयोजित कबीर-निर्वाण दिवस समारोह भी महत्त्वपूर्ण है। संत कबीर शोध संस्थान परिसर में ही स्थित है और यहां शोध के अभिलाषी छात्रों के लिए सारी व्यवस्था का खर्च संस्थान ही उठाता है। संस्थान द्वारा संचालित पुस्तकालय भी है। संतों की बानी पर केन्द्रित प्राचीन पाण्डुलिपियां अगर इस संस्थान में सुनियोजित रूप से संरक्षित की जा सकें तो शोध को नया आयाम मिल सकता है। किंवदंती कहते है कि साधुओं और भक्तों की सुविधा के लिए कबीर ने जल की धारा उल्टी मोडक़र आश्रम के निकट से बहा दी थी। पुराने जमाने में आमी के जल की महत्ता थी और माना जाता था कि इसमें स्नान करने से असाध्य चर्मरोग दूर हो जाते हैं। आज भी कबीर निर्वाण दिवस पर श्रध्दावश इसके जल से स्नान किया जाता है।
 
==मगहर मे राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम==
11 अगस्त, 2003 की बात है, तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम मगहर आए थे। मिसाइल मैन अब्दुल कलाम ने भी उस समय मगहर की दुर्दशा को महसूस किया था। अपनी पीड़ा को उन्होंने शब्दों में व्यक्त करते हुए कहा था कि मगहर को अंतरराष्ट्रीय पर्यटन स्थल बनाया जाना चाहिए। कबीर के विचार और संदेश आज के दौर में पहले से अधिक प्रासंगिक हैं। कलाम के प्रयासों से एक लाख रुपया समाधि स्थल और एक लाख रुपया मजार स्थल को विकसित करने के लिए मिला था। वह दिन है और आज का समय, शासन स्तर से कोई मदद मगहर को नहीं मिली।
 
==संबंधित लेख==
*[[कबीर]]
 
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==बाहरी कड़ियाँ==
==बाहरी कड़ियाँ==
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*[http://kuchhalagsa.blogspot.com/2010/03/blog-post_23.html कबीर, जिन्हें एक साथ ही अग्नि और धरती में लीन होना पडा]
*[http://kuchhalagsa.blogspot.com/2010/03/blog-post_23.html कबीर, जिन्हें एक साथ ही अग्नि और धरती में लीन होना पडा]
*[http://epankajsharma.blogspot.com/2009_12_01_archive.html जस काशी तस मगहर]
*[http://epankajsharma.blogspot.com/2009_12_01_archive.html जस काशी तस मगहर]
*[http://www.livehindustan.com/news/lifestyle/jeevenjizyasa/50-51-61795.html विकास की बांट देख रही है कबीर की नगरी]
*[http://in.jagran.yahoo.com/news/national/general/5_1_4548221/ उपेक्षित है कबीर की निर्वाणस्थली मगहर]
*[http://hindi.webdunia.com/news/news/regional/0806/17/1080617020_1.htm उपेक्षित है कबीर की निर्वाणस्थली मगहर hindi]
*[http://in.jagran.yahoo.com/dharm/?page=article&articleid=3084&category=6 मगहर में उमड़ा कबीरपंथियों का सैलाब]
*[http://knol.google.com/k/%E0%A4%95%E0%A4%AC-%E0%A4%B0-%E0%A4%B8-%E0%A4%B9%E0%A4%AC-kabeer-sahab# कबीर साहब]
*[http://www.anandway.com/articles.aspx?View=Kabir-Das-Samadhi-and-mazaar-at-Maghar,-Uttar-Pradesh-Photo-journal&link=328 Kabir Das Samadhi and mazaar at Maghar, Uttar Pradesh Photo journal]
==संबंधित लेख==
{{उत्तर प्रदेश के धार्मिक स्थल}}{{उत्तर प्रदेश के पर्यटन स्थल}}
[[Category:उत्तर_प्रदेश]]
[[Category:उत्तर_प्रदेश_के_धार्मिक_स्थल]]
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10:52, 11 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण

नाम की उत्पत्ति

भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के पूर्वी भाग को बेहिचक सन्तों की कर्मभूमि कहा जा सकता है। इसी भाग के प्रमुख शहर गोरखपुर के पश्चिम में लगभग तीस किलोमीटर दूर संत कबीर नगर ज़िला (5 सितम्बर 1997 में बस्ती ज़िला को तोड़ कर बना) में स्थित है मगहर। इस कस्बे के एक छोर पर आमी नदी बहती है। मगहर नाम के पीछे किंवदन्ती भी रोचक है। मगहर का नाम कैसे पड़ा इस बारे में कई जनश्रुतियां हैं जिनमें एक यह है कि ईसा पूर्व छठी शताब्दी में बौद्ध भिक्षु इसी मार्ग से कपिलवस्तु, लुम्बिनी जैसे प्रसिध्द बौद्ध स्थलों के दर्शन हेतु जाते थे और भारतीय स्थलों के भ्रमण के लिए आने पर इस स्थान पर घने वनमार्ग पर लूट-हर लिया जाता था। इस असुरक्षित रहे क्षेत्र का नाम इसी वजह से 'मार्ग-हर' अर्थात् 'मार्ग में लूटने वाले से' पङ ग़या जो कालान्तर में अपभ्रंश होकर मगहर बन गया। एक अन्य जनश्रुति के अनुसार मगधराज अजातशत्रु ने बद्रीनाथ जाते समय इसी रास्ते पर पड़ाव डाला और अस्वस्थ होने के कारण कई दिन तक यहां विश्राम किया जिससे उन्हें स्वास्थ्य लाभ हुआ और शांति मिली। तब मगधराज ने इस स्थान को मगधहर बताया। इस शब्द का मगध बाद में मगह हो गया और यह स्थान मगहर कहा जाने लगा। कबीरपंथियों और महात्माओं ने मगहर शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार की है- मर्ग यानी रास्ता और हर यानी ज्ञान अर्थात् ज्ञान प्राप्ति का रास्ता। यह व्युत्पत्ति अधिक सार्थक लगती है क्योंकि यदि देश को साम्प्रदायिक एकता के सूत्र में बांधना है तो इसी स्थान से ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। गोरखपुर राष्ट्रीय राजमार्ग के समीप बस्ती से 43 किलोमीटर और गोरखपुर से 27 किलोमीटर दूरी पर स्थित मगहर 1865 तक गोरखपुर ज़िले का एक गांव था। बाद में यह बस्ती ज़िले में शामिल हो गया। तत्कालीन और वर्तमान मुख्यमंत्री मायावती ने सितम्बर 1997 में बस्ती ज़िले के कुछ भागों को अलग करके संत कबीर नगर नाम से नए ज़िले के सृजन की घोषणा की जिनमें मगहर भी था। उसी दिन मायावती ने संत कबीर दास की कांस्य प्रतिमा का अनावरण भी किया।

मगहर और कबीर

संत कबीर दास

जब हम राष्ट्रीय राजमार्ग पर बस्ती से गोरखपुर की तरफ चलते है तो राष्ट्रीय राजमार्ग से दाहिने जाती हुई सडक़ पर उतर कर दो-ढाई किलोमीटर अंदर स्थित है कबीर का निर्वाण स्थल। मगहर का पूरा इलाका मेहनतकश तबकों से आबाद है और पूरी ज़िदंगी पाखण्ड और पलायन पर आधारित धर्म के विपरीत कर्म और अन्तर्दृष्टि पर आधारित धर्म पर ज़ोर देने वाले कबीर के शरीर छोडने के लिए शायद इससे बेहतर इलाका नहीं हो सकता था। वैसे भी कबीर का मरना कोई साधारण रूप से मरना तो था नहीं।

जा मरने सो जग डरे, मेरे मन आनन्द, कब मरिहों कब भेटिहों, पूरण परमानन्द

कबीर का काशी से मगहर आना

कबीर के समय में काशी विद्या और धर्म साधना का सबसे बड़ा केन्द्र तो था ही, वस्त्र व्यवसायियों, वस्त्र कर्मियों, जुलाहों का भी सबसे बड़ा कर्म क्षेत्र था। देश के चारों ओर से लोग वहां आते रहते थे और उनके अनुरोध पर कबीर को भी दूर-दूर तक जाना पड़ता था। मगहर भी ऐसी ही जगह थी। पर उसके लिए एक अंध मान्यता थी कि यह ज़मीन अभिशप्त है। कुछ आड़ंबरी तथा पाखंड़ी लोगों ने प्रचार कर रखा था कि वहां मरने से मोक्ष नहीं मिलता है। इसेनरकद्वार के नाम से जाना जाता था, तथा जिसके बारे में लोकमान्यता थी कि वहां मरने वाला गधा होता है। सारे भारत में मुक्तिदायिनी के रूप में मानी जाने वाली काशी को वहीं अपने जीवन का अधिकांश भाग बिता चुके कबीर ने मरने से क़रीब तीन वर्ष पूर्व छोड दिया और ऐसा करते हुए कहा भी-
लोका मति के भोरा रे, जो काशी तन तजै कबीरा, तौ रामहि कौन निहोरा रे
उन्हीं दिनों मगहर में भीषण अकाल पड़ा ऊसर क्षेत्र, अकालग्रस्त सूखी धरती, पानी का नामोनिशान नहीं। सारी जनता त्राहि-त्राहि कर उठी। तब खलीलाबाद के नवाब बिजली ख़ाँ ने कबीर को मगहर चल कर दुखियों के कष्ट निवारण हेतु उपाय करने को कहा। वृद्ध तथा कमज़ोर होने के बावजूद कबीर वहां जाने के लिए तैयार हो गये। शिष्यों और भक्तों के ज़ोर देकर मना करने पर भी वह ना माने। मित्र व्यास के यह कहने पर कि मगहर में मोक्ष नहीं मिलता है, लेकिन स्थान या तीर्थ विशेष के महत्त्व की अपेक्षा कर्म और आचरण पर बल देने वाले कबीर ने काशी से मगहर प्रस्थान को अपनी पूरी ज़िंदगी की सीख के एक प्रतीक के रूप में रखा और स्पष्ट किया -
क्या काशी, क्या ऊसर मगहर, जो पै राम बस मोरा । जो कबीर काशी मरे, रामहीं कौन निहोरा
सबकी प्रार्थनाओं को दरकिनार कर उन्होंने वहां जा कर लोगों की सहायता करने और मगहर के सिर पर लगे कलंक को मिटाने का निश्चय कर लिया। उनका तो जन्म ही हुआ था रूढियों और अंध विश्वासों को तोड़ने के लिए ।

कबीर की मजार और समाधि

संत कबीरदास की मजार और समाधि

मगहर पहुंच कर उन्होंने एक जगह धूनी रमाई। जनश्रुति है कि वहां से चमत्कारी ढंग से एक जलस्रोत निकल आया, जिसने धीरे-धीरे एक तालाब का रूप ले लिया। आज भी इसे गोरख तलैया के नाम से जाना जाता है। तालाब से हट कर उन्होंने आश्रम की स्थापना की। यहीं पर जब उन्होंने अपना शरीर छोड़ने का समय निकट आने पर संत कबीर ने अपने शिष्यों को इसकी पूर्वसूचना दी। शिष्यों में हिन्दू और मुसलमान दोनों थे। सारी ज़िंदगी साम्प्रदायिक संकीर्णता और उस संकीर्णता के प्रतीक चिह्नों से ऊपर उठकर सही मार्ग पर चलने का उपदेश अपने शिष्यों को देने वाले कबीर के शरीर छोडते ही उनके शिष्य उसी संकीर्णता के वशीभूत होकर गुरु के शरीर के अन्तिम संस्कार को लेकर आमने-सामने खडे हो गए। हिन्दू काशी (रीवां) नरेश बीरसिंह के नेतृत्व में शस्त्र सहित कूच कर गए और उधर मुसलमान नवाब बिजली ख़ाँ पठान की सेना में गोलबंद हो गए । विवाद में हिन्दू चाहते थे कि कबीर का शव जलाया जाए और मुसलामान उसे दफनाने के लिए कटिबध्द थे। पर सारे विवाद के आश्चर्यजनक समाधान में शव के स्थान पर उन्हें कुछ फूल मिले । आधे फूल बांटकर उस हिस्से से हिन्दुओं ने आधे ज़मीन पर गुरु की समाधि बना दी और मुसलमानों ने अपने हिस्से के बाकी आधे फूलों से मक़बरा तथा आश्रम को समाधि स्थल बना दिया गया। पर यहां भी तंगदिली ने पीछ नहीं छोड़ा है। इस अनूठे सांप्रदायिक सौहार्द के प्रतीक के भी समाधि और मजार के बीच दिवार बना कर दो टुकड़े कर दिये गये हैं। वैसे भी यह समाधि स्थल उपेक्षा का शिकार है। क्या पता, इस पूरे प्रकरण पर अपने 'पूरण परमानन्द' तक पहुंच चुके कबीर एक बार फिर कह उठे होंगे।

राम रहीम एक हैं, नाम धराया दोय, कहै कबीर दो नाम सुनि, भरम पङो मति कोय॥

कबीर की मजार और समाधि मात्र सौ फिट की दूरी पर अगल-बगल में स्थित हैं। समाधि के भवन की दीवारों पर कबीर के पद उकेरे गए हैं। इस समाधि के पास एक मंदिर भी है जिसे कबीर के हिन्दू शिष्यों ने सन् 1520 ईस्वी में बनवाया था। समाधि से हम मजार की ओर चले। मजार का निर्माण समय सन् 1518 ईस्वी का बताया जाता है। कबीर की मजार के ठीक बगल में उनके शिष्य और स्वयं पहुंचे हुए फ़कीर कमाल साहब की मजार है। कबीर की मजार में प्रवेश करने के लिए चार फिट से भी कम ऊंचाई का एक छोटा सा द्वार है। समाधि स्थल से थोडी ही दूरी पर कबीर की गुफा है जो उत्तर प्रदेश शासन के पुरातत्त्व विभाग द्वारा संरक्षित है । पर यह मूल कबीर-गुफा नहीं है और संभवत: मूल गुफा का जीर्णोद्वार कर दो शताब्दी पूर्व अस्तित्व में आई थी। ज़मीन के नीचे साठ सीढियां उतरकर गुफा तक पहुंचना होता है। कहते हैं कि साधना और एकान्तवास में कबीर कभी-कभी इस गुफा में प्रवेश कर जाते थे। बाद में कबीरपंथियों ने साधना के लिए इसका उपयोग किया पर अब ये बंद है और एक बार फिर जीर्णोद्धार की प्रतीक्षा कर रही है। मगहर में संत कबीर के निर्वाण स्थल का पूरा परिसर वर्तमान समय में सत्ताईस एकड में फैला हुआ है। इसमें 1982 में अधिग्रहीत कर उद्यान के रूप में परिवर्तित की गई पंद्रह एकड क़ी ज़मीन शामिल है। परिसर में वृक्ष अच्छी संख्या में लगे हैं और सडक़ से परिसर के भीतर प्रवेश करते ही दोनों ओर लगे हुए विशालकाय वृक्ष एक सुकून भरन एहसास देते हैं। कबीरपंथियों की मूल गद्दी वाराणसी का कबीरचौरा मठ है। इसी गद्दी की छत्रछाया में अवस्थित बलुआ मठ के वर्तमान महंत विचार दास मगहर के कबीर निर्वाण स्थल का पूरा संचालन करते हैं। वे अच्छे विद्वान् हैं एवं काशी विद्यापीठ से हिन्दी में स्नाकोत्तर स्तर की शिक्षा प्राप्त हैं। कबीर आश्रम में सफ़ेद वस्त्रों में बेहद सादे ढंग से काया को ढके हुए कबीरपंथी पूरे परिसर में सेवा देते हुए नज़र आए। महिलाएं सफ़ेद साडी में और पुरुष धोती आधी उल्टी कर बांधे हुए। चेहरे पर सज्जनता और गले में कण्ठी। संत कबीर के संदेश को जन-जन तक पहुंचाने और कबीर साहित्य के प्रकाशन के उद्देश्य से 1993 में तत्कालीन राज्यपाल मोतीलाल वोरा ने संत कबीर शोध संस्थान की स्थापना कराई थी। मगहर में हर साल तीन बड़े कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है जिनमें 12-16 जनवरी तक मगहर महोत्सव और कबीर मेला, माघ शुक्ल एकादशी को तीन दिवसीय कबीर निर्वाण दिवस समारोह और कबीर जयंती समारोह के अंतर्गत चलाए जाने वाले अनेक कार्यक्रम शामिल हैं। मगहर महोत्सव और कबीर मेला में संगोष्ठी, परिचर्चाएं तथा चित्र एवं पुस्तक प्रदर्शनी के अलावा सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं । कबीर जयंती समारोह में अनेक कार्यक्रमों के माध्यम से संत कबीर के संदेशों का प्रचार-प्रसार किया जाता है। महंत विचार दास ने बताया कि इनके अलावा कबीर मठ सात प्रमुख गतिविधियां संचालित करता है जिनमें संगीत, सत्संग एवं साधना, कबीर साहित्य का प्रचार-प्रसार, शोध साहित्य, कबीर बाल मंदिर संत आश्रम एवं गोसेवा तथा वृद्धाश्रम और यात्रियों की आवासीय व्यवस्था शामिल हैं।
संत कबीर के आदर्श के अनुरूप ही कबीरपंथी साधुओं ने मगहर में जनकल्याण हेतु कई संस्थाओं की स्थापना की है। शिक्षा के क्षेत्र में विशेष रूप से पहल की गई है और क़रीब पचास वर्ष पूर्व पंजीकृत शिक्षा समिति के तत्वाधान में आसपास के क्षेत्रों में एक दर्जन से अधिक महाविद्यालय, इण्टर कॉलेज, जूनियर हाई स्कूल इत्यादि चलाए जा रहे हैं। प्रशंसनीय बात यह है कि अनाथ बच्चों की शिक्षा दीक्षा के लिए नि:शुल्क व्यवस्था पर अतिरिक्त आग्रह है। प्रयास संगीत समिति से मान्यता प्राप्त एक संगीत महाविद्यालय भी चलाया जा रहा है जिसमें कबीर तथा अन्य संतों के पदों पर आधारित संगीत रचनाओं पर विशेष ध्यान दिया जाता है।

मगहर महोत्सव

मकर संक्राति के अवसर पर आयोजित होने वाले मगहर महोत्सव का इतिहास काफ़ी पुराना है। पहले इस दिन एक दिन का मेला लगता था। सन् 1932 में तत्कालीन कमिश्नर एस.सी.राबर्ट ने मगहर के धनपति स्वर्गीय प्रियाशरण सिंह उर्फ झिनकू बाबू के सहयोग से यहां मेले का आयोजन कराया था। राबर्ट जब तक कमिश्नर रहे तब तक वह हर साल इस मेले में सपरिवार भाग लेते रहे। उसके बाद 1955 से 1957 तक लगातार तीन साल भव्य मेलों का आयोजन किया गया । सन् 1987 में इस मेले का स्वरूप बदलने का प्रयास शुरू किया गया और 1989 से यह महोत्सव सात दिन और फिर पांच दिन का हो गया। इस महोत्सव में विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम, विचार गोष्ठी, कबीर दरबार, कव्वाली, सत्संग, भजन, कीर्तन तथा अखिल भारतीय कवि सम्मेलन और मुशायरे आयोजित किए जाते हैं। माघशुक्ल एकादशी पर आयोजित कबीर-निर्वाण दिवस समारोह भी महत्त्वपूर्ण है। संत कबीर शोध संस्थान परिसर में ही स्थित है और यहां शोध के अभिलाषी छात्रों के लिए सारी व्यवस्था का खर्च संस्थान ही उठाता है। संस्थान द्वारा संचालित पुस्तकालय भी है। संतों की बानी पर केन्द्रित प्राचीन पाण्डुलिपियां अगर इस संस्थान में सुनियोजित रूप से संरक्षित की जा सकें तो शोध को नया आयाम मिल सकता है। किंवदंती कहते है कि साधुओं और भक्तों की सुविधा के लिए कबीर ने जल की धारा उल्टी मोडक़र आश्रम के निकट से बहा दी थी। पुराने जमाने में आमी के जल की महत्ता थी और माना जाता था कि इसमें स्नान करने से असाध्य चर्मरोग दूर हो जाते हैं। आज भी कबीर निर्वाण दिवस पर श्रध्दावश इसके जल से स्नान किया जाता है।

मगहर मे राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम

11 अगस्त, 2003 की बात है, तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम मगहर आए थे। मिसाइल मैन अब्दुल कलाम ने भी उस समय मगहर की दुर्दशा को महसूस किया था। अपनी पीड़ा को उन्होंने शब्दों में व्यक्त करते हुए कहा था कि मगहर को अंतरराष्ट्रीय पर्यटन स्थल बनाया जाना चाहिए। कबीर के विचार और संदेश आज के दौर में पहले से अधिक प्रासंगिक हैं। कलाम के प्रयासों से एक लाख रुपया समाधि स्थल और एक लाख रुपया मजार स्थल को विकसित करने के लिए मिला था। वह दिन है और आज का समय, शासन स्तर से कोई मदद मगहर को नहीं मिली।

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