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मेरु के दक्षिण में सबसे पहले पूर्व से पश्चिम दिशा में निषध पर्वत फैला हुआ है। उसके बाद हरिवर्ष है, फिर [[हेमकूट |हेमकूट पर्वत]] है, जिससे सटा हुआ प्रदेश किंपुरुषवर्ष है। किंपुरुष के दक्षिण में हिमवान पर्वत है, जिससे मिला हुआ भारतवर्ष है। अब मेरु के उत्तर की ओर क्रमषः चलें तो पहले [[नील पर्वत]] और रमणक वर्ष मिलेगा। रमणक वर्ष को रम्यक [[वर्ष]] भी कहा गया है। उसके उत्तर में दूसरे स्थान पर श्वेत पर्वत है, जिसके वर्ष का नाम हिरण्यमय वर्ष है। हिरण्यमय को हैरण्यवत भी कहा है और वहां की नदी हैरण्यवती कही गई है। उसके और उत्तर तीसरे स्थान पर श्रृंगवान पर्वत पूर्व से पश्चिम तक फैला हुआ है, जिसके वर्ष का नाम उत्तरकुरु है। उत्तरकुरु के बाद [[समुद्र]] है। वहां समुद्रान्त प्रदेश में शांडिली देवी का निवास है, जिसे सदा प्रकाशित रहने के कारण स्वयंप्रभा भी कहा जाता था। | |||
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10:32, 28 सितम्बर 2016 के समय का अवतरण
सप्तद्वीप उन सात पौराणिक द्वीपों को कहा जाता है, जिनमें पृथ्वी बँटी हुई है। उपरोक्त सातों द्वीप चारों ओर से क्रमशः खारे पानी, इक्षुरस, मदिरा, घृत, दधि, दुग्ध और मीठे जल के सात समुद्रों से घिरे हैं। ये सभी द्वीप एक के बाद एक दूसरे को घेरे हुए बने हैं और इन्हें घेरे हुए सातों समुद्र हैं।
भूगोल मानचित्र
भूगोल के निर्माताओं ने सात वर्ष, सात पर्वत, सात समुद्र और सात द्वीपों की कल्पना करते हुए पृथ्वी के भूगोल का एक नया मानचित्र फैलाया। इसकी स्पष्ट रूपरेखा इस प्रकार है- सबके बीच में स्वर्णमय मेरु पर्वत है। मेरु को आजकल पामीर का बड़ा पठार कहा जाता है, जिसे प्राचीन परिभाषा में परम मेरु[1] और महामेरु[2] कहते थे। यहां भी मेरु को पृथ्वी का मध्य भाग माना गया। मेरु जिस भू भाग में था, उसकी संज्ञा इलावृत वर्ष या ऐरावत वर्ष हुई। मेरु के उत्तर में तीन वर्ष और तीन पर्वत एवं दक्षिण में भी तीन वर्ष और तीन पर्वत माने गये। यों इस परिमंडल में कुल सात वर्ष और सात पर्वत हुए। इन सबको मिलाकर जम्बूद्वीप कहा गया। इस नाम की व्याख्या में यह कल्पना की गई की बीचों बीच में कोई जम्बू नाम का महावृक्ष है, जिससे द्वीप का नाम जम्बू द्वीप प्रसिद्ध हुआ। उसके फलों का रस जिस नदी में मिलता है, वह जम्बू नदी हुई और वहां की खानों से अर्थात मध्य एशिया में जो स्वर्ण उत्पन्न होता था, वह जाम्बूनद स्वर्ण कहलाया।
मेरु के दक्षिण में सबसे पहले पूर्व से पश्चिम दिशा में निषध पर्वत फैला हुआ है। उसके बाद हरिवर्ष है, फिर हेमकूट पर्वत है, जिससे सटा हुआ प्रदेश किंपुरुषवर्ष है। किंपुरुष के दक्षिण में हिमवान पर्वत है, जिससे मिला हुआ भारतवर्ष है। अब मेरु के उत्तर की ओर क्रमषः चलें तो पहले नील पर्वत और रमणक वर्ष मिलेगा। रमणक वर्ष को रम्यक वर्ष भी कहा गया है। उसके उत्तर में दूसरे स्थान पर श्वेत पर्वत है, जिसके वर्ष का नाम हिरण्यमय वर्ष है। हिरण्यमय को हैरण्यवत भी कहा है और वहां की नदी हैरण्यवती कही गई है। उसके और उत्तर तीसरे स्थान पर श्रृंगवान पर्वत पूर्व से पश्चिम तक फैला हुआ है, जिसके वर्ष का नाम उत्तरकुरु है। उत्तरकुरु के बाद समुद्र है। वहां समुद्रान्त प्रदेश में शांडिली देवी का निवास है, जिसे सदा प्रकाशित रहने के कारण स्वयंप्रभा भी कहा जाता था।
सप्तद्वीपों के निम्नलिखित नाम बताये गये हैं-
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