"मुर्दहिया- डॉ. तुलसीराम": अवतरणों में अंतर
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'''मुर्दहिया''' दलित साहित्यकार [[डॉ. तुलसीराम]] की [[आत्मकथा]] है, जिसके माध्यम से लेखक ने कई वर्षों से दलित आत्मकथाओं में साहित्य | {{सूचना बक्सा पुस्तक | ||
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'''मुर्दहिया''' दलित साहित्यकार [[डॉ. तुलसीराम]] की [[आत्मकथा]] है, जिसके माध्यम से लेखक ने कई वर्षों से दलित आत्मकथाओं में साहित्य जगत् के बंधे-बंधाये मानदण्डों को तोड़कर अपने जीवन से जुड़े उस सच्चे और कड़वे यथार्थ को सबके सामने उजागर करने का प्रयास किया है, जिसे उन्होंने स्वयं झेला था। तुलसीराम ने इस आत्मकथा के दूसरे अंश 'मुर्दहिया तथा स्कूली जीवन' में शिक्षा के लिए किया जा रहा संघर्ष और उसमें [[गाँव]] से थोड़ा दूर स्थित मुर्दहिया की चौंकाने वाली घटनाओं को उदात्त रूप में प्रस्तुत किया है, जबकि 'मुर्दहिया' के तीसरे अंश 'अकाल में अंध विश्वास' के माध्यम से सामाजिक कुरीतियों को प्रस्तुत किया है। | |||
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कई वर्षों से दलित आत्मकथाओं ने [[साहित्य]] | कई वर्षों से दलित आत्मकथाओं ने [[साहित्य]] जगत् के बंधे-बंधाये मानदण्डों को तोड़कर अपने जीवन से जुड़े उस सच्चे और कड़वे यथार्थ को सबके सामने उजागर करने का प्रयास किया, जिसे उन्होंने स्वयं झेला। [[डॉ. तुलसीराम]] ने अपनी इस आत्मकथा को सात उप-शीर्षकों के माध्यम से अपने जीवन के एक-एक पड़ाव को पाठकों के सामने रखा है। तुलसीराम की यह आत्मकथा दलित समाज को और उस समय की परंपरा को प्रकट करती है। उन्होंने अपने प्रथम खण्ड 'भुतही पारिवारिक पृष्ठभूमि' के माध्यम से यह दिखाया है कि किस प्रकार समाज में भूत-प्रेत और अंधविश्वास का कड़ा मायाजाल समाज में एक न ठीक होने वाले रोग की तरह पफैला हुआ था और ऐसे ही समय में इसी दलित समाज में उनका जन्म हुआ। कहते हैं व्यक्ति जिस परिवेश में पला-बढ़ा होता है उसका असर उस पर अवश्य दिखाई देता है, फिर इस उपर्युक्त कहे हुए मूर्खताजन्य और अंधविश्वास से तुलसीराम कैसे अछूते रह सकते थे। उन्होंने अपने इस प्रथम खण्ड में यह स्पष्ट कर दिया कि दलित और सवर्ण के भगवान अलग-अलग होते हैं और उनकी [[पूजा]], अर्चना, प्रसाद और हर विधि अपना अलग स्थान रखती है। वे देवी-देवता के साथ भूतों को भी बहुत मानते हैं और डर के वशीभूत होकर जाने-अनजाने अपना और अपनों की क्षति कर डालते हैं। उन्हें इस बात का बिल्कुल ज्ञान नहीं होता कि क्या उचित है या क्या अनुचित? जिसके चलते तुलसीराम को चेचक जैसी भयानक बीमारी से अपनी एक आँख गंवानी पड़ती है जिसके चलते समाज उन्हें अपशगुन मानने लगा। तुलसी ने 'मुर्दहिया' [[आत्मकथा]] की भूमिका में ही यह स्पष्ट कर दिया है कि 'यह सही मायनों में हमारी दलित बस्ती की ज़िंदगी थी।' इस ज़िंदगी को आत्मकथा के माध्यम से मैंने बाहर निकाला। उन्होंने बड़े विस्मयकारी ढंग से अपनी स्कूली शिक्षा के बारे में बताया है कि किस प्रकार [[ब्राह्मण|ब्राह्मणों]] द्वारा किसी की आयी चिट्ठी को पढ़ने के दौरान कैसी अपमानजनक बातों का सामना करना पड़ता था, जिससे ऊबकर घरवालों ने उनका नाम प्राइमरी विद्यालय में लिखवाया था कि कम से कम किसी की चिट्ठी-पत्री को पढ़ने के लिए ब्राह्मणों की गाली-गलौज का सामना तो नहीं करना पड़ेगा। यहीं से प्रारंभ होती है तुलसीराम की कष्टकारी शिक्षा यात्राा। | ||
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[[डॉ. तुलसीराम]] ने इस आत्मकथा के दूसरे अंश 'मुर्दहिया तथा स्कूली जीवन' में शिक्षा के लिए किया जा रहा संघर्ष और उसमें [[गाँव]] से थोड़ा दूर स्थित मुर्दहिया की चौंकाने वाली घटनाओं को उदात्त रूप में प्रस्तुत किया। उस समय शिक्षा में ब्राह्मणों ने एक क्षत्रराज स्थापित कर लिया था और यदि कोई दलित या नीच जाति के व्यक्ति को स्कूल में दाखिला मिल भी जाता था तो उसे जातिसूचक शब्द या भद्दी गालियों से पुकारा जाता था। 'शुरू-शुरू में अधिकतर बच्चे 'उपस्थित' शब्द का उच्चारण नहीं कर पाते थे, जिस पर मुंशी जी | [[डॉ. तुलसीराम]] ने इस आत्मकथा के दूसरे अंश 'मुर्दहिया तथा स्कूली जीवन' में शिक्षा के लिए किया जा रहा संघर्ष और उसमें [[गाँव]] से थोड़ा दूर स्थित मुर्दहिया की चौंकाने वाली घटनाओं को उदात्त रूप में प्रस्तुत किया। उस समय शिक्षा में ब्राह्मणों ने एक क्षत्रराज स्थापित कर लिया था और यदि कोई दलित या नीच जाति के व्यक्ति को स्कूल में दाखिला मिल भी जाता था तो उसे जातिसूचक शब्द या भद्दी गालियों से पुकारा जाता था। 'शुरू-शुरू में अधिकतर बच्चे 'उपस्थित' शब्द का उच्चारण नहीं कर पाते थे, जिस पर मुंशी जी अविलम्ब गालियों की बौछार कर देते थे। विशेषकर दलित बच्चों को वे 'चमरकिट' कह कर अपना गुस्सा प्रकट करते थे।'<ref>मुर्दहिया, डॉ. तुलसीराम, राजकमल प्रकाश, पृष्ठ- 24</ref> [[आजमगढ़ ज़िला]] के धरमपुर गाँव की सामाजिक और उस ज़िले की राजनीतिक माहौल का तुलसीराम के व्यक्तित्व पर बहुत गहरा असर दृष्टिगत होता है। यही उनके व्यक्तित्व के निर्माण में सहायक सिद्ध हुआ। एक दिन तुलसीराम ने अपने मुन्नर चाचा को यह कहते हुए सुना कि "अब [[भारत]] में समोही खेती होई, और सब कमाई सब खाई, [[जवाहरलाल नेहरू|नेहरू जी]] करखन्ना खोलिहीं आ पाँच साल में योजना बनइहीं। पहले हकबट होई पिफर चकबट।"<ref>मुर्दहिया, डॉ. तुलसीराम, राजकमल प्रकाश, पृष्ठ-37</ref> | ||
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निसंदेह [[डॉ. तुलसीराम]] ने इस आत्मकथा में विरोधी परिस्थितियों में अदम्य जिजीविषा और जीवन संघर्ष की झलक दिखाई है। आत्मकथा समाज परिवर्तन की मांग करती है। यह कोई मनबहलाव की पुस्तक नहीं है बल्कि इस पर गहराई से सोचना होगा। इसके साथ ही 'मुर्दहिया' के अगले अंक की प्रतीक्षा भी है। तुलसीराम ने अपनी इस आत्मकथा की भूमिका में यह अंकित किया है कि 'जाहिर है, अब पहले जैसी उनकी पूजा नहीं होती। बढ़ते हुए शहरीकरण ने हर एक के जीवन को प्रभावित किया है। भूत भी इससे अछूते नहीं हैं।' दलित चिंतन की और भी बातें इस आत्मकथा के अगले अंक में हमारे सामने प्रस्तुत होंगी। 'मुर्दहिया' के लिए कहा जा सकता है कि यह उन आलोचकों के लिए करारा जवाब है जो दलित साहित्य में मानवीय मूल्यों की उपेक्षा करते हैं। यह आत्मकथा पूरे दलित समाज के अदम्य जीवन संदर्भ के साथ आगे बढ़ने का संदेश देती है तथा यह भी बताती है कि जो नारकीय या दासतापूर्ण जीवन दलितों को मिला है, उसमें व्यक्ति विशेष का नहीं बल्कि व्यवस्था का अपराध है। | निसंदेह [[डॉ. तुलसीराम]] ने इस आत्मकथा में विरोधी परिस्थितियों में अदम्य जिजीविषा और जीवन संघर्ष की झलक दिखाई है। आत्मकथा समाज परिवर्तन की मांग करती है। यह कोई मनबहलाव की पुस्तक नहीं है बल्कि इस पर गहराई से सोचना होगा। इसके साथ ही 'मुर्दहिया' के अगले अंक की प्रतीक्षा भी है। तुलसीराम ने अपनी इस आत्मकथा की भूमिका में यह अंकित किया है कि 'जाहिर है, अब पहले जैसी उनकी पूजा नहीं होती। बढ़ते हुए शहरीकरण ने हर एक के जीवन को प्रभावित किया है। भूत भी इससे अछूते नहीं हैं।' दलित चिंतन की और भी बातें इस आत्मकथा के अगले अंक में हमारे सामने प्रस्तुत होंगी। 'मुर्दहिया' के लिए कहा जा सकता है कि यह उन आलोचकों के लिए करारा जवाब है जो दलित साहित्य में मानवीय मूल्यों की उपेक्षा करते हैं। यह आत्मकथा पूरे दलित समाज के अदम्य जीवन संदर्भ के साथ आगे बढ़ने का संदेश देती है तथा यह भी बताती है कि जो नारकीय या दासतापूर्ण जीवन दलितों को मिला है, उसमें व्यक्ति विशेष का नहीं बल्कि व्यवस्था का अपराध है। | ||
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09:04, 10 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण
मुर्दहिया- डॉ. तुलसीराम
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लेखक | डॉ. तुलसीराम |
मूल शीर्षक | मुर्दहिया |
प्रकाशक | राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली |
प्रकाशन तिथि | 1 जनवरी, 2010 |
ISBN | 9788126719631 |
देश | भारत |
भाषा | हिन्दी |
विधा | आत्मकथा |
विशेष | डॉ. तुलसीराम ने 'मुर्दहिया' के तीसरे अंश 'अकाल में अंध विश्वास' के माध्यम से सामाजिक कुरीतियों को प्रस्तुत किया है। रचनाकार ने अपने आत्म के साथ-साथ समाज, उसका रहन-सहन, अंधविश्वास, ऊँच-नीच का भेदभाव जैसी अनेक समस्याओं को उभारा है। |
मुर्दहिया दलित साहित्यकार डॉ. तुलसीराम की आत्मकथा है, जिसके माध्यम से लेखक ने कई वर्षों से दलित आत्मकथाओं में साहित्य जगत् के बंधे-बंधाये मानदण्डों को तोड़कर अपने जीवन से जुड़े उस सच्चे और कड़वे यथार्थ को सबके सामने उजागर करने का प्रयास किया है, जिसे उन्होंने स्वयं झेला था। तुलसीराम ने इस आत्मकथा के दूसरे अंश 'मुर्दहिया तथा स्कूली जीवन' में शिक्षा के लिए किया जा रहा संघर्ष और उसमें गाँव से थोड़ा दूर स्थित मुर्दहिया की चौंकाने वाली घटनाओं को उदात्त रूप में प्रस्तुत किया है, जबकि 'मुर्दहिया' के तीसरे अंश 'अकाल में अंध विश्वास' के माध्यम से सामाजिक कुरीतियों को प्रस्तुत किया है।
पृष्ठभूमि
कई वर्षों से दलित आत्मकथाओं ने साहित्य जगत् के बंधे-बंधाये मानदण्डों को तोड़कर अपने जीवन से जुड़े उस सच्चे और कड़वे यथार्थ को सबके सामने उजागर करने का प्रयास किया, जिसे उन्होंने स्वयं झेला। डॉ. तुलसीराम ने अपनी इस आत्मकथा को सात उप-शीर्षकों के माध्यम से अपने जीवन के एक-एक पड़ाव को पाठकों के सामने रखा है। तुलसीराम की यह आत्मकथा दलित समाज को और उस समय की परंपरा को प्रकट करती है। उन्होंने अपने प्रथम खण्ड 'भुतही पारिवारिक पृष्ठभूमि' के माध्यम से यह दिखाया है कि किस प्रकार समाज में भूत-प्रेत और अंधविश्वास का कड़ा मायाजाल समाज में एक न ठीक होने वाले रोग की तरह पफैला हुआ था और ऐसे ही समय में इसी दलित समाज में उनका जन्म हुआ। कहते हैं व्यक्ति जिस परिवेश में पला-बढ़ा होता है उसका असर उस पर अवश्य दिखाई देता है, फिर इस उपर्युक्त कहे हुए मूर्खताजन्य और अंधविश्वास से तुलसीराम कैसे अछूते रह सकते थे। उन्होंने अपने इस प्रथम खण्ड में यह स्पष्ट कर दिया कि दलित और सवर्ण के भगवान अलग-अलग होते हैं और उनकी पूजा, अर्चना, प्रसाद और हर विधि अपना अलग स्थान रखती है। वे देवी-देवता के साथ भूतों को भी बहुत मानते हैं और डर के वशीभूत होकर जाने-अनजाने अपना और अपनों की क्षति कर डालते हैं। उन्हें इस बात का बिल्कुल ज्ञान नहीं होता कि क्या उचित है या क्या अनुचित? जिसके चलते तुलसीराम को चेचक जैसी भयानक बीमारी से अपनी एक आँख गंवानी पड़ती है जिसके चलते समाज उन्हें अपशगुन मानने लगा। तुलसी ने 'मुर्दहिया' आत्मकथा की भूमिका में ही यह स्पष्ट कर दिया है कि 'यह सही मायनों में हमारी दलित बस्ती की ज़िंदगी थी।' इस ज़िंदगी को आत्मकथा के माध्यम से मैंने बाहर निकाला। उन्होंने बड़े विस्मयकारी ढंग से अपनी स्कूली शिक्षा के बारे में बताया है कि किस प्रकार ब्राह्मणों द्वारा किसी की आयी चिट्ठी को पढ़ने के दौरान कैसी अपमानजनक बातों का सामना करना पड़ता था, जिससे ऊबकर घरवालों ने उनका नाम प्राइमरी विद्यालय में लिखवाया था कि कम से कम किसी की चिट्ठी-पत्री को पढ़ने के लिए ब्राह्मणों की गाली-गलौज का सामना तो नहीं करना पड़ेगा। यहीं से प्रारंभ होती है तुलसीराम की कष्टकारी शिक्षा यात्राा।
द्वितीय अंश
डॉ. तुलसीराम ने इस आत्मकथा के दूसरे अंश 'मुर्दहिया तथा स्कूली जीवन' में शिक्षा के लिए किया जा रहा संघर्ष और उसमें गाँव से थोड़ा दूर स्थित मुर्दहिया की चौंकाने वाली घटनाओं को उदात्त रूप में प्रस्तुत किया। उस समय शिक्षा में ब्राह्मणों ने एक क्षत्रराज स्थापित कर लिया था और यदि कोई दलित या नीच जाति के व्यक्ति को स्कूल में दाखिला मिल भी जाता था तो उसे जातिसूचक शब्द या भद्दी गालियों से पुकारा जाता था। 'शुरू-शुरू में अधिकतर बच्चे 'उपस्थित' शब्द का उच्चारण नहीं कर पाते थे, जिस पर मुंशी जी अविलम्ब गालियों की बौछार कर देते थे। विशेषकर दलित बच्चों को वे 'चमरकिट' कह कर अपना गुस्सा प्रकट करते थे।'[1] आजमगढ़ ज़िला के धरमपुर गाँव की सामाजिक और उस ज़िले की राजनीतिक माहौल का तुलसीराम के व्यक्तित्व पर बहुत गहरा असर दृष्टिगत होता है। यही उनके व्यक्तित्व के निर्माण में सहायक सिद्ध हुआ। एक दिन तुलसीराम ने अपने मुन्नर चाचा को यह कहते हुए सुना कि "अब भारत में समोही खेती होई, और सब कमाई सब खाई, नेहरू जी करखन्ना खोलिहीं आ पाँच साल में योजना बनइहीं। पहले हकबट होई पिफर चकबट।"[2]
तुलसीराम इस बात को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि "सारी बातें तो मुझे समझ में नहीं आई, किंतु 'हकबट' तथा 'चकबट' और 'सब कमाई सब खाई' मुझे अच्छी तरह समझ में आया था तथा यह भी कि यह सब रूस की देन है।"[3] ऐसा माना जाता है कि वर्तमान, अतीत के विचारों और कर्मों से मिलकर तैयार होता है। इसलिए आत्मकथा में व्यक्ति और समाज दोनों का इतिहास दिखाई पड़ता है।
तृतीय, चतुर्थ तथा पंचम अंश
डॉ. तुलसीराम ने 'मुर्दहिया' के तीसरे अंश 'अकाल में अंध विश्वास' के माध्यम से सामाजिक कुरीतियों को प्रस्तुत किया है। रचनाकार ने अपने आत्म के साथ-साथ समाज, उसका रहन-सहन, अंधविश्वास, ऊँच-नीच का भेदभाव जैसी अनेक समस्याओं को उभारा है। कह सकते हैं कि 'आत्मकथा में कई बार आत्म महत्वपूर्ण नहीं रह जाता। उसके बहाने समय और समाज की कहानी कही जाती है, उनके विकास क्रम का चित्रण किया जाता है।[4] इस आत्मकथा के चौथे अंश 'मुर्दहिया के गिद्ध तथा लोक जीवन' और पाँचवें अंश 'भुतनिया नागिन' में तथा उपर्युक्त तीनों अंश में अकाल के समय की परेशानियों को प्रस्तुत किया है तथा यह भी दिखाया है कि ग्रामीण परिवेश के इन अनपढ़ लोगों में फैला भूत-प्रेत का डर किस कदर इनके सामान्य जीवन को प्रभावित करता है। जिसके कारण इनका जीवन बद से बदतर हो जाता है। 'एक अंधविश्वास के चलते लोग बत्तख नामक पालतू पक्षी को बच्चे के ऊपर बैठने पर मजबूर करते हैं। इसमें मान्यता यह थी कि चुड़ैल भाग जाएगी। इन बीमार बच्चों को कोई दवा नहीं दी जाती। इस तरह कई बच्चे मर जाते, फिर हुल्लड़ मच जाता कि चुड़ैल ने बच्चों को खा लिया।[5] इन सबके अलावा तुलसीराम ने दलित समाज की संस्कृति, रीति-रिवाज, तीज-त्योहार के माध्यम से उनके समाज को प्रस्तुत किया है। इन सारी कुरीतियों, अंधविश्वासों के बीच तुलसीराम की शिक्षा धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी। जिसमें अड़चनें तो बहुत थीं, लेकिन पढ़ाई में होशियार होने की वजह से उन्हें उसका फल भी मिल रहा था।
छठवाँ अंश
'मुर्दहिया' आत्मकथा का छठवाँ अंश 'चले बुद्ध की राह' और सातवाँ अंश 'आजमगढ़ की फाकाकशी' ने तुलसीराम के जीवन में एक नया मोड़ ला दिया। रचनाकार ने नौवीं कक्षा में गौतम बुद्ध, अब्राहम लिंकन, गाँधी, नेहरू आदि महापुरुषों के बारे में जाना। पर तुलसीराम बुद्ध से इतना प्रभावित हुए कि उनका बालमन हमेशा वैसी ही कल्पना करने लगा। 'बस एक ही धुन हरदम सवार थी कि हाईस्कूल समाप्त हो और मैं बुद्ध की तरह घर से भाग जाऊँ। इस प्रक्रिया में मैं एकांतवासी होने लगा।[6] वह भी शिक्षा के लिए घर त्यागते हैं, लेकिन परिस्थिति से मजबूर वापस आ जाते हैं। इन्हीं सारी परेशानियों से जूझते हुए तुलसीराम बुद्ध, अम्बेडकर और मार्क्स से प्रभावित अपने जीवन से संघर्ष करते हुए आगे बढ़ते हैं। शिक्षा, साहित्य और भूमि आदि साधनों से वंचित और सामाजिक गतिविधियों से अलग-थलग दलितों को मजदूरों की श्रेणी में रखा गया। तुलसीराम ने इस आत्मकथा में दलित जीवन की उस सशक्त भूमि को अपनी लेखनी का माध्यम बनाया। इस आत्मकथा में मार्क्सवादी चिंतन का प्रभाव दृष्टिगत होता है।
निसंदेह डॉ. तुलसीराम ने इस आत्मकथा में विरोधी परिस्थितियों में अदम्य जिजीविषा और जीवन संघर्ष की झलक दिखाई है। आत्मकथा समाज परिवर्तन की मांग करती है। यह कोई मनबहलाव की पुस्तक नहीं है बल्कि इस पर गहराई से सोचना होगा। इसके साथ ही 'मुर्दहिया' के अगले अंक की प्रतीक्षा भी है। तुलसीराम ने अपनी इस आत्मकथा की भूमिका में यह अंकित किया है कि 'जाहिर है, अब पहले जैसी उनकी पूजा नहीं होती। बढ़ते हुए शहरीकरण ने हर एक के जीवन को प्रभावित किया है। भूत भी इससे अछूते नहीं हैं।' दलित चिंतन की और भी बातें इस आत्मकथा के अगले अंक में हमारे सामने प्रस्तुत होंगी। 'मुर्दहिया' के लिए कहा जा सकता है कि यह उन आलोचकों के लिए करारा जवाब है जो दलित साहित्य में मानवीय मूल्यों की उपेक्षा करते हैं। यह आत्मकथा पूरे दलित समाज के अदम्य जीवन संदर्भ के साथ आगे बढ़ने का संदेश देती है तथा यह भी बताती है कि जो नारकीय या दासतापूर्ण जीवन दलितों को मिला है, उसमें व्यक्ति विशेष का नहीं बल्कि व्यवस्था का अपराध है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ मुर्दहिया, डॉ. तुलसीराम, राजकमल प्रकाश, पृष्ठ- 24
- ↑ मुर्दहिया, डॉ. तुलसीराम, राजकमल प्रकाश, पृष्ठ-37
- ↑ मुर्दहिया, डॉ. तुलसीराम, पृष्ठ-38
- ↑ आत्मकथा की संस्कृति, पंकज चतुर्वेदी, वाणी प्रकाशन, पृष्ठ-19
- ↑ मुर्दहिया, डॉ. तुलसीराम, राजकमल प्रकाश, पृष्ठ-74
- ↑ मुर्दहिया, डॉ. तुलसीराम, राजकमल प्रकाश, पृष्ठ-145
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