"गांधारी से संवाद (2) -कुलदीप शर्मा": अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
('{| style="background:transparent; float:right" |- | {{सूचना बक्सा कविता |चित्र=|चित्र=K...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
छो (Text replace - "कब्र" to "क़ब्र")
 
(4 सदस्यों द्वारा किए गए बीच के 9 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 7: पंक्ति 7:
|कवि =[[कुलदीप शर्मा]]  
|कवि =[[कुलदीप शर्मा]]  
|जन्म=  
|जन्म=  
|जन्म स्थान=([[ऊना, हिमाचल प्रदेश]])  
|जन्म स्थान=([[उना हिमाचल|उना]], [[हिमाचल प्रदेश]])  
|मुख्य रचनाएँ=  
|मुख्य रचनाएँ=  
|यू-ट्यूब लिंक=
|यू-ट्यूब लिंक=
पंक्ति 29: पंक्ति 29:
{{Poemopen}}
{{Poemopen}}
<poem>  
<poem>  
एक अकेला आदमी
तुमने तो की थी प्रतिज्ञा
धूप से डरी हुई भीड़ में से उठा
कि लड़ोगे तुम
और धूप को ललकारते हुए
अन्तिम कारण तक
रोप दिया उसने एक पेड़
उन सबके लिए
धरती के बीचोंबीच
जो लड़ना और जीना भूल चुके हैं
जहां हवा गा रही थी
जो न परास्त हुए न मरे हैं
एक उदास धुन
अद्र्घ विक्षिप्त से रणभूमि के किनारे
इससे बाकी पेड़
कनकौए की तरह खड़े हैं
जो सहमे सहमे से थे
जिनके अधिकार और हथियार
सुानहरे भविष्य के स्वप्न बुनने लगे
पहले ही छिन चुके हैं
कटे हुए जंगलों पर छा गई
लोकतन्त्र के इस जंगल में
हरियाली की संभावनाएं
जिन एकलव्यों के अंगूठे कट चुके हैं
धरती ने एक सांस भरकर
जिनका जीवित सर
दक्षिणी ध्रुव की मोहलत बढ़ा दी
बीरबल की तरह युद्घभूमि के किनारे
भयभीत पहाड़
बांस के खम्भे पर टांग दिया गया है
आंखें मलता बैठ गया
जिन्हें भाषा और धर्म
इत्मीनान से
रंग और जात के नाम पर
चुपचाप बैठे पक्षियों में
अलग अलग बांट दिया गया है
शुरू हो गई चुहलबाज़ी
 
फूलों ने आसमान में उड़ती गौरैय्या को
तुमने तो कहा था   
बधाई दी
तुमने तो कहा था-
बादलों ने झुक-झुक कर किया
हम लड़ेंगे अन्तिम सॉंस तक
उसका अभिवादन
न्याय के लिए़
तितलियों ने चुपचाप मना लिया
तुमने तिरंगे तले की थी घोषणा
रंगों का महोत्सव
कि तमाम खतरों के बावजूद
केवल एक पेड़ रोप देने से
जिन्दा रहेगा सच
हुआ यह सब
तुमने लिया था संकल्प
केवल एक पेड़ रोप देने से
कि अपनी आत्मा की अस्मिता
होता है यह कि आसमान
रखोगे अक्षुण्ण
धीरे धीरे गुनगुनाने लगता है
रक्त की अन्तिम बूंद तक़
कोई पहाड़ी धुन
 
जो सोलहसिंगी से स्वां तक
पर तुम्हीं ने बांध ली
मेहराब सी फैलती चली जाती है
आंखों पर पट्टी
जिसे उतारता है बाद में शौंकू गद्दी
और चुन लिया अपने लिए अंधेरा
एक ऊॅंची रिड़ी से
ताकि देखना न पड़े
हमारे दिलों तक
न्याय के लिए जूझते
इस तरह आसमान उतरता है
दम तोड़ते आदमी का चेहरा
एक नवजात शिशु सा
 
धरती की गोद में
तुम्हें पता था
हज़ारो हज़ार इंद्रधनुष
न्याय और जीवन के लिए
उतर आते हैं पत्तों में
लड़ते आदमी का चेहरा देखना
हवा गाने लगती है ऋचाएं
सचमुच मुश्किल होता है
हरियाली की खोज में निकला
तब और भी ज़्यादा
वह कोलम्बस
जब तुम अन्धेरे में हो
इस तरह पहुंचा आखिर पेड़ तक
और चेहरा मशाल की तरह जल रहा हो़
तुम सोचो
तब और भी ज़्यादा
उस आदमी के पास होती
जब तुम खड़े हो
और एक टुकड़ा ज़मीन
मूक दर्शकों की पंक्ति में
तो ज़मीन और आदमी
 
दोनो बच जाते
तुम देखते हो और ओढ़ लेते हो मौन
टुकड़ा -2 होने से
मक्कारी में डूबे पूछते हो
(पर यह उस आदमी का सच नहीं है
आराम में खलल डालता यह आदमी
जो खोज रहा है
आखिर है कौन
एक टुकड़ा ज़मीन
उधर अदालत की चौखट पर
एक और टुकड़ा पाने के लिए)
सर पटकती है
तुम सोचो कि धरती का एक तिनका सुख
न्याय की उम्मीद
सदियो तक सुरक्षित कर देता है
भीतर बेसाख्ता झूठ बोलता है चश्मदीद़
हमारे घोंसले
वहां हथौड़े की ठक ठक के नीचे
सदियों तक पेड़ गाते हैं
कराहता है आहत सच
जीवन का समूह गान
और सहम कर वहीं दुबक जाता है  
चिड़िया चहचहाकर कह जाती है
असहाय सा कोने में
हर सुबह हमारे कान में
 
कि धरती के बारे में की गई
काले कव्वे से नहीं डरता है झूठ
तमाम डरावनी भविष्यवाणियां
काले कव्वे की शह पर
कोरी अफवाहें हैं
इतराता है, गुर्राता है
कि जीवन रहेगा अभी यहां
कानून की किसी उपधारा को
और आने वाली पीढ़ियां
ढाल बनाकर निकल जाता है  
नहीं दबेंगी उन मकानों में
प्रजातन्त्र के जंगल में
जिन्हें वे बना रही हैं
नए तरीके के साथ नए शिकार पऱ
एक पेड़ से हो सकता है यह सब
 
वैसे ही जैसे
क्या तुमने सुना है
एक पेड़ के न होने से
सिसक- सिसक कर रोता सच
हो सकता है
अदालत के उठ जाने के बाद
रूठ जाए यह हवा
वहीं किसी अंधेरे कोने में
गायब हो जाएं आसमान से बादल
पत्थर पर सिर टिकाए
मानचित्रों मे ही रह जाएं नदियां
दीवारों में तलाशता हुआ संवेदना ?
हरियाली खोजें हम सपनों में
 
पेड़ के बारे मे सोचकर
जहाँ तुम जाते हो न्याय की उम्मीद में
डरें हम
वहाँ धृतराष्टृ की बगल में
जैसे दु:स्वपन से जागकर
सदियों से खड़ी है गांधारी
डरते हैं बच्चे
अंधी मर्यादा में गर्वोन्नत
पेड़ लगाता आदमी जानता है
देखती नहीं कुछ
कैसा होता है
सुनती है बस
पेड़ के बिना आदमी़
पर फ़र्क़ नहीं कर सकती
घायल की कराहट
और अपराधी की गुर्राहट के बीच़
रेवड़ियां बाँटती है खैरात में
पर अपना ही कुनबा
आ जाता है सामने हरबाऱ
 
सदियों से खड़ी है गांधारी
जिसकी आंखों पर पट्टी
हाथ में तराजू है
और तोलने को कुछ भी नहीं
संविधान की आड़ी तिरछी रेखाओं ने
जिसे ऊँची कुर्सी पर टॉंग रखा है
उसके एक हाथ में  
मरी हुई परिभाषाओं से भरी
एक भारी किताब है
दूसरे हाथ में लकड़ी का हथौड़ा है
जिसे दिन दिहाड़े धर दबोचा चौक पर
कानून उस पर बरसता संवैधानिक कोड़ा है
यहां हर नागरिक लकड़ी का घोड़ा है़
वह गूँगा नहीं है
नक्कारखाने में उसका मौन
एक लाचारी है
जिस अपराधी के पक्ष में
एक डरी हुई चुप्पी है
डसके लिए हथौड़े की ठक- ठक कर
ऑर्डर-ऑर्डर कहता जज
महज़ डुगडुगी बजाता मदारी है़
 
जिन्दा आदमी के जले गोश्त की
गन्ध से घबराई ज़ाहिरा
एक और बुर्का ओढ़ लेती है झूठ का
जब मोदी पूछता है
अलग अलग करके बताओ
कितने हिन्दू हैं मरने वालों में
कितने मुस्व्लमान ?
संसद की दीर्घा में बैठा प्रहरी
कुछ और पसर जाता है आराम से  
जब समवेत स्वर में कहते हैं सभी
जैसिका को किसी ने नहीं मारा
जैसिका कभी मरी ही नहीं
उसे दफन किया गया है फाईलों में ज़िन्दा़
 
गांधारी के शब्दकोश में आदमी
न जिंदा है न मरा है
अदालत का एक कटघरा है
जहां उसका सच सलीब पर तुलता है
गवाह और अपराधी के बीच
एक अदालती रिश्ता है
जो सच की क़ब्र पर
फूल की तरह खिलता है़।
</poem>
</poem>
{{Poemclose}}
{{Poemclose}}
पंक्ति 122: पंक्ति 172:
{{समकालीन कवि}}
{{समकालीन कवि}}
[[Category:समकालीन साहित्य]][[Category:कुलदीप शर्मा]][[Category:कविता]]
[[Category:समकालीन साहित्य]][[Category:कुलदीप शर्मा]][[Category:कविता]]
[[Category:हिन्दी कविता]]
[[Category:पद्य साहित्य]]
[[Category:काव्य कोश]]
[[Category:साहित्य कोश]]
__INDEX__
__INDEX__

13:23, 14 मई 2013 के समय का अवतरण

गांधारी से संवाद (2) -कुलदीप शर्मा
कवि कुलदीप शर्मा
जन्म स्थान (उना, हिमाचल प्रदेश)
बाहरी कड़ियाँ आधिकारिक वेबसाइट
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
कुलदीप शर्मा की रचनाएँ

 
तुमने तो की थी प्रतिज्ञा
कि लड़ोगे तुम
अन्तिम कारण तक
उन सबके लिए
जो लड़ना और जीना भूल चुके हैं
जो न परास्त हुए न मरे हैं
अद्र्घ विक्षिप्त से रणभूमि के किनारे
कनकौए की तरह खड़े हैं
जिनके अधिकार और हथियार
पहले ही छिन चुके हैं
लोकतन्त्र के इस जंगल में
जिन एकलव्यों के अंगूठे कट चुके हैं
जिनका जीवित सर
बीरबल की तरह युद्घभूमि के किनारे
बांस के खम्भे पर टांग दिया गया है
जिन्हें भाषा और धर्म
रंग और जात के नाम पर
अलग अलग बांट दिया गया है

तुमने तो कहा था
तुमने तो कहा था-
हम लड़ेंगे अन्तिम सॉंस तक
न्याय के लिए़
तुमने तिरंगे तले की थी घोषणा
कि तमाम खतरों के बावजूद
जिन्दा रहेगा सच
तुमने लिया था संकल्प
कि अपनी आत्मा की अस्मिता
रखोगे अक्षुण्ण
रक्त की अन्तिम बूंद तक़

पर तुम्हीं ने बांध ली
आंखों पर पट्टी
और चुन लिया अपने लिए अंधेरा
ताकि देखना न पड़े
न्याय के लिए जूझते
दम तोड़ते आदमी का चेहरा

तुम्हें पता था
न्याय और जीवन के लिए
लड़ते आदमी का चेहरा देखना
सचमुच मुश्किल होता है
तब और भी ज़्यादा
जब तुम अन्धेरे में हो
और चेहरा मशाल की तरह जल रहा हो़
तब और भी ज़्यादा
जब तुम खड़े हो
मूक दर्शकों की पंक्ति में

तुम देखते हो और ओढ़ लेते हो मौन
मक्कारी में डूबे पूछते हो
आराम में खलल डालता यह आदमी
आखिर है कौन
उधर अदालत की चौखट पर
सर पटकती है
न्याय की उम्मीद
भीतर बेसाख्ता झूठ बोलता है चश्मदीद़
वहां हथौड़े की ठक ठक के नीचे
कराहता है आहत सच
और सहम कर वहीं दुबक जाता है
असहाय सा कोने में

काले कव्वे से नहीं डरता है झूठ
काले कव्वे की शह पर
इतराता है, गुर्राता है
कानून की किसी उपधारा को
ढाल बनाकर निकल जाता है
प्रजातन्त्र के जंगल में
नए तरीके के साथ नए शिकार पऱ

क्या तुमने सुना है
सिसक- सिसक कर रोता सच
अदालत के उठ जाने के बाद
वहीं किसी अंधेरे कोने में
पत्थर पर सिर टिकाए
दीवारों में तलाशता हुआ संवेदना ?

जहाँ तुम जाते हो न्याय की उम्मीद में
वहाँ धृतराष्टृ की बगल में
सदियों से खड़ी है गांधारी
अंधी मर्यादा में गर्वोन्नत
देखती नहीं कुछ
सुनती है बस
पर फ़र्क़ नहीं कर सकती
घायल की कराहट
और अपराधी की गुर्राहट के बीच़
रेवड़ियां बाँटती है खैरात में
पर अपना ही कुनबा
आ जाता है सामने हरबाऱ

सदियों से खड़ी है गांधारी
जिसकी आंखों पर पट्टी
हाथ में तराजू है
और तोलने को कुछ भी नहीं
संविधान की आड़ी तिरछी रेखाओं ने
जिसे ऊँची कुर्सी पर टॉंग रखा है
उसके एक हाथ में
मरी हुई परिभाषाओं से भरी
एक भारी किताब है
दूसरे हाथ में लकड़ी का हथौड़ा है
जिसे दिन दिहाड़े धर दबोचा चौक पर
कानून उस पर बरसता संवैधानिक कोड़ा है
यहां हर नागरिक लकड़ी का घोड़ा है़
वह गूँगा नहीं है
नक्कारखाने में उसका मौन
एक लाचारी है
जिस अपराधी के पक्ष में
एक डरी हुई चुप्पी है
डसके लिए हथौड़े की ठक- ठक कर
ऑर्डर-ऑर्डर कहता जज
महज़ डुगडुगी बजाता मदारी है़

जिन्दा आदमी के जले गोश्त की
गन्ध से घबराई ज़ाहिरा
एक और बुर्का ओढ़ लेती है झूठ का
जब मोदी पूछता है
अलग अलग करके बताओ
कितने हिन्दू हैं मरने वालों में
कितने मुस्व्लमान ?
संसद की दीर्घा में बैठा प्रहरी
कुछ और पसर जाता है आराम से
जब समवेत स्वर में कहते हैं सभी
जैसिका को किसी ने नहीं मारा
जैसिका कभी मरी ही नहीं
उसे दफन किया गया है फाईलों में ज़िन्दा़

गांधारी के शब्दकोश में आदमी
न जिंदा है न मरा है
अदालत का एक कटघरा है
जहां उसका सच सलीब पर तुलता है
गवाह और अपराधी के बीच
एक अदालती रिश्ता है
जो सच की क़ब्र पर
फूल की तरह खिलता है़।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख