"मुहम्मद बिन तुग़लक़": अवतरणों में अंतर

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[[ग़यासुद्दीन तुग़लक़]] की मृत्यु के बाद उसका पुत्र 'जूना ख़ाँ', '''मुहम्मद बिन तुग़लक़''' (1325-1351 ई.) के नाम से [[दिल्ली]] की गद्दी पर बैठा। इसका मूल नाम 'उलूग ख़ाँ' था। राजामुंदरी के एक अभिलेख में मुहम्मद तुग़लक़ (जौना या जूना ख़ाँ) को दुनिया का ख़ान कहा गया है। सम्भवतः मध्यकालीन सभी सुल्तानों में मुहम्मद तुग़लक़ सर्वाधिक शिक्षित, विद्वान् एवं योग्य व्यक्ति था। अपनी सनक भरी योजनाओं, क्रूर-कृत्यों एवं दूसरे के सुख-दुख के प्रति उपेक्षा का भाव रखने के कारण इसे 'स्वप्नशील', 'पागल' एवं 'रक्त-पिपासु' कहा गया है। बरनी, सरहिन्दी , निज़ामुद्दीन, [[बदायूंनी]] एवं फ़रिश्ता जैसे इतिहासकारों ने सुल्तान को अधर्मी घोषित किया गया है।
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मुहम्मद बिन तुग़लक 1325 से 1351 ई0 तक [[तुग़लक वंश]] का शासक था। वह तुग़लक वंश की नींव डालने वाले [[गयासुद्दीन तुग़लक]] का पुत्र और उत्तराधिकारी था। कुछ विद्वानों के अनुसार गयासुद्दीन की आकस्मिक मृत्यु मुहम्मद तुग़लक के षड़यंत्र से हुई थी।
==पद व्यवस्था==
==कुशल व्यक्तित्व==
'''सिंहासन पर बैठने के बाद''' तुग़लक़ ने अमीरों एवं सरदारों को विभिन्न उपाधियाँ एवं पद प्रदान किया। उसने तातार ख़ाँ को 'बहराम ख़ाँ' की उपाधि, मलिक क़बूल को 'इमाद-उल-मुल्क' की उपाधि एवं 'वज़ीर-ए-मुमालिक' का पद दिया था, पर कालान्तर में उसे 'ख़ानेजहाँ' की उपाधि के साथ [[गुजरात]] का हाक़िम बनाया गया। उसने मलिक अरूयाज को ख्वाजा जहान की उपाधि के साथ ‘शहना-ए-इमारत’ का पद, मौलाना ग़यासुद्दीन को (सुल्तान का अध्यापक) 'कुतुलुग ख़ाँ' की उपाधि के साथ 'वकील-ए-दर' की पदवी, अपने चचेरे भाई [[फ़िरोज शाह तुग़लक़]] को 'नायब बारबक' का पद प्रदान किया था।
मुहम्मद तुग़लक का व्यक्तित्व अत्यन्त जटिल था। अपनी सनक भरी योजनाओं, क्रूरकृत्यों और दूसरों के सुख-दुख के प्रति पूर्ण उपेक्षा भाव के कारण उसे पागल और रक्त-पिपासु भी कहा जाता है। मुहम्मद बिन तुग़लक [[दिल्ली]] के सभी सुल्तानों से अधिक विद्वान और सुसंस्कृत तथा योग्य सेनापति था और अधिकांश युद्ध में उसे विजय प्राप्त हुई थी। बहुत ही कम अवसरों पर उसे पराजय का मुंह देखना पड़ा। उसमें ज्ञानार्जन की अदम्य लालसा रहती थी। उसने मुसलमान होते हुए भी मुल्लाओं की उपेक्षा करके राज्य का शासन प्रबंध करने का प्रयास किया और कुछ ऐसी मौलिक योजनाएँ प्रचलित कीं, जो साम्राज्य हित में थीं। इसीलिए कुछ विद्वानों ने उसे असाधारण प्रतिभाशाली शासक माना है। जिसके विचार अपने युग से काफ़ी आगे बढ़े हुए थे, और इसलिए वह प्रतिक्रियावादियों का शिकार हुआ। कदाचित् सत्यता दोनों ही मतों में है। वास्तव में मुहम्मद तुग़लक न तो पागल था और न ही असाधारण प्रतिभाशाली शासक ही था। वह अवश्य मौलिक योजनाएँ बनाता था, परन्तु उसमें व्यावहारिकता और धैर्य की कमी थी। इसलिए उसे असफलताएँ ही हाथ लगीं।
==गुणवान व्यक्ति==
==शासनकाल==
'''मुहम्मद बिन तुग़लक़''' [[दिल्ली]] के सभी सुल्तानों में सर्वाधिक कुशाग्र, बुद्धि सम्पन्न, [[धर्म]]-निरेपक्ष, [[कला]]-प्रेमी एवं अनुभवी सेनापति था। वह [[अरबी भाषा]] एवं [[फ़ारसी भाषा]] का विद्धान तथा खगोलशास्त्र, [[दर्शन]], गणित, चिकित्सा, [[विज्ञान]], तर्कशास्त्र आदि में पारंगत था। [[अलाउद्दीन ख़िलजी]] की भाँति अपने शासन काल के प्रारम्भ में उसने, न तो ख़लीफ़ा से अपने पद की स्वीकृति ली और न उलेमा वर्ग का सहयोग लिया, यद्यपि बाद मे ऐसा करना पड़ा। उसने न्याय विभाग पर उलेमा वर्ग का एकाधिपत्य समाप्त किया। क़ाज़ी के जिस फैसले से वह संतुष्ट नहीं होता था, उसे बदल देता था। सर्वप्रथम मुहम्मद तुग़लक़ ने ही बिना किसी भेदभाव के योग्यता के आधार पर पदों का आवंटन किया। नस्ल और वर्ग-विभेद को समाप्त करके योग्यता के आधार पर अधिकारियों को नियुक्त करने की नीति अपनायी। वस्तुत: यह उस शासक का दुर्भाग्य था कि, उसकी योजनाएं सफलतापूर्वक क्रियान्वित नहीं हुई। जिसके कारण यह इतिहासकारों की आलोचना का पात्र बना।
मुहम्मद तुग़लक का शासनकाल महत्वपूर्ण उपलब्धियों से आरम्भ हुआ। 1327 ई0 में उसके चचेरे भाई ने दक्षिण में और 1328 ई0 में मुल्तान के हाक़िम ने विद्रोह कर दिया, परन्तु दोनों ही विद्रोह दबा दिये गये। उपरान्त [[बारंगल]], [[मअबर]] और [[द्वारसमुद्र]] को जीत कर [[दिल्ली सल्तनत]] की सीमा [[मदुरा]] तक विस्तृत कर दी गयी। सभी प्रान्तों के राजस्व संबंधी काग़ज़ पत्र दुरुस्त कराये गये, स्थान-स्थान पर अस्पताल और खैरातखाने खोले गये और इब्नबबूता सहित अनेक विद्वानों को राज्याश्रय प्रदान करके सब तरह से सम्मानित किया गया। परन्तु जैसे-जैसे शासनकाल लम्बा होता गया वैसे-वैसे कठिनाइयों में वृद्धि होने लगी। 1327 ई0 में सुल्तान ने आदेश दिया कि राजधानी का स्थानान्तरण दिल्ली से देवगिरि किया जाए, जो साम्राज्य के केन्द्र में पड़ता था। [[देवगिरि]] का नाम बदलकर [[दौलताबाद]] रखा गया। सुल्तान ने दिल्ली से दौलताबाद जाने वालों को अनेक सुविधाएँ प्रदान कीं, किन्तु उसकी यह योजना इस हठधर्मि के कारण असफल रही कि उसने राज्य कर्मचारियों के साथ दिल्ली के साधारण नागरिकों को भी वहाँ जाने के लिए विवश किया।
==दिल्ली सल्तनत==
==मुद्राप्रणाली का प्रचलन==
'''मुहम्मद तुग़लक़ के सिंहासन पर बैठते समय''' [[दिल्ली सल्तनत]] कुल 23 प्रांतों में बँटा थी, जिनमें मुख्य थे - दिल्ली, [[देवगिरि]], [[लाहौर]], मुल्तान, सरमुती, [[गुजरात]], [[अवध]], [[कन्नौज]], लखनौती, [[बिहार]], [[मालवा]], जाजनगर ([[उड़ीसा]]), द्वारसमुद्र आदि। [[कश्मीर]] एवं बलूचिस्तान दिल्ली सल्तनत में शामिल नहीं थे। दिल्ली सल्तनत की सीमा का सर्वाधिक विस्तार इसी के शासनकाल में हुआ था। परन्तु इसकी क्रूर नीति के कारण राज्य में विद्रोह आरम्भ हो गया। जिसके फलस्वरूप दक्षिण में नए स्वतंत्र राज्य की स्थापना हुई और ये क्षेत्र दिल्ली सल्तनत से अलग हो गए। [[बंगाल]] भी स्वतंत्र हो गया। राज्यारोहण के बाद मुहम्मद तुग़लक़ ने कुछ नवीन योजनाओं का निर्माण कर उन्हें क्रियान्वित करने का प्रयत्न किया। जैसे -<br />
1330 ई0 में सुल्तान ने प्रतीकाकात्मक मुद्राप्रणाली का प्रचलन किया, जैसी कि आजकल विश्व के समस्त देशों में प्रचलित है। उसने ताँबे के सिक्के चलाये, जिनका मूल्य सोने-चाँदी के सिक्कों के समान ठहराया गया। उसकी यह योजना भी असफल रही, क्योंकि उसने जाली सिक्कों की रोकथाम का समुचित प्रबंध नहीं किया।
# [[दोआब]] क्षेत्र में कर वृद्धि (1326-27 ई.)
==आक्रमण==
# राजधानी परिवर्तन (1326-27 ई.)
1332 ई0 में उसने फ़ारस पर आक्रमण करने के लिए विशाल सेना का संग्रह किया, जिस पर अत्यधिक धन व्यय हुआ। इसके बाद यह योजना त्याग दी गई। उपरान्त उसने कूर्माचल अथवा कुमायूँ ( न कि चीन जैसा फ़रिश्ता का कथन है) को जीतने के लिए सेना भेजी, यद्यपि इस अभियान में वह कुछ पर्वतीय राजाओं का दमन करने में अवश्य सफल हुआ, परन्तु इसमें धन जन की अत्यधिक हानि हुई। आर्थिक कठिनाइयों के कारण सुल्तान को करों की दरें, विशेषकर दोआब के भू-भाग में अत्यधिक बढ़ा देनी पड़ी थीं। जब लोग कर अदा नहीं कर पाते तो उन्हें अन्य पशुओं की भाँति खदेड़-खदेड़ कर मारा जाता था। साम्राज्य के कई भागों में दुर्भिक्ष फैल गया और सुल्तान के अत्याचार और भी बढ़ गये। फलस्वरूप 1334-35 में मअबर में विद्रोह हुआ जो बाद में दक्षिण के अन्य भू-भागों, उत्तरी [[भारत]], [[बंगाल]], [[गुजरात]] और [[सिंध]] में भी फैल गया। 1351 ई0 में जब सुल्तान सिंध में विद्रोह का दमन करने में व्यस्त था तभी विषमज्वर के कारण उसकी मृत्यु हो गयी।
# सांकेतिक मुद्रा का प्रचलन (1329-30 ई.)
[[Category:विविध]]__INDEX__
# खुरासन एवं काराचिल का अभियान आदि।
==दोआब क्षेत्र में कर वृद्धि==
'''अपनी प्रथम योजना के द्वारा''' मुहम्मद तुग़लक़ ने दोआब के ऊपजाऊ प्रदेश में कर की वृद्धि कर दी (संभवतः 50 प्रतिशत), परन्तु उसी वर्ष दोआब में भयंकर अकाल पड़ गया, जिससे पैदावार प्रभावित हुई। तुग़लक़ के अधिकारियों द्वारा ज़बरन कर वसूलने से उस क्षेत्र में विद्रोह हो गया, जिससे तुग़लक़ की यह योजना असफल रही। मुहम्मद तुग़लक़ ने [[कृषि]] के विकास के लिए ‘अमीर-ए-कोही’ नामक एक नवीन विभाग की स्थापना की। सरकारी कर्मचारियों के भ्रष्टाचार, किसानों की उदासीनता, भूमि का अच्छा न होना इत्यादि कारणों से कृषि उन्नति सम्बन्धी अपनी योजना को तीन वर्ष पश्चात् समाप्त कर दिया। मुहम्मद बिन तुग़लक़ ने किसानों को बहुत कम ब्याज पर ऋण (सोनथर) उपलब्ध कराया।
==राजधानी परिवर्तन==
'''तुग़लक़ ने अपनी दूसरी योजना के अन्तर्गत''' राजधानी को [[दिल्ली]] से [[देवगिरि]] स्थानान्तरित किया। देवगिरि को “कुव्वतुल इस्लाम” भी कहा गया। सुल्तान [[कुतुबुद्दीन मुबारक ख़िलजी]] ने देवगिरि का नाम 'कुतुबाबाद' रखा था और मुहम्मद बिन तुग़लक़ ने इसका नाम बदलकर [[दौलताबाद]] कर दिया। सुल्तान की इस योजना के लिए सर्वाधिक आलोचना की गई। मुहम्मद तुग़लक़ द्वारा राजधानी परिवर्तन के कारणों पर इतिहासकारों में बड़ा विवाद है, फिर भी निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि, देवगिरि का [[दिल्ली सल्तनत]] के मध्य स्थित होना, [[मंगोल]] आक्रमणकारियों के भय से सुरक्षित रहना, दक्षिण-भारत की सम्पन्नता की ओर खिंचाव आदि ऐसे कारण थे, जिनके कारण सुल्तान ने राजधानी परिवर्तित करने की बात सोची। मुहम्मद तुग़लक़ की यह योजना भी पूर्णतः असफल रही और उसने 1355 ई. में दौलताबाद से लोगों को दिल्ली वापस आने की अनुमति दे दी। राजधानी परिवर्तन के परिणामस्वरूप दक्षिण में मुस्लिम संस्कृति का विकास हुआ, जिसने अंततः बहमनी साम्राज्य के उदय का मार्ग खोला।
==सांकेतिक मुद्रा का प्रचलन==
'''तीसरी योजना के अन्तर्गत मुहम्मद तुग़लक़ ने''' सांकेतिक व प्रतीकात्मक सिक्कों का प्रचलन करवाया। सिक्के संबंधी विविध प्रयोगों के कारण ही एडवर्ड टामस ने उसे ‘धनवानों का राजकुमार’ कहा है। मुहम्मद तुग़लक़ ने 'दोकानी' नामक सिक्के का प्रचलन करवाया। बरनी के अनुसार सम्भवतः सुल्तान ने राजकोष की रिक्तता के कारण एवं अपनी साम्राज्य विस्तार की नीति को सफल बनाने हेतु सांकेतिक मुद्रा का प्रचलन करवाया। सांकेतिक मुद्रा के अन्तर्गत सुल्तान ने संभवतः पीतल (फ़रिश्ता के अनुसार) और [[तांबा]] (बरनी के अनुसार) धातुओं के सिक्के चलाये, जिसका मूल्य [[चांदी]] के रुपये टका के बराबर होता था। सिक्का ढालने पर राज्य का नियंत्रण नहीं रहने से अनेक जाली [[टकसाल]] बन गये। लगान जाली सिक्के से दिया जाने लगा, जिससे अर्थव्यवसथा ठप्प हो गई। सांकेतिक मुद्रा चलाने की प्रेरणा [[चीन]] तथा ईरान से मिली। वहाँ के शासकों ने इन योजनाओं को सफलतापूर्वक चलाया, जबकि मुहम्मद तुग़लक़ का प्रयोग विफल रहा। सुल्तान को अपनी इस योजना की असफलता पर भयानक आर्थिक क्षति का सामना करना पड़ा।
==खुरासान एवं कराचिल अभियान==
'''चौथी योजना के अन्तर्गत मुहम्मद तुग़लक़ के''' [[खुरासान]] एवं कराचिल विजय अभियान का उल्लेख किया जाता है। खुरासन को जीतने के लिए मुहम्मद तुग़लक़ ने 3,70,000 सैनिकों की विशाल सेना को एक वर्ष का अग्रिम वेतन दे दिया, परन्तु राजनीतिक परिवर्तन के कारण दोनों देशों के मध्य समझौता हो गया, जिससे सुल्तान की यह योजना असफल रही और उसे आर्थिक रूप से हानि उठानी पड़ी। कराचिल अभियान के अन्तर्गत सुल्तान ने खुसरो मलिक के नेतृत्व में एक विशाल सेना को पहाड़ी राज्यों को जीतने के लिए भेजा। उसकी पूरी सेना जंगली रास्तों में भटक गई, [[इब्न बतूता]] के अनुसार अन्ततः केवल तीन अधिकारी ही बचकर वापस आ सके। इस प्रकार मुहम्मद तुग़लक़ की यह योजना भी असफल रही। सम्भवतः 1328-29 ई. के मध्य [[मंगोल]] आक्रमणकारी तरमाशरीन चग़ताई ने एक विशाल सेना के साथ [[भारत]] पर आक्रमण कर मुल्तान, [[लाहौर]] से लेकर [[दिल्ली]] तक के प्रदेशों को रौंद डाला। ऐसा माना जाता है कि, सुल्तान मुहम्मद तुग़लक़ ने मंगोल नेता को घूस देकर वापस कर दिया था। इस नीति के कारण सुल्तान को आलोचना का शिकार बनना पड़ा। इसके बाद फिर कभी मुहम्मद तुग़लक़ के समय में भारत पर मंगोल आक्रमण नहीं हुआ। अपनी महत्त्वाकांक्षी असफल योजनाओं के कारण मुहम्मद तुग़लक़ को ‘असफलताओं का बादशाह’ कहा जाता है।
 
==महत्त्वपूर्ण विद्रोह==
'''मुहम्मद बिन तुग़लक़ के शासन काल में''' सबसे अधिक (34) विद्रोह हुए, जिनमें से 27 विद्रोह अकेले दक्षिण [[भारत]] में ही हुए। सुल्तान मुहम्मद तुग़लक़ के शासन काल में हुए कुछ महत्त्वपूर्ण विद्रोहों का सारांश निम्नलिखित हैं-<br />
प्रथम विद्रोह 1327 ई. में तुग़लक़ के चचेरे भाई सुल्तान गुरशास्प ने किया, जो गुलबर्गा के निकट सागर का सूबेदार था। वह सुल्तान द्वारा बुरी तरह से पराजित किया गया। मुहम्मद तुग़लक़ के विरुद्ध [[सिंध]] तथा मुल्तान के सूबेदार बहराम आईबा ऊर्फ किश्लू ख़ाँ ने 1327-1328 ई. में विद्रोह किया। सैयद जलालुद्दीन हसनशाह का मालाबार विद्रोह 1334-1335 ई. में किया गया। [[बंगाल]] का विद्रोह (1330-1331 ई.) प्रमुख हैं। बंगाल के विद्रोह को यद्यपि प्रारंभ में दबा लिया गया था, किन्तु 1340-1341 ई. के लगभग शम्सुद्दीन के नेतृत्व में बंगाल [[दिल्ली सल्तनत]] से अलग हो गया। 1337-1338 ई. में [[कड़ा]] के सूबेदार निज़ाम भाई का विद्रोह, 1338-1339 ई. में [[बीदर]] के सूबेदार, नुसरत ख़ाँ का विद्रोह, 1339-1340 ई. में गुलबर्गा के अलीशाह का विद्रोह आदि भी मुहम्मद तुग़लक़ के विरुद्ध किये गये विद्रोहों में प्रमुख हैं। इस तरह के विद्रोहों का सुल्तान ने सफलतापूर्वक दमन किया। मुहम्मद तुग़लक़ के शासनकाल में ही दक्षिण में 1336 ई. में 'हरिहर' एवं 'बुक्का' नामक दो भाईयों ने स्वतंत्र ‘विजयनगर’ की स्थापना की। अफ़्रीकी यात्री [[इब्न बतूता]] को 1333 ई. में मुहम्मद ने अपने राजदूत के रूप में [[चीन]] भेजा। इब्न बतूता ने अपनी पुस्तक ‘रेहला’ में मुहम्मद तुग़लक़ के समय की घटनाओं का वर्णन किया है। मुहम्मद तुग़लक़ धार्मिक रूप में सहिष्णु था। [[जैन धर्म|जैन]] विद्वान् एवं संत 'जिनप्रभु सूरी' को दरबार में बुलाकर सम्मान प्रदान किया। मुहम्मद बिन तुग़लक़ दिल्ली सल्तनत का प्रथम सुल्तान था, जिसने [[हिन्दू]] त्योहरों ([[होली]], [[दीपावली]]) में भाग लिया। [[दिल्ली]] के प्रसिद्ध सूफ़ी शेख़ 'शिहाबुद्दीन' को 'दीवान-ए-मुस्तखराज' नियुक्त किया तथा शेख़ 'मुईजुद्दीन' को [[गुजरात]] का गर्वनर तथा 'सैय्यद कलामुद्दीन अमीर किरमानी' को सेना में नियुक्त किया। शेख़ 'निज़ामुद्दीन चिराग-ए-दिल्ली' सुल्तान के विरोधियों में एक थे।
 
==मृत्यु==
'''अपने शासन काल के अन्तिम समय में''' जब सुल्तान मुहम्मद तुग़लक़ [[गुजरात]] में विद्रोह को कुचल कर तार्गी को समाप्त करने के लिए [[सिंध]] की ओर बढ़ा, तो मार्ग में थट्टा के निकट गोंडाल पहुँचकर वह गंभीर रूप से बीमार हो गया। यहाँ पर सुल्तान की 20 मार्च, 1351 को मृत्यु हो गई। उसके मरने के पर इतिहासकार [[बदायूंनी]] ने कहा कि, “सल्तान को उसकी प्रजा से और प्रजा को अपने सुल्तान से मुक्ति मिल गई।” इसामी ने सुल्तान मुहम्मद बिन तुग़लक़ को [[इस्लाम धर्म]] का विरोधी बताया है। डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने उसके बारे में कहा है कि, “मध्य युग में राजमुकुट धारण करने वालों में मुहम्मद तुग़लक़, निःसंदेह योग्य व्यक्ति था। मुस्लिम शासन की स्थापना के पश्चात् [[दिल्ली]] के सिंहासन को सुशोभित करने वाले शासकों में वह सर्वाधिक विद्धान एवं सुसंस्कृत शासक था।”
उसने अपने सिक्कों पर “अल सुल्तान जिल्ली अल्लाह”, “सुल्तान ईश्वर की छाया”, सुल्तान ईश्वर का समर्थक है, आदि वाक्य को अंकित करवाया। मुहम्मद बिन तुग़लक़ एक अच्छा कवि और [[संगीत]] प्रेमी भी था।
 
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==संबंधित लेख==
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14:38, 6 जुलाई 2017 के समय का अवतरण

तुग़लक़ एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- तुग़लक़

ग़यासुद्दीन तुग़लक़ की मृत्यु के बाद उसका पुत्र 'जूना ख़ाँ', मुहम्मद बिन तुग़लक़ (1325-1351 ई.) के नाम से दिल्ली की गद्दी पर बैठा। इसका मूल नाम 'उलूग ख़ाँ' था। राजामुंदरी के एक अभिलेख में मुहम्मद तुग़लक़ (जौना या जूना ख़ाँ) को दुनिया का ख़ान कहा गया है। सम्भवतः मध्यकालीन सभी सुल्तानों में मुहम्मद तुग़लक़ सर्वाधिक शिक्षित, विद्वान् एवं योग्य व्यक्ति था। अपनी सनक भरी योजनाओं, क्रूर-कृत्यों एवं दूसरे के सुख-दुख के प्रति उपेक्षा का भाव रखने के कारण इसे 'स्वप्नशील', 'पागल' एवं 'रक्त-पिपासु' कहा गया है। बरनी, सरहिन्दी , निज़ामुद्दीन, बदायूंनी एवं फ़रिश्ता जैसे इतिहासकारों ने सुल्तान को अधर्मी घोषित किया गया है।

पद व्यवस्था

सिंहासन पर बैठने के बाद तुग़लक़ ने अमीरों एवं सरदारों को विभिन्न उपाधियाँ एवं पद प्रदान किया। उसने तातार ख़ाँ को 'बहराम ख़ाँ' की उपाधि, मलिक क़बूल को 'इमाद-उल-मुल्क' की उपाधि एवं 'वज़ीर-ए-मुमालिक' का पद दिया था, पर कालान्तर में उसे 'ख़ानेजहाँ' की उपाधि के साथ गुजरात का हाक़िम बनाया गया। उसने मलिक अरूयाज को ख्वाजा जहान की उपाधि के साथ ‘शहना-ए-इमारत’ का पद, मौलाना ग़यासुद्दीन को (सुल्तान का अध्यापक) 'कुतुलुग ख़ाँ' की उपाधि के साथ 'वकील-ए-दर' की पदवी, अपने चचेरे भाई फ़िरोज शाह तुग़लक़ को 'नायब बारबक' का पद प्रदान किया था।

गुणवान व्यक्ति

मुहम्मद बिन तुग़लक़ दिल्ली के सभी सुल्तानों में सर्वाधिक कुशाग्र, बुद्धि सम्पन्न, धर्म-निरेपक्ष, कला-प्रेमी एवं अनुभवी सेनापति था। वह अरबी भाषा एवं फ़ारसी भाषा का विद्धान तथा खगोलशास्त्र, दर्शन, गणित, चिकित्सा, विज्ञान, तर्कशास्त्र आदि में पारंगत था। अलाउद्दीन ख़िलजी की भाँति अपने शासन काल के प्रारम्भ में उसने, न तो ख़लीफ़ा से अपने पद की स्वीकृति ली और न उलेमा वर्ग का सहयोग लिया, यद्यपि बाद मे ऐसा करना पड़ा। उसने न्याय विभाग पर उलेमा वर्ग का एकाधिपत्य समाप्त किया। क़ाज़ी के जिस फैसले से वह संतुष्ट नहीं होता था, उसे बदल देता था। सर्वप्रथम मुहम्मद तुग़लक़ ने ही बिना किसी भेदभाव के योग्यता के आधार पर पदों का आवंटन किया। नस्ल और वर्ग-विभेद को समाप्त करके योग्यता के आधार पर अधिकारियों को नियुक्त करने की नीति अपनायी। वस्तुत: यह उस शासक का दुर्भाग्य था कि, उसकी योजनाएं सफलतापूर्वक क्रियान्वित नहीं हुई। जिसके कारण यह इतिहासकारों की आलोचना का पात्र बना।

दिल्ली सल्तनत

मुहम्मद तुग़लक़ के सिंहासन पर बैठते समय दिल्ली सल्तनत कुल 23 प्रांतों में बँटा थी, जिनमें मुख्य थे - दिल्ली, देवगिरि, लाहौर, मुल्तान, सरमुती, गुजरात, अवध, कन्नौज, लखनौती, बिहार, मालवा, जाजनगर (उड़ीसा), द्वारसमुद्र आदि। कश्मीर एवं बलूचिस्तान दिल्ली सल्तनत में शामिल नहीं थे। दिल्ली सल्तनत की सीमा का सर्वाधिक विस्तार इसी के शासनकाल में हुआ था। परन्तु इसकी क्रूर नीति के कारण राज्य में विद्रोह आरम्भ हो गया। जिसके फलस्वरूप दक्षिण में नए स्वतंत्र राज्य की स्थापना हुई और ये क्षेत्र दिल्ली सल्तनत से अलग हो गए। बंगाल भी स्वतंत्र हो गया। राज्यारोहण के बाद मुहम्मद तुग़लक़ ने कुछ नवीन योजनाओं का निर्माण कर उन्हें क्रियान्वित करने का प्रयत्न किया। जैसे -

  1. दोआब क्षेत्र में कर वृद्धि (1326-27 ई.)
  2. राजधानी परिवर्तन (1326-27 ई.)
  3. सांकेतिक मुद्रा का प्रचलन (1329-30 ई.)
  4. खुरासन एवं काराचिल का अभियान आदि।

दोआब क्षेत्र में कर वृद्धि

अपनी प्रथम योजना के द्वारा मुहम्मद तुग़लक़ ने दोआब के ऊपजाऊ प्रदेश में कर की वृद्धि कर दी (संभवतः 50 प्रतिशत), परन्तु उसी वर्ष दोआब में भयंकर अकाल पड़ गया, जिससे पैदावार प्रभावित हुई। तुग़लक़ के अधिकारियों द्वारा ज़बरन कर वसूलने से उस क्षेत्र में विद्रोह हो गया, जिससे तुग़लक़ की यह योजना असफल रही। मुहम्मद तुग़लक़ ने कृषि के विकास के लिए ‘अमीर-ए-कोही’ नामक एक नवीन विभाग की स्थापना की। सरकारी कर्मचारियों के भ्रष्टाचार, किसानों की उदासीनता, भूमि का अच्छा न होना इत्यादि कारणों से कृषि उन्नति सम्बन्धी अपनी योजना को तीन वर्ष पश्चात् समाप्त कर दिया। मुहम्मद बिन तुग़लक़ ने किसानों को बहुत कम ब्याज पर ऋण (सोनथर) उपलब्ध कराया।

राजधानी परिवर्तन

तुग़लक़ ने अपनी दूसरी योजना के अन्तर्गत राजधानी को दिल्ली से देवगिरि स्थानान्तरित किया। देवगिरि को “कुव्वतुल इस्लाम” भी कहा गया। सुल्तान कुतुबुद्दीन मुबारक ख़िलजी ने देवगिरि का नाम 'कुतुबाबाद' रखा था और मुहम्मद बिन तुग़लक़ ने इसका नाम बदलकर दौलताबाद कर दिया। सुल्तान की इस योजना के लिए सर्वाधिक आलोचना की गई। मुहम्मद तुग़लक़ द्वारा राजधानी परिवर्तन के कारणों पर इतिहासकारों में बड़ा विवाद है, फिर भी निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि, देवगिरि का दिल्ली सल्तनत के मध्य स्थित होना, मंगोल आक्रमणकारियों के भय से सुरक्षित रहना, दक्षिण-भारत की सम्पन्नता की ओर खिंचाव आदि ऐसे कारण थे, जिनके कारण सुल्तान ने राजधानी परिवर्तित करने की बात सोची। मुहम्मद तुग़लक़ की यह योजना भी पूर्णतः असफल रही और उसने 1355 ई. में दौलताबाद से लोगों को दिल्ली वापस आने की अनुमति दे दी। राजधानी परिवर्तन के परिणामस्वरूप दक्षिण में मुस्लिम संस्कृति का विकास हुआ, जिसने अंततः बहमनी साम्राज्य के उदय का मार्ग खोला।

सांकेतिक मुद्रा का प्रचलन

तीसरी योजना के अन्तर्गत मुहम्मद तुग़लक़ ने सांकेतिक व प्रतीकात्मक सिक्कों का प्रचलन करवाया। सिक्के संबंधी विविध प्रयोगों के कारण ही एडवर्ड टामस ने उसे ‘धनवानों का राजकुमार’ कहा है। मुहम्मद तुग़लक़ ने 'दोकानी' नामक सिक्के का प्रचलन करवाया। बरनी के अनुसार सम्भवतः सुल्तान ने राजकोष की रिक्तता के कारण एवं अपनी साम्राज्य विस्तार की नीति को सफल बनाने हेतु सांकेतिक मुद्रा का प्रचलन करवाया। सांकेतिक मुद्रा के अन्तर्गत सुल्तान ने संभवतः पीतल (फ़रिश्ता के अनुसार) और तांबा (बरनी के अनुसार) धातुओं के सिक्के चलाये, जिसका मूल्य चांदी के रुपये टका के बराबर होता था। सिक्का ढालने पर राज्य का नियंत्रण नहीं रहने से अनेक जाली टकसाल बन गये। लगान जाली सिक्के से दिया जाने लगा, जिससे अर्थव्यवसथा ठप्प हो गई। सांकेतिक मुद्रा चलाने की प्रेरणा चीन तथा ईरान से मिली। वहाँ के शासकों ने इन योजनाओं को सफलतापूर्वक चलाया, जबकि मुहम्मद तुग़लक़ का प्रयोग विफल रहा। सुल्तान को अपनी इस योजना की असफलता पर भयानक आर्थिक क्षति का सामना करना पड़ा।

खुरासान एवं कराचिल अभियान

चौथी योजना के अन्तर्गत मुहम्मद तुग़लक़ के खुरासान एवं कराचिल विजय अभियान का उल्लेख किया जाता है। खुरासन को जीतने के लिए मुहम्मद तुग़लक़ ने 3,70,000 सैनिकों की विशाल सेना को एक वर्ष का अग्रिम वेतन दे दिया, परन्तु राजनीतिक परिवर्तन के कारण दोनों देशों के मध्य समझौता हो गया, जिससे सुल्तान की यह योजना असफल रही और उसे आर्थिक रूप से हानि उठानी पड़ी। कराचिल अभियान के अन्तर्गत सुल्तान ने खुसरो मलिक के नेतृत्व में एक विशाल सेना को पहाड़ी राज्यों को जीतने के लिए भेजा। उसकी पूरी सेना जंगली रास्तों में भटक गई, इब्न बतूता के अनुसार अन्ततः केवल तीन अधिकारी ही बचकर वापस आ सके। इस प्रकार मुहम्मद तुग़लक़ की यह योजना भी असफल रही। सम्भवतः 1328-29 ई. के मध्य मंगोल आक्रमणकारी तरमाशरीन चग़ताई ने एक विशाल सेना के साथ भारत पर आक्रमण कर मुल्तान, लाहौर से लेकर दिल्ली तक के प्रदेशों को रौंद डाला। ऐसा माना जाता है कि, सुल्तान मुहम्मद तुग़लक़ ने मंगोल नेता को घूस देकर वापस कर दिया था। इस नीति के कारण सुल्तान को आलोचना का शिकार बनना पड़ा। इसके बाद फिर कभी मुहम्मद तुग़लक़ के समय में भारत पर मंगोल आक्रमण नहीं हुआ। अपनी महत्त्वाकांक्षी असफल योजनाओं के कारण मुहम्मद तुग़लक़ को ‘असफलताओं का बादशाह’ कहा जाता है।

महत्त्वपूर्ण विद्रोह

मुहम्मद बिन तुग़लक़ के शासन काल में सबसे अधिक (34) विद्रोह हुए, जिनमें से 27 विद्रोह अकेले दक्षिण भारत में ही हुए। सुल्तान मुहम्मद तुग़लक़ के शासन काल में हुए कुछ महत्त्वपूर्ण विद्रोहों का सारांश निम्नलिखित हैं-
प्रथम विद्रोह 1327 ई. में तुग़लक़ के चचेरे भाई सुल्तान गुरशास्प ने किया, जो गुलबर्गा के निकट सागर का सूबेदार था। वह सुल्तान द्वारा बुरी तरह से पराजित किया गया। मुहम्मद तुग़लक़ के विरुद्ध सिंध तथा मुल्तान के सूबेदार बहराम आईबा ऊर्फ किश्लू ख़ाँ ने 1327-1328 ई. में विद्रोह किया। सैयद जलालुद्दीन हसनशाह का मालाबार विद्रोह 1334-1335 ई. में किया गया। बंगाल का विद्रोह (1330-1331 ई.) प्रमुख हैं। बंगाल के विद्रोह को यद्यपि प्रारंभ में दबा लिया गया था, किन्तु 1340-1341 ई. के लगभग शम्सुद्दीन के नेतृत्व में बंगाल दिल्ली सल्तनत से अलग हो गया। 1337-1338 ई. में कड़ा के सूबेदार निज़ाम भाई का विद्रोह, 1338-1339 ई. में बीदर के सूबेदार, नुसरत ख़ाँ का विद्रोह, 1339-1340 ई. में गुलबर्गा के अलीशाह का विद्रोह आदि भी मुहम्मद तुग़लक़ के विरुद्ध किये गये विद्रोहों में प्रमुख हैं। इस तरह के विद्रोहों का सुल्तान ने सफलतापूर्वक दमन किया। मुहम्मद तुग़लक़ के शासनकाल में ही दक्षिण में 1336 ई. में 'हरिहर' एवं 'बुक्का' नामक दो भाईयों ने स्वतंत्र ‘विजयनगर’ की स्थापना की। अफ़्रीकी यात्री इब्न बतूता को 1333 ई. में मुहम्मद ने अपने राजदूत के रूप में चीन भेजा। इब्न बतूता ने अपनी पुस्तक ‘रेहला’ में मुहम्मद तुग़लक़ के समय की घटनाओं का वर्णन किया है। मुहम्मद तुग़लक़ धार्मिक रूप में सहिष्णु था। जैन विद्वान् एवं संत 'जिनप्रभु सूरी' को दरबार में बुलाकर सम्मान प्रदान किया। मुहम्मद बिन तुग़लक़ दिल्ली सल्तनत का प्रथम सुल्तान था, जिसने हिन्दू त्योहरों (होली, दीपावली) में भाग लिया। दिल्ली के प्रसिद्ध सूफ़ी शेख़ 'शिहाबुद्दीन' को 'दीवान-ए-मुस्तखराज' नियुक्त किया तथा शेख़ 'मुईजुद्दीन' को गुजरात का गर्वनर तथा 'सैय्यद कलामुद्दीन अमीर किरमानी' को सेना में नियुक्त किया। शेख़ 'निज़ामुद्दीन चिराग-ए-दिल्ली' सुल्तान के विरोधियों में एक थे।

मृत्यु

अपने शासन काल के अन्तिम समय में जब सुल्तान मुहम्मद तुग़लक़ गुजरात में विद्रोह को कुचल कर तार्गी को समाप्त करने के लिए सिंध की ओर बढ़ा, तो मार्ग में थट्टा के निकट गोंडाल पहुँचकर वह गंभीर रूप से बीमार हो गया। यहाँ पर सुल्तान की 20 मार्च, 1351 को मृत्यु हो गई। उसके मरने के पर इतिहासकार बदायूंनी ने कहा कि, “सल्तान को उसकी प्रजा से और प्रजा को अपने सुल्तान से मुक्ति मिल गई।” इसामी ने सुल्तान मुहम्मद बिन तुग़लक़ को इस्लाम धर्म का विरोधी बताया है। डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने उसके बारे में कहा है कि, “मध्य युग में राजमुकुट धारण करने वालों में मुहम्मद तुग़लक़, निःसंदेह योग्य व्यक्ति था। मुस्लिम शासन की स्थापना के पश्चात् दिल्ली के सिंहासन को सुशोभित करने वाले शासकों में वह सर्वाधिक विद्धान एवं सुसंस्कृत शासक था।” उसने अपने सिक्कों पर “अल सुल्तान जिल्ली अल्लाह”, “सुल्तान ईश्वर की छाया”, सुल्तान ईश्वर का समर्थक है, आदि वाक्य को अंकित करवाया। मुहम्मद बिन तुग़लक़ एक अच्छा कवि और संगीत प्रेमी भी था।


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