"वैदेही वनवास प्रथम सर्ग": अवतरणों में अंतर
गोविन्द राम (वार्ता | योगदान) ('{| style="background:transparent; float:right" |- | {{सूचना बक्सा कविता |चित्र=Ayodhya-Singh-Upad...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
व्यवस्थापन (वार्ता | योगदान) छो (Text replacement - "उज्वल" to "उज्ज्वल") |
||
(2 सदस्यों द्वारा किए गए बीच के 5 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 6: | पंक्ति 6: | ||
|चित्र का नाम=अयोध्यासिंह उपाध्याय | |चित्र का नाम=अयोध्यासिंह उपाध्याय | ||
|कवि=[[अयोध्यासिंह उपाध्याय|अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध']] | |कवि=[[अयोध्यासिंह उपाध्याय|अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध']] | ||
|जन्म= | |जन्म=[[15 अप्रैल]], [[1865]] | ||
|जन्म स्थान= | |जन्म स्थान=निज़ामाबाद, [[उत्तर प्रदेश]] | ||
|मृत्यु= | |मृत्यु=[[16 मार्च]], [[1947]] | ||
|मृत्यु स्थान= | |मृत्यु स्थान=निज़ामाबाद, [[उत्तर प्रदेश]] | ||
|मुख्य रचनाएँ= | |मुख्य रचनाएँ='[[प्रियप्रवास -अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'|प्रियप्रवास]]', '[[वैदेही वनवास -अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'|वैदेही वनवास]]', '[[पारिजात -अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'|पारिजात]]', '[[हरिऔध सतसई]]' | ||
|यू-ट्यूब लिंक= | |यू-ट्यूब लिंक= | ||
|शीर्षक 1=शैली | |शीर्षक 1=शैली | ||
|पाठ 1=[[खंडकाव्य]] | |पाठ 1=[[खंडकाव्य]] | ||
|शीर्षक 2= | |शीर्षक 2=सर्ग / छंद | ||
|पाठ 2=रोला | |पाठ 2=उपवन / रोला | ||
|बाहरी कड़ियाँ= | |बाहरी कड़ियाँ= | ||
}} | }} | ||
|- | |- | ||
| | | | ||
{{वैदेही वनवास}} | {{वैदेही वनवास}} | ||
|} | |} | ||
{{Poemopen}} | |||
<poem> | |||
लोक-रंजिनी उषा-सुन्दरी रंजन-रत थी। | |||
नभ-तल था अनुराग-रँगा आभा-निर्गत थी॥ | |||
धीरे-धीरे तिरोभूत तामस होता था। | |||
ज्योति-बीज प्राची-प्रदेश में दिव बोता था॥1॥ | |||
किरणों का आगमन देख ऊषा मुसकाई। | |||
मिले साटिका-लैस-टँकी लसिता बन पाई॥ | |||
अरुण-अंक से छटा छलक क्षिति-तल पर छाई। | |||
भृंग गान कर उठे विटप पर बजी बधाई॥2॥ | |||
दिन मणि निकले, किरण ने नवलज्योति जगाई। | |||
मुक्त-मालिका विटप तृणावलि तक ने पाई॥ | |||
शीतल बहा समीर कुसुम-कुल खिले दिखाए। | |||
तरु-पल्लव जगमगा उठे नव आभा पाए॥3॥ | |||
सर-सरिता का सलिल सुचारु बना लहराया। | |||
बिन्दु-निचय ने रवि के कर से मोती पाया॥ | |||
उठ-उठ कर नाचने लगीं बहु-तरल तरंगें। | |||
दिव्य बन गईं वरुण-देव की विपुल उमंगें॥4॥ | |||
सारा-तम टल गया अंधता भव की छूटी। | |||
प्रकृति-कंठ-गत मुग्ध-करी मणिमाला टूटी॥ | |||
बीत गयी यामिनी दिवस की फिरी दुहाई। | |||
बनीं दिशाएँ दिव्य प्रभात प्रभा दिखलाई॥5॥ | |||
एक रम्यतम-नगर सुधा-धावलित-धामों पर। | |||
पड़ कर किरणें दिखा रही थीं दृश्य-मनोहर॥ | |||
गगन-स्पर्शी ध्वजा-पुंज के, रत्न-विमण्डित- | |||
कनक-दण्ड, द्युति दिखा बनाते थे बहु-हर्षित॥6॥ | |||
किरणें उनकी कान्त कान्ति से मिल जब लसतीं। | |||
निज आभा को जब उनकी आभा पर कसतीं॥ | |||
दर्शक दृग उस समय न टाले से टल पाते। | |||
वे होते थे मुग्ध, हृदय थे उछले जाते॥7॥ | |||
दमक-दमक कर विपुल-कलस जो कला दिखाते। | |||
उसे देख रवि ज्योति दान करते न अघाते॥ | |||
दिवस काल में उन्हें न किरणें तज पाती थीं। | |||
आये संध्या-समय विवश बन हट जाती थीं॥8॥ | |||
हिल हिल मंजुल-ध्वजा अलौकिकता थी पाती। | |||
दर्शक-दृग को बार-बार थी मुग्ध बनाती॥ | |||
तोरण पर से सरस-वाद्य ध्वनि जो आती थी। | |||
मानो सुन वह उसे नृत्य-रत दिखलाती थी॥9॥ | |||
इन धामों के पार्श्व-भाग में बड़ा मनोहर। | |||
एक रम्य-उपवन था नन्दन-वन सा सुन्दर॥ | |||
उसके नीचे तरल-तरंगायित सरि-धारा। | |||
प्रवह-मान हो करती थी कल-कल-रव न्यारा॥10॥ | |||
उसके उर में लसी कान्त-अरुणोदय-लाली। | |||
किरणों से मिल, दिखा रही थी कान्ति-निराली। | |||
कियत्काल उपरान्त अंक सरि का हो उज्ज्वल। | |||
लगा जगमगाने नयनों में भर कौतूहल॥11॥ | |||
उठे बुलबुले कनक-कान्ति से कान्तिमान बन। | |||
लगे दिखाने सामूहिक अति-अद्भुत-नर्तन॥ | |||
उठी तरंगें रवि कर का चुम्बन थीं करती। | |||
पाकर मंद-समीर विहरतीं उमग उभरतीं॥12॥ | |||
सरित-गर्भ में पड़ा बिम्ब प्रासाद-निचय का। | |||
कूल-विराजित विटप-राजि छाया अभिनय का॥ | |||
दृश्य बड़ा था रम्य था महा-मंजु दिखाता। | |||
लहरों में लहरा लहरा था मुग्ध बनाता॥13॥ | |||
उपवन के अति-उच्च एक मण्डप में विलसी। | |||
मूर्ति-युगल इन दृश्यों के देखे थी विकसी॥ | |||
इनमें से थे एक दिवाकर कुल के मण्डन। | |||
श्याम गात आजानु-बाहु सरसीरूह-लोचन॥14॥ | |||
मर्यादा के धाम शील-सौजन्य-धुरंधर। | |||
दशरथ-नन्दन राम परम-रमणीय-कलेवर॥ | |||
थीं दूसरी विदेह-नन्दिनी लोक-ललामा। | |||
सुकृति-स्वरूपा सती विपुल-मंजुल-गुण-धामा॥15॥ | |||
वे बैठी पति साथ देखती थीं सरि-लीला। | |||
था वदनांबुज विकच वृत्ति थी संयम-शीला॥ | |||
सरस मधुर वचनों के मोती कभी पिरोतीं। | |||
कभी प्रभात-विभूति विलोक प्रफुल्लित होतीं॥16॥ | |||
बोले रघुकुल-तिलक प्रिये प्रात:-छबि प्यारी। | |||
है नितान्त-कमनीय लोक-अनुरंजनकारी॥ | |||
प्रकृति-मृदुल-तम-भाव-निचय से हो हो लसिता। | |||
दिनमणि-कोमल-कान्ति व्याज से है सुविकसिता॥17॥ | |||
सरयू सरि ही नहीं सरस बन है लहराती। | |||
सभी ओर है छटा छलकती सी दिखलाती॥ | |||
रजनी का वर-व्योम विपुल वैचित्रय भरा है। | |||
दिन में बनती दिव्य-दृश्य-आधार धरा है॥18॥ | |||
हो तरंगिता-लसिता-सरिता यदि है भाती। | |||
तो दोलित-तरु-राजि कम नहीं छटा दिखाती॥ | |||
जल में तिरती केलि मयी मछलियाँ मनोहर। | |||
कर देती हैं सरित-अंक को जो अति सुन्दर॥19॥ | |||
तो तरुओं पर लसे विहरते आते जाते। | |||
रंग विरंगे विहग-वृन्द कम नहीं लुभाते॥ | |||
सरिता की उज्ज्वलता तरुचय की हरियाली। | |||
रखती है छबि दिखा मंजुता-मुख की लाली॥20॥ | |||
हैं प्रभात उत्फुल्ल-मूर्ति कुसुमों में पाते। | |||
आहा! वे कैसे हैं फूले नहीं समाते॥ | |||
मानो वे हैं महानन्द-धरा में बहते। | |||
खोल-खोल मुख वर-विनोद-बातें हैं कहते॥21॥ | |||
है उसकी माधुरी विहग-रट में मिल पाती। | |||
जो मिठास से किसे नहीं है मुग्ध बनाती॥ | |||
मन्द-मन्द बह बह समीर सौरभ फैलाता। | |||
सुख-स्पर्श सद्गंधा-सदन है उसे बताता॥22॥ | |||
हैं उसकी दिव्यता दमक किरणें दिखलाती। | |||
जगी-ज्योति उसको ज्योतिर्मय है बतलाती॥ | |||
सहज-सरसता, मोहकता, सरिता है कहती। | |||
ललित लहर-लिपि-माला में है लिखती रहती॥23॥ | |||
जगी हुई जनता निज कोलाहल के द्वारा। | |||
कर्म-क्षेत्र में बही विविध-कर्मों की धारा॥ | |||
उसकी जाग्रत करण क्रिया को है जतलाती। | |||
नाना-गौरव-गीत सहज-स्वर से है गाती॥24॥ | |||
लोक-नयन-आलोक, रुचिर-जीवन-संचारक। | |||
स्फूर्ति-मूर्ति उत्साह-उत्स जागृति-प्रचारक॥ | |||
भव का प्रकृत-स्वरूप-प्रदर्शक, छबि-निर्माता। | |||
है प्रभात उल्लास-लसित दिव्यता-विधाता॥25॥ | |||
कितनी है कमनीय-प्रकृति कैसे बतलाएँ। | |||
उसके सकल-अलौकिक गुण-गण कैसे गायें॥ | |||
है अतीव-कोमला विश्व-मोहक-छबि वाली। | |||
बड़ी सुन्दरी सहज-स्वभावा भोली-भाली॥।26॥ | |||
करुणभाव से सिक्त सदयता की है देवी। | |||
है संसृति की भूति-राशि पद-पंकज-सेवी॥ | |||
हैं उसके बहु-रूप विविधता है वरणीया। | |||
प्रात:-कालिक-मूर्ति अधिकतर है रमणीया॥27॥ | |||
जनक-सुता ने कहा प्रकृति-महिमा है महती। | |||
पर वह कैसे लोक-यातनाएँ है सहती॥ | |||
क्या है हृदय-विहीन? तो अखिल-हृदय बना क्यों? | |||
यदि है सहृदय ऑंखों से ऑंसू न छना क्यों?॥28॥ | |||
यदि वह जड़ है तो चेतन क्यों, चेत, न पाया। | |||
दु:ख-दग्ध संसार किस लिए गया बनाया॥ | |||
कितनी सुन्दर-सरस-दिव्य-रचना वह होती। | |||
जिसमें मानस-हंस सदा पाता सुख-मोती॥29॥ | |||
कुछ पहले थी निशा सुन्दरी कैसी लसती। | |||
सिता-साटिका मिले रही कैसी वह हँसती॥ | |||
पहन तारकावलि की मंजुल-मुक्ता-माला। | |||
चन्द्र-वदन अवलोक सुधा का पी पी प्याला॥30॥ | |||
प्राय: उल्का पुंज पात से उद्भासित बन। | |||
दीपावलि का मिले सर्वदा दीप्ति-मान-तन॥ | |||
देखे कतिपय-विकच-प्रसूनों पर छबि छाई। | |||
विभावरी थी विपुल विनोदमयी दिखलाई॥31॥ | |||
अमित-दिव्य-तारक-चय द्वारा विभु-विभुता की। | |||
जिसने दिखलाई दिव-दिवता की बर-झाँकी॥ | |||
भव-विराम जिसके विभवों पर है अवलंबित। | |||
वह रजनी इस काल-काल द्वारा है कवलित॥32॥ | |||
जो मयंक नभतल को था बहु कान्त बनाता। | |||
वसुंधरा पर सरस-सुधा जो था बरसाता॥ | |||
जो रजनी को लोक-रंजिनी है कर पाता। | |||
वही तेज-हत हो अब है डूबता दिखाता॥33॥ | |||
जो सरयू इस समय सरस-तम है दिखलाती। | |||
उठा-उठा कर ललित लहर जो है ललचाती॥ | |||
शान्त, धीर, गति जिसकी है मृदुता सिखलाती। | |||
ज्योतिमयी बन जो है अन्तर-ज्योति जगाती॥34॥ | |||
सावन का कर संग वही पातक करती है। | |||
कर निमग्न बहु जीवों का जीवन हरती है॥ | |||
डुबा बहुत से सदन, गिराकर तट-विटपी को। | |||
करती है जल-मग्न शस्य-श्यामला मही को॥35॥ | |||
कल मैंने था जिन फूलों को फूला देखा। | |||
जिनकी छबि पर मधुप-निकर को भूला देखा॥ | |||
प्रफुल्लता जिनकी थी बहु उत्फुल्ल बनाती। | |||
जिनकी मंजुल-महँक मुदित मन को कर पाती॥36॥ | |||
उनमें से कुछ धूल में पड़े हैं दिखलाते। | |||
कुछ हैं कुम्हला गये और कुछ हैं कुम्हलाते॥ | |||
कितने हैं छबि-हीन बने नुचते हैं कितने। | |||
कितने हैं उतने न कान्त पहले थे जितने॥37॥ | |||
सुन्दरता में कौन कर सका समता जिनकी। | |||
उन्हें मिली है आयु एक दिन या दो दिन की॥ | |||
फूलों सा उत्फुल्ल कौन भव में दिखलाया। | |||
किन्तु उन्होंने कितना लघु-जीवन है पाया॥38॥ | |||
स्वर्णपुरी का दहन आज भी भूल न पाया। | |||
बड़ा भयंकर-दृश्य उस समय था दिखलाया॥ | |||
निरअपराध बालक-विलाप अबला का क्रंदन। | |||
विवश-वृध्द-वृध्दाओं का व्याकुल बन रोदन॥39॥ | |||
रोगी-जन की हाय-हाय आहें कृश-जन की। | |||
जलते जन की त्राहि-त्राहि कातरता मन की॥ | |||
ज्वाला से घिर गये व्यक्तियों का चिल्लाना। | |||
अवलोके गृह-दाह गृही का थर्रा जाना॥40॥ | |||
भस्म हो गये प्रिय स्वजनों का तन अवलोके। | |||
उनकी दुर्गति का वर्णन करना रो रो के॥ | |||
बहुत कलपना उसको जो था वारि न पाता। | |||
जब होता है याद चित व्यथित है हो जाता॥41॥ | |||
समर-समय की महालोक संहारक लीला। | |||
रण भू का पर्वत समान ऊँचा शव-टीला॥ | |||
बहती चारों ओर रुधिर की खर-तर-धारा। | |||
धरा कँपा कर बजता हाहाकार नगारा॥42॥ | |||
क्रंदन, कोलाहल, बहु आहों की भरमारें। | |||
आहत जन की लोक प्रकंपित करी पुकारें॥ | |||
कहाँ भूल पाईं वे तो हैं भूल न पाती। | |||
स्मृति उनकी है आज भी मुझे बहुत सताती॥43॥ | |||
आह! सती सिरधारी प्रमीला का बहु क्रंदन। | |||
उसकी बहु व्याकुलता उसका हृदयस्पंदन॥ | |||
मेघनाद शव सहित चिता पर उसका चढ़ना। | |||
पति प्राणा का प्रेम पंथ में आगे बढ़ना॥44॥ | |||
कुछ क्षण में उस स्वर्ग-सुन्दरी का जल जाना। | |||
मिट्टी में अपना महान् सौन्दर्य मिलाना॥ | |||
बड़ी दु:ख-दायिनी मर्म-वेधी-बातें हैं। | |||
जिनको कहते खड़े रोंगटे हो जाते हैं॥45॥ | |||
पति परायणा थी वह क्यों जीवित रह पाती। | |||
पति चरणों में हुई अर्पिता पति की थाती॥ | |||
धन्य भाग्य, जो उसने अपना जन्म बनाया। | |||
सत्य-प्रेम-पथ-पथिका बन बहु गौरव पाया॥46॥ | |||
व्यथा यही है पड़ी सती क्यों दु:ख के पाले। | |||
पड़े प्रेम-मय उर में कैसे कुत्सित छाले॥ | |||
आह! भाग्य कैसे उस पति प्राणा का फूटा। | |||
मरने पर भी जिससे पति पद-कंज न छूटा॥47॥ | |||
कलह मूल हूँ शान्ति इसी से मैं खोती हूँ। | |||
मर्माहत मैं इसीलिए बहुधा होती हूँ॥ | |||
जो पापिनी-प्रवृत्ति न लंका-पति की होती। | |||
क्यों बढ़ता भूभार मनुजता कैसे रोती॥48॥ | |||
अच्छा होता भली-वृत्ति ही जो भव पाता। | |||
मंगल होता सदा अमंगल मुख न दिखाता॥ | |||
सबका होता भला फले फूले सब होते। | |||
हँसते मिलते लोग दिखाते कहीं न रोते॥49॥ | |||
होता सुख का राज, कहीं दु:ख लेश न होता। | |||
हित रत रह, कोई न बीज अनहित का बोता॥ | |||
पाकर बुरी अशान्ति गरलता से छुटकारा। | |||
बहती भव में शान्ति-सुधा की सुन्दर धारा॥50॥ | |||
हो जाता दुर्भाव दूर सद्भाव सरसता। | |||
उमड़-उमड़ आनन्द जलद सब ओर बरसता॥ | |||
होता अवगुण मग्न गुण पयोनिधि लहराता। | |||
गर्जन सुन कर दोष निकट आते थर्राता॥51॥ | |||
फूली रहती सदा मनुजता की फुलवारी। | |||
होती उसकी सरस सुरभि त्रिभुवन की प्यारी॥ | |||
किन्तु कहूँ क्या है विडम्बना विधि की न्यारी। | |||
इतना कह कर खिन्न हो गईं जनक दुलारी॥52॥ | |||
कहा राम ने यहाँ इसलिए मैं हूँ आया। | |||
मुदित कर सकूँ तुम्हें प्रियतमे कर मनभाया॥ | |||
किन्तु समय ने जब है सुन्दर समा दिखाया। | |||
पड़ी किस लिए हृदय-मुकुर में दु:ख की छाया॥53॥ | |||
गर्भवती हो रखो चित्त उत्फुल सदा ही। | |||
पड़े व्यथित कर विषय की न उसपर परछाँही॥ | |||
माता-मानस-भाव समूहों में ढलता है। | |||
प्रथम उदर पलने ही में बालक पलता है॥54॥ | |||
हरे भरे इस पीपल तरु को प्रिये विलोको। | |||
इसके चंचल-दीप्तिमान-दल को अवलोको॥ | |||
वर-विशालता इसकी है बहु-चकित बनाती। | |||
अपर द्रुमों पर शासन करती है दिखलाती॥55॥ | |||
इसके फल दल से बहु-पशु-पक्षी पलते हैं। | |||
पा इसका पंचांग रोग कितने टलते हैं॥ | |||
दे छाया का दान सुखित सबको करता है। | |||
स्वच्छ बना वह वायु दूषणों को हरता है॥56॥ | |||
मिट्टी में मिल एक बीज, तरु बन जाता है। | |||
जो सदैव बहुश: बीजों को उपजाता है॥ | |||
प्रकट देखने में विनाश उसका होता है। | |||
किन्तु सृष्टि गति सरि का वह बनता सोता है॥57॥ | |||
शीतल मंद समीर सौरभित हो बहता है। | |||
भव कानों में बात सरसता की कहता है॥ | |||
प्राणि मात्र के चित को वह पुलकित करता है। | |||
प्रात: को प्रिय बना सुरभि भू में भरता है॥58॥ | |||
सुमनावलि को हँसा खिलाता है कलिका को। | |||
लीलामयी बनाता है लसिता लतिका को॥ | |||
तरु दल को कर केलि-कान्त है कला दिखाता। | |||
नर्तन करना लसित लहर को है सिखलाता॥59॥ | |||
ऐसे सरस पवन प्रवाह से, जो बुझ जावे। | |||
कोई दीपक या पत्ता गिरता दिखलावे॥ | |||
या कोई रोगी शरीर सह उसे न पावे। | |||
या कोई तृण उड़ दव में गिर गात जलावे॥60॥ | |||
तो समीर को दोषी कैसे विश्व कहेगा। | |||
है वह अपचिति-रत न अत: निर्दोष रहेगा॥ | |||
है स्वभावत: प्रकृति विश्वहित में रत रहती। | |||
इसीलिए है विविध स्वरूपवती अति महती॥61॥ | |||
पंचभूत उसकी प्रवृत्ति के हैं परिचायक। | |||
हैं उसके विधान ही के विधि सविधि-विधायक॥ | |||
भव के सब परिवर्तन हैं स्वाभाविक होते। | |||
मंगल के ही बीज विश्व में वे हैं बोते॥62॥ | |||
यदि है प्रात: दीप पवन गति से बुझ जाता। | |||
तो होता है वही जिसे जन-कर कर पाता॥ | |||
सूखा पत्ता नहीं किरण ग्राही होता है। | |||
होके रस से हीन सरसताएँ खोता है॥63॥ | |||
हरित दलों के मध्य नहीं शोभा पाता है। | |||
हो निस्सार विटप में लटका दिखलाता है॥ | |||
अत: पवन स्वाभाविक गति है उसे गिराती। | |||
जिससे वह हो सके मृत्तिका बन महिथाती॥64॥ | |||
सहज पवन की प्रगति जो नहीं है सह जाती। | |||
तो रोगी को सावधानता है सिखलाती॥ | |||
रूपान्तर से प्रकृति उसे है डाँट बताती। | |||
स्वास्थ्य नियम पालन निमित्त है सजग बनाती॥65॥ | |||
यह चाहता समीर न था तृण उड़ जल जाए। | |||
थी न आग की चाह राख वह उसे बनाए॥ | |||
किन्तु पलक मारते हो गईं उभय क्रियाएँ। | |||
होती हैं भव में प्राय: ऐसी घटनाएँ॥66॥ | |||
जो हो तृण के तुल्य तुच्छ उड़ते फिरते हैं। | |||
प्रकृति करों से वे यों ही शासित होते हैं॥ | |||
यह शासन कारिणी वृत्ति श्रीमती प्रकृति की। | |||
है बहु मंगलमयी शोधिका है संसृति की॥67॥ | |||
आंधी का उत्पात पतन उपलों का बहुधा। | |||
हिल हिल कर जो महानाश करती है वसुधा॥ | |||
ज्वालामुखी-प्रकोप उदधि का धरा निगलना। | |||
देशों का विध्वंस काल का आग उगलना॥68॥ | |||
इसी तरह के भव-प्रपंच कितने हैं ऐसे। | |||
नहीं बताए जा सकते हैं वे हैं जैसे॥ | |||
है असंख्य ब्रह्मांड स्वामिनी प्रकृति कहाती। | |||
बहु-रहस्यमय उसकी गति क्यों जानी जाती॥69॥ | |||
कहाँ किसलिए कब वह क्या करती है क्यों कर। | |||
कभी इसे बतला न सकेगा कोई बुधवर॥ | |||
किन्तु प्रकृति का परिशीलन यह है जतलाता। | |||
है स्वाभाविकता से उसका सच्चा नाता॥70॥ | |||
है वह विविध विधानमयी भव-नियमन-शीला। | |||
लोक-चकित-कर है उसकी लोकोत्तर लीला॥ | |||
सामंजस्यरता प्रवृत्ति सद्भाव भरी है। | |||
चिरकालिक अनुभूति सर्व संताप हरी है॥71॥ | |||
यदि उसकी विकराल मूर्ति है कभी दिखाती। | |||
तो होती है निहित सदा उसमें हित थाती॥ | |||
तप ऋतु आकर जो होता है ताप विधाता। | |||
तो ला कर धन बनता है जग-जीवन-दाता॥72॥ | |||
जो आंधी उठ कर है कुछ उत्पात मचाती। | |||
धूल उड़ा डालियाँ तोड़ है विटप गिराती॥ | |||
तो है जीवनप्रद समीर का शोधन करती। | |||
नयी हितकरी भूति धरातल में है भरती॥73॥ | |||
जहाँ लाभप्रद अंश अधिक पाया जाता है। | |||
थोड़ी क्षति का ध्यान वहाँ कब हो पाता है॥ | |||
जहाँ देश हित प्रश्न सामने आ जाता है। | |||
लाखों शिर अर्पित हो कटता दिखलाता है॥74॥ | |||
जाति मुक्ति के लिए आत्म-बलि दी जाती है। | |||
परम अमंगल क्रिया पुण्य कृति कहलाती है॥ | |||
इस रहस्य को बुध पुंगव जो समझ न पाते। | |||
तो प्रलयंकर कभी नहीं शंकर कहलाते॥75॥ | |||
सृष्टि या प्रकृति कृति को, बहुधा कह कर माया। | |||
कुल विबुधों ने है गुण-दोष-मयी बतलाया॥ | |||
इस विचार से है चित्-शक्ति कलंकित होती। | |||
बहु विदिता निज सर्व शक्तिमत्त है खोती॥76॥ | |||
किन्तु इस विषय पर अब मैं कुछ नहीं कहूँगा। | |||
अधिक विवेचन के प्रवाह में नहीं बहूँगा। | |||
फिर तुम हुईं प्रफुल्ल हुआ मेरा मनभाया। | |||
प्रिये! कहाँ तुमने ऐसा कोमल चित पाया॥77॥ | |||
सब को सुख हो कभी नहीं कोई दु:ख पाए। | |||
सबका होवे भला किसी पर बला न आये॥ | |||
कब यह सम्भव है पर है कल्पना निराली। | |||
है इसमें रस भरा सुधा है इसमें ढाली॥78॥ | |||
;दोहा | |||
इतना कह रघवुंश-मणि, दिखा अतुल-अनुराग। | |||
सदन सिधारे सिय सहित, तज बहु-विलसित बाग॥79॥ | |||
</poem> | |||
{{Poemclose}} | |||
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक2 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }} | {{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक2 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }} | ||
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
पंक्ति 31: | पंक्ति 429: | ||
[[Category:पद्य साहित्य]] | [[Category:पद्य साहित्य]] | ||
[[Category:साहित्य कोश]] | [[Category:साहित्य कोश]] | ||
[[Category: | [[Category:खण्ड काव्य]] | ||
[[Category:अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध']] | [[Category:अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध']] | ||
[[Category:वैदेही वनवास]] | [[Category:वैदेही वनवास]] | ||
__INDEX__ | __INDEX__ | ||
__NOTOC__ | __NOTOC__ |
14:16, 17 सितम्बर 2017 के समय का अवतरण
| ||||||||||||||||||||||||
लोक-रंजिनी उषा-सुन्दरी रंजन-रत थी।
|
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख