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'''काव्य की भूमिका''' प्रसिद्ध [[कवि]] और निबन्धकार [[रामधारी सिंह दिनकर]] की कृति है। दिनकर जी की यह कृति उच्चकोटि के उच्च [[साहित्य]] के विद्यार्थियों तथा काव्य प्रेमियों को नया मार्गदर्शन देने में सक्षम है। काव्य की भूमिका दिनकर की प्रसिद्ध आलोचनात्मक कृतियों में से एक है। इस कृति का प्रकाशन 'लोकभारती प्रकाशन' द्वारा किया गया था। | {{सूचना बक्सा पुस्तक | ||
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'''काव्य की भूमिका''' प्रसिद्ध [[कवि]] और निबन्धकार [[रामधारी सिंह दिनकर]] की कृति है। दिनकर जी की यह कृति उच्चकोटि के उच्च [[साहित्य]] के विद्यार्थियों तथा काव्य प्रेमियों को नया मार्गदर्शन देने में सक्षम है। 'काव्य की भूमिका' दिनकर की प्रसिद्ध आलोचनात्मक कृतियों में से एक है। इस कृति का प्रकाशन 'लोकभारती प्रकाशन' द्वारा किया गया था। | |||
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रातिकाल की निन्दा कोई नई चीज नहीं है। इसका आरम्भ उन्नीसवीं सदी के आरम्भ में स्वयं ठाकुर ने किया था; और जिस कवि ने ‘एती झूठी जुगती बनावै औ कहावै कवि' कहकर कवि की हँसी उड़ाई थी, उसके सामने भी रीति का ही कोई उदाहरण रहा होगा। रातिकाल की सबसे बड़ी निन्दा की बात तो यह है कि उसके उत्तराधिकारी [[भारतेन्दु हरिशचंद्र|भारतेन्दु]] ने उस काल को लाँघकर अपना स्वर [[भक्तिकाल]] से मिलाने की कोशिश की और तब से आज तक प्रत्येक साहित्यिक आन्दोलन रीतिकाल को लात मार कर लोगों की वाहवाही पाता आया है। प्रताप नारायण मिश्र, [[महावीर प्रसाद द्विवेदी|पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी]] और [[मदनमोहन मालवीय]], उन्नीसवीं सदी के अन्त तक, प्रायः अनेक अच्छे लोग रीतिकाल काव्य के विरोधी हो गए थे और छायावाद की स्थापना के समय तो नए कवि रीतिकाल को कोसने में, शायद ही, कभी चूँकें हों। | रातिकाल की निन्दा कोई नई चीज नहीं है। इसका आरम्भ उन्नीसवीं सदी के आरम्भ में स्वयं ठाकुर ने किया था; और जिस कवि ने ‘एती झूठी जुगती बनावै औ कहावै कवि' कहकर कवि की हँसी उड़ाई थी, उसके सामने भी रीति का ही कोई उदाहरण रहा होगा। रातिकाल की सबसे बड़ी निन्दा की बात तो यह है कि उसके उत्तराधिकारी [[भारतेन्दु हरिशचंद्र|भारतेन्दु]] ने उस काल को लाँघकर अपना स्वर [[भक्तिकाल]] से मिलाने की कोशिश की और तब से आज तक प्रत्येक साहित्यिक आन्दोलन रीतिकाल को लात मार कर लोगों की वाहवाही पाता आया है। [[प्रताप नारायण मिश्र]], [[महावीर प्रसाद द्विवेदी|पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी]] और [[मदनमोहन मालवीय]], उन्नीसवीं सदी के अन्त तक, प्रायः अनेक अच्छे लोग रीतिकाल काव्य के विरोधी हो गए थे और छायावाद की स्थापना के समय तो नए कवि रीतिकाल को कोसने में, शायद ही, कभी चूँकें हों। | ||
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07:52, 25 सितम्बर 2013 के समय का अवतरण
काव्य की भूमिका -रामधारी सिंह दिनकर
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लेखक | रामधारी सिंह दिनकर | |
मूल शीर्षक | 'काव्य की भूमिका' | |
प्रकाशक | 'लोकभारती प्रकाशन' | |
ISBN | 978-81-8031-414 | |
देश | भारत | |
भाषा | हिन्दी | |
विधा | लेख-निबन्ध | |
टिप्पणी | 'काव्य की भूमिका' दिनकर की प्रसिद्ध आलोचनात्मक कृतियों में से एक है। यह कृति उच्चकोटि के उच्च साहित्य के विद्यार्थियों तथा काव्य प्रेमियों को नया मार्गदर्शन देने में सक्षम है। |
काव्य की भूमिका प्रसिद्ध कवि और निबन्धकार रामधारी सिंह दिनकर की कृति है। दिनकर जी की यह कृति उच्चकोटि के उच्च साहित्य के विद्यार्थियों तथा काव्य प्रेमियों को नया मार्गदर्शन देने में सक्षम है। 'काव्य की भूमिका' दिनकर की प्रसिद्ध आलोचनात्मक कृतियों में से एक है। इस कृति का प्रकाशन 'लोकभारती प्रकाशन' द्वारा किया गया था।
पुस्तक अंश
रीतिकाल का नया मूल्यांकन, छायावाद की भूमिका, छायावादोत्तर काल, प्रयोगवाद, कोमलता से कठोरता की ओर आरम्भ के निबन्धों में रीतिकाल से लेकर प्रयोगवाद तक की प्रमुख प्रवृत्तियों का विवेचन किया गया है। भविष्य की कविता निबंध में यह समझाने की चेष्टा की गयी है कि वैज्ञानिक युग में कविता अपने किन गुणों पर जोर देकर अपना अस्तित्व कायम रख सकती है। कविता ज्ञान है या आनन्द, रूपकाव्य और विचारकाव्य, प्रेरणा स्वरूप, सत्यम् शिवम् सुन्दरम्, कविता की परख युवाशक्ति के नाम कवि का संदेश है।
रातिकाल की निन्दा कोई नई चीज नहीं है। इसका आरम्भ उन्नीसवीं सदी के आरम्भ में स्वयं ठाकुर ने किया था; और जिस कवि ने ‘एती झूठी जुगती बनावै औ कहावै कवि' कहकर कवि की हँसी उड़ाई थी, उसके सामने भी रीति का ही कोई उदाहरण रहा होगा। रातिकाल की सबसे बड़ी निन्दा की बात तो यह है कि उसके उत्तराधिकारी भारतेन्दु ने उस काल को लाँघकर अपना स्वर भक्तिकाल से मिलाने की कोशिश की और तब से आज तक प्रत्येक साहित्यिक आन्दोलन रीतिकाल को लात मार कर लोगों की वाहवाही पाता आया है। प्रताप नारायण मिश्र, पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी और मदनमोहन मालवीय, उन्नीसवीं सदी के अन्त तक, प्रायः अनेक अच्छे लोग रीतिकाल काव्य के विरोधी हो गए थे और छायावाद की स्थापना के समय तो नए कवि रीतिकाल को कोसने में, शायद ही, कभी चूँकें हों।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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