"बाथरूम परछाई -अवतार एनगिल": अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
No edit summary
No edit summary
 
पंक्ति 2: पंक्ति 2:
|-
|-
|
|
{{सूचना बक्सा कविता
{{सूचना बक्सा पुस्तक
|चित्र=Blank-1.gif
|चित्र=Surya-se-surya-tak.jpg
|चित्र का नाम=अवतार एनगिल
|चित्र का नाम=पुस्तक सूर्य से सूर्य तक का आवरण पृष्ठ
|कवि =[[अवतार एनगिल]]  
| लेखक=
|जन्म=[[14 अप्रैल]], 1940
| कवि=[[अवतार एनगिल]]
|जन्म स्थान=[[पेशावर]] शहर (वर्तमान [[पाकिस्तान]])
| मूल_शीर्षक =[[सूर्य से सूर्य तक -अवतार एनगिल|सूर्य से सूर्य तक]]
|मृत्यु=
| अनुवादक =
|मृत्यु स्थान=
| संपादक =
|मुख्य रचनाएँ=(इक सी परी (पंजाबी संग्रह,1981), सूर्य से सूर्य तक(कविता संग्रह,1983),मनख़ान आयेगा(कविता संग्रह,1985), अंधे कहार (कविता संग्रह,1991), तीन डग कविता (कविता संग्रह,1995), अफसरशाही बेनकाब (अनुवाद,1996)।
| प्रकाशक =
|यू-ट्यूब लिंक=
| प्रकाशन_तिथि = 
|शीर्षक 1=
| भाषा = [[हिन्दी]]  
|पाठ 1=
| देश = [[भारत]]
|शीर्षक 2=
| विषय = कविता
|पाठ 2=
| शैली =
|बाहरी कड़ियाँ=
| मुखपृष्ठ_रचना =  
| प्रकार = काव्य संग्रह
| पृष्ठ = 88
| ISBN =  
| भाग =
| टिप्पणियाँ =  
}}
}}
|-
|-

08:07, 14 नवम्बर 2011 के समय का अवतरण

बाथरूम परछाई -अवतार एनगिल
पुस्तक सूर्य से सूर्य तक का आवरण पृष्ठ
पुस्तक सूर्य से सूर्य तक का आवरण पृष्ठ
कवि अवतार एनगिल
मूल शीर्षक सूर्य से सूर्य तक
देश भारत
पृष्ठ: 88
भाषा हिन्दी
विषय कविता
प्रकार काव्य संग्रह
अवतार एनगिल की रचनाएँ




स्नान गृह के फर्श पर
पानी की तैल धार
गिर
टूट
छिटक
फैल
बिखर: रुक गई है
और चमक उठा है
फर्श दर्पण
डल्ल झील-सा
कपड़े उतारती हूं
सभ्यता
रंग
प्रसाधन
कसाव : टांग कर हैंगरों में
रखकर स्थानों पर
कश्मीरी---छिक्कू केश खोल
उतार---व्यक्तित्व का भार
देखती हूं फर्श पर
फर्श में
नीचे कहीं से
देखती है और कोई मेरी तरफ : मैं ।

नहीं, नहीं
और है यह कोई
फूहड़----सी
काली----सी।
पीली-थुलथुल
चिर-बीमार
खुले बालों की
वेस्ट पेपर बास्केट से
झांकती है मेरी तरफ

यह फर्श की डल्ल-झील
जिसके नीचे मिट्टी
कीचड़
गारा
अंधियारा
चिपचिपाहट
कुलबुलाहट

और जिसके ऊपर
उतरूं मैं
रूप, रंग, राशि ले
कमल बन

झील के ऊपर
आसमान का दर्पण
झील के गिर्द
पर्वतों के झुण्ड
खड़े हैं स्तुति में

पर यह फर्शी अक्स
टूटकर
चुभ जाता है

मेरे पंखों के पैराशूटों में
शीशे का हर टुकड़ा
बन जाता है एक दर्पण
डल्ल झील
मुंह चिढ़ाता है यह दर्पण
छीन लेता है मेरा गुलाल
पानी की तैल धार
ग़िर,टूट, फैल,चिटक,बिखर,रुक
चमका देती है
फर्श दर्पण
डल्ल झील

कैसे कहूं कि
और है यह कोई
फूहड़-सी
काली-सी
पीली-थुलथुल
चिर-बीमार
खुले बालों की वेस्ट पेपर बास्केट से
झांकती है मेरी तरफ।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख