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'''महर्षि वसिष्ठ'''<br />
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'''वसिष्ठ''' [[वैदिक काल]] के विख्यात ऋषि थे। वसिष्ठ एक [[सप्तर्षि]] हैं। उनकी पत्नी [[अरुन्धती]] है। वह योग-वासिष्ठ में राम के गुरु और राजा दशरथ के राजकुल गुरु भी थे। वसिष्ठ अर्थात आर्यों की पुरातन ओजस्वी संस्कृति के स्रष्टाओं में से एक अपूर्व स्रष्टा। 'वस' धातु श्रेष्ठत्व का सूचक है। वसिष्ठ का अर्थ है सबसे प्रकाशवान, सबसे उत्कृष्ट, सबमें श्रेष्ठ और महिमावंत। आदि वसिष्ठ को [[ब्रह्मा]] का मानस पुत्र, प्रजापतियों में एक कहा गया है। स्वयंभू [[मन्वंतर]] में वे ब्रह्मा की प्राणवायु से उत्पन्न हुए थे। बाद के वैवस्वत मन्वंतर में ब्रह्मा के मानस पुत्र के रूप में [[अग्नि]] के मध्य भाग से उत्पन्न हुए। [[यज्ञ]] के ऋत्विज पद को लेकर [[निमि|निमिराजा]] के साथ षट्राग हुआ, दोनों ने एक दूसरे को श्राप दिया, परिणामस्वरूप दोनों की आत्मा शरीर त्याग कर ब्रह्मलोक में गयी। वसिष्ठ का तीसरा जन्म, मित्रावरुण ने [[उर्वशी]] को देखा और उनका जो वीर्यस्खलन हुआ, उससे हुआ।
==पौराणिक उल्लेख==
[[वेद]], इतिहास, [[पुराण|पुराणों]] में वसिष्ठ  के अनगिनत कार्यों का उल्लेख किया गया है। महर्षि वसिष्ठ की उत्पत्ति का वर्णन [[पुराण|पुराणों]] में विभिन्न रूपों में प्राप्त होता है। कहीं ये [[ब्रह्मा]] के मानस पुत्र, कहीं मित्रावरुण के पुत्र और कहीं अग्निपुत्र कहे गये हैं। इनकी पत्नी का नाम [[अरुन्धती]] देवी था। जब इनके पिता ब्रह्मा जी ने इन्हें मृत्युलोक में जाकर सृष्टि का विस्तार करने तथा [[सूर्यवंश]] का पौरोहित्य कर्म करने की आज्ञा दी, तब इन्होंने पौरोहित्य कर्म को अत्यन्त निन्दित मानकर उसे करने में अपनी असमर्थता व्यक्त की। ब्रह्मा जी ने इनसे कहा- 'इसी वंश में आगे चलकर मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री[[राम]] अवतार ग्रहण करेंगे और यह पौरोहित्य कर्म ही तुम्हारी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करेगा।' फिर इन्होंने इस धराधाम पर मानव-शरीर में आना स्वीकार किया।
==इक्ष्वाकु वंश के पुरोहित==
निमि राजा के विवाह के बाद वसिष्ठ ने [[सूर्य वंश]] की दूसरी शाखाओं का पुरोहित कर्म छोड़कर केवल [[इक्ष्वाकु वंश]] के राजगुरु पुरोहित के रूप में कार्य किया। [[दशरथ]] से पुत्रेष्टि यज्ञ कराया जिससे [[राम]] आदि चार पुत्र हुए। अनेक बार आपत्ति का प्रसंग आने पर तपोबल से उन्होंने राजा प्रजा की रक्षा की। राम को शस्त्र शास्त्र की शिक्षा दी। वसिष्ठ के कारण ही 'रामराज्य' की  स्थापना संभव हुई।


महर्षि वसिष्ठ की उत्पत्ति का वर्णन [[पुराण|पुराणों]] में विभिन्न रूपों में प्राप्त होता है। कहीं ये [[ब्रह्मा]] के मानस पुत्र, कहीं मित्रावरुण के पुत्र और कहीं अग्निपुत्र कहे गये हैं। इनकी पत्नी का नाम [[अरून्धती]] देवी था। जब इनके पिता ब्रह्मा जी ने इन्हें मृत्युलोक में जाकर सृष्टि का विस्तार करने तथा [[सूर्यवंश]] का पौरोहित्य कर्म करने की आज्ञा दी, तब इन्होंने पौरोहित्य कर्म को अत्यन्त निन्दित मानकर उसे करने में अपनी असमर्थता व्यक्त की। ब्रह्मा जी ने इनसे कहा- 'इसी वंश में आगे चलकर मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री[[राम]] अवतार ग्रहण करेंगे और यह पौरोहित्य कर्म ही तुम्हारी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करेगा।' फिर इन्होंने इस धराधाम पर मानव-शरीर में आना स्वीकार किया।
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महर्षि वसिष्ठ ने सूर्यवंश का पौरोहित्य करते हुए अनेक लोक-कल्याणकारी कार्यों को सम्पन्न किया। इन्हीं के उपदेश के बल पर [[भगीरथ]] ने प्रयत्न करके [[गंगा नदी|गंगा]]-जैसी लोक कल्याणकारिणी नदी को हम लोगों के लिये सुलभ कराया। [[दिलीप]] को [[नन्दिनी]] की सेवा की शिक्षा देकर [[रघु]]-जैसे पुत्र प्रदान करने वाले तथा महाराज [[दशरथ]] की निराशा में आशा का संचार करने वाले महर्षि वसिष्ठ ही थे। इन्हीं की सम्मति से महाराज दशरथ ने पुत्रेष्टि-यज्ञ सम्पन्न किया और भगवान श्री राम का अवतार हुआ। भगवान श्री राम को शिष्य रूप में प्राप्त कर महर्षि वसिष्ठ का पुरोहित-जीवन सफल हो गया। भगवान श्री राम के वन गमन से लौटने के बाद इन्हीं के द्वारा उनका राज्याभिषेक हुआ। गुरु वसिष्ठ ने श्री राम के राज्यकार्य में सहयोग के साथ उनसे अनेक यज्ञ करवाये।
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==वसिष्ठ और विश्वामित्र==
महर्षि वसिष्ठ क्षमा की प्रतिपूर्ति थे। एक बार श्री [[विश्वामित्र]] उनके अतिथि हुए। महर्षि वसिष्ठ ने [[कामधेनु]] के सहयोग से उनका राजोचित सत्कार किया। कामधेनु की अलौकिक क्षमता को देखकर विश्वामित्र के मन में लोभ उत्पन्न हो गया। उन्होंने इस गौ को वसिष्ठ से लेने की इच्छा प्रकट की। कामधेनु वसिष्ठ जी के लिये आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु महत्त्वपूर्ण साधन थी, अत: इन्होंने उसे देने में असमर्थता व्यक्त की। विश्वामित्र ने कामधेनु को बलपूर्व का ले जाना चाहा। वसिष्ठ जी के संकेत पर कामधेनु ने अपार सेना की सृष्टि कर दी। विश्वामित्र को अपनी सेना के साथ भाग जाने पर विवश होना पड़ा। द्वेष-भावना से प्रेरित होकर विश्वामित्र ने भगवान [[शंकर]] की तपस्या की और उनसे दिव्यास्त्र प्राप्त करके उन्होंने महर्षि वसिष्ठ पर पुन: आक्रमण कर दिया, किन्तु महर्षि वसिष्ठ के ब्रह्मदण्ड के सामने उनके सारे दिव्यास्त्र विफल हो गये और उन्हें क्षत्रिय बल को धिक्कार कर ब्राह्मणत्व लाभी के लिये तपस्या हेतु वन जाना पड़ा।
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विश्वामित्र की अपूर्व तपस्या से सभी लोग चमत्कृत हो गये। सब लोगों ने उन्हें ब्रह्मर्षि मान लिया, किन्तु महर्षि वसिष्ठ के ब्रह्मर्षि कहे बिना वे ब्रह्मर्षि नहीं कहला सकते थे। अन्त में उन्होंने वसिष्ठजी को मिटाने का निश्चय कर लिया और उनके आश्रम में एक पेड़ पर छिपकर वसिष्ठ जी को मारने के लिये उपयुक्त अवसर की प्रतीक्षा करने लगे। उसी समय अरून्धती के प्रश्न करने पर वसिष्ठ जी ने विश्वामित्र के अपूर्व तप की प्रशंसा की । क्षमाबल ने पशुबल पर विजय पायी और विश्वामित्र अस्त्र फेंककर श्री वसिष्ठ जी के शरणागत हुए। वसिष्ठ जी ने उन्हें उठाकर गले से लगाया और ब्रह्मर्षि की उपाधि से विभूषित किया। इतिहास-पुराणों में महर्षि वसिष्ठ के चरित्र का विस्तृत वर्णन मिलता है। ये आज भी सप्तर्षियों में रहकर जगत का कल्याण करते रहते हैं।
{{रामायण}}


विश्वामित्र की अपूर्व तपस्या से सभी लोग चमत्कृत हो गये। सब लोगों ने उन्हें [[ब्रह्मर्षि]] मान लिया, किन्तु महर्षि वसिष्ठ के ब्रह्मर्षि कहे बिना वे ब्रह्मर्षि नहीं कहला सकते थे। वसिष्ठ [[विश्वामित्र]] के बीच के संघर्ष की कथाएं सुविदित हैं। वसिष्ठ क्षत्रिय राजा विश्वामित्र को 'राजर्षि' कह कर सम्बोधित करते थे। विश्वामित्र की इच्छा थी कि वसिष्ठ उन्हें 'महर्षि' कहकर सम्बोधित करें। एक बार रात में छिप कर विश्वामित्र वसिष्ठ को मारने के लिए आये। एकांत में वसिष्ठ और अरुंधती के बीच हो रही बात उन्होंने सुनी। वसिष्ठ कह रहे थे, 'अहा, ऐसा [[पूर्णिमा]] के [[चन्द्रमा]] समान निर्मल तप तो कठोर तपस्वी विश्वामित्र के अतिरिक्त भला किस का हो सकता है? उनके जैसा इस समय दूसरा कोई तपस्वी नहीं।' एकांत में शत्रु की प्रशंसा करने वाले महापुरुष के प्रति द्वेष रखने के कारण विश्वामित्र को पश्चाताप हुआ।  शस्त्र हाथ से फेंक कर वे वसिष्ठ के चरणों में गिर पड़े। वसिष्ठ ने विश्वामित्र को हृदय से लगा कर 'महर्षि' कहकर उनका स्वागत किया। इस प्रकार दोनों के बीच शत्रुता का अंत हुआ।   
==व्यक्तित्व==
वसिष्ठ महा तेजस्वी, त्रिकालदर्शी, पूर्णज्ञानी, महातपस्वी, शस्त्र शास्त्र के ज्ञाता और योगी थे। ब्रह्मशक्ति के मूर्तिमान स्वरूप थे, मंत्र यज्ञ विद्या के वे जानकार थे। लोगों की वृत्ति बदलवाकर राष्ट्रों का नव निर्माण करने वाले थे। उनकी कार्य शक्ति अलौकिक थी।
===वसिष्ठ के ग्रंथ=== 
* [[ऋग्वेद]] के सातवें मंडल के द्रष्टावसिष्ठ हैं। इस मंडल में 104 सूक्तों में 841ऋचाएं हैं। उन्होंने [[अग्निदेव|अग्नि]], [[इन्द्र]], [[उषा]], [[वरुण]], [[मरुत]], [[सविता]], [[सरस्वती]] आदि आर्यों के पूज्य देवी देवताओं की स्तुति मधुर एवं ओजस्वी वाणी में की है।
* योगवासिष्ठ महारामायण - राम वसिष्ठ के संवाद के रूप में इस ग्रंथ के छ: प्रकरण हैं। वैराग्य, मुमुक्षुत्व, उत्पत्ति, स्थिति, उपशम और निर्वाण। कुल मिलाकर इस ग्रंथ में 32 हज़ार  श्लोक हैं। अद्वैत [[वेदांत]] के ग्रंथों में इस ग्रंथ का विशिष्ट स्थान है। ग्रंथ में कहा है - '''मानवता पूर्वक जीवन जीए, वही सच्चा मानव है।'''
*वसिष्ठ धर्मसूत्र ( वसिष्ठ स्मृति) - इस ग्रंथ में  30 अध्याय हैं। वर्ण आश्रम के धर्म, संस्कार, स्त्रियों स्नातकों के धर्म, सदाचार, राजधर्म, वैदिक साहित्य की महिमा, प्रायश्चित, दान का पुण्य आदि विषयों का इसमें समावेश है। महत्त्वपूर्ण वाक्य : '''धर्म से रहो, अधर्म से नहीं; सत्य बोलो, असत्य नही; दृष्टि दीर्घ रखो, संकीर्ण नहीं और ' पश्यति नापरम परं'।''' इसमें कर्म  का महत्त्व और आचरण का आदर्श प्रस्तुत किया है।
* वसिष्ठ संहिता- यह शाक्त ग्रंथ है। शांति, जय, होम, बलि, दान आदि विषयों के उपरांत इस ग्रंथ में ज्योतिष के विषयों पर विचार किया गया है। ग्रंथ में 45 अध्याय हैं।
* वसिष्ठ रचित धनुर्वेद का एक ग्रंथ कुछ पहले प्राप्त हुआ है।
* वसिष्ठ पुराण, वसिष्ठ श्राद्धकल्प, वसिष्ठ शिक्षा, वसिष्ठ होम विधि, वसिष्ठ [[तंत्र]] आदि अन्य ग्रंथों में उनके पहले के व्याकरणकारों के नामों में वसिष्ठ का नाम भी है।
* वसिष्ठ ने [[हिन्दू धर्म]] का सुयश विस्तृत किया, सांस्कृतिक परम्परा निर्माण की, [[सप्तर्षि]] में स्थान प्राप्त करने वाले इस आदर्श 'ब्रह्मर्षि' की भारतीय संस्कृति सदैव ऋणी रहेगी।
इतिहास-पुराणों में महर्षि वसिष्ठ के चरित्र का विस्तृत वर्णन मिलता है। ये आज भी सप्तर्षियों में रहकर जगत का कल्याण करते रहते हैं।
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक3 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }}
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
भारतीय संस्कृति के सर्जक, पेज न. (23)
<references/>
==बाहरी कड़ियाँ==
*[http://www.pravakta.com/आखिर-वसिष्ठ-कौन-थे आखिर वसिष्ठ कौन थे?]
==संबंधित लेख==
{{रामायण}}{{ॠषि-मुनि2}}{{ॠषि-मुनि}}
[[Category:पौराणिक कोश]]  
[[Category:पौराणिक कोश]]  
[[Category:ॠषि मुनि]]
[[Category:ऋषि मुनि]][[Category:संस्कृत साहित्यकार]]
<br />
[[Category:प्रसिद्ध चरित्र और मिथक कोश]]
{{ॠषि-मुनि}}
[[Category:रामायण]]
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05:01, 4 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण

संक्षिप्त परिचय
वसिष्ठ
महर्षि वसिष्ठ
महर्षि वसिष्ठ
जन्म विवरण महर्षि वसिष्ठ की उत्पत्ति का वर्णन पुराणों में विभिन्न रूपों में प्राप्त होता है। कहीं ये ब्रह्मा के मानस पुत्र, कहीं मित्रावरुण के पुत्र और कहीं अग्निपुत्र कहे गये हैं।
विवाह अरुन्धती
रचनाएँ योगवासिष्ठ रामायण, वसिष्ठ धर्मसूत्र, वसिष्ठ संहिता, वसिष्ठ पुराण, धनुर्वेद
संबंधित लेख कामधेनु, सप्तर्षि
अन्य जानकारी भगवान श्रीराम के वन गमन से लौटने के बाद इन्हीं के द्वारा उनका राज्याभिषेक हुआ। गुरु वसिष्ठ ने श्रीराम के राज्यकार्य में सहयोग के साथ उनसे अनेक यज्ञ करवाये।

वसिष्ठ वैदिक काल के विख्यात ऋषि थे। वसिष्ठ एक सप्तर्षि हैं। उनकी पत्नी अरुन्धती है। वह योग-वासिष्ठ में राम के गुरु और राजा दशरथ के राजकुल गुरु भी थे। वसिष्ठ अर्थात आर्यों की पुरातन ओजस्वी संस्कृति के स्रष्टाओं में से एक अपूर्व स्रष्टा। 'वस' धातु श्रेष्ठत्व का सूचक है। वसिष्ठ का अर्थ है सबसे प्रकाशवान, सबसे उत्कृष्ट, सबमें श्रेष्ठ और महिमावंत। आदि वसिष्ठ को ब्रह्मा का मानस पुत्र, प्रजापतियों में एक कहा गया है। स्वयंभू मन्वंतर में वे ब्रह्मा की प्राणवायु से उत्पन्न हुए थे। बाद के वैवस्वत मन्वंतर में ब्रह्मा के मानस पुत्र के रूप में अग्नि के मध्य भाग से उत्पन्न हुए। यज्ञ के ऋत्विज पद को लेकर निमिराजा के साथ षट्राग हुआ, दोनों ने एक दूसरे को श्राप दिया, परिणामस्वरूप दोनों की आत्मा शरीर त्याग कर ब्रह्मलोक में गयी। वसिष्ठ का तीसरा जन्म, मित्रावरुण ने उर्वशी को देखा और उनका जो वीर्यस्खलन हुआ, उससे हुआ।

पौराणिक उल्लेख

वेद, इतिहास, पुराणों में वसिष्ठ के अनगिनत कार्यों का उल्लेख किया गया है। महर्षि वसिष्ठ की उत्पत्ति का वर्णन पुराणों में विभिन्न रूपों में प्राप्त होता है। कहीं ये ब्रह्मा के मानस पुत्र, कहीं मित्रावरुण के पुत्र और कहीं अग्निपुत्र कहे गये हैं। इनकी पत्नी का नाम अरुन्धती देवी था। जब इनके पिता ब्रह्मा जी ने इन्हें मृत्युलोक में जाकर सृष्टि का विस्तार करने तथा सूर्यवंश का पौरोहित्य कर्म करने की आज्ञा दी, तब इन्होंने पौरोहित्य कर्म को अत्यन्त निन्दित मानकर उसे करने में अपनी असमर्थता व्यक्त की। ब्रह्मा जी ने इनसे कहा- 'इसी वंश में आगे चलकर मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम अवतार ग्रहण करेंगे और यह पौरोहित्य कर्म ही तुम्हारी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करेगा।' फिर इन्होंने इस धराधाम पर मानव-शरीर में आना स्वीकार किया।

इक्ष्वाकु वंश के पुरोहित

निमि राजा के विवाह के बाद वसिष्ठ ने सूर्य वंश की दूसरी शाखाओं का पुरोहित कर्म छोड़कर केवल इक्ष्वाकु वंश के राजगुरु पुरोहित के रूप में कार्य किया। दशरथ से पुत्रेष्टि यज्ञ कराया जिससे राम आदि चार पुत्र हुए। अनेक बार आपत्ति का प्रसंग आने पर तपोबल से उन्होंने राजा प्रजा की रक्षा की। राम को शस्त्र शास्त्र की शिक्षा दी। वसिष्ठ के कारण ही 'रामराज्य' की स्थापना संभव हुई।

महर्षि वसिष्ठ ने सूर्यवंश का पौरोहित्य करते हुए अनेक लोक-कल्याणकारी कार्यों को सम्पन्न किया। इन्हीं के उपदेश के बल पर भगीरथ ने प्रयत्न करके गंगा-जैसी लोक कल्याणकारिणी नदी को हम लोगों के लिये सुलभ कराया। दिलीप को नन्दिनी की सेवा की शिक्षा देकर रघु-जैसे पुत्र प्रदान करने वाले तथा महाराज दशरथ की निराशा में आशा का संचार करने वाले महर्षि वसिष्ठ ही थे। इन्हीं की सम्मति से महाराज दशरथ ने पुत्रेष्टि-यज्ञ सम्पन्न किया और भगवान श्री राम का अवतार हुआ। भगवान श्री राम को शिष्य रूप में प्राप्त कर महर्षि वसिष्ठ का पुरोहित-जीवन सफल हो गया। भगवान श्री राम के वन गमन से लौटने के बाद इन्हीं के द्वारा उनका राज्याभिषेक हुआ। गुरु वसिष्ठ ने श्री राम के राज्यकार्य में सहयोग के साथ उनसे अनेक यज्ञ करवाये।

वसिष्ठ और विश्वामित्र

महर्षि वसिष्ठ क्षमा की प्रतिपूर्ति थे। एक बार श्री विश्वामित्र उनके अतिथि हुए। महर्षि वसिष्ठ ने कामधेनु के सहयोग से उनका राजोचित सत्कार किया। कामधेनु की अलौकिक क्षमता को देखकर विश्वामित्र के मन में लोभ उत्पन्न हो गया। उन्होंने इस गौ को वसिष्ठ से लेने की इच्छा प्रकट की। कामधेनु वसिष्ठ जी के लिये आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु महत्त्वपूर्ण साधन थी, अत: इन्होंने उसे देने में असमर्थता व्यक्त की। विश्वामित्र ने कामधेनु को बलपूर्वक ले जाना चाहा। वसिष्ठ जी के संकेत पर कामधेनु ने अपार सेना की सृष्टि कर दी। विश्वामित्र को अपनी सेना के साथ भाग जाने पर विवश होना पड़ा। द्वेष-भावना से प्रेरित होकर विश्वामित्र ने भगवान शंकर की तपस्या की और उनसे दिव्यास्त्र प्राप्त करके उन्होंने महर्षि वसिष्ठ पर पुन: आक्रमण कर दिया, किन्तु महर्षि वसिष्ठ के ब्रह्मदण्ड के सामने उनके सारे दिव्यास्त्र विफल हो गये और उन्हें क्षत्रिय बल को धिक्कार कर ब्राह्मणत्व लाभी के लिये तपस्या हेतु वन जाना पड़ा।

विश्वामित्र की अपूर्व तपस्या से सभी लोग चमत्कृत हो गये। सब लोगों ने उन्हें ब्रह्मर्षि मान लिया, किन्तु महर्षि वसिष्ठ के ब्रह्मर्षि कहे बिना वे ब्रह्मर्षि नहीं कहला सकते थे। वसिष्ठ विश्वामित्र के बीच के संघर्ष की कथाएं सुविदित हैं। वसिष्ठ क्षत्रिय राजा विश्वामित्र को 'राजर्षि' कह कर सम्बोधित करते थे। विश्वामित्र की इच्छा थी कि वसिष्ठ उन्हें 'महर्षि' कहकर सम्बोधित करें। एक बार रात में छिप कर विश्वामित्र वसिष्ठ को मारने के लिए आये। एकांत में वसिष्ठ और अरुंधती के बीच हो रही बात उन्होंने सुनी। वसिष्ठ कह रहे थे, 'अहा, ऐसा पूर्णिमा के चन्द्रमा समान निर्मल तप तो कठोर तपस्वी विश्वामित्र के अतिरिक्त भला किस का हो सकता है? उनके जैसा इस समय दूसरा कोई तपस्वी नहीं।' एकांत में शत्रु की प्रशंसा करने वाले महापुरुष के प्रति द्वेष रखने के कारण विश्वामित्र को पश्चाताप हुआ। शस्त्र हाथ से फेंक कर वे वसिष्ठ के चरणों में गिर पड़े। वसिष्ठ ने विश्वामित्र को हृदय से लगा कर 'महर्षि' कहकर उनका स्वागत किया। इस प्रकार दोनों के बीच शत्रुता का अंत हुआ।

व्यक्तित्व

वसिष्ठ महा तेजस्वी, त्रिकालदर्शी, पूर्णज्ञानी, महातपस्वी, शस्त्र शास्त्र के ज्ञाता और योगी थे। ब्रह्मशक्ति के मूर्तिमान स्वरूप थे, मंत्र यज्ञ विद्या के वे जानकार थे। लोगों की वृत्ति बदलवाकर राष्ट्रों का नव निर्माण करने वाले थे। उनकी कार्य शक्ति अलौकिक थी।

वसिष्ठ के ग्रंथ

  • ऋग्वेद के सातवें मंडल के द्रष्टावसिष्ठ हैं। इस मंडल में 104 सूक्तों में 841ऋचाएं हैं। उन्होंने अग्नि, इन्द्र, उषा, वरुण, मरुत, सविता, सरस्वती आदि आर्यों के पूज्य देवी देवताओं की स्तुति मधुर एवं ओजस्वी वाणी में की है।
  • योगवासिष्ठ महारामायण - राम वसिष्ठ के संवाद के रूप में इस ग्रंथ के छ: प्रकरण हैं। वैराग्य, मुमुक्षुत्व, उत्पत्ति, स्थिति, उपशम और निर्वाण। कुल मिलाकर इस ग्रंथ में 32 हज़ार श्लोक हैं। अद्वैत वेदांत के ग्रंथों में इस ग्रंथ का विशिष्ट स्थान है। ग्रंथ में कहा है - मानवता पूर्वक जीवन जीए, वही सच्चा मानव है।
  • वसिष्ठ धर्मसूत्र ( वसिष्ठ स्मृति) - इस ग्रंथ में 30 अध्याय हैं। वर्ण आश्रम के धर्म, संस्कार, स्त्रियों स्नातकों के धर्म, सदाचार, राजधर्म, वैदिक साहित्य की महिमा, प्रायश्चित, दान का पुण्य आदि विषयों का इसमें समावेश है। महत्त्वपूर्ण वाक्य : धर्म से रहो, अधर्म से नहीं; सत्य बोलो, असत्य नही; दृष्टि दीर्घ रखो, संकीर्ण नहीं और ' पश्यति नापरम परं'। इसमें कर्म का महत्त्व और आचरण का आदर्श प्रस्तुत किया है।
  • वसिष्ठ संहिता- यह शाक्त ग्रंथ है। शांति, जय, होम, बलि, दान आदि विषयों के उपरांत इस ग्रंथ में ज्योतिष के विषयों पर विचार किया गया है। ग्रंथ में 45 अध्याय हैं।
  • वसिष्ठ रचित धनुर्वेद का एक ग्रंथ कुछ पहले प्राप्त हुआ है।
  • वसिष्ठ पुराण, वसिष्ठ श्राद्धकल्प, वसिष्ठ शिक्षा, वसिष्ठ होम विधि, वसिष्ठ तंत्र आदि अन्य ग्रंथों में उनके पहले के व्याकरणकारों के नामों में वसिष्ठ का नाम भी है।
  • वसिष्ठ ने हिन्दू धर्म का सुयश विस्तृत किया, सांस्कृतिक परम्परा निर्माण की, सप्तर्षि में स्थान प्राप्त करने वाले इस आदर्श 'ब्रह्मर्षि' की भारतीय संस्कृति सदैव ऋणी रहेगी।

इतिहास-पुराणों में महर्षि वसिष्ठ के चरित्र का विस्तृत वर्णन मिलता है। ये आज भी सप्तर्षियों में रहकर जगत का कल्याण करते रहते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

भारतीय संस्कृति के सर्जक, पेज न. (23)

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख