"गोदान उपन्यास भाग-6": अवतरणों में अंतर
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जेठ की उदास और गर्म संध्या सेमरी की सड़कों और गलियों में, पानी के छिड़काव से शीतल और प्रसन्न हो रही थी। मंडप के चारों तरफ फूलों और पौधों के गमले सजा दिए गए थे और बिजली के पंखे चल रहे थे। रायसाहब अपने कारखाने में बिजली बनवा लेते थे। उनके सिपाही पीली वर्दियाँ डाटे, नीले साफे बाँधे, जनता पर रोब जमाते फिरते थे। नौकर उजले कुरते पहने और केसरिया पाग बाँधे, मेहमानों और मुखियों का आदर-सत्कार कर रहे थे। उसी वक्त एक मोटर सिंह-द्वार के सामने आ कर रूकी और उसमें से तीन महानुभाव उतरे। वह जो खद्दर का कुरता और चप्पल पहने हुए हैं, उनका नाम पंडित ओंकारनाथ है। आप दैनिक-पत्र 'बिजली' के यशस्वी संपादक हैं, जिन्हें देश-चिंता ने घुला डाला है। दूसरे महाशय जो कोट-पैंट में हैं, वह हैं तो वकील, पर वकालत न चलने के कारण एक बीमा-कंपनी की दलाली करते हैं और ताल्लुकेदारों को महाजनों और बैंकों से | जेठ की उदास और गर्म संध्या सेमरी की सड़कों और गलियों में, पानी के छिड़काव से शीतल और प्रसन्न हो रही थी। मंडप के चारों तरफ फूलों और पौधों के गमले सजा दिए गए थे और बिजली के पंखे चल रहे थे। रायसाहब अपने कारखाने में बिजली बनवा लेते थे। उनके सिपाही पीली वर्दियाँ डाटे, नीले साफे बाँधे, जनता पर रोब जमाते फिरते थे। नौकर उजले कुरते पहने और केसरिया पाग बाँधे, मेहमानों और मुखियों का आदर-सत्कार कर रहे थे। उसी वक्त एक मोटर सिंह-द्वार के सामने आ कर रूकी और उसमें से तीन महानुभाव उतरे। वह जो खद्दर का कुरता और चप्पल पहने हुए हैं, उनका नाम पंडित ओंकारनाथ है। आप दैनिक-पत्र 'बिजली' के यशस्वी संपादक हैं, जिन्हें देश-चिंता ने घुला डाला है। दूसरे महाशय जो कोट-पैंट में हैं, वह हैं तो वकील, पर वकालत न चलने के कारण एक बीमा-कंपनी की दलाली करते हैं और ताल्लुकेदारों को महाजनों और बैंकों से कर्ज़ दिलाने में वकालत से कहीं ज़्यादा कमाई करते हैं। इनका नाम है श्यामबिहारी तंखा और तीसरे सज्जन जो रेशमी अचकन और तंग पाजामा पहने हुए हैं, मिस्टर बी. मेहता, युनिवर्सिटी में दर्शनशास्त्र के अध्यापक हैं। ये तीनों सज्जन रायसाहब के सहपाठियों में हैं और शगुन के उत्सव पर निमंत्रित हुए हैं। आज सारे इलाके के असामी आएँगे और शगुन के रुपए भेंट करेंगे। रात को धनुष-यज्ञ होगा और मेहमानों की दावत होगी। होरी ने पाँच रुपए शगुन के दे दिए हैं और एक गुलाबी मिर्जई पहने, गुलाबी पगड़ी बाँधे, घुटने तक काछनी काछे, हाथ में एक खुरपी लिए और मुख पर पाउडर लगवाए राजा जनक का माली बन गया है और गरूर से इतना फूल उठा है, मानो यह सारा उत्सव उसी के पुरुषार्थ से हो रहा है। | ||
रायसाहब ने मेहमानों का स्वागत किया। दोहरे बदन के ऊँचे आदमी थे, गठा हुआ शरीर, तेजस्वी चेहरा, ऊँचा माथा, गोरा रंग, जिस पर शर्बती रेशमी चादर खूब खिल रही थी। | रायसाहब ने मेहमानों का स्वागत किया। दोहरे बदन के ऊँचे आदमी थे, गठा हुआ शरीर, तेजस्वी चेहरा, ऊँचा माथा, गोरा रंग, जिस पर शर्बती रेशमी चादर खूब खिल रही थी। | ||
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रायसाहब ने तीनों सज्जनों को अपने रावटी के सामने कुर्सियों पर बैठाते हुए कहा - पहले तो धनुष-यज्ञ होगा, उसके बाद एक प्रहसन। नाटक कोई अच्छा न मिला। कोई तो इतना लंबा कि शायद पाँच घंटों में भी खत्म न हो और कोई इतना क्लिष्ट कि शायद यहाँ एक व्यक्ति भी उसका अर्थ न समझे। आखिर मैंने स्वयं एक प्रहसन लिख डाला, जो दो घंटों में पूरा हो जायगा। | रायसाहब ने तीनों सज्जनों को अपने रावटी के सामने कुर्सियों पर बैठाते हुए कहा - पहले तो धनुष-यज्ञ होगा, उसके बाद एक प्रहसन। नाटक कोई अच्छा न मिला। कोई तो इतना लंबा कि शायद पाँच घंटों में भी खत्म न हो और कोई इतना क्लिष्ट कि शायद यहाँ एक व्यक्ति भी उसका अर्थ न समझे। आखिर मैंने स्वयं एक प्रहसन लिख डाला, जो दो घंटों में पूरा हो जायगा। | ||
ओंकारनाथ को रायसाहब की रचना-शक्ति में बहुत संदेह था। उनका ख्याल था कि प्रतिभा तो | ओंकारनाथ को रायसाहब की रचना-शक्ति में बहुत संदेह था। उनका ख्याल था कि प्रतिभा तो ग़रीबों ही में चमकती है दीपक की भाँति, जो अँधेरे ही में अपना प्रकाश दिखाता है। उपेक्षा के साथ, जिसे छिपाने की भी उन्होंने चेष्टा नहीं की, पंडित ओंकारनाथ ने मुँह फेर लिया। | ||
मिस्टर तंखा इन बेमतलब की बातों में न पड़ना चाहते थे, फिर भी रायसाहब को दिखा देना चाहते थे कि इस विषय में उन्हें कुछ बोलने का अधिकार है। बोले - नाटक कोई भी अच्छा हो सकता है, अगर उसके अभिनेता अच्छे हों। अच्छा-से-अच्छा नाटक बुरे अभिनेताओं के हाथ में पड़ कर बुरा हो सकता है। जब तक स्टेज पर शिक्षित अभिनेत्रियाँ नहीं आतीं, हमारी नाटयकला का उद्धार नहीं हो सकता। अबकी तो आपने कौंसिल में प्रश्नों की धूम मचा दी। मैं तो दावे के साथ कह सकता हूँ कि किसी मेंबर का रिकार्ड इतना शानदार नहीं है। | मिस्टर तंखा इन बेमतलब की बातों में न पड़ना चाहते थे, फिर भी रायसाहब को दिखा देना चाहते थे कि इस विषय में उन्हें कुछ बोलने का अधिकार है। बोले - नाटक कोई भी अच्छा हो सकता है, अगर उसके अभिनेता अच्छे हों। अच्छा-से-अच्छा नाटक बुरे अभिनेताओं के हाथ में पड़ कर बुरा हो सकता है। जब तक स्टेज पर शिक्षित अभिनेत्रियाँ नहीं आतीं, हमारी नाटयकला का उद्धार नहीं हो सकता। अबकी तो आपने कौंसिल में प्रश्नों की धूम मचा दी। मैं तो दावे के साथ कह सकता हूँ कि किसी मेंबर का रिकार्ड इतना शानदार नहीं है। | ||
दर्शन के अध्यापक मिस्टर मेहता इस प्रशंसा को सहन न कर सकते थे। विरोध तो करना चाहते थे, पर सिद्धांत की आड़ में। उन्होंने हाल ही में एक पुस्तक कई साल के परिश्रम से लिखी थी। उसकी जितनी धूम होनी चाहिए थी, उसकी शतांश भी नहीं हुई थी। इससे बहुत दुखी थे। बोले- भई, मैं प्रश्नों का कायल नहीं। मैं चाहता हूँ, हमारा जीवन हमारे सिद्धांतों के अनुकूल हो। आप कृषकों के शुभेच्छु हैं, उन्हें तरह-तरह की रियायत देना चाहते हैं, जमींदारों के अधिकार छीन लेना चाहते हैं, बल्कि उन्हें आप समाज का शाप कहते हैं, फिर भी आप | दर्शन के अध्यापक मिस्टर मेहता इस प्रशंसा को सहन न कर सकते थे। विरोध तो करना चाहते थे, पर सिद्धांत की आड़ में। उन्होंने हाल ही में एक पुस्तक कई साल के परिश्रम से लिखी थी। उसकी जितनी धूम होनी चाहिए थी, उसकी शतांश भी नहीं हुई थी। इससे बहुत दुखी थे। बोले- भई, मैं प्रश्नों का कायल नहीं। मैं चाहता हूँ, हमारा जीवन हमारे सिद्धांतों के अनुकूल हो। आप कृषकों के शुभेच्छु हैं, उन्हें तरह-तरह की रियायत देना चाहते हैं, जमींदारों के अधिकार छीन लेना चाहते हैं, बल्कि उन्हें आप समाज का शाप कहते हैं, फिर भी आप ज़मींदार हैं, वैसे ही ज़मींदार जैसे हजारों और ज़मींदार हैं। अगर आपकी धारणा है कि कृषकों के साथ रियायत होनी चाहिए, तो पहले आप खुद शुरू करें - काश्तकारों को बगैर नजराने लिए पट्टे लिख दें, बेगार बंद कर दें, इजाफ़ा लगान को तिलांजलि दे दें, चरावर ज़मीन छोड़ दें। मुझे उन लोगों से जरा भी हमदर्दी नहीं है, जो बातें तो करते हैं कम्युनिस्टों की-सी, मगर जीवन है रईसों का-सा, उतना ही विलासमय, उतना ही स्वार्थ से भरा हुआ। | ||
रायसाहब को आघात पहुँचा। वकील साहब के माथे पर बल पड़ गए और संपादक जी के मुँह में जैसे कालिख लग गई। वह खुद समष्टिवाद के पुजारी थे, पर सीधे घर में आग न लगाना चाहते थे। | रायसाहब को आघात पहुँचा। वकील साहब के माथे पर बल पड़ गए और संपादक जी के मुँह में जैसे कालिख लग गई। वह खुद समष्टिवाद के पुजारी थे, पर सीधे घर में आग न लगाना चाहते थे। | ||
तंखा ने रायसाहब की वकालत की - मैं समझता हूँ, रायसाहब का अपने असामियों के साथ जितना अच्छा व्यवहार है, अगर सभी | तंखा ने रायसाहब की वकालत की - मैं समझता हूँ, रायसाहब का अपने असामियों के साथ जितना अच्छा व्यवहार है, अगर सभी ज़मींदार वैसे ही हो जायँ, तो यह प्रश्न ही न रहे। | ||
मेहता ने हथौड़े की दूसरी चोट जमाई - मानता हूँ, आपका अपने असामियों के साथ बहुत अच्छा बर्ताव है, मगर प्रश्न यह है कि उसमें स्वार्थ है या नहीं। इसका एक कारण क्या यह नहीं हो सकता कि मद्धिम आँच में भोजन स्वादिष्ट पकता है? गुड़ से मारने वाला | मेहता ने हथौड़े की दूसरी चोट जमाई - मानता हूँ, आपका अपने असामियों के साथ बहुत अच्छा बर्ताव है, मगर प्रश्न यह है कि उसमें स्वार्थ है या नहीं। इसका एक कारण क्या यह नहीं हो सकता कि मद्धिम आँच में भोजन स्वादिष्ट पकता है? गुड़ से मारने वाला ज़हर से मारने वाले की अपेक्षा कहीं सफल हो सकता है। मैं तो केवल इतना जानता हूँ, हम या तो साम्यवादी हैं या नहीं हैं। हैं तो उसका व्यवहार करें, नहीं हैं, तो बकना छोड़ दें। मैं नकली ज़िंदगी का विरोधी हूँ। अगर माँस खाना अच्छा समझते हो तो खुल कर खाओ। बुरा समझते हो, तो मत खाओ, यह तो मेरी समझ में आता है, लेकिन अच्छा समझना और छिप कर खाना, यह मेरी समझ में नहीं आता। मैं तो इसे कायरता भी कहता हूँ और धूर्तता भी, जो वास्तव में एक हैं। | ||
रायसाहब सभा-चतुर आदमी थे। अपमान और आघात को धैर्य और उदारता से सहने का उन्हें अभ्यास था। कुछ असमंजस में पड़े हुए बोले - आपका विचार बिलकुल ठीक है मेहता जी! आप जानते हैं, मैं आपकी साफगोई का कितना आदर करता हूँ, लेकिन आप यह भूल जाते हैं कि अन्य यात्राओं की भाँति विचारों की यात्रा में भी पड़ाव होते हैं, और आप एक पड़ाव को छोड़ कर दूसरे पड़ाव तक नहीं जा सकते। मानव-जीवन का इतिहास इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। मैं उस वातावरण में पला हूँ, जहाँ राजा ईश्वर है और | रायसाहब सभा-चतुर आदमी थे। अपमान और आघात को धैर्य और उदारता से सहने का उन्हें अभ्यास था। कुछ असमंजस में पड़े हुए बोले - आपका विचार बिलकुल ठीक है मेहता जी! आप जानते हैं, मैं आपकी साफगोई का कितना आदर करता हूँ, लेकिन आप यह भूल जाते हैं कि अन्य यात्राओं की भाँति विचारों की यात्रा में भी पड़ाव होते हैं, और आप एक पड़ाव को छोड़ कर दूसरे पड़ाव तक नहीं जा सकते। मानव-जीवन का इतिहास इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। मैं उस वातावरण में पला हूँ, जहाँ राजा ईश्वर है और ज़मींदार ईश्वर का मंत्र। मेरे स्वर्गवासी पिता असामियों पर इतनी दया करते थे कि पाले या सूखे में कभी आधा और कभी पूरा लगान माफ कर देते थे। अपने बखार से अनाज निकाल कर असामियों को खिला देते थे। घर के गहने बेच कर कन्याओं के विवाह में मदद देते थे, मगर उसी वक्त तक, जब तक प्रजा उनको सरकार और धर्मावतार कहती रहे, उन्हें अपना देवता समझ कर उनकी पूजा करती रहे। प्रजा को पालना उनका सनातन धर्म था, लेकिन अधिकार के नाम पर वह कौड़ी का एक दाँत भी फोड़ कर देना न चाहते थे। मैं उसी वातावरण में पला हूँ, और मुझे गर्व है कि मैं व्यवहार में चाहे जो कुछ करूँ, विचारों में उनसे आगे बढ़ गया हूँ और यह मानने लग गया हूँ कि जब तक किसानों को यह रियायतें अधिकार के रूप में न मिलेंगी, केवल सद्भावना के आधार पर उनकी दशा सुधर नहीं सकती। स्वेच्छा अगर अपना स्वार्थ छोड़ दे, तो अपवाद है। मैं खुद सद्भावना करते हुए भी स्वार्थ नहीं छोड़ सकता और चाहता हूँ कि हमारे वर्ग को शासन और नीति के बल से अपना स्वार्थ छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया जाए। इसे आप कायरता कहेंगे, मैं इसे विवशता कहता हूँ। मैं इसे स्वीकार करता हूँ कि किसी को भी दूसरों के श्रम पर मोटे होने का अधिकार नहीं है। उपजीवी होना घोर लज्जा की बात है। कर्म करना प्राणिमात्र का धर्म है। समाज की ऐसी व्यवस्था, जिसमें कुछ लोग मौज करें और अधिक लोग पिसें और खपें कभी सुखद नहीं हो सकती। पूंजी और शिक्षा, जिसे मैं पूंजी ही का एक रूप समझता हूँ, इनका किला जितनी जल्द टूट जाय, उतना ही अच्छा है। जिन्हें पेट की रोटी मयस्सर नहीं, उनके अफसर और नियोजक दस-दस, पाँच-पाँच हज़ार फटकारें, यह हास्यास्पद है और लज्जास्पद भी। इस व्यवस्था ने हम जमींदारों में कितनी विलासिता, कितना दुराचार, कितनी पराधीनता और कितनी निर्लज्जता भर दी है, यह मैं खूब जानता हूँ, लेकिन मैं इन कारणों से इस व्यवस्था का विरोध नहीं करता। मेरा तो यह कहना है कि अपने स्वार्थ की दृष्टि से भी इसका अनुमोदन नहीं किया जा सकता। इस शान को निभाने के लिए हमें अपनी आत्मा की इतनी हत्या करनी पड़ती है कि हममें आत्माभिमान का नाम भी नहीं रहा। हम अपने असामियों को लूटने के लिए मजबूर हैं। अगर अफसरों को कीमती-कीमती डालियाँ न दें, तो बागी समझे जायँ, शान से न रहें, तो कंजूस कहलाएँ। प्रगति की जरा-सी आहट पाते ही हम काँप उठते हैं, और अफसरों के पास फरियाद ले कर दौड़ते हैं कि हमारी रक्षा कीजिए। हमें अपने ऊपर विश्वास नहीं रहा, न पुरुषार्थ ही रह गया। बस, हमारी दशा उन बच्चों की-सी है, जिन्हें चम्मच से दूध पिला कर पाला जाता है, बाहर से मोटे, अंदर से दुर्बल, सत्वहीन और मोहताज। | ||
मेहता ने ताली बजा कर कहा - हियर, हियर! आपकी जबान में जितनी बुद्धि है, काश उसकी आधी भी मस्तिष्क में होती। खेद यही है कि सब कुछ समझते हुए भी आप अपने विचारों को व्यवहार में नहीं लाते। | मेहता ने ताली बजा कर कहा - हियर, हियर! आपकी जबान में जितनी बुद्धि है, काश उसकी आधी भी मस्तिष्क में होती। खेद यही है कि सब कुछ समझते हुए भी आप अपने विचारों को व्यवहार में नहीं लाते। | ||
ओंकारनाथ बोले - अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता, मिस्टर मेहता! हमें समय के साथ चलना भी है और उसे अपने साथ चलाना भी। बुरे कामों में ही सहयोग की | ओंकारनाथ बोले - अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता, मिस्टर मेहता! हमें समय के साथ चलना भी है और उसे अपने साथ चलाना भी। बुरे कामों में ही सहयोग की ज़रूरत नहीं होती। अच्छे कामों के लिए भी सहयोग उतना ही ज़रूरी है। आप ही क्यों आठ सौ रुपए महीने हड़पते हैं, जब आपके करोड़ों भाई केवल आठ रुपए में अपना निर्वाह कर रहे हैं? | ||
रायसाहब ने ऊपरी खेद, लेकिन भीतरी संतोष से संपादकजी को देखा और बोले - व्यक्तिगत बातों पर आलोचना न कीजिए संपादक जी! हम यहाँ समाज की व्यवस्था पर विचार कर रहे हैं। | रायसाहब ने ऊपरी खेद, लेकिन भीतरी संतोष से संपादकजी को देखा और बोले - व्यक्तिगत बातों पर आलोचना न कीजिए संपादक जी! हम यहाँ समाज की व्यवस्था पर विचार कर रहे हैं। | ||
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कुश्ती का जोड़ बदल गया। रायसाहब किनारे खड़े हो गए। संपादक जी मैदान में उतरे - आप बीसवीं शताब्दी में भी ऊँच-नीच का भेद मानते हैं। | कुश्ती का जोड़ बदल गया। रायसाहब किनारे खड़े हो गए। संपादक जी मैदान में उतरे - आप बीसवीं शताब्दी में भी ऊँच-नीच का भेद मानते हैं। | ||
'जी हाँ, मानता हूँ और बडे जोरों से मानता हूँ। जिस मत के आप समर्थक हैं, वह भी तो कोई नई | 'जी हाँ, मानता हूँ और बडे जोरों से मानता हूँ। जिस मत के आप समर्थक हैं, वह भी तो कोई नई चीज़ नहीं। कब से मनुष्य में ममत्व का विकास हुआ, तभी उस मत का जन्म हुआ। बुद्ध और प्लेटो और ईसा सभी समाज में समता प्रवर्तक थे। यूनान और रोम और सीरियाई, सभी सभ्यताओं ने उसकी परीक्षा की, पर अप्राकृतिक होने के कारण कभी वह स्थायी न बन सकी। | ||
'आपकी बातें सुन कर मुझे आश्चर्य हो रहा है।' | 'आपकी बातें सुन कर मुझे आश्चर्य हो रहा है।' | ||
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'जी, मैं इतना अहमक नहीं हूँ, अच्छी रकम दिलवाइए, तो अलबत्ता।' | 'जी, मैं इतना अहमक नहीं हूँ, अच्छी रकम दिलवाइए, तो अलबत्ता।' | ||
'आपने सिद्धांत ही ऐसा लिया है कि खुले | 'आपने सिद्धांत ही ऐसा लिया है कि खुले ख़ज़ाने पब्लिक को लूट सकते हैं।' | ||
'मुझमें और आपमें अंतर इतना ही है कि मैं जो कुछ मानता हूँ, उस पर चलता हूँ। आप लोग मानते कुछ हैं, करते कुछ हैं। धन को आप किसी अन्याय से बराबर फैला सकते हैं। लेकिन बुद्धि को, चरित्र को, रूप को, प्रतिभा को और बल को बराबर फैलाना तो आपकी शक्ति के बाहर है। छोटे-बड़े का भेद केवल धन से ही तो नहीं होता। मैंने बड़े-बड़े धनकुबेरों को भिक्षुकों के सामने घुटने टेकते देखा है, और आपने भी देखा होगा। रूप के चौखट पर बड़े-बड़े महीप नाक रगड़ते हैं। क्या यह सामाजिक विषमता नहीं है? आप रूस की मिसाल देंगे। वहाँ इसके सिवाय और क्या है कि मिल के मालिक ने राजकर्मचारी का रूप ले लिया है। बुद्धि तब भी राज करती थी, अब भी करती है और हमेशा करेगी।' | 'मुझमें और आपमें अंतर इतना ही है कि मैं जो कुछ मानता हूँ, उस पर चलता हूँ। आप लोग मानते कुछ हैं, करते कुछ हैं। धन को आप किसी अन्याय से बराबर फैला सकते हैं। लेकिन बुद्धि को, चरित्र को, रूप को, प्रतिभा को और बल को बराबर फैलाना तो आपकी शक्ति के बाहर है। छोटे-बड़े का भेद केवल धन से ही तो नहीं होता। मैंने बड़े-बड़े धनकुबेरों को भिक्षुकों के सामने घुटने टेकते देखा है, और आपने भी देखा होगा। रूप के चौखट पर बड़े-बड़े महीप नाक रगड़ते हैं। क्या यह सामाजिक विषमता नहीं है? आप रूस की मिसाल देंगे। वहाँ इसके सिवाय और क्या है कि मिल के मालिक ने राजकर्मचारी का रूप ले लिया है। बुद्धि तब भी राज करती थी, अब भी करती है और हमेशा करेगी।' | ||
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मेहता झेंप गए। बिना ब्याहे थे और नवयुग की रमणियों से पनाह माँगते थे। पुरुषों की मंडली में खूब चहकते थे, मगर ज्यों ही कोई महिला आई और आपकी जबान बंद हुई, जैसे बुद्धि पर ताला लग जाता था। स्त्रियों से शिष्ट व्यवहार तक करने की सुधि न रहती थी। | मेहता झेंप गए। बिना ब्याहे थे और नवयुग की रमणियों से पनाह माँगते थे। पुरुषों की मंडली में खूब चहकते थे, मगर ज्यों ही कोई महिला आई और आपकी जबान बंद हुई, जैसे बुद्धि पर ताला लग जाता था। स्त्रियों से शिष्ट व्यवहार तक करने की सुधि न रहती थी। | ||
मिस्टर खन्ना ने पूछा - फिलासफरों की सूरत में क्या | मिस्टर खन्ना ने पूछा - फिलासफरों की सूरत में क्या ख़ास बात होती है देवी जी? | ||
मालती ने मेहता की ओर दया-भाव से देख कर कहा - मिस्टर मेहता, बुरा न मानें तो बतला दूँ? | मालती ने मेहता की ओर दया-भाव से देख कर कहा - मिस्टर मेहता, बुरा न मानें तो बतला दूँ? | ||
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'तो सुनिए, फिलासफर हमेशा मुर्दा-दिल होते हैं, जब देखिए, अपने विचारों में मगन बैठे हैं। आपकी तरफ ताकेंगे, मगर आपको देखेंगे नहीं, आप उनसे बातें किए जायँ, कुछ सुनेंगे नहीं, जैसे शून्य में उड़ रहे हों।' | 'तो सुनिए, फिलासफर हमेशा मुर्दा-दिल होते हैं, जब देखिए, अपने विचारों में मगन बैठे हैं। आपकी तरफ ताकेंगे, मगर आपको देखेंगे नहीं, आप उनसे बातें किए जायँ, कुछ सुनेंगे नहीं, जैसे शून्य में उड़ रहे हों।' | ||
सब लोगों ने कहकहा मारा। मिस्टर मेहता जैसे | सब लोगों ने कहकहा मारा। मिस्टर मेहता जैसे ज़मीन में गड़ गए। | ||
'आक्सफोर्ड में मेरे फिलासफी के प्रोफेसर हसबेंड थे!' | 'आक्सफोर्ड में मेरे फिलासफी के प्रोफेसर हसबेंड थे!' | ||
पंक्ति 82: | पंक्ति 82: | ||
अब मेहता को अवसर मिला। बोले - आप भी तो इसी मरज में गिरफ्तार हैं? | अब मेहता को अवसर मिला। बोले - आप भी तो इसी मरज में गिरफ्तार हैं? | ||
'मैंने प्रतिज्ञा की है, कि किसी फिलासफर से शादी करूँगी और यह वर्ग शादी के नाम से घबराता है। हसबेंड साहब तो स्त्री को देख कर घर में छिप जाते थे। उनके शिष्यों में कई लड़कियाँ थीं। अगर उनमें से कोई कभी कुछ पूछने के लिए उनके ऑफिस में चली जाती थी, तो आप ऐसे घबड़ा जाते, जैसे कोई शेर आ गया हो। हम लोग उन्हें खूब छेड़ा करते थे, बेचारे बड़े सरल-हृदय। कई | 'मैंने प्रतिज्ञा की है, कि किसी फिलासफर से शादी करूँगी और यह वर्ग शादी के नाम से घबराता है। हसबेंड साहब तो स्त्री को देख कर घर में छिप जाते थे। उनके शिष्यों में कई लड़कियाँ थीं। अगर उनमें से कोई कभी कुछ पूछने के लिए उनके ऑफिस में चली जाती थी, तो आप ऐसे घबड़ा जाते, जैसे कोई शेर आ गया हो। हम लोग उन्हें खूब छेड़ा करते थे, बेचारे बड़े सरल-हृदय। कई हज़ार की आमदनी थी, पर मैंने उन्हें हमेशा एक ही सूट पहने देखा। उनकी एक विधवा बहन थी। वही उनके घर का सारा प्रबंध करती थी। मिस्टर हसबेंड को तो खाने की फ़िक्र ही न रहती थी। मिलने वालों के डर से अपने कमरे का द्वार बंद करके लिखा-पढ़ी करते थे। भोजन का समय आ जाता, तो उनकी बहन आहिस्ता से भीतर के द्वार से उनके पास जा कर किताब बंद कर देती थी, तब उन्हें मालूम होता कि खाने का समय हो गया। रात को भी भोजन का समय बँधा हुआ था। उनकी बहन कमरे की बत्ती बुझा दिया करती थी। एक दिन बहन ने किताब बंद करनी चाही, तो आपने पुस्तक को दोनों हाथों से दबा लिया और बहन-भाई में जोर-आजमाई होने लगी। आखिर बहन उनकी पहिएदार कुर्सी को खींच कर भोजन के कमरे में लाई।' | ||
रायसाहब बोले - मगर मेहता साहब तो बड़े | रायसाहब बोले - मगर मेहता साहब तो बड़े खुशमिज़ाज और मिलनसार हैं, नहीं इस हंगामे में क्यों आते।' | ||
'तो आप फिलासफर न होंगे। जब अपने चिंताओं से हमारे सिर में दर्द होने लगता है, तो विश्व की चिंता सिर पर लाद कर कोई कैसे प्रसन्न रह सकता है।' | 'तो आप फिलासफर न होंगे। जब अपने चिंताओं से हमारे सिर में दर्द होने लगता है, तो विश्व की चिंता सिर पर लाद कर कोई कैसे प्रसन्न रह सकता है।' | ||
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उधर संपादक जी श्रीमती खन्ना से अपने आर्थिक कठिनाइयों की कथा कह रहे थे - बस यों समझिए श्रीमतीजी, कि संपादक का जीवन एक दीर्घ विलाप है, जिसे सुन कर लोग दया करने के बदले कानों पर हाथ रख लेते हैं। बेचारा न अपना उपकार कर सके, न औरों का। पब्लिक उससे आशा तो यह रखती है कि हर एक आंदोलन में वह सबसे आगे रहे, जेल जाय, मार खाए, घर के माल-असबाब की कुर्की कराए, यह उसका धर्म समझा जाता है, लेकिन उसकी कठिनाइयों की ओर किसी का ध्यान नहीं। हो तो वह सब कुछ। उसे हर एक विद्या, हर एक कला में पारंगत होना चाहिए, लेकिन उसे जीवित रहने का अधिकार नहीं। आप तो आजकल कुछ लिखती ही नहीं। आपकी सेवा करने का जो थोड़ा-सा सौभाग्य मुझे मिल सकता है, उससे मुझे क्यों वंचित रखती हैं? | उधर संपादक जी श्रीमती खन्ना से अपने आर्थिक कठिनाइयों की कथा कह रहे थे - बस यों समझिए श्रीमतीजी, कि संपादक का जीवन एक दीर्घ विलाप है, जिसे सुन कर लोग दया करने के बदले कानों पर हाथ रख लेते हैं। बेचारा न अपना उपकार कर सके, न औरों का। पब्लिक उससे आशा तो यह रखती है कि हर एक आंदोलन में वह सबसे आगे रहे, जेल जाय, मार खाए, घर के माल-असबाब की कुर्की कराए, यह उसका धर्म समझा जाता है, लेकिन उसकी कठिनाइयों की ओर किसी का ध्यान नहीं। हो तो वह सब कुछ। उसे हर एक विद्या, हर एक कला में पारंगत होना चाहिए, लेकिन उसे जीवित रहने का अधिकार नहीं। आप तो आजकल कुछ लिखती ही नहीं। आपकी सेवा करने का जो थोड़ा-सा सौभाग्य मुझे मिल सकता है, उससे मुझे क्यों वंचित रखती हैं? | ||
मिसेज खन्ना को कविता लिखने का | मिसेज खन्ना को कविता लिखने का शौक़ था। इस नाते से संपादक जी कभी-कभी उनसे मिल आया करते थे, लेकिन घर के काम-धंधो में व्यस्त रहने के कारण इधर बहुत दिनों से कुछ लिख नहीं सकी थीं। सच बात तो यह है कि संपादक जी ने ही उन्हें प्रोत्साहित करके कवि बनाया था। सच्ची प्रतिभा उनमें बहुत कम थी। | ||
क्या लिखूँ कुछ सूझता ही नहीं। आपने कभी मिस मालती से कुछ लिखने को नहीं कहा?' | क्या लिखूँ कुछ सूझता ही नहीं। आपने कभी मिस मालती से कुछ लिखने को नहीं कहा?' | ||
पंक्ति 104: | पंक्ति 104: | ||
'आपका नाम ग्राहकों में नहीं, संरक्षकों में लिखूँगा।' | 'आपका नाम ग्राहकों में नहीं, संरक्षकों में लिखूँगा।' | ||
'संरक्षकों में रानियों-महारानियों को रखिए, जिनकी थोड़ी-सी खुशामद करके आप अपने पत्र को लाभ की | 'संरक्षकों में रानियों-महारानियों को रखिए, जिनकी थोड़ी-सी खुशामद करके आप अपने पत्र को लाभ की चीज़ बना सकते हैं।' | ||
मेरी रानी-महारानी आप हैं। मैं तो आपके सामने किसी रानी-महारानी की हकीकत नहीं समझता। जिसमें दया और विवेक है, वही मेरी रानी है। खुशामद से मुझे घृणा है।' | मेरी रानी-महारानी आप हैं। मैं तो आपके सामने किसी रानी-महारानी की हकीकत नहीं समझता। जिसमें दया और विवेक है, वही मेरी रानी है। खुशामद से मुझे घृणा है।' | ||
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रायसाहब ने पुकारा - संपादक जी, जरा इधर आइएगा। मिस मालती आपसे कुछ कहना चाहती हैं। | रायसाहब ने पुकारा - संपादक जी, जरा इधर आइएगा। मिस मालती आपसे कुछ कहना चाहती हैं। | ||
संपादक जी की वह सारी अकड़ गायब हो गई। नम्रता और विनय की मूर्ति बने हुए आ कर खड़े हो गए! मालती ने उन्हें सदय नेत्रों से देख कर कहा - मैं अभी कह रही थी कि दुनिया में मुझे सबसे | संपादक जी की वह सारी अकड़ गायब हो गई। नम्रता और विनय की मूर्ति बने हुए आ कर खड़े हो गए! मालती ने उन्हें सदय नेत्रों से देख कर कहा - मैं अभी कह रही थी कि दुनिया में मुझे सबसे ज़्यादा डर संपादकों से लगता है। आप लोग जिसे चाहें, एक क्षण में बिगाड़ दें। मुझी से चीफ सेक्रेटरी साहब ने एक बार कहा - अगर मैं इस ब्लडी ओंकारनाथ को जेल में बंद कर सकूँ तो अपने को भाग्यवान समझूँ। | ||
ओंकारनाथ की बड़ी-बड़ी मूँछें खड़ी हो गईं। आँखों में गर्व की ज्योति चमक उठी। यों वह बहुत ही शांत प्रकृति के आदमी थे, लेकिन ललकार सुन कर उनका पुरुषत्व उत्तेजित हो जाता था। दृढ़ता-भरे स्वर में बोले - इस कृपा के लिए आपका कृतज्ञ हूँ। उस बज्म (सभा) में अपना | ओंकारनाथ की बड़ी-बड़ी मूँछें खड़ी हो गईं। आँखों में गर्व की ज्योति चमक उठी। यों वह बहुत ही शांत प्रकृति के आदमी थे, लेकिन ललकार सुन कर उनका पुरुषत्व उत्तेजित हो जाता था। दृढ़ता-भरे स्वर में बोले - इस कृपा के लिए आपका कृतज्ञ हूँ। उस बज्म (सभा) में अपना ज़िक्र तो आता है, चाहे किसी तरह आए। आप सेक्रेटरी महोदय से कह दीजिएगा कि ओंकारनाथ उन आदमियों में नहीं है, जो इन धमकियों से डर जाए। उसकी कलम उसी वक्त विश्राम लेगी, जब उसकी जीवन-यात्रा समाप्त हो जायगी। उसने अनीति और स्वेच्छाचार को जड़ से खोद कर फेंक देने का जिम्मा लिया है। | ||
मिस मालती ने और उकसाया - मगर मेरी समझ में आपकी यह नीति नहीं आती कि जब आप मामूली शिष्टाचार से अधिकारियों का सहयोग प्राप्त कर सकते हैं, तो क्यों उनसे कन्नी काटते हैं। अगर आप अपनी आलोचनाओं में आग और विष जरा कम दें, तो मैं वादा करती हूँ कि आपको गवर्नमेंट से | मिस मालती ने और उकसाया - मगर मेरी समझ में आपकी यह नीति नहीं आती कि जब आप मामूली शिष्टाचार से अधिकारियों का सहयोग प्राप्त कर सकते हैं, तो क्यों उनसे कन्नी काटते हैं। अगर आप अपनी आलोचनाओं में आग और विष जरा कम दें, तो मैं वादा करती हूँ कि आपको गवर्नमेंट से काफ़ी मदद दिला सकती हूँ। जनता को तो आपने देख लिया। उससे अपील की, उसकी खुशामद की, अपने कठिनाइयों की कथा कही, मगर कोई नतीजा न निकला। अब जरा अधिकारियों को भी आजमा देखिए। तीसरे महीने आप मोटर पर न निकलने लगें, और सरकारी दावतों में निमंत्रित न होने लगें तो मुझे जितना चाहें कोसिएगा। तब यही रईस और नेशनलिस्ट जो आपकी परवा नहीं करते, आपके द्वार के चक्कर लगाएँगे। | ||
ओंकारनाथ अभिमान के साथ बोले - यही तो मैं नहीं कर सकता देवी जी! मैंने अपने सिद्धांतों को सदैव ऊँचा और पवित्र रखा है और जीते-जी उनकी रक्षा करूँगा। दौलत के पुजारी तो गली-गली मिलेंगे, मैं सिद्धांत के पुजारियों में हूँ। | ओंकारनाथ अभिमान के साथ बोले - यही तो मैं नहीं कर सकता देवी जी! मैंने अपने सिद्धांतों को सदैव ऊँचा और पवित्र रखा है और जीते-जी उनकी रक्षा करूँगा। दौलत के पुजारी तो गली-गली मिलेंगे, मैं सिद्धांत के पुजारियों में हूँ। | ||
पंक्ति 128: | पंक्ति 128: | ||
'धन की आपको परवा नहीं है?' | 'धन की आपको परवा नहीं है?' | ||
'सिद्धांतों का | 'सिद्धांतों का ख़ून करके नहीं।' | ||
'तो आपके पत्र में विदेशी वस्तुओं के विज्ञापन क्यों होते हैं? मैंने किसी भी दूसरे पत्र में इतने विदेशी विज्ञापन नहीं देखे। आप बनते तो हैं आदर्शवादी और सिद्धांतवादी, पर अपने फायदे के लिए देश का धन विदेश भेजते हुए आपको जरा भी खेद नहीं होता? आप किसी तर्क से इस नीति का समर्थन नहीं कर सकते।' | 'तो आपके पत्र में विदेशी वस्तुओं के विज्ञापन क्यों होते हैं? मैंने किसी भी दूसरे पत्र में इतने विदेशी विज्ञापन नहीं देखे। आप बनते तो हैं आदर्शवादी और सिद्धांतवादी, पर अपने फायदे के लिए देश का धन विदेश भेजते हुए आपको जरा भी खेद नहीं होता? आप किसी तर्क से इस नीति का समर्थन नहीं कर सकते।' | ||
पंक्ति 146: | पंक्ति 146: | ||
खन्ना की जीभ में खुजली हो रही थी। बोले - आपका एक-एक अंग फिलासफी में डूबा हुआ है। | खन्ना की जीभ में खुजली हो रही थी। बोले - आपका एक-एक अंग फिलासफी में डूबा हुआ है। | ||
मालती ने उनकी लगाम खींची - अच्छा, आपको भी फिलासफी में | मालती ने उनकी लगाम खींची - अच्छा, आपको भी फिलासफी में दख़ल है। मैं तो समझती थी, आप बहुत पहले अपने फिलासफी को गंगा में डुबो बैठे। नहीं, आप इतने बैंकों और कंपनियों के डाइरेक्टर न होते। | ||
रायसाहब ने खन्ना को सँभाला - तो क्या आप समझती हैं कि फिलासफरों को हमेशा फाकेमस्त रहना चाहिए? | रायसाहब ने खन्ना को सँभाला - तो क्या आप समझती हैं कि फिलासफरों को हमेशा फाकेमस्त रहना चाहिए? | ||
पंक्ति 152: | पंक्ति 152: | ||
'जी हाँ' फिलासफर अगर मोह पर विजय न पा सके, तो फिलासफर कैसा?' | 'जी हाँ' फिलासफर अगर मोह पर विजय न पा सके, तो फिलासफर कैसा?' | ||
'इस | 'इस लिहाज़ से तो शायद मिस्टर मेहता भी फिलासफर न ठहरें।' | ||
मेहता ने जैसे आस्तीन चढ़ा कर कहा - मैंने तो कभी यह दावा नहीं किया राय साहब! मैं तो इतना ही जानता हूँ कि जिन औजारों से लोहार काम करता है, उन्हीं औजारों से सोनार नहीं करता। क्या आप चाहते हैं, आम भी उसी दशा में फलें-फूलें जिससे बबूल या ताड़? मेरे लिए धन केवल उन सुविधाओं का नाम है, जिनसे मैं अपना जीवन सार्थक कर सकूँ। धन मेरे लिए फलने-फूलने वाली | मेहता ने जैसे आस्तीन चढ़ा कर कहा - मैंने तो कभी यह दावा नहीं किया राय साहब! मैं तो इतना ही जानता हूँ कि जिन औजारों से लोहार काम करता है, उन्हीं औजारों से सोनार नहीं करता। क्या आप चाहते हैं, आम भी उसी दशा में फलें-फूलें जिससे बबूल या ताड़? मेरे लिए धन केवल उन सुविधाओं का नाम है, जिनसे मैं अपना जीवन सार्थक कर सकूँ। धन मेरे लिए फलने-फूलने वाली चीज़ नहीं, केवल साधन है। मुझे धन की बिलकुल इच्छा नहीं, आप वह साधन जुटा दें, जिसमें मैं अपने जीवन को उपयोग कर सकूँ। | ||
ओंकारनाथ समष्टिवादी थे। व्यक्ति की इस प्रधानता को कैसे स्वीकार करते? | ओंकारनाथ समष्टिवादी थे। व्यक्ति की इस प्रधानता को कैसे स्वीकार करते? | ||
इसी तरह हर एक | इसी तरह हर एक मज़दूर कह सकता है कि उसे काम करने की सुविधाओं के लिए एक हज़ार महीने की ज़रूरत है।' | ||
अगर आप समझते हैं कि उस | अगर आप समझते हैं कि उस मज़दूर के बगैर आपका काम नहीं चल सकता, तो आपको वह सुविधाएँ देनी पड़ेंगी। अगर वही काम दूसरा मज़दूर थोड़ी-सी मज़दूरी में कर दे, तो कोई वजह नहीं कि आप पहले मज़दूर की खुशामद करें।' | ||
'अगर | 'अगर मज़दूरों के हाथ में अधिकार होता, तो मज़दूरों के लिए स्त्री और शराब भी उतनी ही ज़रूरी सुविधा हो जाती, जितनी फिलासफरों के लिए। | ||
'तो आप विश्वास मानिए, मैं उनसे ईर्ष्या न करता।' | 'तो आप विश्वास मानिए, मैं उनसे ईर्ष्या न करता।' | ||
पंक्ति 202: | पंक्ति 202: | ||
'समाज की दृष्टि से विवाहित जीवन को, व्यक्ति की दृष्टि से अविवाहित जीवन को।' | 'समाज की दृष्टि से विवाहित जीवन को, व्यक्ति की दृष्टि से अविवाहित जीवन को।' | ||
धनुष-यज्ञ का अभिनय निकट था। दस से एक तक धनुष-यज्ञ, एक से तीन तक प्रहसन, यह प्रोगाम था। भोजन की तैयारी शुरू हो गई। मेहमानों के लिए बँगले में रहने का अलग-अलग प्रबंध था। खन्ना-परिवार के लिए दो कमरे रखे गए थे। और भी कितने ही मेहमान आ गए थे। सभी अपने-अपने कमरे में गए और कपड़े बदल-बदल कर भोजनालय में जमा हो गए। यहाँ छूत-छात का कोई भेद न था। सभी जातियों और वर्णों के लोग साथ भोजन करने बैठे। केवल संपादक ओंकारनाथ सबसे अलग अपने कमरे में फलाहार करने गए। और कामिनी खन्ना को सिरदर्द हो रहा था, उन्होंने भोजन करने से इनकार किया। भोजनालय में मेहमानों की संख्या पच्चीस से कम न थी। शराब भी थी और माँस भी। इस उत्सव के लिए रायसाहब अच्छी किस्म की शराब | धनुष-यज्ञ का अभिनय निकट था। दस से एक तक धनुष-यज्ञ, एक से तीन तक प्रहसन, यह प्रोगाम था। भोजन की तैयारी शुरू हो गई। मेहमानों के लिए बँगले में रहने का अलग-अलग प्रबंध था। खन्ना-परिवार के लिए दो कमरे रखे गए थे। और भी कितने ही मेहमान आ गए थे। सभी अपने-अपने कमरे में गए और कपड़े बदल-बदल कर भोजनालय में जमा हो गए। यहाँ छूत-छात का कोई भेद न था। सभी जातियों और वर्णों के लोग साथ भोजन करने बैठे। केवल संपादक ओंकारनाथ सबसे अलग अपने कमरे में फलाहार करने गए। और कामिनी खन्ना को सिरदर्द हो रहा था, उन्होंने भोजन करने से इनकार किया। भोजनालय में मेहमानों की संख्या पच्चीस से कम न थी। शराब भी थी और माँस भी। इस उत्सव के लिए रायसाहब अच्छी किस्म की शराब ख़ास तौर पर मँगवाते थे? खींची जाती थी दवा के नाम से, पर होती थी खालिस शराब। माँस भी कई तरह के पकते थे, कोफते, कबाब और पुलाव। मुर्गा, मुर्गियाँ, बकरा, हिरन, तीतर, मोर जिसे जो पसंद हो, वह खाए। | ||
भोजन शुरू हो गया तो मिस मालती ने पूछा - संपादक जी कहाँ रह गए? किसी को भेजो रायसाहब, उन्हें पकड़ लाएँ। | भोजन शुरू हो गया तो मिस मालती ने पूछा - संपादक जी कहाँ रह गए? किसी को भेजो रायसाहब, उन्हें पकड़ लाएँ। | ||
पंक्ति 212: | पंक्ति 212: | ||
सहसा एक सज्जन को देख कर उसने पुकारा - आप भी तशरीफ रखते हैं मिर्जा खुर्शेद, यह काम आपके सुपुर्द। आपकी लियाकत की परीक्षा हो जायगी। | सहसा एक सज्जन को देख कर उसने पुकारा - आप भी तशरीफ रखते हैं मिर्जा खुर्शेद, यह काम आपके सुपुर्द। आपकी लियाकत की परीक्षा हो जायगी। | ||
मिर्जा खुर्शेद गोरे-चिट्टे आदमी थे, भूरी-भूरी मूँछें, नीली आँखें, दोहरी देह, चाँद के बाल सफाचट। छकलिया अचकन और चूड़ीदार पाजामा पहने थे। ऊपर से हैट लगा लेते थे। कौंसिल के मेंबर थे, पर फलाहार समय खर्राटे लेते रहते थे। वोटिंग के समय चौंक पड़ते थे और नेशनलिस्टों की तरफ से वोट देते थे। सूफी मुसलमान थे। दो बार हज कर आए थे, मगर शराब खूब पीते थे। कहते थे, जब हम खुदा का एक हुक्म भी कभी नहीं मानते, तो दीन के लिए क्यों जान दें। बड़े दिल्लगीबाज, बेफिकरे जीव थे। पहले बसरे में ठीके का कारोबार करते थे। लाखों कमाए, मगर शामत आई कि एक मेम से आशनाई कर बैठे। मुकदमेबाजी हुई। जेल जाते-जाते बचे। चौबीस घंटे के अंदर मुल्क से निकल जाने का हुक्म हुआ। जो कुछ जहाँ था, वहीं छोड़ा, और सिर्फ पचास | मिर्जा खुर्शेद गोरे-चिट्टे आदमी थे, भूरी-भूरी मूँछें, नीली आँखें, दोहरी देह, चाँद के बाल सफाचट। छकलिया अचकन और चूड़ीदार पाजामा पहने थे। ऊपर से हैट लगा लेते थे। कौंसिल के मेंबर थे, पर फलाहार समय खर्राटे लेते रहते थे। वोटिंग के समय चौंक पड़ते थे और नेशनलिस्टों की तरफ से वोट देते थे। सूफी मुसलमान थे। दो बार हज कर आए थे, मगर शराब खूब पीते थे। कहते थे, जब हम खुदा का एक हुक्म भी कभी नहीं मानते, तो दीन के लिए क्यों जान दें। बड़े दिल्लगीबाज, बेफिकरे जीव थे। पहले बसरे में ठीके का कारोबार करते थे। लाखों कमाए, मगर शामत आई कि एक मेम से आशनाई कर बैठे। मुकदमेबाजी हुई। जेल जाते-जाते बचे। चौबीस घंटे के अंदर मुल्क से निकल जाने का हुक्म हुआ। जो कुछ जहाँ था, वहीं छोड़ा, और सिर्फ पचास हज़ार ले कर भाग खड़े हुए। बंबई में उनके एजेंट थे। सोचा था, उनसे हिसाब-किताब कर लें और जो कुछ निकलेगा, उसी में ज़िंदगी काट देंगे, मगर एजेंटों ने जाल करके उनसे वह पचास हज़ार भी ऐंठ लिए। निराश हो कर वहाँ से लखनऊ चले। गाड़ी में एक महात्मा से साक्षात हुआ। महात्मा जी ने उन्हें सब्जबाग दिखा कर उनकी घड़ी, अंगूठियाँ, रुपए सब उड़ा लिए। बेचारे लखनऊ पहुँचे तो देह के कपड़ों के सिवा कुछ न था। राय साहब से पुरानी मुलाकात थी। कुछ उनकी मदद से और कुछ अन्य मित्रों की मदद से एक जूते की दुकान खोल ली। वह अब लखनऊ की सबसे चलती हुई जूते की दुकान थी, चार-पाँच सौ रोज की बिक्री थी। जनता को उन पर थोड़े ही दिनों में इतना विश्वास हो गया कि एक बड़े भारी मुस्लिम ताल्लुकेदार को नीचा दिखा कर कौंसिल में पहुँच गए। | ||
अपने जगह पर बैठे-बैठे बोले - जी नहीं, मैं किसी का दीन नहीं बिगाड़ता। यह काम आपको खुद करना चाहिए। मजा तो जब है कि आप उन्हें शराब पिला कर छोड़ें। यह आपके हुस्न के जादू की आजमाइश है। | अपने जगह पर बैठे-बैठे बोले - जी नहीं, मैं किसी का दीन नहीं बिगाड़ता। यह काम आपको खुद करना चाहिए। मजा तो जब है कि आप उन्हें शराब पिला कर छोड़ें। यह आपके हुस्न के जादू की आजमाइश है। | ||
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'जी नहीं, ला कर मेहता जी के हाथ में रख दीजिए।' | 'जी नहीं, ला कर मेहता जी के हाथ में रख दीजिए।' | ||
मिर्जा जी ने तुरंत सौ रुपए का नोट जेब से निकाला और उसे दिखाते हुए खड़े हो कर बोले- भाइयो! यह हम सब मरदों की इज्जत का मामला है। अगर मिस मालती की फरमाइश न पूरी हुई, तो हमारे लिए कहीं मुँह दिखाने की जगह न रहेगी। अगर मेरे पास रुपए होते, तो मैं मिस मालती की एक-एक अदा पर एक-एक लाख कुरबान कर देता। एक पुराने शायर ने अपने माशूक के एक काले तिल पर समरकंद और बोखारा के सूबे कुरबान कर दिए थे। आज आप सभी साहबों की जवाँमरदी और हुस्नपरस्ती का इम्तहान है। जिसके पास जो कुछ हो, सच्चे सूरमा की तरह निकाल कर रख दे। आपको इल्म की कसम, माशूक की अदाओं की कसम, अपनी इज्जत की कसम, पीछे | मिर्जा जी ने तुरंत सौ रुपए का नोट जेब से निकाला और उसे दिखाते हुए खड़े हो कर बोले- भाइयो! यह हम सब मरदों की इज्जत का मामला है। अगर मिस मालती की फरमाइश न पूरी हुई, तो हमारे लिए कहीं मुँह दिखाने की जगह न रहेगी। अगर मेरे पास रुपए होते, तो मैं मिस मालती की एक-एक अदा पर एक-एक लाख कुरबान कर देता। एक पुराने शायर ने अपने माशूक के एक काले तिल पर समरकंद और बोखारा के सूबे कुरबान कर दिए थे। आज आप सभी साहबों की जवाँमरदी और हुस्नपरस्ती का इम्तहान है। जिसके पास जो कुछ हो, सच्चे सूरमा की तरह निकाल कर रख दे। आपको इल्म की कसम, माशूक की अदाओं की कसम, अपनी इज्जत की कसम, पीछे क़दम न हटाइए। मरदों! रुपए खर्च हो जाएँगे, नाम हमेशा के लिए रह जायगा। ऐसा तमाशा लाखों में भी सस्ता है। देखिए, लखनऊ के हसीनों की रानी एक जाहिद पर अपने हुस्न का मंत्र कैसे चलाती है? | ||
भाषण समाप्त करते ही मिर्जा जी ने हर एक की जेब की तलाशी शुरू कर दी। पहले मिस्टर खन्ना की तलाशी हुई। उनकी जेब से पाँच रुपए निकले। | भाषण समाप्त करते ही मिर्जा जी ने हर एक की जेब की तलाशी शुरू कर दी। पहले मिस्टर खन्ना की तलाशी हुई। उनकी जेब से पाँच रुपए निकले। | ||
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मेहता शराब पी कर मस्त हो जाते थे। उस मस्ती में उनका दर्शन उड़ जाता था और विनोद सजीव हो जाता था। लपक कर मिसेज खन्ना के पास गए और पाँच मिनट ही में मुँह लटकाए लौट आए। | मेहता शराब पी कर मस्त हो जाते थे। उस मस्ती में उनका दर्शन उड़ जाता था और विनोद सजीव हो जाता था। लपक कर मिसेज खन्ना के पास गए और पाँच मिनट ही में मुँह लटकाए लौट आए। | ||
मिर्जा ने पूछा - अरे, क्या | मिर्जा ने पूछा - अरे, क्या ख़ाली हाथ? | ||
रायसाहब हँसे - | रायसाहब हँसे - क़ाज़ीके घर चूहे भी सयाने। | ||
मिर्जा ने कहा - हो बड़े खुशनसीब खन्ना, खुदा की कसम। | मिर्जा ने कहा - हो बड़े खुशनसीब खन्ना, खुदा की कसम। | ||
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मिर्जा ने नोटों को आँखों से लगा कर कहा - भई मेहता, आज से मैं तुम्हारा शागिर्द हो गया। बताओ, क्या जादू मारा? | मिर्जा ने नोटों को आँखों से लगा कर कहा - भई मेहता, आज से मैं तुम्हारा शागिर्द हो गया। बताओ, क्या जादू मारा? | ||
मेहता अकड़ कर, लाल-लाल आँखों से ताकते हुए बोले - अजी, कुछ नहीं। ऐसा कौन-सा बड़ा काम था। जा कर पूछा, अंदर आऊँ? बोलीं - आप हैं मेहता जी, आइए। मैंने अंदर जा कर कहा - वहाँ लोग ब्रिज खेल रहे हैं। मिस मालती पाँच सौ रुपए हार गई हैं और अपने अंगूठी बेच रही हैं। अंगूठी एक | मेहता अकड़ कर, लाल-लाल आँखों से ताकते हुए बोले - अजी, कुछ नहीं। ऐसा कौन-सा बड़ा काम था। जा कर पूछा, अंदर आऊँ? बोलीं - आप हैं मेहता जी, आइए। मैंने अंदर जा कर कहा - वहाँ लोग ब्रिज खेल रहे हैं। मिस मालती पाँच सौ रुपए हार गई हैं और अपने अंगूठी बेच रही हैं। अंगूठी एक हज़ार से कम की नहीं है। आपने तो देखा है। बस वही। आपके पास रुपए हों, तो पाँच सौ रुपए दे कर एक हज़ार की चीज़ ले लीजिए। ऐसा मौक़ा फिर न मिलेगा। मिस मालती ने इस वक्त रुपए न दिए, तो बेदाग़ निकल जाएँगी। पीछे से कौन देता है, शायद इसीलिए उन्होंने अंगूठी निकाली है कि पाँच सौ रुपए किसके पास धरे होंगे। मुस्कराईं और चट अपने बटुवे से पाँच नोट निकाल कर दे दिए, और बोलीं - मैं बिना कुछ लिए घर से नहीं निकलती। न जाने कब क्या ज़रूरत पड़े। | ||
खन्ना खिसिया कर बोले - जब हमारे प्रोफेसरों का यह हाल है, तो यूनिवर्सिटी का ईश्वर ही मालिक है। | खन्ना खिसिया कर बोले - जब हमारे प्रोफेसरों का यह हाल है, तो यूनिवर्सिटी का ईश्वर ही मालिक है। | ||
पंक्ति 276: | पंक्ति 276: | ||
खुश हो कर बोले - मिस मालती मुझे याद कर रही हैं, धन्य-भाग! रायसाहब के साथ ही हाल में आ विराजे। | खुश हो कर बोले - मिस मालती मुझे याद कर रही हैं, धन्य-भाग! रायसाहब के साथ ही हाल में आ विराजे। | ||
उधर नौकरों ने मेजें | उधर नौकरों ने मेजें साफ़ कर दी थीं। मालती ने आगे बढ़ कर उनका स्वागत किया। | ||
संपादक जी ने नम्रता दिखाई - बैठिए, तकल्लुफ न कीजिए। मैं इतना बड़ा आदमी नहीं हूँ। | संपादक जी ने नम्रता दिखाई - बैठिए, तकल्लुफ न कीजिए। मैं इतना बड़ा आदमी नहीं हूँ। | ||
मालती ने श्रद्धा-भरे स्वर में कहा - आप तकल्लुफ समझते होंगे, मैं समझती हूँ, मैं अपना सम्मान बढ़ा रही हूँ, यों आप अपने को कुछ न समझें और आपको शोभा भी यही देता है, लेकिन यहाँ जितने सज्जन जमा हैं, सभी आपकी राष्ट्र और साहित्य-सेवा से भली-भाँति परिचित हैं। आपने इस क्षेत्र में जो | मालती ने श्रद्धा-भरे स्वर में कहा - आप तकल्लुफ समझते होंगे, मैं समझती हूँ, मैं अपना सम्मान बढ़ा रही हूँ, यों आप अपने को कुछ न समझें और आपको शोभा भी यही देता है, लेकिन यहाँ जितने सज्जन जमा हैं, सभी आपकी राष्ट्र और साहित्य-सेवा से भली-भाँति परिचित हैं। आपने इस क्षेत्र में जो महत्त्वपूर्ण काम किया है, अभी चाहे लोग उसका मूल्य न समझें, लेकिन वह समय बहुत दूर नहीं है-मैं तो कहती हूँ वह समय आ गया है - जब हर एक नगर में आपके नाम की सड़कें बनेंगी, क्लब बनेंगे, टाऊनहालों में आपके चित्र लटकाए जाएँगे। इस वक्त जो थोड़ी बहुत जागृति है, वह आप ही के महान् उद्योगों का प्रसाद है। आपको यह जान कर आनंद होगा कि देश में अब आपके ऐसे अनुयायी पैदा हो गए हैं, जो आपके देहात-सुधर आंदोलन में आपका हाथ बँटाने को उत्सुक हैं, और उन सज्जनों की बड़ी इच्छा है कि यह काम संगठित रूप से किया जाय और एक देहात सुधार-संघ स्थापित किया जाय, जिसके आप सभापति हों। | ||
ओंकारनाथ के जीवन में यह पहला अवसर था कि उन्हें चोटी के आदमियों में इतना सम्मान मिले। यों वह कभी-कभी आम जलसों में बोलते थे और कई सभाओं के मंत्री और उपमंत्री भी थे, लेकिन शिक्षित-समाज ने अब तक उनकी उपेक्षा ही की थी। उन लोगों में वह किसी तरह मिल न पाते थे, इसलिए आम जलसों में उनकी निष्क्रियता और स्वार्थांधता की शिकायत किया करते थे, और अपने पत्र में एक-एक को रगेदते थे। कलम तेज थी, वाणी कठोर, साफगोई की जगह उच्छृंखलता कर बैठते थे, इसीलिए लोग उन्हें | ओंकारनाथ के जीवन में यह पहला अवसर था कि उन्हें चोटी के आदमियों में इतना सम्मान मिले। यों वह कभी-कभी आम जलसों में बोलते थे और कई सभाओं के मंत्री और उपमंत्री भी थे, लेकिन शिक्षित-समाज ने अब तक उनकी उपेक्षा ही की थी। उन लोगों में वह किसी तरह मिल न पाते थे, इसलिए आम जलसों में उनकी निष्क्रियता और स्वार्थांधता की शिकायत किया करते थे, और अपने पत्र में एक-एक को रगेदते थे। कलम तेज थी, वाणी कठोर, साफगोई की जगह उच्छृंखलता कर बैठते थे, इसीलिए लोग उन्हें ख़ाली ढोल समझते थे। उसी समाज में आज उनका इतना सम्मान! कहाँ हैं आज 'स्वराज' और 'स्वाधीन भारत' और 'हंटर' के संपादक, आ कर देखें और अपना कलेजा ठंडा करें। आज अवश्य ही देवताओं की उन पर कृपादृष्टि है। सद्योग कभी निष्फल नहीं जाता, ॠषियों का वाक्य है। वह स्वयं अपने नजरों में उठ गए। कृतज्ञता से पुलकित हो कर बोले - देवी जी, आप तो मुझे काँटों में घसीट रही हैं। मैंने तो जनता की जो कुछ भी सेवा की, अपना कर्तव्य समझ कर की। मैं इस सम्मान को व्यक्ति का सम्मान नहीं, उस उद्देश्य का सम्मान समझ रहा हूँ, जिसके लिए मैंने अपना जीवन अर्पित कर दिया है, लेकिन मेरा नम्र-निवेदन है कि प्रधान का पद किसी प्रभावशाली पुरुष को दिया जाय, मैं पदों में विश्वास नहीं रखता। मैं तो सेवक हूँ और सेवा करना चाहता हूँ। | ||
मिस मालती इसे किसी तरह स्वीकार नहीं कर सकती? सभापति पंडित जी को बनना पड़ेगा। नगर में उसे ऐसा प्रभावशाली व्यक्ति दूसरा नहीं दिखाई देता। जिसकी कलम में जादू है, जिसकी जबान में जादू है, जिसके व्यक्तित्व में जादू है, वह कैसे कहता है कि वह प्रभावशाली नहीं है। वह जमाना गया, जब धन और प्रभाव में मेल था। अब प्रतिभा और प्रभाव के मेल का युग है। संपादक जी को यह पद अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा। मंत्री मिस मालती होंगी। इस सभा के लिए एक | मिस मालती इसे किसी तरह स्वीकार नहीं कर सकती? सभापति पंडित जी को बनना पड़ेगा। नगर में उसे ऐसा प्रभावशाली व्यक्ति दूसरा नहीं दिखाई देता। जिसकी कलम में जादू है, जिसकी जबान में जादू है, जिसके व्यक्तित्व में जादू है, वह कैसे कहता है कि वह प्रभावशाली नहीं है। वह जमाना गया, जब धन और प्रभाव में मेल था। अब प्रतिभा और प्रभाव के मेल का युग है। संपादक जी को यह पद अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा। मंत्री मिस मालती होंगी। इस सभा के लिए एक हज़ार का चंदा भी हो गया है और अभी तो सारा शहर और प्रांत पड़ा हुआ है। चार-पाँच लाख मिल जाना मामूली बात है। | ||
ओंकारनाथ पर कुछ नशा-सा चढ़ने लगा। उनके मन में जो एक प्रकार की फुरहरी-सी उठ रही थी, उसने गंभीर उत्तरदायित्व का रूप धारण कर लिया। बोले - मगर यह आप समझ लें, मिस मालती, कि यह बड़ी | ओंकारनाथ पर कुछ नशा-सा चढ़ने लगा। उनके मन में जो एक प्रकार की फुरहरी-सी उठ रही थी, उसने गंभीर उत्तरदायित्व का रूप धारण कर लिया। बोले - मगर यह आप समझ लें, मिस मालती, कि यह बड़ी ज़िम्मेदारी का काम है और आपको अपना बहुत समय देना पड़ेगा। मैं अपनी तरफ से आपको विश्वास दिलाता हूँ कि आप सभा-भवन में मुझे सबसे पहले मौजूद पाएँगी। | ||
मिर्जा जी ने पुचारा दिया - आपका बड़े-से-बड़ा दुश्मन भी यह नहीं कह सकता कि आप अपना | मिर्जा जी ने पुचारा दिया - आपका बड़े-से-बड़ा दुश्मन भी यह नहीं कह सकता कि आप अपना कर्ज़ अदा करने में कभी किसी से पीछे रहे। | ||
मिस मालती ने देखा, शराब कुछ-कुछ असर करने लगी है, तो और भी गंभीर बन कर बोलीं - अगर हम लोग इस काम की महानता न समझते, तो न यह सभा स्थापित होती और न आप इसके सभापति होते। हम किसी रईस या ताल्लुकेदार को सभापति बना कर धन खूब बटोर सकते हैं, और सेवा की आड़ में स्वार्थ सिद्ध कर सकते हैं, लेकिन यह हमारा उद्देश्य नहीं। हमारा एकमात्र उद्देश्य जनता की सेवा करना है। और उसका सबसे बड़ा साधन आपका पत्र है। हमने निश्चय किया है कि हर एक नगर और गाँव में उसका प्रचार किया जाय और जल्द-से-जल्द उसकी ग्राहक-संख्या को बीस | मिस मालती ने देखा, शराब कुछ-कुछ असर करने लगी है, तो और भी गंभीर बन कर बोलीं - अगर हम लोग इस काम की महानता न समझते, तो न यह सभा स्थापित होती और न आप इसके सभापति होते। हम किसी रईस या ताल्लुकेदार को सभापति बना कर धन खूब बटोर सकते हैं, और सेवा की आड़ में स्वार्थ सिद्ध कर सकते हैं, लेकिन यह हमारा उद्देश्य नहीं। हमारा एकमात्र उद्देश्य जनता की सेवा करना है। और उसका सबसे बड़ा साधन आपका पत्र है। हमने निश्चय किया है कि हर एक नगर और गाँव में उसका प्रचार किया जाय और जल्द-से-जल्द उसकी ग्राहक-संख्या को बीस हज़ार तक पहुँचा दिया जाए। प्रांत की सभी म्युनिसिपैलिटियों और ज़िला बोर्डो के चेयरमैन हमारे मित्र हैं। कई चेयरमैन तो यहीं विराजमान हैं। अगर हर एक ने पाँच-पाँच सौ प्रतियाँ भी ले लीं, तो पचीस हज़ार प्रतियाँ तो आप यकीनी समझें। फिर रायसाहब और मिर्जा साहब की यह सलाह है कि कौंसिल में इस विषय का एक प्रस्ताव रखा जाय कि प्रत्येक गाँव के लिए 'बिजली' की एक प्रति सरकारी तौर पर मँगाई जाय, या कुछ वार्षिक सहायता स्वीकार की जाय और हमें पूरा विश्वास है कि यह प्रस्ताव पास हो जायगा। | ||
ओंकारनाथ ने जैसे नशे में झूमते हुए कहा - हमें गवर्नर के पास डेपुटेशन ले जाना होगा। | ओंकारनाथ ने जैसे नशे में झूमते हुए कहा - हमें गवर्नर के पास डेपुटेशन ले जाना होगा। | ||
मिर्जा खुर्शेद बोले - | मिर्जा खुर्शेद बोले - ज़रूर-ज़रूर! | ||
'उनसे कहना होगा कि किसी सभ्य शासन के लिए यह कितनी लज्जा और कलंक की बात है कि ग्रामोत्थान का अकेला पत्र होने पर भी 'बिजली' का अस्तित्व तक नहीं स्वीकार किया जाता।' | 'उनसे कहना होगा कि किसी सभ्य शासन के लिए यह कितनी लज्जा और कलंक की बात है कि ग्रामोत्थान का अकेला पत्र होने पर भी 'बिजली' का अस्तित्व तक नहीं स्वीकार किया जाता।' | ||
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'मैं मिस्टर मेहता को धन्यवाद देता हूँ। हाँ, इसे तपस्या ही कहना चाहिए, बड़ी कठोर तपस्या। 'बिजली' ने जो तपस्या की है, वह इस प्रांत के ही नहीं, इस राष्ट्र के इतिहास में अभूतपूर्व है।' | 'मैं मिस्टर मेहता को धन्यवाद देता हूँ। हाँ, इसे तपस्या ही कहना चाहिए, बड़ी कठोर तपस्या। 'बिजली' ने जो तपस्या की है, वह इस प्रांत के ही नहीं, इस राष्ट्र के इतिहास में अभूतपूर्व है।' | ||
मिर्जा खुर्शेद बोले - | मिर्जा खुर्शेद बोले - ज़रूर-ज़रूर! | ||
मिस मालती ने एक पेग और दिया - हमारे संघ ने यह निश्चय भी किया है कि कौंसिल में अब की जो जगह | मिस मालती ने एक पेग और दिया - हमारे संघ ने यह निश्चय भी किया है कि कौंसिल में अब की जो जगह ख़ाली हो, उसके लिए आपको उम्मीदवार खड़ा किया जाए। आपको केवल अपनी स्वीकृति देनी होगी। शेष सारा काम लोग कर लेंगे। आपको न खर्च से मतलब, न प्रोपेगेंडा, न दौड़-धूप से। | ||
ओंकारनाथ की आँखों की ज्योति दुगुनी हो गई। गर्वपूर्ण नम्रता से बोले - मैं आप लोगों का सेवक हूँ, मुझसे जो काम चाहे ले लीजिए। | ओंकारनाथ की आँखों की ज्योति दुगुनी हो गई। गर्वपूर्ण नम्रता से बोले - मैं आप लोगों का सेवक हूँ, मुझसे जो काम चाहे ले लीजिए। | ||
हम लोगों को आपसे ऐसी ही आशा है। हम अब तक झूठे देवताओें के सामने नाक रगड़ते-रगड़ते हार गए और कुछ हाथ न लगा। अब हमने आपमें सच्चा पथ-प्रदर्शक, सच्चा | हम लोगों को आपसे ऐसी ही आशा है। हम अब तक झूठे देवताओें के सामने नाक रगड़ते-रगड़ते हार गए और कुछ हाथ न लगा। अब हमने आपमें सच्चा पथ-प्रदर्शक, सच्चा गुरु पाया है। और इस शुभ दिन के आनंद में आज हमें एकमन, एकप्राण हो कर अपने अहंकार को, अपने दंभ को तिलांजलि दे देनी चाहिए। हममें आज से कोई ब्राह्मण नहीं है, कोई शूद्र नहीं है, कोई हिंदू नहीं है, कोई मुसलमान नहीं है, कोई ऊँच नहीं है, कोई नीच नहीं है। हम सब एक ही माता के बालक, एक ही गोद के खेलने वाले, एक ही थाली के खाने वाले भाई हैं। जो लोग भेद-भाव में विश्वास रखते हैं, जो लोग पृथकता और कट्टरता के उपासक हैं, उनके लिए हमारी सभा में स्थान नहीं है। जिस सभा के सभापति पूज्य ओंकारनाथ जैसे विशाल-हृदय व्यक्ति हों, उस सभा में ऊँच-नीच का, खान-पान का और जाति-पाँति का भेद नहीं हो सकता। जो महानुभाव एकता में और राष्ट्रीयता में विश्वास न रखते हों, वे कृपा करके यहाँ से उठ जायँ। | ||
रायसाहब ने शंका की - मेरे विचार में एकता का यह आशय नहीं है कि सब लोग खान-पान का विचार छोड़ दें। मैं शराब नहीं पीता, तो क्या मुझे इस सभा से अलग हो जाना पडेग़ा? | रायसाहब ने शंका की - मेरे विचार में एकता का यह आशय नहीं है कि सब लोग खान-पान का विचार छोड़ दें। मैं शराब नहीं पीता, तो क्या मुझे इस सभा से अलग हो जाना पडेग़ा? | ||
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ओंकारनाथ का चेहरा जर्द पड़ गया। इस बदमाश ने यह क्या बेवक्त की शहनाई बजा दी। दुष्ट कहीं गड़े मुर्दे न उखाड़ने लगे, नहीं यह सारा सौभाग्य स्वप्न की भाँति शून्य में विलीन हो जायगा। | ओंकारनाथ का चेहरा जर्द पड़ गया। इस बदमाश ने यह क्या बेवक्त की शहनाई बजा दी। दुष्ट कहीं गड़े मुर्दे न उखाड़ने लगे, नहीं यह सारा सौभाग्य स्वप्न की भाँति शून्य में विलीन हो जायगा। | ||
मिस मालती ने उनके मुँह की ओर जिज्ञासा की दृष्टि से देख कर दृढ़ता से कहा - आपका संदेह निराधार है मेहता महोदय! क्या आप समझते हैं कि राष्ट्र की एकता का ऐसा अनन्य उपासक, ऐसा उदारचेता | मिस मालती ने उनके मुँह की ओर जिज्ञासा की दृष्टि से देख कर दृढ़ता से कहा - आपका संदेह निराधार है मेहता महोदय! क्या आप समझते हैं कि राष्ट्र की एकता का ऐसा अनन्य उपासक, ऐसा उदारचेता पुरुष, ऐसा रसिक कवि इस निरर्थक और लज्जाजनक भेद को मान्य समझेगा? ऐसी शंका करना उसकी राष्ट्रीयता का अपमान करना है। | ||
ओंकारनाथ का मुख-मंडल प्रदीप्त हो गया। प्रसन्नता और संतोष की आभा झलक पड़ी। | ओंकारनाथ का मुख-मंडल प्रदीप्त हो गया। प्रसन्नता और संतोष की आभा झलक पड़ी। | ||
मालती ने उसी स्वर में कहा - और इससे भी अधिक उनकी पुरुष-भावना का। एक रमणी के हाथों से शराब का प्याला पा कर वह कौन भद्र पुरुष होगा, जो इनकार कर दे - यह तो नारी-जाति का अपमान होगा, उस नारी-जाति का, जिसके नयन-बाणों से अपने हृदय को बिंधवाने की लालसा पुरुष-मात्र में होती है, जिसकी अदाओं पर मर-मिटने के लिए बड़े-बड़े महीप लालायित रहते हैं। लाइए, बोतल और प्याले, और दौर चलने दीजिए। इस | मालती ने उसी स्वर में कहा - और इससे भी अधिक उनकी पुरुष-भावना का। एक रमणी के हाथों से शराब का प्याला पा कर वह कौन भद्र पुरुष होगा, जो इनकार कर दे - यह तो नारी-जाति का अपमान होगा, उस नारी-जाति का, जिसके नयन-बाणों से अपने हृदय को बिंधवाने की लालसा पुरुष-मात्र में होती है, जिसकी अदाओं पर मर-मिटने के लिए बड़े-बड़े महीप लालायित रहते हैं। लाइए, बोतल और प्याले, और दौर चलने दीजिए। इस महान् अवसर पर, किसी तरह की शंका, किसी तरह की आपत्ति राष्ट्र-द्रोह से कम नहीं। पहले हम अपने सभापति की सेहत का जाम पीएँगे। | ||
बर्फ, शराब और सोडा पहले ही से तैयार था। मालती ने ओंकारनाथ को अपने हाथों से लाल विष से भरा हुआ ग्लास दिया, और उन्हें कुछ ऐसी जादू-भरी चितवन से देखा कि उनकी सारी निष्ठा, सारी वर्ण-श्रेष्ठता | बर्फ, शराब और सोडा पहले ही से तैयार था। मालती ने ओंकारनाथ को अपने हाथों से लाल विष से भरा हुआ ग्लास दिया, और उन्हें कुछ ऐसी जादू-भरी चितवन से देखा कि उनकी सारी निष्ठा, सारी वर्ण-श्रेष्ठता काफ़ूर हो गई। मन ने कहा सारा आचार-विचार परिस्थितियों के अधीन है। आज तुम दरिद्र हो, किसी मोटरकार को धूल उड़ाते देखते हो, तो ऐसा बिगड़ते हो कि उसे पत्थरों से चूर-चूर कर दो, लेकिन क्या तुम्हारे मन में कार की लालसा नहीं है? परिस्थिति ही विधि है और कुछ नहीं। बाप-दादों ने नहीं पी थी, न पी हो। उन्हें ऐसा अवसर ही कब मिला था - उनकी जीविका पोथी-पत्रों पर थी। शराब लाते कहाँ से, और पीते भी तो जाते कहाँ? फिर वह तो रेलगाड़ी पर न चढ़ते थे, कल का पानी न पीते थे, अंग्रेजी पढ़ना पाप समझते थे। समय कितना बदल गया है। समय के साथ अगर नहीं चल सकते, तो वह तुम्हें पीछे छोड़ कर चला जायगा। ऐसी महिला के कोमल हाथों से विष भी मिले, तो शिरोधार्य करना चाहिए। जिस सौभाग्य के लिए बड़े-बड़े राजे तरसते हैं, वह आज उनके सामने खड़ा है। क्या वह उसे ठुकरा सकते हैं? | ||
उन्होंने ग्लास ले लिया और सिर झुका कर अपनी कृतज्ञता दिखाते हुए एक ही साँस में पी गए और तब लोगों को गर्व भरी आँखों से देखा, मानो कह रहे हों, अब तो आपको मुझ पर विश्वास आया। क्या समझते हैं, मैं निरा पोंगा पंडित हूँ। अब तो मुझे दंभी और पाखंडी कहने का साहस नहीं कर सकते? | उन्होंने ग्लास ले लिया और सिर झुका कर अपनी कृतज्ञता दिखाते हुए एक ही साँस में पी गए और तब लोगों को गर्व भरी आँखों से देखा, मानो कह रहे हों, अब तो आपको मुझ पर विश्वास आया। क्या समझते हैं, मैं निरा पोंगा पंडित हूँ। अब तो मुझे दंभी और पाखंडी कहने का साहस नहीं कर सकते? | ||
हाल में ऐसा शोरगुल मचा कि कुछ न पूछो, जैसे पिटारे में बंद कहकहे निकल पड़े हों! वाह देवी जी! क्या कहना है! कमाल है मिस मालती, कमाल है। तोड़ दिया, नमक का | हाल में ऐसा शोरगुल मचा कि कुछ न पूछो, जैसे पिटारे में बंद कहकहे निकल पड़े हों! वाह देवी जी! क्या कहना है! कमाल है मिस मालती, कमाल है। तोड़ दिया, नमक का क़ानून तोड़ दिया, धर्म का किला तोड़ दिया, नेम का घड़ा फोड़ दिया! | ||
ओंकारनाथ के कंठ के नीचे शराब का पहुँचना था कि उनकी रसिकता वाचाल हो गई। मुस्करा कर बोले - | ओंकारनाथ के कंठ के नीचे शराब का पहुँचना था कि उनकी रसिकता वाचाल हो गई। मुस्करा कर बोले - | ||
मैंने अपने धर्म की थाती मिस मालती के कोमल हाथों में सौंप दी और मुझे विश्वास है, वह उसकी यथोचित रक्षा करेंगी। उनके चरण-कमलों के इस प्रसाद पर मैं ऐसे एक | मैंने अपने धर्म की थाती मिस मालती के कोमल हाथों में सौंप दी और मुझे विश्वास है, वह उसकी यथोचित रक्षा करेंगी। उनके चरण-कमलों के इस प्रसाद पर मैं ऐसे एक हज़ार धर्मो को न्योछावर कर सकता हूँ। | ||
कहकहों से हाल गूँज उठा। | कहकहों से हाल गूँज उठा। | ||
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संपादक जी का चेहरा फूल उठा था, आँखें झुकी पड़ती थीं। दूसरा ग्लास भर कर बोले - यह मिल मालती की सेहत का जाम है। आप लोग पिएँ और उन्हें आशीर्वाद दें। | संपादक जी का चेहरा फूल उठा था, आँखें झुकी पड़ती थीं। दूसरा ग्लास भर कर बोले - यह मिल मालती की सेहत का जाम है। आप लोग पिएँ और उन्हें आशीर्वाद दें। | ||
लोगों ने फिर अपने-अपने ग्लास | लोगों ने फिर अपने-अपने ग्लास ख़ाली कर दिए। | ||
उसी वक्त मिर्जा खुर्शेद ने एक माला ला कर संपादक जी के गले में डाल दी और बोले - सज्जनों, फिदवी ने अभी अपने पूज्य सदर साहब की शान में एक कसीदा कहा है। आप लोगों की इजाजत हो तो सुनाऊँ। | उसी वक्त मिर्जा खुर्शेद ने एक माला ला कर संपादक जी के गले में डाल दी और बोले - सज्जनों, फिदवी ने अभी अपने पूज्य सदर साहब की शान में एक कसीदा कहा है। आप लोगों की इजाजत हो तो सुनाऊँ। | ||
चारों तरफ से आवाजें आई - हाँ-हाँ, | चारों तरफ से आवाजें आई - हाँ-हाँ, ज़रूर सुनाइए। | ||
ओंकारनाथ भंग तो आए दिन पिया करते थे और उनका मस्तिष्क उसका अभ्यस्त हो गया था, मगर शराब पीने का उन्हें यह पहला अवसर था। भंग का नशा मंथर गति से एक स्वप्न की भाँति आता था और मस्तिष्क पर मेघ के समान छा जाता था। उनकी चेतना बनी रहती थी। उन्हें खुद मालूम होता था कि इस समय उनकी वाणी बड़ी लच्छेदार है, और उनकी कल्पना बहुत प्रबल। शराब का नशा उनके ऊपर सिंह की भाँति झपटा और दबोच बैठा। वह कहते कुछ हैं, मुँह से निकलता कुछ है। फिर यह ज्ञान भी जाता रहा। वह क्या कहते हैं और क्या करते हैं, इसकी सुधि ही न रही। यह स्वप्न का रोमानी वैचित्रय न था, जागृति का वह चक्कर था, जिसमें साकार निराकार हो जाता है। | ओंकारनाथ भंग तो आए दिन पिया करते थे और उनका मस्तिष्क उसका अभ्यस्त हो गया था, मगर शराब पीने का उन्हें यह पहला अवसर था। भंग का नशा मंथर गति से एक स्वप्न की भाँति आता था और मस्तिष्क पर मेघ के समान छा जाता था। उनकी चेतना बनी रहती थी। उन्हें खुद मालूम होता था कि इस समय उनकी वाणी बड़ी लच्छेदार है, और उनकी कल्पना बहुत प्रबल। शराब का नशा उनके ऊपर सिंह की भाँति झपटा और दबोच बैठा। वह कहते कुछ हैं, मुँह से निकलता कुछ है। फिर यह ज्ञान भी जाता रहा। वह क्या कहते हैं और क्या करते हैं, इसकी सुधि ही न रही। यह स्वप्न का रोमानी वैचित्रय न था, जागृति का वह चक्कर था, जिसमें साकार निराकार हो जाता है। | ||
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न जाने कैसे उनके मस्तिष्क में यह कल्पना जाग उठी कि कसीदा पढ़ना कोई बड़ा अनुचित काम है। मेज पर हाथ पटक कर बोले - नहीं, कदापि नहीं। यहाँ कोई कसीदा नईं ओगा, नईं ओगा। हम सभापति हैं। हमारा हुक्म है। हम अबी इस सब को तोड़ सकते हैं। अबी तोड़ सकते हैं। सभी को निकाल सकते हैं। कोई हमारा कुछ नईं कर सकता। हम सभापति हैं। कोई दूसरा सभापति नईं है। | न जाने कैसे उनके मस्तिष्क में यह कल्पना जाग उठी कि कसीदा पढ़ना कोई बड़ा अनुचित काम है। मेज पर हाथ पटक कर बोले - नहीं, कदापि नहीं। यहाँ कोई कसीदा नईं ओगा, नईं ओगा। हम सभापति हैं। हमारा हुक्म है। हम अबी इस सब को तोड़ सकते हैं। अबी तोड़ सकते हैं। सभी को निकाल सकते हैं। कोई हमारा कुछ नईं कर सकता। हम सभापति हैं। कोई दूसरा सभापति नईं है। | ||
मिर्जा ने हाथ जोड़ कर कहा - | मिर्जा ने हाथ जोड़ कर कहा - हुज़ूर, इस कसीदे में तो आपकी तारीफ की गई है। | ||
संपादक जी ने लाल, पर ज्योतिहीन नेत्रों से देखा - तुम हमारी तारीफ क्यों की? क्यों की? बोलो, क्यों हमारी तारीफ की? हम किसी का नौकर नईं है। किसी के बाप का नौकर नईं है, किसी साले का दिया नहीं खाते। हम खुद संपादक है। हम 'बिजली' का संपादक है। हम उसमें सबका तारीफ करेगा। देवी जी, हम तुम्हारा तारीफ नईं करेगा। हम कोई बड़ा आदमी नईं है। हम सबका | संपादक जी ने लाल, पर ज्योतिहीन नेत्रों से देखा - तुम हमारी तारीफ क्यों की? क्यों की? बोलो, क्यों हमारी तारीफ की? हम किसी का नौकर नईं है। किसी के बाप का नौकर नईं है, किसी साले का दिया नहीं खाते। हम खुद संपादक है। हम 'बिजली' का संपादक है। हम उसमें सबका तारीफ करेगा। देवी जी, हम तुम्हारा तारीफ नईं करेगा। हम कोई बड़ा आदमी नईं है। हम सबका ग़ुलाम है। हम आपका चरण-रज है। मालती देवी हमारी लक्ष्मी, हमारी सरस्वती, हमारी राधा... | ||
यह कहते हुए वे मालती के चरणों की तरफ झुके और मुँह के बल फर्श पर गिर पड़े। मिर्जा खुर्शेद ने दौड़ कर उन्हें सँभाला और कुर्सियाँ हटा कर वहीं | यह कहते हुए वे मालती के चरणों की तरफ झुके और मुँह के बल फर्श पर गिर पड़े। मिर्जा खुर्शेद ने दौड़ कर उन्हें सँभाला और कुर्सियाँ हटा कर वहीं ज़मीन पर लिटा दिया। फिर उनके कानों के पास मुँह ले जा कर बोले - राम-राम सत्त है! कहिए तो आपका जनाजा निकालें? | ||
रायसाहब ने कहा - कल देखना कितना बिगड़ता है। एक-एक को अपने पत्र में रगेदेगा। और ऐसा रगेदेगा कि आप भी याद करेंगे! एक ही दुष्ट है, किसी पर दया नहीं करता। लिखने में तो अपना जोड़ नहीं रखता। ऐसा गधा आदमी कैसे इतना अच्छा लिखता है, यह रहस्य है। | रायसाहब ने कहा - कल देखना कितना बिगड़ता है। एक-एक को अपने पत्र में रगेदेगा। और ऐसा रगेदेगा कि आप भी याद करेंगे! एक ही दुष्ट है, किसी पर दया नहीं करता। लिखने में तो अपना जोड़ नहीं रखता। ऐसा गधा आदमी कैसे इतना अच्छा लिखता है, यह रहस्य है। | ||
कई आदमियों ने संपादक जी को उठाया और ले जा कर उनके कमरे में लिटा दिया। उधर पंडाल में धनुष-यज्ञ हो रहा था। कई बार इन लोगों को बुलाने के लिए आदमी आ चुके थे। कई हुक्काम भी पंडाल में आ पहुँचे थे। लोग उधर जाने को तैयार हो रहे थे कि सहसा एक | कई आदमियों ने संपादक जी को उठाया और ले जा कर उनके कमरे में लिटा दिया। उधर पंडाल में धनुष-यज्ञ हो रहा था। कई बार इन लोगों को बुलाने के लिए आदमी आ चुके थे। कई हुक्काम भी पंडाल में आ पहुँचे थे। लोग उधर जाने को तैयार हो रहे थे कि सहसा एक अफ़ग़ान आ कर खड़ा हो गया। गोरा रंग, बड़ी-बड़ी मूँछें, ऊँचा कद, चौड़ा सीना, आँखों में निर्भयता का उन्माद भरा हुआ, ढीला नीचा कुरता, पैरों में शलवार, जरी के काम की सदरी, सिर पर पगड़ी और कुलाह, कंधों में चमड़े का बेग लटकाए, कंधों पर बंदूक रखे और कमर में तलवार बाँधे न जाने किधर से आ खड़ा हो गया और गरज कर बोला - खबरदार! कोई यहाँ से मत जाओ। अमारा साथ का आदमी पर डाका पड़ा है। यहाँ का जो सरदार है, वह अमारा आदमी को लूट लिया है, उसका माल तुमको देना होगा। एक-एक कौड़ी देना होगा। कहाँ है सरदार, उसको बुलाओ! | ||
रायसाहब ने सामने आ कर क्रोध-भरे स्वर में कहा - कैसी लूट! कैसा डाका? यह तुम लोगों का काम है। यहाँ कोई किसी को नहीं लूटता। साफ-साफ कहो, क्या मामला है? | रायसाहब ने सामने आ कर क्रोध-भरे स्वर में कहा - कैसी लूट! कैसा डाका? यह तुम लोगों का काम है। यहाँ कोई किसी को नहीं लूटता। साफ-साफ कहो, क्या मामला है? | ||
अफ़ग़ान ने आँखें निकालीं और बंदूक का कुंदा ज़मीन पर पटक कर बोला - अमसे पूछता है कैसा लूट, कैसा डाका? तुम लूटता है, तुम्हारा आदमी लूटता है। अम यहाँ की कोठी का मालिक है। अमारी कोठी में पचीस जवान हैं। अमारा आदमी रुपए तहसील कर लाता था। एक हजार। वह तुम लूट लिया, और कहता है, कैसा डाका? अम बताएगा, कैसा डाका होता है। अमारा पचीसों जवान अबी आता है। अम तुम्हारा गाँव लूट लेगा। कोई साला कुछ नईं कर सकता, कुछ नईं कर सकता। | |||
खन्ना ने | खन्ना ने अफ़ग़ान के तेवर देखे तो चुपके से उठे कि निकल जायँ। सरदार ने ज़ोर से डाँटा - कां जाता तुम? कोई कईं नईं जा सकता, नईं अम सबको कतल कर देगा। अबी फैर कर देगा। अमारा तुम कुछ नईं कर सकता। अम तुम्हारा पुलिस से नईं डरता। पुलिस का आदमी अमारा सकल देख कर भागता है। अमारा अपना कांसल है, अम उसको खत लिख कर लाट साहब के पास जा सकता है। अम याँ से किसी को नईं जाने देगा। तुम अमारा एक हज़ार रुपया लूट लिया। अमारा रुपया नईं देगा, तो अम किसी को जिंदा नईं छोड़ेगा। तुम सब आदमी दूसरों के माल को लूट करता है और याँ माशूक के साथ शराब पीता है। | ||
मिस मालती उसकी आँख बचा कर कमरे से निकलने लगीं कि वह बाज की तरह टूट कर उनके सामने आ खड़ा हुआ और बोला - तुम इन बदमाशों से अमारा माल दिलवाए, नईं अम तुमको उठा ले जायगा अपने कोठी में जशन मनाएगा। तुम्हारा हुस्न पर अम आशिक हो गया। या तो अमको एक | मिस मालती उसकी आँख बचा कर कमरे से निकलने लगीं कि वह बाज की तरह टूट कर उनके सामने आ खड़ा हुआ और बोला - तुम इन बदमाशों से अमारा माल दिलवाए, नईं अम तुमको उठा ले जायगा अपने कोठी में जशन मनाएगा। तुम्हारा हुस्न पर अम आशिक हो गया। या तो अमको एक हज़ार अबी-अबी दे दे या तुमको अमारे साथ चलना पड़ेगा। तुमको अम नईं छोड़ेगा। अम तुम्हारा आशिक हो गया है। अमारा दिल और जिगर फटा जाता है। अमारा इस जगह पचीस जवान है। इस ज़िला में हमारा पाँच सौ जवान काम करता है। अम अपने कबीले का खान है। अमारे कबीला में दस हज़ार सिपाही हैं। अम काबुल के अमीर से लड़ सकता है। अंग्रेज़ सरकार अमको बीस हज़ार सालाना खिराज देता है। अगर तुम हमारा रुपया नईं देगा, तो अम गाँव लूट लेगा और तुम्हारा माशूक को उठा ले जायगा। ख़ून करने में अमको लुतफ आता है। अम ख़ून का दरिया बहा देगा। | ||
मजलिस पर आतंक छा गया। मिस मालती अपना चहकना भूल गईं। खन्ना की पिंडलियाँ काँप रही थीं। बेचारे चोट-चपेट के भय से एक-मंजिले बँगले में रहते थे। जीने पर चढ़ना उनके लिए सूली पर चढ़ने से कम न था। गरमी में भी डर के मारे कमरे में सोते थे। रायसाहब को ठकुराई का अभिमान था। वह अपने ही गाँव में एक पठान से डर जाना हास्यास्पद समझते थे, लेकिन उसकी बंदूक को क्या करते? उन्होंने जरा भी चीं-चपड़ किया और इसने बंदूक चलाई। हूश तो होते ही हैं यह सब, और निशाना भी इस सबों का कितना अचूक होता है, अगर उसके हाथ में बंदूक न होती, तो रायसाहब उससे सींग मिलाने को भी तैयार हो जाते। मुश्किल यही थी कि दुष्ट किसी को बाहर नहीं जाने देता। नहीं, दम-के-दम में सारा गाँव जमा हो जाता और इसके पूरे जत्थे को पीट-पाट कर रख देता। | मजलिस पर आतंक छा गया। मिस मालती अपना चहकना भूल गईं। खन्ना की पिंडलियाँ काँप रही थीं। बेचारे चोट-चपेट के भय से एक-मंजिले बँगले में रहते थे। जीने पर चढ़ना उनके लिए सूली पर चढ़ने से कम न था। गरमी में भी डर के मारे कमरे में सोते थे। रायसाहब को ठकुराई का अभिमान था। वह अपने ही गाँव में एक पठान से डर जाना हास्यास्पद समझते थे, लेकिन उसकी बंदूक को क्या करते? उन्होंने जरा भी चीं-चपड़ किया और इसने बंदूक चलाई। हूश तो होते ही हैं यह सब, और निशाना भी इस सबों का कितना अचूक होता है, अगर उसके हाथ में बंदूक न होती, तो रायसाहब उससे सींग मिलाने को भी तैयार हो जाते। मुश्किल यही थी कि दुष्ट किसी को बाहर नहीं जाने देता। नहीं, दम-के-दम में सारा गाँव जमा हो जाता और इसके पूरे जत्थे को पीट-पाट कर रख देता। | ||
आखिर उन्होंने दिल | आखिर उन्होंने दिल मज़बूत किया और जान पर खेल कर बोले - हमने आपसे कह दिया कि हम चोर-डाकू नहीं हैं। मैं यहाँ की कौंसिल का मेंबर हूँ और यह देवी जी लखनऊ की सुप्रसिद्ध डाक्टर हैं। यहाँ सभी शरीफ़ और इज्जतदार लोग जमा हैं। हमें बिलकुल खबर नहीं, आपके आदमियों को किसने लूटा? आप जा कर थाने में रपट कीजिए। | ||
खान ने | खान ने ज़मीन पर पैर पटका, पैंतरे बदले और बंदूक को कंधों से उतार कर हाथ में लेता हुआ दहाड़ा - मत बक-बक करो। काउंसिल का मेंबर को अम इस तरह पैरों से कुचल देता है (जमीन पर पाँव रगड़ता है) अमारा हाथ मज़बूत है, अमारा दिल मज़बूत है, अम खुदाताला के सिवा और किसी से नईं डरता। तुम अमारा रुपया नहीं देगा, तो अम (रायसाहब की तरफ इशारा कर) अभी तुमको कतल कर देगा। | ||
अपने तरफ बंदूक की दोनाली देख कर रायसाहब झुक कर मेज के बराबर आ गए। अजीब मुसीबत में जान फँसी थी। शैतान बरबस कहे जाता है, तुमने हमारे रुपए लूट लिए। न कुछ सुनता है, न कुछ समझता है, न किसी को बाहर आने-जाने देता है। नौकर-चाकर, सिपाही-प्यादे, सब धनुष-यज्ञ देखने में मग्न थे। जमींदारों के नौकर यों भी आलसी और काम-चोर होते हैं, जब तक दस दफे न पुकारा जाता, बोलते ही नहीं, और इस वक्त तो वे एक शुभ काम में लग हुए थे। धनुष-यज्ञ उनके लिए केवल तमाशा नहीं, भगवान की लीला थी, अगर एक आदमी भी इधर आ जाता, तो सिपाहियों को खबर हो जाती और दम भर में खान का सारा खानपन निकल जाता, दाढ़ी के एक-एक बाल नुच जाते। कितना गुस्सेवर है। होते भी तो जल्लाद हैं। न मरने का गम, न जीने की खुशी। | अपने तरफ बंदूक की दोनाली देख कर रायसाहब झुक कर मेज के बराबर आ गए। अजीब मुसीबत में जान फँसी थी। शैतान बरबस कहे जाता है, तुमने हमारे रुपए लूट लिए। न कुछ सुनता है, न कुछ समझता है, न किसी को बाहर आने-जाने देता है। नौकर-चाकर, सिपाही-प्यादे, सब धनुष-यज्ञ देखने में मग्न थे। जमींदारों के नौकर यों भी आलसी और काम-चोर होते हैं, जब तक दस दफे न पुकारा जाता, बोलते ही नहीं, और इस वक्त तो वे एक शुभ काम में लग हुए थे। धनुष-यज्ञ उनके लिए केवल तमाशा नहीं, भगवान की लीला थी, अगर एक आदमी भी इधर आ जाता, तो सिपाहियों को खबर हो जाती और दम भर में खान का सारा खानपन निकल जाता, दाढ़ी के एक-एक बाल नुच जाते। कितना गुस्सेवर है। होते भी तो जल्लाद हैं। न मरने का गम, न जीने की खुशी। | ||
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रायसाहब ने मालती की ओर देखा - देवी जी, अब आपकी क्या सलाह है? | रायसाहब ने मालती की ओर देखा - देवी जी, अब आपकी क्या सलाह है? | ||
मालती का मुखमंडल तमतमा रहा था। बोलीं - होगा क्या, मेरी इतनी बेइज्जती हो रही है और आप लोग बैठे देख रहे हैं! बीस मर्दों के होते एक उजड्ड पठान मेरी इतनी दुर्गति कर रहा है और आप लोगों के | मालती का मुखमंडल तमतमा रहा था। बोलीं - होगा क्या, मेरी इतनी बेइज्जती हो रही है और आप लोग बैठे देख रहे हैं! बीस मर्दों के होते एक उजड्ड पठान मेरी इतनी दुर्गति कर रहा है और आप लोगों के ख़ून में जरा भी गरमी नहीं आती! आपको जान इतनी प्यारी है? क्यों एक आदमी बाहर जा कर शोर नहीं मचाता? क्यों आप लोग उस पर झपट कर उसके हाथ से बंदूक नहीं छीन लेते? बंदूक ही तो चलाएगा? चलाने दो। एक या दो की जान ही तो जायगी? जाने दो। | ||
मगर देवी जी मर जाने को जितना आसान समझती थीं, और लोग न समझते थे। कोई आदमी बाहर निकलने की फिर हिम्मत करे और पठान गुस्से में आ कर दस-पाँच फैर कर दे, तो यहाँ सफाया हो जायगा। बहुत होगा, पुलिस उसे फाँसी सजा दे देगी। वह भी क्या ठीक। एक बड़े कबीले का सरदार है। उसे फाँसी देते हुए सरकार भी सोच-विचार करेगी। ऊपर से दबाव पड़ेगा। राजनीति के सामने न्याय को कौन पूछता है - हमारे ऊपर उलटे मुकदमे दायर हो जायँ और दंडकारी पुलिस बिठा दी जाय, तो आश्चर्य नहीं, कितने मजे से हँसी-मजाक हो रहा था। अब तक ड्रामा का आनंद उठाते होते। इस शैतान ने आ कर एक नई विपत्ति खड़ी कर दी, और ऐसा जान पड़ता है, बिना दो-एक | मगर देवी जी मर जाने को जितना आसान समझती थीं, और लोग न समझते थे। कोई आदमी बाहर निकलने की फिर हिम्मत करे और पठान गुस्से में आ कर दस-पाँच फैर कर दे, तो यहाँ सफाया हो जायगा। बहुत होगा, पुलिस उसे फाँसी सजा दे देगी। वह भी क्या ठीक। एक बड़े कबीले का सरदार है। उसे फाँसी देते हुए सरकार भी सोच-विचार करेगी। ऊपर से दबाव पड़ेगा। राजनीति के सामने न्याय को कौन पूछता है - हमारे ऊपर उलटे मुकदमे दायर हो जायँ और दंडकारी पुलिस बिठा दी जाय, तो आश्चर्य नहीं, कितने मजे से हँसी-मजाक हो रहा था। अब तक ड्रामा का आनंद उठाते होते। इस शैतान ने आ कर एक नई विपत्ति खड़ी कर दी, और ऐसा जान पड़ता है, बिना दो-एक ख़ून किए, मानेगा भी नहीं। | ||
खन्ना ने मालती को फटकारा - देवी जी, आप तो हमें ऐसा लताड़ रही हैं, मानो अपने प्राण रक्षा करना कोई पाप है। प्राण का मोह प्राणि-मात्र में होता है और हम लोगों में भी हो, तो कोई लज्जा की बात नहीं। आप हमारी जान इतनी सस्ती समझती हैं, यह देख कर मुझे खेद होता है। एक | खन्ना ने मालती को फटकारा - देवी जी, आप तो हमें ऐसा लताड़ रही हैं, मानो अपने प्राण रक्षा करना कोई पाप है। प्राण का मोह प्राणि-मात्र में होता है और हम लोगों में भी हो, तो कोई लज्जा की बात नहीं। आप हमारी जान इतनी सस्ती समझती हैं, यह देख कर मुझे खेद होता है। एक हज़ार का ही तो मुआमला है। आपके पास मुफ़्त के एक हज़ार हैं, उसे दे कर क्यों नहीं बिदा कर देतीं। आप खुद अपने बेइज्जती करा रही हैं, इसमें हमारा क्या दोष? | ||
रायसाहब ने गर्म हो कर कहा - अगर इसने देवी जी को हाथ लगाया, तो चाहे मेरी लाश यहीं तड़पने लगे, मैं उससे भिड़ जाऊँगा। आखिर वह भी आदमी ही तो है। | रायसाहब ने गर्म हो कर कहा - अगर इसने देवी जी को हाथ लगाया, तो चाहे मेरी लाश यहीं तड़पने लगे, मैं उससे भिड़ जाऊँगा। आखिर वह भी आदमी ही तो है। | ||
मिर्जा साहब ने संदेह से सिर हिला कर कहा - रायसाहब, आप अभी तो इन सबों के | मिर्जा साहब ने संदेह से सिर हिला कर कहा - रायसाहब, आप अभी तो इन सबों के मिज़ाज से वाकिफ नहीं हैं। यह फैर करना शुरू करेगा, तो फिर किसी को जिंदा न छोड़ेगा। इनका निशाना बेखता होता है। | ||
मि. तंखा बेचारे आने वाले चुनाव की समस्या सुलझाने आए थे। दस-पाँच | मि. तंखा बेचारे आने वाले चुनाव की समस्या सुलझाने आए थे। दस-पाँच हज़ार का वारा-न्यारा करके घर जाने का स्वप्न देख रहे थे। यहाँ जीवन ही संकट में पड़ गया। बोले - सबसे सरल उपाय वही है, जो अभी खन्ना जी ने बतलाया। एक हज़ार की ही बात और रुपए मौजूद हैं, तो आप लोग क्यों इतना सोच-विचार कर रहे हैं। | ||
मिस मालती ने तंखा को तिरस्कार-भरी आँखों से देखा! | मिस मालती ने तंखा को तिरस्कार-भरी आँखों से देखा! | ||
पंक्ति 402: | पंक्ति 402: | ||
'आप लोग इतने कायर हैं, यह मैं न समझती थी।' | 'आप लोग इतने कायर हैं, यह मैं न समझती थी।' | ||
'मैं भी यह न समझता था कि आपको रुपए इतने प्यारे हैं और वह भी | 'मैं भी यह न समझता था कि आपको रुपए इतने प्यारे हैं और वह भी मुफ़्त के !' | ||
'जब आप लोग मेरा अपमान देख सकते हैं, तो अपने घर की स्त्रियों का अपमान भी देख सकते होंगे?' | 'जब आप लोग मेरा अपमान देख सकते हैं, तो अपने घर की स्त्रियों का अपमान भी देख सकते होंगे?' | ||
पंक्ति 408: | पंक्ति 408: | ||
'तो आप भी पैसे के लिए अपने घर के पुरुषों को होम करने में संकोच न करेंगी।' | 'तो आप भी पैसे के लिए अपने घर के पुरुषों को होम करने में संकोच न करेंगी।' | ||
खान इतनी देर तक झल्लाया हुआ-सा इन लोगों की गिटपिट सुन रहा था। एकाएक गरज कर बोला - अम अब नइऊ मानेगा। अम इतनी देर यहाँ खड़ा है, तुम लोग कोई जवाब नईं देता। (जेब से सीटी निकाल कर) अम तुमको एक लमहा और देता है, अगर तुम | खान इतनी देर तक झल्लाया हुआ-सा इन लोगों की गिटपिट सुन रहा था। एकाएक गरज कर बोला - अम अब नइऊ मानेगा। अम इतनी देर यहाँ खड़ा है, तुम लोग कोई जवाब नईं देता। (जेब से सीटी निकाल कर) अम तुमको एक लमहा और देता है, अगर तुम रुपया नईं देता तो अम सीटी बजायगा और अमारा पचीस जवान यहाँ आ जायगा। बस! | ||
फिर आँखों में प्रेम की ज्वाला भर कर उसने मिस मालती को देखा। | फिर आँखों में प्रेम की ज्वाला भर कर उसने मिस मालती को देखा। | ||
पंक्ति 430: | पंक्ति 430: | ||
'तुम इतने आदमियों के बीच से हमें नहीं ले जा सकते।' | 'तुम इतने आदमियों के बीच से हमें नहीं ले जा सकते।' | ||
'अम तुमको एक | 'अम तुमको एक हज़ार आदमियों के बीच से ले जा सकता है।' | ||
'तुमको जान से हाथ धोना पड़ेगा।' | 'तुमको जान से हाथ धोना पड़ेगा।' | ||
पंक्ति 436: | पंक्ति 436: | ||
'अम अपने माशूक के लिए अपने जिस्म का एक-एक बोटी नुचवा सकता है।' | 'अम अपने माशूक के लिए अपने जिस्म का एक-एक बोटी नुचवा सकता है।' | ||
उसने मालती का हाथ पकड़ कर खींचा। उसी वक्त होरी ने कमरे में | उसने मालती का हाथ पकड़ कर खींचा। उसी वक्त होरी ने कमरे में क़दम रखा। वह राजा जनक का माली बना हुआ था और उसके अभिनय ने देहातियों को हँसाते-हँसाते लोटा दिया था। उसने सोचा, मालिक अभी तक क्यों नहीं आए? वह भी तो आ कर देखें कि देहाती इस काम में कितने कुशल होते हैं। उनके यार-दोस्त भी देखें। कैसे मालिक को बुलाए - वह अवसर खोज रहा था, और ज्यों ही मुहलत मिली, दौड़ा हुआ यहाँ आया, मगर यहाँ का दृश्य देख कर भौंचक्का-सा खड़ा रह गया। सब लोग चुप्पी साधे, थर-थर काँपते, कातर नेत्रों से खान को देख रहे थे और खान मालती को अपने तरफ खींच रहा था। उसकी सहज बुद्धि ने परिस्थिति का अनुमान कर लिया। उसी वक्त रायसाहब ने पुकारा- होरी, दौड़ कर जा और सिपाहियों को बुला ला, जल्द दौड़! | ||
होरी पीछे मुड़ा था कि खान ने उसके सामने बंदूक तान कर डाँटा - कहाँ जाता है? सुअर अम गोली मार देगा। | होरी पीछे मुड़ा था कि खान ने उसके सामने बंदूक तान कर डाँटा - कहाँ जाता है? सुअर अम गोली मार देगा। | ||
पंक्ति 442: | पंक्ति 442: | ||
होरी गँवार था। लाल पगड़ी देख कर उसके प्राण निकल जाते थे, लेकिन मस्त सांड़ पर लाठी ले कर पिल पड़ता था। वह कायर न था, मारना और मरना दोनों ही जानता था, मगर पुलिस के हथकंडों के सामने उसकी एक न चलती थी। बँधे-बँधे कौन फिरे, रिश्वत के रुपए कहाँ से लाए, बाल-बच्चों को किस पर छोड़े; मगर जब मालिक ललकारते हों, तो फिर किसका डर? तब तो वह मौत के मुँह में भी कूद सकता है। | होरी गँवार था। लाल पगड़ी देख कर उसके प्राण निकल जाते थे, लेकिन मस्त सांड़ पर लाठी ले कर पिल पड़ता था। वह कायर न था, मारना और मरना दोनों ही जानता था, मगर पुलिस के हथकंडों के सामने उसकी एक न चलती थी। बँधे-बँधे कौन फिरे, रिश्वत के रुपए कहाँ से लाए, बाल-बच्चों को किस पर छोड़े; मगर जब मालिक ललकारते हों, तो फिर किसका डर? तब तो वह मौत के मुँह में भी कूद सकता है। | ||
उसने झपट कर खान की कमर पकड़ी और ऐसा अड़ंगा मारा कि खान चारों खाने चित्ता | उसने झपट कर खान की कमर पकड़ी और ऐसा अड़ंगा मारा कि खान चारों खाने चित्ता ज़मीन पर आ रहा और लगा पश्तो में गालियाँ देने। होरी उसकी छाती पर चढ़ बैठा और ज़ोर से दाढ़ी पकड़ कर खींची। दाढ़ी उसके हाथ में आ गई। खान ने तुरंत अपनी कुलाह उतार फेंकी और ज़ोर मार कर खड़ा हो गया। अरे! यह तो मिस्टर मेहता हैं। वाह! | ||
लोगों ने चारों तरफ से मेहता को घेर लिया। कोई उनके गले लगता, कोई उनकी पीठ पर थपकियाँ देता था और मिस्टर मेहता के चेहरे पर न हँसी थी, न गर्व, चुपचाप खड़े थे, मानो कुछ हुआ ही नहीं। | लोगों ने चारों तरफ से मेहता को घेर लिया। कोई उनके गले लगता, कोई उनकी पीठ पर थपकियाँ देता था और मिस्टर मेहता के चेहरे पर न हँसी थी, न गर्व, चुपचाप खड़े थे, मानो कुछ हुआ ही नहीं। |
09:18, 12 अप्रैल 2018 के समय का अवतरण
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जेठ की उदास और गर्म संध्या सेमरी की सड़कों और गलियों में, पानी के छिड़काव से शीतल और प्रसन्न हो रही थी। मंडप के चारों तरफ फूलों और पौधों के गमले सजा दिए गए थे और बिजली के पंखे चल रहे थे। रायसाहब अपने कारखाने में बिजली बनवा लेते थे। उनके सिपाही पीली वर्दियाँ डाटे, नीले साफे बाँधे, जनता पर रोब जमाते फिरते थे। नौकर उजले कुरते पहने और केसरिया पाग बाँधे, मेहमानों और मुखियों का आदर-सत्कार कर रहे थे। उसी वक्त एक मोटर सिंह-द्वार के सामने आ कर रूकी और उसमें से तीन महानुभाव उतरे। वह जो खद्दर का कुरता और चप्पल पहने हुए हैं, उनका नाम पंडित ओंकारनाथ है। आप दैनिक-पत्र 'बिजली' के यशस्वी संपादक हैं, जिन्हें देश-चिंता ने घुला डाला है। दूसरे महाशय जो कोट-पैंट में हैं, वह हैं तो वकील, पर वकालत न चलने के कारण एक बीमा-कंपनी की दलाली करते हैं और ताल्लुकेदारों को महाजनों और बैंकों से कर्ज़ दिलाने में वकालत से कहीं ज़्यादा कमाई करते हैं। इनका नाम है श्यामबिहारी तंखा और तीसरे सज्जन जो रेशमी अचकन और तंग पाजामा पहने हुए हैं, मिस्टर बी. मेहता, युनिवर्सिटी में दर्शनशास्त्र के अध्यापक हैं। ये तीनों सज्जन रायसाहब के सहपाठियों में हैं और शगुन के उत्सव पर निमंत्रित हुए हैं। आज सारे इलाके के असामी आएँगे और शगुन के रुपए भेंट करेंगे। रात को धनुष-यज्ञ होगा और मेहमानों की दावत होगी। होरी ने पाँच रुपए शगुन के दे दिए हैं और एक गुलाबी मिर्जई पहने, गुलाबी पगड़ी बाँधे, घुटने तक काछनी काछे, हाथ में एक खुरपी लिए और मुख पर पाउडर लगवाए राजा जनक का माली बन गया है और गरूर से इतना फूल उठा है, मानो यह सारा उत्सव उसी के पुरुषार्थ से हो रहा है।
रायसाहब ने मेहमानों का स्वागत किया। दोहरे बदन के ऊँचे आदमी थे, गठा हुआ शरीर, तेजस्वी चेहरा, ऊँचा माथा, गोरा रंग, जिस पर शर्बती रेशमी चादर खूब खिल रही थी।
पंडित ओंकारनाथ ने पूछा - अबकी कौन-सा नाटक खेलने का विचार है? मेरे रस की तो यहाँ वही एक वस्तु है।
रायसाहब ने तीनों सज्जनों को अपने रावटी के सामने कुर्सियों पर बैठाते हुए कहा - पहले तो धनुष-यज्ञ होगा, उसके बाद एक प्रहसन। नाटक कोई अच्छा न मिला। कोई तो इतना लंबा कि शायद पाँच घंटों में भी खत्म न हो और कोई इतना क्लिष्ट कि शायद यहाँ एक व्यक्ति भी उसका अर्थ न समझे। आखिर मैंने स्वयं एक प्रहसन लिख डाला, जो दो घंटों में पूरा हो जायगा।
ओंकारनाथ को रायसाहब की रचना-शक्ति में बहुत संदेह था। उनका ख्याल था कि प्रतिभा तो ग़रीबों ही में चमकती है दीपक की भाँति, जो अँधेरे ही में अपना प्रकाश दिखाता है। उपेक्षा के साथ, जिसे छिपाने की भी उन्होंने चेष्टा नहीं की, पंडित ओंकारनाथ ने मुँह फेर लिया।
मिस्टर तंखा इन बेमतलब की बातों में न पड़ना चाहते थे, फिर भी रायसाहब को दिखा देना चाहते थे कि इस विषय में उन्हें कुछ बोलने का अधिकार है। बोले - नाटक कोई भी अच्छा हो सकता है, अगर उसके अभिनेता अच्छे हों। अच्छा-से-अच्छा नाटक बुरे अभिनेताओं के हाथ में पड़ कर बुरा हो सकता है। जब तक स्टेज पर शिक्षित अभिनेत्रियाँ नहीं आतीं, हमारी नाटयकला का उद्धार नहीं हो सकता। अबकी तो आपने कौंसिल में प्रश्नों की धूम मचा दी। मैं तो दावे के साथ कह सकता हूँ कि किसी मेंबर का रिकार्ड इतना शानदार नहीं है।
दर्शन के अध्यापक मिस्टर मेहता इस प्रशंसा को सहन न कर सकते थे। विरोध तो करना चाहते थे, पर सिद्धांत की आड़ में। उन्होंने हाल ही में एक पुस्तक कई साल के परिश्रम से लिखी थी। उसकी जितनी धूम होनी चाहिए थी, उसकी शतांश भी नहीं हुई थी। इससे बहुत दुखी थे। बोले- भई, मैं प्रश्नों का कायल नहीं। मैं चाहता हूँ, हमारा जीवन हमारे सिद्धांतों के अनुकूल हो। आप कृषकों के शुभेच्छु हैं, उन्हें तरह-तरह की रियायत देना चाहते हैं, जमींदारों के अधिकार छीन लेना चाहते हैं, बल्कि उन्हें आप समाज का शाप कहते हैं, फिर भी आप ज़मींदार हैं, वैसे ही ज़मींदार जैसे हजारों और ज़मींदार हैं। अगर आपकी धारणा है कि कृषकों के साथ रियायत होनी चाहिए, तो पहले आप खुद शुरू करें - काश्तकारों को बगैर नजराने लिए पट्टे लिख दें, बेगार बंद कर दें, इजाफ़ा लगान को तिलांजलि दे दें, चरावर ज़मीन छोड़ दें। मुझे उन लोगों से जरा भी हमदर्दी नहीं है, जो बातें तो करते हैं कम्युनिस्टों की-सी, मगर जीवन है रईसों का-सा, उतना ही विलासमय, उतना ही स्वार्थ से भरा हुआ।
रायसाहब को आघात पहुँचा। वकील साहब के माथे पर बल पड़ गए और संपादक जी के मुँह में जैसे कालिख लग गई। वह खुद समष्टिवाद के पुजारी थे, पर सीधे घर में आग न लगाना चाहते थे।
तंखा ने रायसाहब की वकालत की - मैं समझता हूँ, रायसाहब का अपने असामियों के साथ जितना अच्छा व्यवहार है, अगर सभी ज़मींदार वैसे ही हो जायँ, तो यह प्रश्न ही न रहे।
मेहता ने हथौड़े की दूसरी चोट जमाई - मानता हूँ, आपका अपने असामियों के साथ बहुत अच्छा बर्ताव है, मगर प्रश्न यह है कि उसमें स्वार्थ है या नहीं। इसका एक कारण क्या यह नहीं हो सकता कि मद्धिम आँच में भोजन स्वादिष्ट पकता है? गुड़ से मारने वाला ज़हर से मारने वाले की अपेक्षा कहीं सफल हो सकता है। मैं तो केवल इतना जानता हूँ, हम या तो साम्यवादी हैं या नहीं हैं। हैं तो उसका व्यवहार करें, नहीं हैं, तो बकना छोड़ दें। मैं नकली ज़िंदगी का विरोधी हूँ। अगर माँस खाना अच्छा समझते हो तो खुल कर खाओ। बुरा समझते हो, तो मत खाओ, यह तो मेरी समझ में आता है, लेकिन अच्छा समझना और छिप कर खाना, यह मेरी समझ में नहीं आता। मैं तो इसे कायरता भी कहता हूँ और धूर्तता भी, जो वास्तव में एक हैं।
रायसाहब सभा-चतुर आदमी थे। अपमान और आघात को धैर्य और उदारता से सहने का उन्हें अभ्यास था। कुछ असमंजस में पड़े हुए बोले - आपका विचार बिलकुल ठीक है मेहता जी! आप जानते हैं, मैं आपकी साफगोई का कितना आदर करता हूँ, लेकिन आप यह भूल जाते हैं कि अन्य यात्राओं की भाँति विचारों की यात्रा में भी पड़ाव होते हैं, और आप एक पड़ाव को छोड़ कर दूसरे पड़ाव तक नहीं जा सकते। मानव-जीवन का इतिहास इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। मैं उस वातावरण में पला हूँ, जहाँ राजा ईश्वर है और ज़मींदार ईश्वर का मंत्र। मेरे स्वर्गवासी पिता असामियों पर इतनी दया करते थे कि पाले या सूखे में कभी आधा और कभी पूरा लगान माफ कर देते थे। अपने बखार से अनाज निकाल कर असामियों को खिला देते थे। घर के गहने बेच कर कन्याओं के विवाह में मदद देते थे, मगर उसी वक्त तक, जब तक प्रजा उनको सरकार और धर्मावतार कहती रहे, उन्हें अपना देवता समझ कर उनकी पूजा करती रहे। प्रजा को पालना उनका सनातन धर्म था, लेकिन अधिकार के नाम पर वह कौड़ी का एक दाँत भी फोड़ कर देना न चाहते थे। मैं उसी वातावरण में पला हूँ, और मुझे गर्व है कि मैं व्यवहार में चाहे जो कुछ करूँ, विचारों में उनसे आगे बढ़ गया हूँ और यह मानने लग गया हूँ कि जब तक किसानों को यह रियायतें अधिकार के रूप में न मिलेंगी, केवल सद्भावना के आधार पर उनकी दशा सुधर नहीं सकती। स्वेच्छा अगर अपना स्वार्थ छोड़ दे, तो अपवाद है। मैं खुद सद्भावना करते हुए भी स्वार्थ नहीं छोड़ सकता और चाहता हूँ कि हमारे वर्ग को शासन और नीति के बल से अपना स्वार्थ छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया जाए। इसे आप कायरता कहेंगे, मैं इसे विवशता कहता हूँ। मैं इसे स्वीकार करता हूँ कि किसी को भी दूसरों के श्रम पर मोटे होने का अधिकार नहीं है। उपजीवी होना घोर लज्जा की बात है। कर्म करना प्राणिमात्र का धर्म है। समाज की ऐसी व्यवस्था, जिसमें कुछ लोग मौज करें और अधिक लोग पिसें और खपें कभी सुखद नहीं हो सकती। पूंजी और शिक्षा, जिसे मैं पूंजी ही का एक रूप समझता हूँ, इनका किला जितनी जल्द टूट जाय, उतना ही अच्छा है। जिन्हें पेट की रोटी मयस्सर नहीं, उनके अफसर और नियोजक दस-दस, पाँच-पाँच हज़ार फटकारें, यह हास्यास्पद है और लज्जास्पद भी। इस व्यवस्था ने हम जमींदारों में कितनी विलासिता, कितना दुराचार, कितनी पराधीनता और कितनी निर्लज्जता भर दी है, यह मैं खूब जानता हूँ, लेकिन मैं इन कारणों से इस व्यवस्था का विरोध नहीं करता। मेरा तो यह कहना है कि अपने स्वार्थ की दृष्टि से भी इसका अनुमोदन नहीं किया जा सकता। इस शान को निभाने के लिए हमें अपनी आत्मा की इतनी हत्या करनी पड़ती है कि हममें आत्माभिमान का नाम भी नहीं रहा। हम अपने असामियों को लूटने के लिए मजबूर हैं। अगर अफसरों को कीमती-कीमती डालियाँ न दें, तो बागी समझे जायँ, शान से न रहें, तो कंजूस कहलाएँ। प्रगति की जरा-सी आहट पाते ही हम काँप उठते हैं, और अफसरों के पास फरियाद ले कर दौड़ते हैं कि हमारी रक्षा कीजिए। हमें अपने ऊपर विश्वास नहीं रहा, न पुरुषार्थ ही रह गया। बस, हमारी दशा उन बच्चों की-सी है, जिन्हें चम्मच से दूध पिला कर पाला जाता है, बाहर से मोटे, अंदर से दुर्बल, सत्वहीन और मोहताज।
मेहता ने ताली बजा कर कहा - हियर, हियर! आपकी जबान में जितनी बुद्धि है, काश उसकी आधी भी मस्तिष्क में होती। खेद यही है कि सब कुछ समझते हुए भी आप अपने विचारों को व्यवहार में नहीं लाते।
ओंकारनाथ बोले - अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता, मिस्टर मेहता! हमें समय के साथ चलना भी है और उसे अपने साथ चलाना भी। बुरे कामों में ही सहयोग की ज़रूरत नहीं होती। अच्छे कामों के लिए भी सहयोग उतना ही ज़रूरी है। आप ही क्यों आठ सौ रुपए महीने हड़पते हैं, जब आपके करोड़ों भाई केवल आठ रुपए में अपना निर्वाह कर रहे हैं?
रायसाहब ने ऊपरी खेद, लेकिन भीतरी संतोष से संपादकजी को देखा और बोले - व्यक्तिगत बातों पर आलोचना न कीजिए संपादक जी! हम यहाँ समाज की व्यवस्था पर विचार कर रहे हैं।
मिस्टर मेहता उसी ठंडे मन से बोले - नहीं-नहीं, मैं इसे बुरा नहीं समझता। समाज व्यक्ति से ही बनता है। और व्यक्ति को भूल कर हम किसी व्यवस्था पर विचार नहीं कर सकते। मैं इसलिए इतना वेतन लेता हूँ कि मेरा इस व्यवस्था पर विश्वास नहीं है।
संपादक जी को अचंभा हुआ - अच्छा, तो आप वर्तमान व्यवस्था के समर्थक हैं?
'मैं इस सिद्धांत का समर्थक हूँ कि संसार में छोटे-बड़े हमेशा रहेंगे, और उन्हें हमेशा रहना चाहिए। इसे मिटाने की चेष्टा करना मानव-जाति के सर्वनाश का कारण होगा।'
कुश्ती का जोड़ बदल गया। रायसाहब किनारे खड़े हो गए। संपादक जी मैदान में उतरे - आप बीसवीं शताब्दी में भी ऊँच-नीच का भेद मानते हैं।
'जी हाँ, मानता हूँ और बडे जोरों से मानता हूँ। जिस मत के आप समर्थक हैं, वह भी तो कोई नई चीज़ नहीं। कब से मनुष्य में ममत्व का विकास हुआ, तभी उस मत का जन्म हुआ। बुद्ध और प्लेटो और ईसा सभी समाज में समता प्रवर्तक थे। यूनान और रोम और सीरियाई, सभी सभ्यताओं ने उसकी परीक्षा की, पर अप्राकृतिक होने के कारण कभी वह स्थायी न बन सकी।
'आपकी बातें सुन कर मुझे आश्चर्य हो रहा है।'
'आश्चर्य अज्ञान का दूसरा नाम है।'
'मैं आपका कृतज्ञ हूँ! अगर आप इस विषय पर कोई लेखमाला शुरू कर दें।'
'जी, मैं इतना अहमक नहीं हूँ, अच्छी रकम दिलवाइए, तो अलबत्ता।'
'आपने सिद्धांत ही ऐसा लिया है कि खुले ख़ज़ाने पब्लिक को लूट सकते हैं।'
'मुझमें और आपमें अंतर इतना ही है कि मैं जो कुछ मानता हूँ, उस पर चलता हूँ। आप लोग मानते कुछ हैं, करते कुछ हैं। धन को आप किसी अन्याय से बराबर फैला सकते हैं। लेकिन बुद्धि को, चरित्र को, रूप को, प्रतिभा को और बल को बराबर फैलाना तो आपकी शक्ति के बाहर है। छोटे-बड़े का भेद केवल धन से ही तो नहीं होता। मैंने बड़े-बड़े धनकुबेरों को भिक्षुकों के सामने घुटने टेकते देखा है, और आपने भी देखा होगा। रूप के चौखट पर बड़े-बड़े महीप नाक रगड़ते हैं। क्या यह सामाजिक विषमता नहीं है? आप रूस की मिसाल देंगे। वहाँ इसके सिवाय और क्या है कि मिल के मालिक ने राजकर्मचारी का रूप ले लिया है। बुद्धि तब भी राज करती थी, अब भी करती है और हमेशा करेगी।'
तश्तरी में पान आ गए थे। रायसाहब ने मेहमानों को पान और इलायची देते हुए कहा - बुद्धि अगर स्वार्थ से मुक्त हो, तो हमें उसकी प्रभुता मानने में कोई आपत्ति नहीं। समाजवाद का यही आदर्श है। हम साधु-महात्माओं के सामने इसीलिए सिर झुकाते हैं कि उनमें त्याग का बल है। इसी तरह हम बुद्धि के हाथ में अधिकार भी देना चाहते हैं, सम्मान भी, नेतृत्व भी, लेकिन संपत्ति किसी तरह नहीं। बुद्धि का अधिकार और सम्मान व्यक्ति के साथ चला जाता है, लेकिन उसकी संपत्ति विष बोने के लिए उसके बाद और भी प्रबल हो जाती है। बुद्धि के बगैर किसी समाज का संचालन नहीं हो सकता। हम केवल इस बिच्छू का डंक तोड़ देना चाहते हैं।
दूसरी मोटर आ पहुँची और मिस्टर खन्ना उतरे, जो एक बैंक के मैनेजर और शक्कर मिल के मैनजिंग डाइरेक्टर हैं। दो देवियाँ भी उनके साथ थीं। रायसाहब ने दोनों देवियाँ को उतारा। वह जो खद्दर की साड़ी पहने बहुत गंभीर और विचारशील-सी हैं, मिस्टर खन्ना की पत्नी, कामिनी खन्ना हैं। दूसरी महिला जो ऊँची एड़ी का जूता पहने हुए हैं और जिनकी मुख-छवि पर हँसी फूटी पड़ती है, मिस मालती हैं। आप इंग्लैंड से डाक्टरी पढ़ आई हैं और अब प्रैक्टिस करती हैं। ताल्लुकेदारों के महलों में उनका बहुत प्रवेश है। आप नवयुग की साक्षात प्रतिमा हैं। गात कोमल, पर चपलता कूट-कूट कर भरी हुई। झिझक या संकोच का कहीं नाम नहीं, मेक-अप में प्रवीण, बला की हाजिर-जवाब, पुरुष-मनोविज्ञान की अच्छी जानकार, आमोद-प्रमोद को जीवन का तत्व समझने वाली, लुभाने और रिझाने की कला में निपुण। जहाँ आत्मा का स्थान है, वहाँ प्रदर्शन, जहाँ हृदय का स्थान है, वहाँ हाव-भाव, मनोद्गारों पर कठोर निग्रह, जिसमें इच्छा या अभिलाषा का लोप-सा हो गया हो।
आपने मिस्टर मेहता से हाथ मिलाते हुए कहा - सच कहती हूँ, आप सूरत से ही फिलासफर मालूम होते हैं। इस नई रचना में तो आपने आत्मवादियों को उधेड़ कर रख दिया। पढ़ते-पढ़ते कई बार मेरे जी में ऐसा आया कि आपसे लड़ जाऊँ। फिलासफरों में सहृदयता क्यों गायब हो जाती है?
मेहता झेंप गए। बिना ब्याहे थे और नवयुग की रमणियों से पनाह माँगते थे। पुरुषों की मंडली में खूब चहकते थे, मगर ज्यों ही कोई महिला आई और आपकी जबान बंद हुई, जैसे बुद्धि पर ताला लग जाता था। स्त्रियों से शिष्ट व्यवहार तक करने की सुधि न रहती थी।
मिस्टर खन्ना ने पूछा - फिलासफरों की सूरत में क्या ख़ास बात होती है देवी जी?
मालती ने मेहता की ओर दया-भाव से देख कर कहा - मिस्टर मेहता, बुरा न मानें तो बतला दूँ?
खन्ना मिस मालती के उपासकों में थे। जहाँ मिस मालती जायँ, वहाँ खन्ना का पहुँचना लाजिम था। उनके आस-पास भौंरे की तरह मंडराते रहते थे। हर समय उनकी यही इच्छा रहती थी कि मालती से अधिक से अधिक वही बोलें, उनकी निगाह अधिक से अधिक उन्हीं पर रहे।
खन्ना ने आँख मार कर कहा - फिलासफर किसी की बात का बुरा नहीं मानते। उनकी यही सिफत है।
'तो सुनिए, फिलासफर हमेशा मुर्दा-दिल होते हैं, जब देखिए, अपने विचारों में मगन बैठे हैं। आपकी तरफ ताकेंगे, मगर आपको देखेंगे नहीं, आप उनसे बातें किए जायँ, कुछ सुनेंगे नहीं, जैसे शून्य में उड़ रहे हों।'
सब लोगों ने कहकहा मारा। मिस्टर मेहता जैसे ज़मीन में गड़ गए।
'आक्सफोर्ड में मेरे फिलासफी के प्रोफेसर हसबेंड थे!'
खन्ना ने टोका - नाम तो निराला है।
'जी हाँ, और थे क्वाँरे...
'मिस्टर मेहता भी तो क्वाँरे हैं...'
'यह रोग सभी फिलासफरों को होता है।'
अब मेहता को अवसर मिला। बोले - आप भी तो इसी मरज में गिरफ्तार हैं?
'मैंने प्रतिज्ञा की है, कि किसी फिलासफर से शादी करूँगी और यह वर्ग शादी के नाम से घबराता है। हसबेंड साहब तो स्त्री को देख कर घर में छिप जाते थे। उनके शिष्यों में कई लड़कियाँ थीं। अगर उनमें से कोई कभी कुछ पूछने के लिए उनके ऑफिस में चली जाती थी, तो आप ऐसे घबड़ा जाते, जैसे कोई शेर आ गया हो। हम लोग उन्हें खूब छेड़ा करते थे, बेचारे बड़े सरल-हृदय। कई हज़ार की आमदनी थी, पर मैंने उन्हें हमेशा एक ही सूट पहने देखा। उनकी एक विधवा बहन थी। वही उनके घर का सारा प्रबंध करती थी। मिस्टर हसबेंड को तो खाने की फ़िक्र ही न रहती थी। मिलने वालों के डर से अपने कमरे का द्वार बंद करके लिखा-पढ़ी करते थे। भोजन का समय आ जाता, तो उनकी बहन आहिस्ता से भीतर के द्वार से उनके पास जा कर किताब बंद कर देती थी, तब उन्हें मालूम होता कि खाने का समय हो गया। रात को भी भोजन का समय बँधा हुआ था। उनकी बहन कमरे की बत्ती बुझा दिया करती थी। एक दिन बहन ने किताब बंद करनी चाही, तो आपने पुस्तक को दोनों हाथों से दबा लिया और बहन-भाई में जोर-आजमाई होने लगी। आखिर बहन उनकी पहिएदार कुर्सी को खींच कर भोजन के कमरे में लाई।'
रायसाहब बोले - मगर मेहता साहब तो बड़े खुशमिज़ाज और मिलनसार हैं, नहीं इस हंगामे में क्यों आते।'
'तो आप फिलासफर न होंगे। जब अपने चिंताओं से हमारे सिर में दर्द होने लगता है, तो विश्व की चिंता सिर पर लाद कर कोई कैसे प्रसन्न रह सकता है।'
उधर संपादक जी श्रीमती खन्ना से अपने आर्थिक कठिनाइयों की कथा कह रहे थे - बस यों समझिए श्रीमतीजी, कि संपादक का जीवन एक दीर्घ विलाप है, जिसे सुन कर लोग दया करने के बदले कानों पर हाथ रख लेते हैं। बेचारा न अपना उपकार कर सके, न औरों का। पब्लिक उससे आशा तो यह रखती है कि हर एक आंदोलन में वह सबसे आगे रहे, जेल जाय, मार खाए, घर के माल-असबाब की कुर्की कराए, यह उसका धर्म समझा जाता है, लेकिन उसकी कठिनाइयों की ओर किसी का ध्यान नहीं। हो तो वह सब कुछ। उसे हर एक विद्या, हर एक कला में पारंगत होना चाहिए, लेकिन उसे जीवित रहने का अधिकार नहीं। आप तो आजकल कुछ लिखती ही नहीं। आपकी सेवा करने का जो थोड़ा-सा सौभाग्य मुझे मिल सकता है, उससे मुझे क्यों वंचित रखती हैं?
मिसेज खन्ना को कविता लिखने का शौक़ था। इस नाते से संपादक जी कभी-कभी उनसे मिल आया करते थे, लेकिन घर के काम-धंधो में व्यस्त रहने के कारण इधर बहुत दिनों से कुछ लिख नहीं सकी थीं। सच बात तो यह है कि संपादक जी ने ही उन्हें प्रोत्साहित करके कवि बनाया था। सच्ची प्रतिभा उनमें बहुत कम थी।
क्या लिखूँ कुछ सूझता ही नहीं। आपने कभी मिस मालती से कुछ लिखने को नहीं कहा?'
संपादक जी उपेक्षा भाव से बोले - उनका समय मूल्यवान है कामिनी देवी! लिखते तो वह लोग हैं, जिनके अंदर कुछ दर्द है, अनुराग है, लगन है, विचार है। जिन्होंने धन और भोग-विलास को जीवन का लक्ष्य बना लिया, वह क्या लिखेंगे?
कामिनी ने ईर्ष्या-मिश्रित विनोद से कहा - अगर आप उनसे कुछ लिखा सकें, तो आपका प्रचार दुगुना हो जाए। लखनऊ में तो ऐसा कोई रसिक नहीं है, जो आपका ग्राहक न बन जाए।
'अगर धन मेरे जीवन का आदर्श होता, तो आज मैं इस दशा में न होता। मुझे भी धन कमाने की कला आती है। आज चाहूँ, तो लाखों कमा सकता हूँ, लेकिन यहाँ तो धन को कभी कुछ समझा ही नहीं। साहित्य की सेवा अपने जीवन का ध्येय है और रहेगा।'
'कम-से-कम मेरा नाम तो ग्राहकों में लिखवा दीजिए।'
'आपका नाम ग्राहकों में नहीं, संरक्षकों में लिखूँगा।'
'संरक्षकों में रानियों-महारानियों को रखिए, जिनकी थोड़ी-सी खुशामद करके आप अपने पत्र को लाभ की चीज़ बना सकते हैं।'
मेरी रानी-महारानी आप हैं। मैं तो आपके सामने किसी रानी-महारानी की हकीकत नहीं समझता। जिसमें दया और विवेक है, वही मेरी रानी है। खुशामद से मुझे घृणा है।'
कामिनी ने चुटकी ली - लेकिन मेरी खुशामद तो आप कर रहे हैं संपादक जी!
संपादक जी ने गंभीर हो कर श्रद्धापूर्ण स्वर में कहा - यह खुशामद नहीं है देवी जी, हृदय के सच्चे उद्गार हैं।
रायसाहब ने पुकारा - संपादक जी, जरा इधर आइएगा। मिस मालती आपसे कुछ कहना चाहती हैं।
संपादक जी की वह सारी अकड़ गायब हो गई। नम्रता और विनय की मूर्ति बने हुए आ कर खड़े हो गए! मालती ने उन्हें सदय नेत्रों से देख कर कहा - मैं अभी कह रही थी कि दुनिया में मुझे सबसे ज़्यादा डर संपादकों से लगता है। आप लोग जिसे चाहें, एक क्षण में बिगाड़ दें। मुझी से चीफ सेक्रेटरी साहब ने एक बार कहा - अगर मैं इस ब्लडी ओंकारनाथ को जेल में बंद कर सकूँ तो अपने को भाग्यवान समझूँ।
ओंकारनाथ की बड़ी-बड़ी मूँछें खड़ी हो गईं। आँखों में गर्व की ज्योति चमक उठी। यों वह बहुत ही शांत प्रकृति के आदमी थे, लेकिन ललकार सुन कर उनका पुरुषत्व उत्तेजित हो जाता था। दृढ़ता-भरे स्वर में बोले - इस कृपा के लिए आपका कृतज्ञ हूँ। उस बज्म (सभा) में अपना ज़िक्र तो आता है, चाहे किसी तरह आए। आप सेक्रेटरी महोदय से कह दीजिएगा कि ओंकारनाथ उन आदमियों में नहीं है, जो इन धमकियों से डर जाए। उसकी कलम उसी वक्त विश्राम लेगी, जब उसकी जीवन-यात्रा समाप्त हो जायगी। उसने अनीति और स्वेच्छाचार को जड़ से खोद कर फेंक देने का जिम्मा लिया है।
मिस मालती ने और उकसाया - मगर मेरी समझ में आपकी यह नीति नहीं आती कि जब आप मामूली शिष्टाचार से अधिकारियों का सहयोग प्राप्त कर सकते हैं, तो क्यों उनसे कन्नी काटते हैं। अगर आप अपनी आलोचनाओं में आग और विष जरा कम दें, तो मैं वादा करती हूँ कि आपको गवर्नमेंट से काफ़ी मदद दिला सकती हूँ। जनता को तो आपने देख लिया। उससे अपील की, उसकी खुशामद की, अपने कठिनाइयों की कथा कही, मगर कोई नतीजा न निकला। अब जरा अधिकारियों को भी आजमा देखिए। तीसरे महीने आप मोटर पर न निकलने लगें, और सरकारी दावतों में निमंत्रित न होने लगें तो मुझे जितना चाहें कोसिएगा। तब यही रईस और नेशनलिस्ट जो आपकी परवा नहीं करते, आपके द्वार के चक्कर लगाएँगे।
ओंकारनाथ अभिमान के साथ बोले - यही तो मैं नहीं कर सकता देवी जी! मैंने अपने सिद्धांतों को सदैव ऊँचा और पवित्र रखा है और जीते-जी उनकी रक्षा करूँगा। दौलत के पुजारी तो गली-गली मिलेंगे, मैं सिद्धांत के पुजारियों में हूँ।
'मैं इसे दंभ कहती हूँ।'
'आपकी इच्छा।'
'धन की आपको परवा नहीं है?'
'सिद्धांतों का ख़ून करके नहीं।'
'तो आपके पत्र में विदेशी वस्तुओं के विज्ञापन क्यों होते हैं? मैंने किसी भी दूसरे पत्र में इतने विदेशी विज्ञापन नहीं देखे। आप बनते तो हैं आदर्शवादी और सिद्धांतवादी, पर अपने फायदे के लिए देश का धन विदेश भेजते हुए आपको जरा भी खेद नहीं होता? आप किसी तर्क से इस नीति का समर्थन नहीं कर सकते।'
ओंकारनाथ के पास सचमुच कोई जवाब न था। उन्हें बगलें झाँकते देख कर रायसाहब ने उनकी हिमायत की - तो आखिर आप क्या चाहती हैं? इधर से भी मारे जायँ, उधर से भी मारे जायँ, तो पत्र कैसे चले?
मिस मालती ने दया करना न सीखा था।
'पत्र नहीं चलता तो बंद कीजिए। अपना पत्र चलाने के लिए आपको विदेशी वस्तुओं के प्रचार का कोई अधिकार नहीं। अगर आप मजबूर हैं, तो सिद्धांत का ढोंग छोड़िए। मैं तो सिद्धांतवादी पत्रों को देख कर जल उठती हूँ। जी चाहता है, दियासलाई दिखा दूँ। जो व्यक्ति कर्म और वचन में सामंजस्य नहीं रख सकता, वह और चाहे जो कुछ हो, सिद्धांतवादी नहीं है।'
मेहता खिल उठा। थोड़ी देर पहले उन्होंने खुद इसी विचार का प्रतिपादन किया था। उन्हें मालूम हुआ कि इस रमणी में विचार की शक्ति भी है, केवल तितली नहीं। संकोच जाता रहा।
'यही बात अभी मैं कह रहा था। विचार और व्यवहार में सामंजस्य का न होना ही धूर्तता है, मक्कारी है।'
मिस मालती प्रसन्नमुख से बोली - तो इस विषय में आप और मैं एक हैं, और मैं भी फिलासफर होने का दावा कर सकती हूँ।
खन्ना की जीभ में खुजली हो रही थी। बोले - आपका एक-एक अंग फिलासफी में डूबा हुआ है।
मालती ने उनकी लगाम खींची - अच्छा, आपको भी फिलासफी में दख़ल है। मैं तो समझती थी, आप बहुत पहले अपने फिलासफी को गंगा में डुबो बैठे। नहीं, आप इतने बैंकों और कंपनियों के डाइरेक्टर न होते।
रायसाहब ने खन्ना को सँभाला - तो क्या आप समझती हैं कि फिलासफरों को हमेशा फाकेमस्त रहना चाहिए?
'जी हाँ' फिलासफर अगर मोह पर विजय न पा सके, तो फिलासफर कैसा?'
'इस लिहाज़ से तो शायद मिस्टर मेहता भी फिलासफर न ठहरें।'
मेहता ने जैसे आस्तीन चढ़ा कर कहा - मैंने तो कभी यह दावा नहीं किया राय साहब! मैं तो इतना ही जानता हूँ कि जिन औजारों से लोहार काम करता है, उन्हीं औजारों से सोनार नहीं करता। क्या आप चाहते हैं, आम भी उसी दशा में फलें-फूलें जिससे बबूल या ताड़? मेरे लिए धन केवल उन सुविधाओं का नाम है, जिनसे मैं अपना जीवन सार्थक कर सकूँ। धन मेरे लिए फलने-फूलने वाली चीज़ नहीं, केवल साधन है। मुझे धन की बिलकुल इच्छा नहीं, आप वह साधन जुटा दें, जिसमें मैं अपने जीवन को उपयोग कर सकूँ।
ओंकारनाथ समष्टिवादी थे। व्यक्ति की इस प्रधानता को कैसे स्वीकार करते?
इसी तरह हर एक मज़दूर कह सकता है कि उसे काम करने की सुविधाओं के लिए एक हज़ार महीने की ज़रूरत है।'
अगर आप समझते हैं कि उस मज़दूर के बगैर आपका काम नहीं चल सकता, तो आपको वह सुविधाएँ देनी पड़ेंगी। अगर वही काम दूसरा मज़दूर थोड़ी-सी मज़दूरी में कर दे, तो कोई वजह नहीं कि आप पहले मज़दूर की खुशामद करें।'
'अगर मज़दूरों के हाथ में अधिकार होता, तो मज़दूरों के लिए स्त्री और शराब भी उतनी ही ज़रूरी सुविधा हो जाती, जितनी फिलासफरों के लिए।
'तो आप विश्वास मानिए, मैं उनसे ईर्ष्या न करता।'
'जब आपका जीवन सार्थक करने के लिए स्त्री इतनी आवश्यक है, तो आप शादी क्यों नहीं कर लेते?'
मेहता ने नि:संकोच भाव से कहा - इसीलिए कि मैं समझता हूँ, मुक्त भोग आत्मा के विकास में बाधक नहीं होता। विवाह तो आत्मा को और जीवन को पिंजरे में बंद कर देता है।
खन्ना ने इसका समर्थन किया - बंधन और निग्रह पुरानी थ्योरियाँ हैं। नई थ्योरी है मुक्त भोग।
मालती ने चोटी पकड़ी - तो अब मिसेज खन्ना को तलाक के लिए तैयार रहना चाहिए।
'तलाक का बिल तो हो।'
'शायद उसका पहला उपयोग आप ही करेंगे?'
कामिनी ने मालती की ओर विष-भरी आँखों से देखा और मुँह सिकोड़ लिया, मानो कह रही है - खन्ना तुम्हें मुबारक रहें, मुझे परवाह नहीं।
मालती ने मेहता की तरफ देख कर कहा - इस विषय में आपके क्या विचार हैं मिस्टर मेहता?
मेहता गंभीर हो गए। वह किसी प्रश्न पर अपना मत प्रकट करते थे, तो जैसे अपनी सारी आत्मा उसमें डाल देते थे।
'विवाह को मैं सामाजिक समझौता समझता हूँ और उसे तोड़ने का अधिकार न पुरुष को है, न स्त्री को। समझौता करने के पहले आप स्वाधीन हैं, समझौता हो जाने के बाद आपके हाथ कट जाते हैं।'
'तो आप तलाक के विरोधी हैं, क्यों?'
'पक्का।'
'और मुक्त भोग वाला सिद्धांत?'
'वह उनके लिए है, जो विवाह नहीं करना चाहते।'
'अपनी आत्मा का संपूर्ण विकास सभी चाहते हैं, फिर विवाह कौन करे और क्यों करे?'
'इसीलिए कि मुक्ति सभी चाहते हैं, पर ऐसे बहुत कम हैं, जो लोभ से अपना गला छुड़ा सकें'।
'आप श्रेष्ठ किसे समझते हैं, विवाहित जीवन को या अविवाहित जीवन को?
'समाज की दृष्टि से विवाहित जीवन को, व्यक्ति की दृष्टि से अविवाहित जीवन को।'
धनुष-यज्ञ का अभिनय निकट था। दस से एक तक धनुष-यज्ञ, एक से तीन तक प्रहसन, यह प्रोगाम था। भोजन की तैयारी शुरू हो गई। मेहमानों के लिए बँगले में रहने का अलग-अलग प्रबंध था। खन्ना-परिवार के लिए दो कमरे रखे गए थे। और भी कितने ही मेहमान आ गए थे। सभी अपने-अपने कमरे में गए और कपड़े बदल-बदल कर भोजनालय में जमा हो गए। यहाँ छूत-छात का कोई भेद न था। सभी जातियों और वर्णों के लोग साथ भोजन करने बैठे। केवल संपादक ओंकारनाथ सबसे अलग अपने कमरे में फलाहार करने गए। और कामिनी खन्ना को सिरदर्द हो रहा था, उन्होंने भोजन करने से इनकार किया। भोजनालय में मेहमानों की संख्या पच्चीस से कम न थी। शराब भी थी और माँस भी। इस उत्सव के लिए रायसाहब अच्छी किस्म की शराब ख़ास तौर पर मँगवाते थे? खींची जाती थी दवा के नाम से, पर होती थी खालिस शराब। माँस भी कई तरह के पकते थे, कोफते, कबाब और पुलाव। मुर्गा, मुर्गियाँ, बकरा, हिरन, तीतर, मोर जिसे जो पसंद हो, वह खाए।
भोजन शुरू हो गया तो मिस मालती ने पूछा - संपादक जी कहाँ रह गए? किसी को भेजो रायसाहब, उन्हें पकड़ लाएँ।
रायसाहब ने कहा - वह वैष्णव हैं, उन्हें यहाँ बुला कर क्यों बेचारे का धर्म नष्ट करोगी? बड़ा ही आचारनिष्ठ आदमी है।
अजी और कुछ न सही, तमाशा तो रहेगा।'
सहसा एक सज्जन को देख कर उसने पुकारा - आप भी तशरीफ रखते हैं मिर्जा खुर्शेद, यह काम आपके सुपुर्द। आपकी लियाकत की परीक्षा हो जायगी।
मिर्जा खुर्शेद गोरे-चिट्टे आदमी थे, भूरी-भूरी मूँछें, नीली आँखें, दोहरी देह, चाँद के बाल सफाचट। छकलिया अचकन और चूड़ीदार पाजामा पहने थे। ऊपर से हैट लगा लेते थे। कौंसिल के मेंबर थे, पर फलाहार समय खर्राटे लेते रहते थे। वोटिंग के समय चौंक पड़ते थे और नेशनलिस्टों की तरफ से वोट देते थे। सूफी मुसलमान थे। दो बार हज कर आए थे, मगर शराब खूब पीते थे। कहते थे, जब हम खुदा का एक हुक्म भी कभी नहीं मानते, तो दीन के लिए क्यों जान दें। बड़े दिल्लगीबाज, बेफिकरे जीव थे। पहले बसरे में ठीके का कारोबार करते थे। लाखों कमाए, मगर शामत आई कि एक मेम से आशनाई कर बैठे। मुकदमेबाजी हुई। जेल जाते-जाते बचे। चौबीस घंटे के अंदर मुल्क से निकल जाने का हुक्म हुआ। जो कुछ जहाँ था, वहीं छोड़ा, और सिर्फ पचास हज़ार ले कर भाग खड़े हुए। बंबई में उनके एजेंट थे। सोचा था, उनसे हिसाब-किताब कर लें और जो कुछ निकलेगा, उसी में ज़िंदगी काट देंगे, मगर एजेंटों ने जाल करके उनसे वह पचास हज़ार भी ऐंठ लिए। निराश हो कर वहाँ से लखनऊ चले। गाड़ी में एक महात्मा से साक्षात हुआ। महात्मा जी ने उन्हें सब्जबाग दिखा कर उनकी घड़ी, अंगूठियाँ, रुपए सब उड़ा लिए। बेचारे लखनऊ पहुँचे तो देह के कपड़ों के सिवा कुछ न था। राय साहब से पुरानी मुलाकात थी। कुछ उनकी मदद से और कुछ अन्य मित्रों की मदद से एक जूते की दुकान खोल ली। वह अब लखनऊ की सबसे चलती हुई जूते की दुकान थी, चार-पाँच सौ रोज की बिक्री थी। जनता को उन पर थोड़े ही दिनों में इतना विश्वास हो गया कि एक बड़े भारी मुस्लिम ताल्लुकेदार को नीचा दिखा कर कौंसिल में पहुँच गए।
अपने जगह पर बैठे-बैठे बोले - जी नहीं, मैं किसी का दीन नहीं बिगाड़ता। यह काम आपको खुद करना चाहिए। मजा तो जब है कि आप उन्हें शराब पिला कर छोड़ें। यह आपके हुस्न के जादू की आजमाइश है।
चारों तरफ से आवाजें आईं - हाँ-हाँ, मिस मालती, आज अपना कमाल दिखाइए। मालती ने मिर्जा को ललकारा - कुछ इनाम दोगे?
'सौ रुपए की एक थैली।'
'हुश! सौ रुपए! लाख रुपए का धर्म बिगाडूँ सौ के लिए।'
'अच्छा, आप खुद अपनी फीस बताइए।'
'एक हजार, कौड़ी कम नहीं।'
'अच्छा, मंजूर।'
'जी नहीं, ला कर मेहता जी के हाथ में रख दीजिए।'
मिर्जा जी ने तुरंत सौ रुपए का नोट जेब से निकाला और उसे दिखाते हुए खड़े हो कर बोले- भाइयो! यह हम सब मरदों की इज्जत का मामला है। अगर मिस मालती की फरमाइश न पूरी हुई, तो हमारे लिए कहीं मुँह दिखाने की जगह न रहेगी। अगर मेरे पास रुपए होते, तो मैं मिस मालती की एक-एक अदा पर एक-एक लाख कुरबान कर देता। एक पुराने शायर ने अपने माशूक के एक काले तिल पर समरकंद और बोखारा के सूबे कुरबान कर दिए थे। आज आप सभी साहबों की जवाँमरदी और हुस्नपरस्ती का इम्तहान है। जिसके पास जो कुछ हो, सच्चे सूरमा की तरह निकाल कर रख दे। आपको इल्म की कसम, माशूक की अदाओं की कसम, अपनी इज्जत की कसम, पीछे क़दम न हटाइए। मरदों! रुपए खर्च हो जाएँगे, नाम हमेशा के लिए रह जायगा। ऐसा तमाशा लाखों में भी सस्ता है। देखिए, लखनऊ के हसीनों की रानी एक जाहिद पर अपने हुस्न का मंत्र कैसे चलाती है?
भाषण समाप्त करते ही मिर्जा जी ने हर एक की जेब की तलाशी शुरू कर दी। पहले मिस्टर खन्ना की तलाशी हुई। उनकी जेब से पाँच रुपए निकले।
मिर्जा ने मुँह फीका करके कहा - वाह खन्ना साहब, वाह! नाम बड़े दर्शन थोड़े, इतनी कंपनियों के डाइरेक्टर, लाखों की आमदनी और आपके जेब में पाँच रुपए। लाहौल विला कूवत कहाँ हैं मेहता? आप जरा जा कर मिसेज खन्ना से कम-से कम सौ रुपए वसूल कर लाएँ।
खन्ना खिसिया कर बोले - अजी, उनके पास एक पैसा भी न होगा। कौन जानता था कि यहाँ आप तलाशी लेना शुरू करेंगे?
'खैर, आप खामोश रहिए। हम अपनी तकदीर तो आजमा लें।'
'अच्छा, तो मैं जा कर उनसे पूछता हूँ।'
'जी नहीं, आप यहाँ से हिल नहीं सकते। मिस्टर मेहता, आप फिलासफर हैं, मनोविज्ञान के पंडित। देखिए, अपनी भद न कराइएगा।'
मेहता शराब पी कर मस्त हो जाते थे। उस मस्ती में उनका दर्शन उड़ जाता था और विनोद सजीव हो जाता था। लपक कर मिसेज खन्ना के पास गए और पाँच मिनट ही में मुँह लटकाए लौट आए।
मिर्जा ने पूछा - अरे, क्या ख़ाली हाथ?
रायसाहब हँसे - क़ाज़ीके घर चूहे भी सयाने।
मिर्जा ने कहा - हो बड़े खुशनसीब खन्ना, खुदा की कसम।
मेहता ने कहकहा मारा और जेब से सौ-सौ रुपए के पाँच नोट निकाले।
मिर्जा ने लपक कर उन्हें गले लगा लिया।
चारों तरफ से आवाजें आने लगीं - कमाल है, मानता हूँ उस्ताद, क्यों न हो, फिलासफर ही जो ठहरे!
मिर्जा ने नोटों को आँखों से लगा कर कहा - भई मेहता, आज से मैं तुम्हारा शागिर्द हो गया। बताओ, क्या जादू मारा?
मेहता अकड़ कर, लाल-लाल आँखों से ताकते हुए बोले - अजी, कुछ नहीं। ऐसा कौन-सा बड़ा काम था। जा कर पूछा, अंदर आऊँ? बोलीं - आप हैं मेहता जी, आइए। मैंने अंदर जा कर कहा - वहाँ लोग ब्रिज खेल रहे हैं। मिस मालती पाँच सौ रुपए हार गई हैं और अपने अंगूठी बेच रही हैं। अंगूठी एक हज़ार से कम की नहीं है। आपने तो देखा है। बस वही। आपके पास रुपए हों, तो पाँच सौ रुपए दे कर एक हज़ार की चीज़ ले लीजिए। ऐसा मौक़ा फिर न मिलेगा। मिस मालती ने इस वक्त रुपए न दिए, तो बेदाग़ निकल जाएँगी। पीछे से कौन देता है, शायद इसीलिए उन्होंने अंगूठी निकाली है कि पाँच सौ रुपए किसके पास धरे होंगे। मुस्कराईं और चट अपने बटुवे से पाँच नोट निकाल कर दे दिए, और बोलीं - मैं बिना कुछ लिए घर से नहीं निकलती। न जाने कब क्या ज़रूरत पड़े।
खन्ना खिसिया कर बोले - जब हमारे प्रोफेसरों का यह हाल है, तो यूनिवर्सिटी का ईश्वर ही मालिक है।
खुर्शेद ने घाव पर नमक छिड़का - अरे, तो ऐसी कौन-सी बड़ी रकम है, जिसके लिए आपका दिल बैठा जाता है। खुदा झूठ न बुलवाए तो यह आपकी एक दिन की आमदनी है। समझ लीजिएगा, एक दिन बीमार पड़ गए, और जायगा भी तो मिस मालती ही के हाथ में। आपके दर्दे जिगर की दवा मिस मालती ही के पास तो है।
मालती ने ठोकर मारी - देखिए मिर्जा जी, तबेले में लतिआहुज अच्छी नहीं।
मिर्जा ने दुम हिलाई - कान पकड़ता हूँ देवी जी!
मिस्टर तंखा की तलाशी हुई। मुश्किल से दस रुपए निकले, मेहता की जेब से केवल अठन्नी निकली। कई सज्जनों ने एक-एक, दो-दो रुपए खुद दिए। हिसाब जोड़ा गया, तो तीन सौ की कमी थी। यह कमी रायसाहब ने उदारता के साथ पूरी कर दी।
संपादक जी ने मेवे और फल खाए थे और जरा कमर सीधी कर रहे थे कि रायसाहब ने जा कर कहा - आपको मिस मालती याद कर रही हैं।
खुश हो कर बोले - मिस मालती मुझे याद कर रही हैं, धन्य-भाग! रायसाहब के साथ ही हाल में आ विराजे।
उधर नौकरों ने मेजें साफ़ कर दी थीं। मालती ने आगे बढ़ कर उनका स्वागत किया।
संपादक जी ने नम्रता दिखाई - बैठिए, तकल्लुफ न कीजिए। मैं इतना बड़ा आदमी नहीं हूँ।
मालती ने श्रद्धा-भरे स्वर में कहा - आप तकल्लुफ समझते होंगे, मैं समझती हूँ, मैं अपना सम्मान बढ़ा रही हूँ, यों आप अपने को कुछ न समझें और आपको शोभा भी यही देता है, लेकिन यहाँ जितने सज्जन जमा हैं, सभी आपकी राष्ट्र और साहित्य-सेवा से भली-भाँति परिचित हैं। आपने इस क्षेत्र में जो महत्त्वपूर्ण काम किया है, अभी चाहे लोग उसका मूल्य न समझें, लेकिन वह समय बहुत दूर नहीं है-मैं तो कहती हूँ वह समय आ गया है - जब हर एक नगर में आपके नाम की सड़कें बनेंगी, क्लब बनेंगे, टाऊनहालों में आपके चित्र लटकाए जाएँगे। इस वक्त जो थोड़ी बहुत जागृति है, वह आप ही के महान् उद्योगों का प्रसाद है। आपको यह जान कर आनंद होगा कि देश में अब आपके ऐसे अनुयायी पैदा हो गए हैं, जो आपके देहात-सुधर आंदोलन में आपका हाथ बँटाने को उत्सुक हैं, और उन सज्जनों की बड़ी इच्छा है कि यह काम संगठित रूप से किया जाय और एक देहात सुधार-संघ स्थापित किया जाय, जिसके आप सभापति हों।
ओंकारनाथ के जीवन में यह पहला अवसर था कि उन्हें चोटी के आदमियों में इतना सम्मान मिले। यों वह कभी-कभी आम जलसों में बोलते थे और कई सभाओं के मंत्री और उपमंत्री भी थे, लेकिन शिक्षित-समाज ने अब तक उनकी उपेक्षा ही की थी। उन लोगों में वह किसी तरह मिल न पाते थे, इसलिए आम जलसों में उनकी निष्क्रियता और स्वार्थांधता की शिकायत किया करते थे, और अपने पत्र में एक-एक को रगेदते थे। कलम तेज थी, वाणी कठोर, साफगोई की जगह उच्छृंखलता कर बैठते थे, इसीलिए लोग उन्हें ख़ाली ढोल समझते थे। उसी समाज में आज उनका इतना सम्मान! कहाँ हैं आज 'स्वराज' और 'स्वाधीन भारत' और 'हंटर' के संपादक, आ कर देखें और अपना कलेजा ठंडा करें। आज अवश्य ही देवताओं की उन पर कृपादृष्टि है। सद्योग कभी निष्फल नहीं जाता, ॠषियों का वाक्य है। वह स्वयं अपने नजरों में उठ गए। कृतज्ञता से पुलकित हो कर बोले - देवी जी, आप तो मुझे काँटों में घसीट रही हैं। मैंने तो जनता की जो कुछ भी सेवा की, अपना कर्तव्य समझ कर की। मैं इस सम्मान को व्यक्ति का सम्मान नहीं, उस उद्देश्य का सम्मान समझ रहा हूँ, जिसके लिए मैंने अपना जीवन अर्पित कर दिया है, लेकिन मेरा नम्र-निवेदन है कि प्रधान का पद किसी प्रभावशाली पुरुष को दिया जाय, मैं पदों में विश्वास नहीं रखता। मैं तो सेवक हूँ और सेवा करना चाहता हूँ।
मिस मालती इसे किसी तरह स्वीकार नहीं कर सकती? सभापति पंडित जी को बनना पड़ेगा। नगर में उसे ऐसा प्रभावशाली व्यक्ति दूसरा नहीं दिखाई देता। जिसकी कलम में जादू है, जिसकी जबान में जादू है, जिसके व्यक्तित्व में जादू है, वह कैसे कहता है कि वह प्रभावशाली नहीं है। वह जमाना गया, जब धन और प्रभाव में मेल था। अब प्रतिभा और प्रभाव के मेल का युग है। संपादक जी को यह पद अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा। मंत्री मिस मालती होंगी। इस सभा के लिए एक हज़ार का चंदा भी हो गया है और अभी तो सारा शहर और प्रांत पड़ा हुआ है। चार-पाँच लाख मिल जाना मामूली बात है।
ओंकारनाथ पर कुछ नशा-सा चढ़ने लगा। उनके मन में जो एक प्रकार की फुरहरी-सी उठ रही थी, उसने गंभीर उत्तरदायित्व का रूप धारण कर लिया। बोले - मगर यह आप समझ लें, मिस मालती, कि यह बड़ी ज़िम्मेदारी का काम है और आपको अपना बहुत समय देना पड़ेगा। मैं अपनी तरफ से आपको विश्वास दिलाता हूँ कि आप सभा-भवन में मुझे सबसे पहले मौजूद पाएँगी।
मिर्जा जी ने पुचारा दिया - आपका बड़े-से-बड़ा दुश्मन भी यह नहीं कह सकता कि आप अपना कर्ज़ अदा करने में कभी किसी से पीछे रहे।
मिस मालती ने देखा, शराब कुछ-कुछ असर करने लगी है, तो और भी गंभीर बन कर बोलीं - अगर हम लोग इस काम की महानता न समझते, तो न यह सभा स्थापित होती और न आप इसके सभापति होते। हम किसी रईस या ताल्लुकेदार को सभापति बना कर धन खूब बटोर सकते हैं, और सेवा की आड़ में स्वार्थ सिद्ध कर सकते हैं, लेकिन यह हमारा उद्देश्य नहीं। हमारा एकमात्र उद्देश्य जनता की सेवा करना है। और उसका सबसे बड़ा साधन आपका पत्र है। हमने निश्चय किया है कि हर एक नगर और गाँव में उसका प्रचार किया जाय और जल्द-से-जल्द उसकी ग्राहक-संख्या को बीस हज़ार तक पहुँचा दिया जाए। प्रांत की सभी म्युनिसिपैलिटियों और ज़िला बोर्डो के चेयरमैन हमारे मित्र हैं। कई चेयरमैन तो यहीं विराजमान हैं। अगर हर एक ने पाँच-पाँच सौ प्रतियाँ भी ले लीं, तो पचीस हज़ार प्रतियाँ तो आप यकीनी समझें। फिर रायसाहब और मिर्जा साहब की यह सलाह है कि कौंसिल में इस विषय का एक प्रस्ताव रखा जाय कि प्रत्येक गाँव के लिए 'बिजली' की एक प्रति सरकारी तौर पर मँगाई जाय, या कुछ वार्षिक सहायता स्वीकार की जाय और हमें पूरा विश्वास है कि यह प्रस्ताव पास हो जायगा।
ओंकारनाथ ने जैसे नशे में झूमते हुए कहा - हमें गवर्नर के पास डेपुटेशन ले जाना होगा।
मिर्जा खुर्शेद बोले - ज़रूर-ज़रूर!
'उनसे कहना होगा कि किसी सभ्य शासन के लिए यह कितनी लज्जा और कलंक की बात है कि ग्रामोत्थान का अकेला पत्र होने पर भी 'बिजली' का अस्तित्व तक नहीं स्वीकार किया जाता।'
मिर्जा खुर्शेद ने कहा - अवश्य-अवश्य!
'मैं गर्व नहीं करता। अभी गर्व करने का समय नहीं आया, लेकिन मुझे इसका दावा है कि ग्राम्य-संगठन के लिए 'बिजली' ने जितना उद्योग किया है...'
मिस्टर मेहता ने सुधारा - नहीं महाशय, तपस्या कहिए।
'मैं मिस्टर मेहता को धन्यवाद देता हूँ। हाँ, इसे तपस्या ही कहना चाहिए, बड़ी कठोर तपस्या। 'बिजली' ने जो तपस्या की है, वह इस प्रांत के ही नहीं, इस राष्ट्र के इतिहास में अभूतपूर्व है।'
मिर्जा खुर्शेद बोले - ज़रूर-ज़रूर!
मिस मालती ने एक पेग और दिया - हमारे संघ ने यह निश्चय भी किया है कि कौंसिल में अब की जो जगह ख़ाली हो, उसके लिए आपको उम्मीदवार खड़ा किया जाए। आपको केवल अपनी स्वीकृति देनी होगी। शेष सारा काम लोग कर लेंगे। आपको न खर्च से मतलब, न प्रोपेगेंडा, न दौड़-धूप से।
ओंकारनाथ की आँखों की ज्योति दुगुनी हो गई। गर्वपूर्ण नम्रता से बोले - मैं आप लोगों का सेवक हूँ, मुझसे जो काम चाहे ले लीजिए।
हम लोगों को आपसे ऐसी ही आशा है। हम अब तक झूठे देवताओें के सामने नाक रगड़ते-रगड़ते हार गए और कुछ हाथ न लगा। अब हमने आपमें सच्चा पथ-प्रदर्शक, सच्चा गुरु पाया है। और इस शुभ दिन के आनंद में आज हमें एकमन, एकप्राण हो कर अपने अहंकार को, अपने दंभ को तिलांजलि दे देनी चाहिए। हममें आज से कोई ब्राह्मण नहीं है, कोई शूद्र नहीं है, कोई हिंदू नहीं है, कोई मुसलमान नहीं है, कोई ऊँच नहीं है, कोई नीच नहीं है। हम सब एक ही माता के बालक, एक ही गोद के खेलने वाले, एक ही थाली के खाने वाले भाई हैं। जो लोग भेद-भाव में विश्वास रखते हैं, जो लोग पृथकता और कट्टरता के उपासक हैं, उनके लिए हमारी सभा में स्थान नहीं है। जिस सभा के सभापति पूज्य ओंकारनाथ जैसे विशाल-हृदय व्यक्ति हों, उस सभा में ऊँच-नीच का, खान-पान का और जाति-पाँति का भेद नहीं हो सकता। जो महानुभाव एकता में और राष्ट्रीयता में विश्वास न रखते हों, वे कृपा करके यहाँ से उठ जायँ।
रायसाहब ने शंका की - मेरे विचार में एकता का यह आशय नहीं है कि सब लोग खान-पान का विचार छोड़ दें। मैं शराब नहीं पीता, तो क्या मुझे इस सभा से अलग हो जाना पडेग़ा?
मालती ने निर्मम स्वर में कहा - बेशक अलग हो जाना पड़ेगा। आप इस संघ में रह कर किसी तरह का भेद नहीं रख सकते।
मेहता जी ने घड़े को ठोंका - मुझे संदेह है कि हमारे सभापतिजी स्वयं खान-पान की एकता में विश्वास नहीं रखते हैं।
ओंकारनाथ का चेहरा जर्द पड़ गया। इस बदमाश ने यह क्या बेवक्त की शहनाई बजा दी। दुष्ट कहीं गड़े मुर्दे न उखाड़ने लगे, नहीं यह सारा सौभाग्य स्वप्न की भाँति शून्य में विलीन हो जायगा।
मिस मालती ने उनके मुँह की ओर जिज्ञासा की दृष्टि से देख कर दृढ़ता से कहा - आपका संदेह निराधार है मेहता महोदय! क्या आप समझते हैं कि राष्ट्र की एकता का ऐसा अनन्य उपासक, ऐसा उदारचेता पुरुष, ऐसा रसिक कवि इस निरर्थक और लज्जाजनक भेद को मान्य समझेगा? ऐसी शंका करना उसकी राष्ट्रीयता का अपमान करना है।
ओंकारनाथ का मुख-मंडल प्रदीप्त हो गया। प्रसन्नता और संतोष की आभा झलक पड़ी।
मालती ने उसी स्वर में कहा - और इससे भी अधिक उनकी पुरुष-भावना का। एक रमणी के हाथों से शराब का प्याला पा कर वह कौन भद्र पुरुष होगा, जो इनकार कर दे - यह तो नारी-जाति का अपमान होगा, उस नारी-जाति का, जिसके नयन-बाणों से अपने हृदय को बिंधवाने की लालसा पुरुष-मात्र में होती है, जिसकी अदाओं पर मर-मिटने के लिए बड़े-बड़े महीप लालायित रहते हैं। लाइए, बोतल और प्याले, और दौर चलने दीजिए। इस महान् अवसर पर, किसी तरह की शंका, किसी तरह की आपत्ति राष्ट्र-द्रोह से कम नहीं। पहले हम अपने सभापति की सेहत का जाम पीएँगे।
बर्फ, शराब और सोडा पहले ही से तैयार था। मालती ने ओंकारनाथ को अपने हाथों से लाल विष से भरा हुआ ग्लास दिया, और उन्हें कुछ ऐसी जादू-भरी चितवन से देखा कि उनकी सारी निष्ठा, सारी वर्ण-श्रेष्ठता काफ़ूर हो गई। मन ने कहा सारा आचार-विचार परिस्थितियों के अधीन है। आज तुम दरिद्र हो, किसी मोटरकार को धूल उड़ाते देखते हो, तो ऐसा बिगड़ते हो कि उसे पत्थरों से चूर-चूर कर दो, लेकिन क्या तुम्हारे मन में कार की लालसा नहीं है? परिस्थिति ही विधि है और कुछ नहीं। बाप-दादों ने नहीं पी थी, न पी हो। उन्हें ऐसा अवसर ही कब मिला था - उनकी जीविका पोथी-पत्रों पर थी। शराब लाते कहाँ से, और पीते भी तो जाते कहाँ? फिर वह तो रेलगाड़ी पर न चढ़ते थे, कल का पानी न पीते थे, अंग्रेजी पढ़ना पाप समझते थे। समय कितना बदल गया है। समय के साथ अगर नहीं चल सकते, तो वह तुम्हें पीछे छोड़ कर चला जायगा। ऐसी महिला के कोमल हाथों से विष भी मिले, तो शिरोधार्य करना चाहिए। जिस सौभाग्य के लिए बड़े-बड़े राजे तरसते हैं, वह आज उनके सामने खड़ा है। क्या वह उसे ठुकरा सकते हैं?
उन्होंने ग्लास ले लिया और सिर झुका कर अपनी कृतज्ञता दिखाते हुए एक ही साँस में पी गए और तब लोगों को गर्व भरी आँखों से देखा, मानो कह रहे हों, अब तो आपको मुझ पर विश्वास आया। क्या समझते हैं, मैं निरा पोंगा पंडित हूँ। अब तो मुझे दंभी और पाखंडी कहने का साहस नहीं कर सकते?
हाल में ऐसा शोरगुल मचा कि कुछ न पूछो, जैसे पिटारे में बंद कहकहे निकल पड़े हों! वाह देवी जी! क्या कहना है! कमाल है मिस मालती, कमाल है। तोड़ दिया, नमक का क़ानून तोड़ दिया, धर्म का किला तोड़ दिया, नेम का घड़ा फोड़ दिया!
ओंकारनाथ के कंठ के नीचे शराब का पहुँचना था कि उनकी रसिकता वाचाल हो गई। मुस्करा कर बोले -
मैंने अपने धर्म की थाती मिस मालती के कोमल हाथों में सौंप दी और मुझे विश्वास है, वह उसकी यथोचित रक्षा करेंगी। उनके चरण-कमलों के इस प्रसाद पर मैं ऐसे एक हज़ार धर्मो को न्योछावर कर सकता हूँ।
कहकहों से हाल गूँज उठा।
संपादक जी का चेहरा फूल उठा था, आँखें झुकी पड़ती थीं। दूसरा ग्लास भर कर बोले - यह मिल मालती की सेहत का जाम है। आप लोग पिएँ और उन्हें आशीर्वाद दें।
लोगों ने फिर अपने-अपने ग्लास ख़ाली कर दिए।
उसी वक्त मिर्जा खुर्शेद ने एक माला ला कर संपादक जी के गले में डाल दी और बोले - सज्जनों, फिदवी ने अभी अपने पूज्य सदर साहब की शान में एक कसीदा कहा है। आप लोगों की इजाजत हो तो सुनाऊँ।
चारों तरफ से आवाजें आई - हाँ-हाँ, ज़रूर सुनाइए।
ओंकारनाथ भंग तो आए दिन पिया करते थे और उनका मस्तिष्क उसका अभ्यस्त हो गया था, मगर शराब पीने का उन्हें यह पहला अवसर था। भंग का नशा मंथर गति से एक स्वप्न की भाँति आता था और मस्तिष्क पर मेघ के समान छा जाता था। उनकी चेतना बनी रहती थी। उन्हें खुद मालूम होता था कि इस समय उनकी वाणी बड़ी लच्छेदार है, और उनकी कल्पना बहुत प्रबल। शराब का नशा उनके ऊपर सिंह की भाँति झपटा और दबोच बैठा। वह कहते कुछ हैं, मुँह से निकलता कुछ है। फिर यह ज्ञान भी जाता रहा। वह क्या कहते हैं और क्या करते हैं, इसकी सुधि ही न रही। यह स्वप्न का रोमानी वैचित्रय न था, जागृति का वह चक्कर था, जिसमें साकार निराकार हो जाता है।
न जाने कैसे उनके मस्तिष्क में यह कल्पना जाग उठी कि कसीदा पढ़ना कोई बड़ा अनुचित काम है। मेज पर हाथ पटक कर बोले - नहीं, कदापि नहीं। यहाँ कोई कसीदा नईं ओगा, नईं ओगा। हम सभापति हैं। हमारा हुक्म है। हम अबी इस सब को तोड़ सकते हैं। अबी तोड़ सकते हैं। सभी को निकाल सकते हैं। कोई हमारा कुछ नईं कर सकता। हम सभापति हैं। कोई दूसरा सभापति नईं है।
मिर्जा ने हाथ जोड़ कर कहा - हुज़ूर, इस कसीदे में तो आपकी तारीफ की गई है।
संपादक जी ने लाल, पर ज्योतिहीन नेत्रों से देखा - तुम हमारी तारीफ क्यों की? क्यों की? बोलो, क्यों हमारी तारीफ की? हम किसी का नौकर नईं है। किसी के बाप का नौकर नईं है, किसी साले का दिया नहीं खाते। हम खुद संपादक है। हम 'बिजली' का संपादक है। हम उसमें सबका तारीफ करेगा। देवी जी, हम तुम्हारा तारीफ नईं करेगा। हम कोई बड़ा आदमी नईं है। हम सबका ग़ुलाम है। हम आपका चरण-रज है। मालती देवी हमारी लक्ष्मी, हमारी सरस्वती, हमारी राधा...
यह कहते हुए वे मालती के चरणों की तरफ झुके और मुँह के बल फर्श पर गिर पड़े। मिर्जा खुर्शेद ने दौड़ कर उन्हें सँभाला और कुर्सियाँ हटा कर वहीं ज़मीन पर लिटा दिया। फिर उनके कानों के पास मुँह ले जा कर बोले - राम-राम सत्त है! कहिए तो आपका जनाजा निकालें?
रायसाहब ने कहा - कल देखना कितना बिगड़ता है। एक-एक को अपने पत्र में रगेदेगा। और ऐसा रगेदेगा कि आप भी याद करेंगे! एक ही दुष्ट है, किसी पर दया नहीं करता। लिखने में तो अपना जोड़ नहीं रखता। ऐसा गधा आदमी कैसे इतना अच्छा लिखता है, यह रहस्य है।
कई आदमियों ने संपादक जी को उठाया और ले जा कर उनके कमरे में लिटा दिया। उधर पंडाल में धनुष-यज्ञ हो रहा था। कई बार इन लोगों को बुलाने के लिए आदमी आ चुके थे। कई हुक्काम भी पंडाल में आ पहुँचे थे। लोग उधर जाने को तैयार हो रहे थे कि सहसा एक अफ़ग़ान आ कर खड़ा हो गया। गोरा रंग, बड़ी-बड़ी मूँछें, ऊँचा कद, चौड़ा सीना, आँखों में निर्भयता का उन्माद भरा हुआ, ढीला नीचा कुरता, पैरों में शलवार, जरी के काम की सदरी, सिर पर पगड़ी और कुलाह, कंधों में चमड़े का बेग लटकाए, कंधों पर बंदूक रखे और कमर में तलवार बाँधे न जाने किधर से आ खड़ा हो गया और गरज कर बोला - खबरदार! कोई यहाँ से मत जाओ। अमारा साथ का आदमी पर डाका पड़ा है। यहाँ का जो सरदार है, वह अमारा आदमी को लूट लिया है, उसका माल तुमको देना होगा। एक-एक कौड़ी देना होगा। कहाँ है सरदार, उसको बुलाओ!
रायसाहब ने सामने आ कर क्रोध-भरे स्वर में कहा - कैसी लूट! कैसा डाका? यह तुम लोगों का काम है। यहाँ कोई किसी को नहीं लूटता। साफ-साफ कहो, क्या मामला है?
अफ़ग़ान ने आँखें निकालीं और बंदूक का कुंदा ज़मीन पर पटक कर बोला - अमसे पूछता है कैसा लूट, कैसा डाका? तुम लूटता है, तुम्हारा आदमी लूटता है। अम यहाँ की कोठी का मालिक है। अमारी कोठी में पचीस जवान हैं। अमारा आदमी रुपए तहसील कर लाता था। एक हजार। वह तुम लूट लिया, और कहता है, कैसा डाका? अम बताएगा, कैसा डाका होता है। अमारा पचीसों जवान अबी आता है। अम तुम्हारा गाँव लूट लेगा। कोई साला कुछ नईं कर सकता, कुछ नईं कर सकता।
खन्ना ने अफ़ग़ान के तेवर देखे तो चुपके से उठे कि निकल जायँ। सरदार ने ज़ोर से डाँटा - कां जाता तुम? कोई कईं नईं जा सकता, नईं अम सबको कतल कर देगा। अबी फैर कर देगा। अमारा तुम कुछ नईं कर सकता। अम तुम्हारा पुलिस से नईं डरता। पुलिस का आदमी अमारा सकल देख कर भागता है। अमारा अपना कांसल है, अम उसको खत लिख कर लाट साहब के पास जा सकता है। अम याँ से किसी को नईं जाने देगा। तुम अमारा एक हज़ार रुपया लूट लिया। अमारा रुपया नईं देगा, तो अम किसी को जिंदा नईं छोड़ेगा। तुम सब आदमी दूसरों के माल को लूट करता है और याँ माशूक के साथ शराब पीता है।
मिस मालती उसकी आँख बचा कर कमरे से निकलने लगीं कि वह बाज की तरह टूट कर उनके सामने आ खड़ा हुआ और बोला - तुम इन बदमाशों से अमारा माल दिलवाए, नईं अम तुमको उठा ले जायगा अपने कोठी में जशन मनाएगा। तुम्हारा हुस्न पर अम आशिक हो गया। या तो अमको एक हज़ार अबी-अबी दे दे या तुमको अमारे साथ चलना पड़ेगा। तुमको अम नईं छोड़ेगा। अम तुम्हारा आशिक हो गया है। अमारा दिल और जिगर फटा जाता है। अमारा इस जगह पचीस जवान है। इस ज़िला में हमारा पाँच सौ जवान काम करता है। अम अपने कबीले का खान है। अमारे कबीला में दस हज़ार सिपाही हैं। अम काबुल के अमीर से लड़ सकता है। अंग्रेज़ सरकार अमको बीस हज़ार सालाना खिराज देता है। अगर तुम हमारा रुपया नईं देगा, तो अम गाँव लूट लेगा और तुम्हारा माशूक को उठा ले जायगा। ख़ून करने में अमको लुतफ आता है। अम ख़ून का दरिया बहा देगा।
मजलिस पर आतंक छा गया। मिस मालती अपना चहकना भूल गईं। खन्ना की पिंडलियाँ काँप रही थीं। बेचारे चोट-चपेट के भय से एक-मंजिले बँगले में रहते थे। जीने पर चढ़ना उनके लिए सूली पर चढ़ने से कम न था। गरमी में भी डर के मारे कमरे में सोते थे। रायसाहब को ठकुराई का अभिमान था। वह अपने ही गाँव में एक पठान से डर जाना हास्यास्पद समझते थे, लेकिन उसकी बंदूक को क्या करते? उन्होंने जरा भी चीं-चपड़ किया और इसने बंदूक चलाई। हूश तो होते ही हैं यह सब, और निशाना भी इस सबों का कितना अचूक होता है, अगर उसके हाथ में बंदूक न होती, तो रायसाहब उससे सींग मिलाने को भी तैयार हो जाते। मुश्किल यही थी कि दुष्ट किसी को बाहर नहीं जाने देता। नहीं, दम-के-दम में सारा गाँव जमा हो जाता और इसके पूरे जत्थे को पीट-पाट कर रख देता।
आखिर उन्होंने दिल मज़बूत किया और जान पर खेल कर बोले - हमने आपसे कह दिया कि हम चोर-डाकू नहीं हैं। मैं यहाँ की कौंसिल का मेंबर हूँ और यह देवी जी लखनऊ की सुप्रसिद्ध डाक्टर हैं। यहाँ सभी शरीफ़ और इज्जतदार लोग जमा हैं। हमें बिलकुल खबर नहीं, आपके आदमियों को किसने लूटा? आप जा कर थाने में रपट कीजिए।
खान ने ज़मीन पर पैर पटका, पैंतरे बदले और बंदूक को कंधों से उतार कर हाथ में लेता हुआ दहाड़ा - मत बक-बक करो। काउंसिल का मेंबर को अम इस तरह पैरों से कुचल देता है (जमीन पर पाँव रगड़ता है) अमारा हाथ मज़बूत है, अमारा दिल मज़बूत है, अम खुदाताला के सिवा और किसी से नईं डरता। तुम अमारा रुपया नहीं देगा, तो अम (रायसाहब की तरफ इशारा कर) अभी तुमको कतल कर देगा।
अपने तरफ बंदूक की दोनाली देख कर रायसाहब झुक कर मेज के बराबर आ गए। अजीब मुसीबत में जान फँसी थी। शैतान बरबस कहे जाता है, तुमने हमारे रुपए लूट लिए। न कुछ सुनता है, न कुछ समझता है, न किसी को बाहर आने-जाने देता है। नौकर-चाकर, सिपाही-प्यादे, सब धनुष-यज्ञ देखने में मग्न थे। जमींदारों के नौकर यों भी आलसी और काम-चोर होते हैं, जब तक दस दफे न पुकारा जाता, बोलते ही नहीं, और इस वक्त तो वे एक शुभ काम में लग हुए थे। धनुष-यज्ञ उनके लिए केवल तमाशा नहीं, भगवान की लीला थी, अगर एक आदमी भी इधर आ जाता, तो सिपाहियों को खबर हो जाती और दम भर में खान का सारा खानपन निकल जाता, दाढ़ी के एक-एक बाल नुच जाते। कितना गुस्सेवर है। होते भी तो जल्लाद हैं। न मरने का गम, न जीने की खुशी।
मिर्जा साहब से अंग्रेजी में बोले - अब क्या करना चाहिए?
मिर्जा साहब ने चकित नेत्रों से देखा - क्या बताऊँ, कुछ अक्ल काम नहीं करती। मैं आज अपना पिस्तौल घर ही छोड़ आया, नहीं मजा चखा देता।
खन्ना रोना मुँह बना कर बोले - कुछ रुपए दे कर किसी तरह इस बला को टालिए।
रायसाहब ने मालती की ओर देखा - देवी जी, अब आपकी क्या सलाह है?
मालती का मुखमंडल तमतमा रहा था। बोलीं - होगा क्या, मेरी इतनी बेइज्जती हो रही है और आप लोग बैठे देख रहे हैं! बीस मर्दों के होते एक उजड्ड पठान मेरी इतनी दुर्गति कर रहा है और आप लोगों के ख़ून में जरा भी गरमी नहीं आती! आपको जान इतनी प्यारी है? क्यों एक आदमी बाहर जा कर शोर नहीं मचाता? क्यों आप लोग उस पर झपट कर उसके हाथ से बंदूक नहीं छीन लेते? बंदूक ही तो चलाएगा? चलाने दो। एक या दो की जान ही तो जायगी? जाने दो।
मगर देवी जी मर जाने को जितना आसान समझती थीं, और लोग न समझते थे। कोई आदमी बाहर निकलने की फिर हिम्मत करे और पठान गुस्से में आ कर दस-पाँच फैर कर दे, तो यहाँ सफाया हो जायगा। बहुत होगा, पुलिस उसे फाँसी सजा दे देगी। वह भी क्या ठीक। एक बड़े कबीले का सरदार है। उसे फाँसी देते हुए सरकार भी सोच-विचार करेगी। ऊपर से दबाव पड़ेगा। राजनीति के सामने न्याय को कौन पूछता है - हमारे ऊपर उलटे मुकदमे दायर हो जायँ और दंडकारी पुलिस बिठा दी जाय, तो आश्चर्य नहीं, कितने मजे से हँसी-मजाक हो रहा था। अब तक ड्रामा का आनंद उठाते होते। इस शैतान ने आ कर एक नई विपत्ति खड़ी कर दी, और ऐसा जान पड़ता है, बिना दो-एक ख़ून किए, मानेगा भी नहीं।
खन्ना ने मालती को फटकारा - देवी जी, आप तो हमें ऐसा लताड़ रही हैं, मानो अपने प्राण रक्षा करना कोई पाप है। प्राण का मोह प्राणि-मात्र में होता है और हम लोगों में भी हो, तो कोई लज्जा की बात नहीं। आप हमारी जान इतनी सस्ती समझती हैं, यह देख कर मुझे खेद होता है। एक हज़ार का ही तो मुआमला है। आपके पास मुफ़्त के एक हज़ार हैं, उसे दे कर क्यों नहीं बिदा कर देतीं। आप खुद अपने बेइज्जती करा रही हैं, इसमें हमारा क्या दोष?
रायसाहब ने गर्म हो कर कहा - अगर इसने देवी जी को हाथ लगाया, तो चाहे मेरी लाश यहीं तड़पने लगे, मैं उससे भिड़ जाऊँगा। आखिर वह भी आदमी ही तो है।
मिर्जा साहब ने संदेह से सिर हिला कर कहा - रायसाहब, आप अभी तो इन सबों के मिज़ाज से वाकिफ नहीं हैं। यह फैर करना शुरू करेगा, तो फिर किसी को जिंदा न छोड़ेगा। इनका निशाना बेखता होता है।
मि. तंखा बेचारे आने वाले चुनाव की समस्या सुलझाने आए थे। दस-पाँच हज़ार का वारा-न्यारा करके घर जाने का स्वप्न देख रहे थे। यहाँ जीवन ही संकट में पड़ गया। बोले - सबसे सरल उपाय वही है, जो अभी खन्ना जी ने बतलाया। एक हज़ार की ही बात और रुपए मौजूद हैं, तो आप लोग क्यों इतना सोच-विचार कर रहे हैं।
मिस मालती ने तंखा को तिरस्कार-भरी आँखों से देखा!
'आप लोग इतने कायर हैं, यह मैं न समझती थी।'
'मैं भी यह न समझता था कि आपको रुपए इतने प्यारे हैं और वह भी मुफ़्त के !'
'जब आप लोग मेरा अपमान देख सकते हैं, तो अपने घर की स्त्रियों का अपमान भी देख सकते होंगे?'
'तो आप भी पैसे के लिए अपने घर के पुरुषों को होम करने में संकोच न करेंगी।'
खान इतनी देर तक झल्लाया हुआ-सा इन लोगों की गिटपिट सुन रहा था। एकाएक गरज कर बोला - अम अब नइऊ मानेगा। अम इतनी देर यहाँ खड़ा है, तुम लोग कोई जवाब नईं देता। (जेब से सीटी निकाल कर) अम तुमको एक लमहा और देता है, अगर तुम रुपया नईं देता तो अम सीटी बजायगा और अमारा पचीस जवान यहाँ आ जायगा। बस!
फिर आँखों में प्रेम की ज्वाला भर कर उसने मिस मालती को देखा।
तुम अमारे साथ चलेगा दिलदार! अम तुम्हारे ऊपर फिदा हो जायगा। अपना जान तुम्हारे कदमों पर रख देगा। इतना आदमी तुम्हारा आशिक है, मगर कोई सच्चा आशिक नईं है। सच्चा इश्क क्या है, अम दिखा देगा। तुम्हारा इशारा पाते ही अम अपने सीने में खंजर चुभा सकता है।'
मिर्जा ने घिघिया कर कहा - देवी जी, खुदा के लिए इस मूजी को रुपए दे दीजिए।
खन्ना ने हाथ जोड़ कर याचना की - हमारे ऊपर दया करो मिस मालती!
रायसाहब तन कर बोले - हरगिज नहीं। आज जो कुछ होना है, हो जाने दीजिए। या तो हम खुद मर जाएँगे, या इन जालिमों को हमेशा के लिए सबक दे देंगे।
तंखा ने रायसाहब को डाँट बताई - शेर की माँद में घुसना कोई बहादुरी नहीं है। मैं इसे मूर्खता समझता हूँ।
मगर मिस मालती के मनोभाव कुछ और ही थे। खान के लालसा-प्रदीप्त नेत्रों ने उन्हें आश्वस्त कर दिया था और अब इस कांड में उन्हें मनचलेपन का आनंद आ रहा था। उनका हृदय कुछ देर इन नरपुंगवों के बीच में रह कर उसके बर्बर प्रेम का आनंद उठाने के लिए ललचा रहा था। शिष्ट प्रेम की दुर्बलता और निर्जीवता का उन्हें अनुभव हो चुका था। आज अक्खड़, अनगढ़ पठानों के उन्मत्त प्रेम के लिए उनका मन दौड़ रहा था, जैसे संगीत का आनंद उठाने के बाद कोई मस्त हाथियों की लड़ाई देखने के लिए दौड़े।
उन्होंने खान साहब के सामने जा कर निश्शंक भाव से कहा - तुम्हें रुपए नहीं मिलेंगे।
खान ने हाथ बढ़ा कर कहा- तो अम तुमको लूट ले जायगा।
'तुम इतने आदमियों के बीच से हमें नहीं ले जा सकते।'
'अम तुमको एक हज़ार आदमियों के बीच से ले जा सकता है।'
'तुमको जान से हाथ धोना पड़ेगा।'
'अम अपने माशूक के लिए अपने जिस्म का एक-एक बोटी नुचवा सकता है।'
उसने मालती का हाथ पकड़ कर खींचा। उसी वक्त होरी ने कमरे में क़दम रखा। वह राजा जनक का माली बना हुआ था और उसके अभिनय ने देहातियों को हँसाते-हँसाते लोटा दिया था। उसने सोचा, मालिक अभी तक क्यों नहीं आए? वह भी तो आ कर देखें कि देहाती इस काम में कितने कुशल होते हैं। उनके यार-दोस्त भी देखें। कैसे मालिक को बुलाए - वह अवसर खोज रहा था, और ज्यों ही मुहलत मिली, दौड़ा हुआ यहाँ आया, मगर यहाँ का दृश्य देख कर भौंचक्का-सा खड़ा रह गया। सब लोग चुप्पी साधे, थर-थर काँपते, कातर नेत्रों से खान को देख रहे थे और खान मालती को अपने तरफ खींच रहा था। उसकी सहज बुद्धि ने परिस्थिति का अनुमान कर लिया। उसी वक्त रायसाहब ने पुकारा- होरी, दौड़ कर जा और सिपाहियों को बुला ला, जल्द दौड़!
होरी पीछे मुड़ा था कि खान ने उसके सामने बंदूक तान कर डाँटा - कहाँ जाता है? सुअर अम गोली मार देगा।
होरी गँवार था। लाल पगड़ी देख कर उसके प्राण निकल जाते थे, लेकिन मस्त सांड़ पर लाठी ले कर पिल पड़ता था। वह कायर न था, मारना और मरना दोनों ही जानता था, मगर पुलिस के हथकंडों के सामने उसकी एक न चलती थी। बँधे-बँधे कौन फिरे, रिश्वत के रुपए कहाँ से लाए, बाल-बच्चों को किस पर छोड़े; मगर जब मालिक ललकारते हों, तो फिर किसका डर? तब तो वह मौत के मुँह में भी कूद सकता है।
उसने झपट कर खान की कमर पकड़ी और ऐसा अड़ंगा मारा कि खान चारों खाने चित्ता ज़मीन पर आ रहा और लगा पश्तो में गालियाँ देने। होरी उसकी छाती पर चढ़ बैठा और ज़ोर से दाढ़ी पकड़ कर खींची। दाढ़ी उसके हाथ में आ गई। खान ने तुरंत अपनी कुलाह उतार फेंकी और ज़ोर मार कर खड़ा हो गया। अरे! यह तो मिस्टर मेहता हैं। वाह!
लोगों ने चारों तरफ से मेहता को घेर लिया। कोई उनके गले लगता, कोई उनकी पीठ पर थपकियाँ देता था और मिस्टर मेहता के चेहरे पर न हँसी थी, न गर्व, चुपचाप खड़े थे, मानो कुछ हुआ ही नहीं।
मालती ने नकली रोष से कहा - आपने यह बहुरूपपन कहाँ सीखा? मेरा दिल अभी तक धड़-धड़ कर रहा है।
मेहता ने मुस्कराते हुए कहा - जरा इन भले आदमियों की जवाँमर्दी की परीक्षा ले रहा था। जो गुस्ताखी हुई हो, उसे क्षमा कीजिएगा।
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