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==प्रकाशक की ओर से== | ==प्रकाशक की ओर से== | ||
पुस्तक का यह एकादश संस्करण है। अमेरिका में अनेक व्याख्यान देने के | पुस्तक का यह एकादश संस्करण है। अमेरिका में अनेक व्याख्यान देने के पश्चात् सन् 1895 में स्वामी विवेकान्नद ‘सहस्रदीपोद्यान’ नामक शान्त और एकान्त में चले गये थे। यह स्थान न्यूयार्क के सन्निककट है। उनके कुछ शिष्य इस शान्त वातावरण में स्वामीजी के सान्निध्य का लाभ उठाने की दृष्टि से उनके साथ रहे। वहाँ स्वामीजी ने कुछ [[सप्ताह]] निवास किया था। इसी समय वे अपने शिष्यों को प्रतिदिन आध्यात्मिक विष्यों पर उपदेश दिया करते थे, जो उनकी एक शिष्या कुमारी एस. ई. वाल्डो, न्यूयॉर्क, ने लिख लिये थे। बाद में वे (‘Inspired Talks’) नामक पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुए। प्रस्तुत पुस्तक उसी का [[हिन्दी]] रुपान्तर है। इन उपदेशों में स्वामीजी का द्रष्टाएवं आदर्श गुरु-रूप उद्घाटित होता है। [[हृदय]] से उद्भूत होने के कारण इसमें स्वामीजी की दिव्य प्रज्ञा अनुभूति की गहनता भी प्रतीत होती है। | ||
==पुस्तक के कुछ अंश== | ==पुस्तक के कुछ अंश== | ||
[[1893]] ईसवी के ग्रीष्मकाल में एक तरुण हिन्दी संन्यासी ने वैन्कुवर शहर में पदार्पण किया। उन्होंने [[शिकागो]] की धर्ममहासभा में सम्मिलित होने के लिए यात्रा की थी, किन्तु वे किसी सर्वजनपरिचित धर्मसंघ द्वारा नियुक्त प्रतिनिधि के रूप में नहीं गये थे। कोई भी उन्हें पहचानता नहीं था, एवं उनका सांसारिक ज्ञान भी अधिक नहीं था; फिर भी मद्रास के अनेक उत्साही युवकों ने उन्हें ही इस महान् कार्य के लिए चुना था, क्योंकि उनका दृढ़ विश्वास था कि दूसरे किसी व्यक्ति की अपेक्षा वे ही [[भारत]] के प्राचीन धर्म के योग्यतर प्रतिनिधि हो सकते हैं। और इसी विश्वास के कारण उन लोगों ने द्वार द्वार पर भिक्षा माँगकर उनकी यात्रा के लिए धन | [[1893]] ईसवी के ग्रीष्मकाल में एक तरुण हिन्दी संन्यासी ने वैन्कुवर शहर में पदार्पण किया। उन्होंने [[शिकागो]] की धर्ममहासभा में सम्मिलित होने के लिए यात्रा की थी, किन्तु वे किसी सर्वजनपरिचित धर्मसंघ द्वारा नियुक्त प्रतिनिधि के रूप में नहीं गये थे। कोई भी उन्हें पहचानता नहीं था, एवं उनका सांसारिक ज्ञान भी अधिक नहीं था; फिर भी मद्रास के अनेक उत्साही युवकों ने उन्हें ही इस महान् कार्य के लिए चुना था, क्योंकि उनका दृढ़ विश्वास था कि दूसरे किसी व्यक्ति की अपेक्षा वे ही [[भारत]] के प्राचीन धर्म के योग्यतर प्रतिनिधि हो सकते हैं। और इसी विश्वास के कारण उन लोगों ने द्वार द्वार पर भिक्षा माँगकर उनकी यात्रा के लिए धन संग्रहीत किया था। दो एक देसी नरेशों ने भी इस कार्य के लिए कुछ दान किया था। केवल इसी धन के सहारे तरुण संन्यासी- उस समय के अपरिचिति स्वामी विवेकनन्द इस लम्बी यात्रा को करने में प्रवृत्त हुए। <ref>{{cite web |url=http://pustak.org/home.php?bookid=5902 |title=देववाणी|accessmonthday=16 जनवरी |accessyear=2014 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher= भारतीय साहित्य संग्रह|language=हिंदी }} </ref> | ||
05:02, 4 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण
देववाणी -स्वामी विवेकानन्द
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लेखक | स्वामी विवेकानन्द |
मूल शीर्षक | देववाणी |
प्रकाशक | रामकृष्ण मठ |
प्रकाशन तिथि | 1 जनवरी, 2002 |
देश | भारत |
भाषा | हिंदी |
विषय | दर्शन |
मुखपृष्ठ रचना | अजिल्द |
विशेष | इस पुस्तक में स्वामी विवेकानंद की अमेरिका यात्रा के व्याख्यान हैं। |
देववाणी पुस्तक में स्वामी विवेकानंद की अमेरिका यात्रा के व्याख्यान हैं। स्वामीजी सन् 1895 में ‘सहस्रदीपोद्यान’ नामक शान्त और एकान्त में चले गये थे। यह स्थान न्यूयार्क के सन्निककट है।
प्रकाशक की ओर से
पुस्तक का यह एकादश संस्करण है। अमेरिका में अनेक व्याख्यान देने के पश्चात् सन् 1895 में स्वामी विवेकान्नद ‘सहस्रदीपोद्यान’ नामक शान्त और एकान्त में चले गये थे। यह स्थान न्यूयार्क के सन्निककट है। उनके कुछ शिष्य इस शान्त वातावरण में स्वामीजी के सान्निध्य का लाभ उठाने की दृष्टि से उनके साथ रहे। वहाँ स्वामीजी ने कुछ सप्ताह निवास किया था। इसी समय वे अपने शिष्यों को प्रतिदिन आध्यात्मिक विष्यों पर उपदेश दिया करते थे, जो उनकी एक शिष्या कुमारी एस. ई. वाल्डो, न्यूयॉर्क, ने लिख लिये थे। बाद में वे (‘Inspired Talks’) नामक पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुए। प्रस्तुत पुस्तक उसी का हिन्दी रुपान्तर है। इन उपदेशों में स्वामीजी का द्रष्टाएवं आदर्श गुरु-रूप उद्घाटित होता है। हृदय से उद्भूत होने के कारण इसमें स्वामीजी की दिव्य प्रज्ञा अनुभूति की गहनता भी प्रतीत होती है।
पुस्तक के कुछ अंश
1893 ईसवी के ग्रीष्मकाल में एक तरुण हिन्दी संन्यासी ने वैन्कुवर शहर में पदार्पण किया। उन्होंने शिकागो की धर्ममहासभा में सम्मिलित होने के लिए यात्रा की थी, किन्तु वे किसी सर्वजनपरिचित धर्मसंघ द्वारा नियुक्त प्रतिनिधि के रूप में नहीं गये थे। कोई भी उन्हें पहचानता नहीं था, एवं उनका सांसारिक ज्ञान भी अधिक नहीं था; फिर भी मद्रास के अनेक उत्साही युवकों ने उन्हें ही इस महान् कार्य के लिए चुना था, क्योंकि उनका दृढ़ विश्वास था कि दूसरे किसी व्यक्ति की अपेक्षा वे ही भारत के प्राचीन धर्म के योग्यतर प्रतिनिधि हो सकते हैं। और इसी विश्वास के कारण उन लोगों ने द्वार द्वार पर भिक्षा माँगकर उनकी यात्रा के लिए धन संग्रहीत किया था। दो एक देसी नरेशों ने भी इस कार्य के लिए कुछ दान किया था। केवल इसी धन के सहारे तरुण संन्यासी- उस समय के अपरिचिति स्वामी विवेकनन्द इस लम्बी यात्रा को करने में प्रवृत्त हुए। [1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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