"अध्यात्मोपनिषद": अवतरणों में अंतर
व्यवस्थापन (वार्ता | योगदान) छो (Text replace - "==सम्बंधित लिंक==" to "==संबंधित लेख==") |
व्यवस्थापन (वार्ता | योगदान) छो (Text replacement - "अर्थात " to "अर्थात् ") |
||
(2 सदस्यों द्वारा किए गए बीच के 2 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 4: | पंक्ति 4: | ||
==वह अजन्मा ब्रह्म कहां है?== | ==वह अजन्मा ब्रह्म कहां है?== | ||
हमारे इस भौतिक नश्वर शरीर में वह अजन्मा ब्रह्म सदैव विद्यमान रहता है। वह - [[पृथ्वी देवी|पृथ्वी]], [[जल]], [[अग्निदेव|अग्नि]], [[वायु देव|वायु]] और [[आकाश तत्व|आकाश]] - सभी पंचतत्त्वों में निवास करता है। वह मन में, बुद्धि में, अहंकार में, चित्त में, अव्यक्त में, अक्षर में, मृत्यु में और सभी जड़-चेतन पदार्थों तथा जीवों में निवास करता है और कोई भी उसे नहीं जानता; क्योंकि वह सबसे तटस्थ रहता है। उसके जाते ही सभी कुछ नष्ट हो जाता है। साधना के द्वारा साधक उसे जानने का प्रयास करता है। यही अध्यात्म का विषय है। जो साधक सब ओर 'ब्रह्म की सत्ता' को ही देखता है, उसकी वासनाओं का स्वत: ही लय हो जाता है। वह 'विदेह' हो जाता है। जिसका 'आत्मतत्त्व' एकमात्र 'ब्रह्म' में लीन हो जाता है।, वह निर्विकार और निष्क्रिय हो जाता है। आवागमन के चक्र से मुक्त होकर वह 'मोक्ष' प्राप्त कर लेता है। 'मैं ब्रह्म हूँ' ऐसा ज्ञान हो जाने पर करोड़ों कल्पों से अर्जित कर्म नष्ट हो जाते हैं। प्रारब्ध (भाग्य) कर्म उसी समय सिद्ध होता है, जब देह में आत्म-भाव का उदय होता है, परन्तु देह से परे आत्मबुद्धि का परित्याग करके ही समस्त कर्मों का परित्याग करना चाहिए। | हमारे इस भौतिक नश्वर शरीर में वह अजन्मा ब्रह्म सदैव विद्यमान रहता है। वह - [[पृथ्वी देवी|पृथ्वी]], [[जल]], [[अग्निदेव|अग्नि]], [[वायु देव|वायु]] और [[आकाश तत्व|आकाश]] - सभी [[पंचतत्त्व|पंचतत्त्वों]] में निवास करता है। वह मन में, बुद्धि में, अहंकार में, चित्त में, अव्यक्त में, अक्षर में, मृत्यु में और सभी जड़-चेतन पदार्थों तथा जीवों में निवास करता है और कोई भी उसे नहीं जानता; क्योंकि वह सबसे तटस्थ रहता है। उसके जाते ही सभी कुछ नष्ट हो जाता है। साधना के द्वारा साधक उसे जानने का प्रयास करता है। यही अध्यात्म का विषय है। जो साधक सब ओर 'ब्रह्म की सत्ता' को ही देखता है, उसकी वासनाओं का स्वत: ही लय हो जाता है। वह 'विदेह' हो जाता है। जिसका 'आत्मतत्त्व' एकमात्र 'ब्रह्म' में लीन हो जाता है।, वह निर्विकार और निष्क्रिय हो जाता है। आवागमन के चक्र से मुक्त होकर वह 'मोक्ष' प्राप्त कर लेता है। 'मैं ब्रह्म हूँ' ऐसा ज्ञान हो जाने पर करोड़ों कल्पों से अर्जित कर्म नष्ट हो जाते हैं। प्रारब्ध (भाग्य) कर्म उसी समय सिद्ध होता है, जब देह में आत्म-भाव का उदय होता है, परन्तु देह से परे आत्मबुद्धि का परित्याग करके ही समस्त कर्मों का परित्याग करना चाहिए। | ||
उसे सदैव यही सोचना चाहिए कि मैं-<br /> | उसे सदैव यही सोचना चाहिए कि मैं-<br /> | ||
अमर्ताऽहमभोक्ताऽमविकारोऽहमव्यय:।<br /> | अमर्ताऽहमभोक्ताऽमविकारोऽहमव्यय:।<br /> | ||
शुद्धों बोधस्वरूपोऽहंकेवलोऽहम्सदाशिव:॥70॥ | शुद्धों बोधस्वरूपोऽहंकेवलोऽहम्सदाशिव:॥70॥ अर्थात् मैं अकर्ता हूं, अभोक्ता हूँ, अविकारी और अव्यय हूँ। मैं शुद्ध बोधस्वरूप और केवल सदाशिव हूँ। इस विद्या को पहले सदाशिव ने अपान्तरतम नामक देवपुत्र को दिया। फिर अपान्तरतम ने [[ब्रह्मा]] को दी। ब्रह्मा ने घोर [[आंगिरस]] ऋषि को दी। घोर आंगिरस ने [[रैक्व]] नामक गाड़ीवान को दी। रैक्व ने [[परशुराम]] को दी। परशुराम ने इसे समस्त प्राणियों को दिया। अध्यात्म द्वारा मोक्ष-प्राप्ति का यही वैदिक आदेश है। | ||
<br /> | <br /> | ||
==संबंधित लेख== | ==संबंधित लेख== | ||
पंक्ति 13: | पंक्ति 13: | ||
{{शुक्ल यजुर्वेदीय उपनिषद}} | {{शुक्ल यजुर्वेदीय उपनिषद}} | ||
[[Category:दर्शन कोश]] | [[Category:दर्शन कोश]] | ||
[[Category:उपनिषद]] | [[Category:उपनिषद]][[Category:संस्कृत साहित्य]] | ||
__INDEX__ | __INDEX__ |
07:52, 7 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण
- शुक्ल यजुर्वेद से सम्बन्धित इस उपनिषद में 'आत्मतत्त्व' से साक्षात्कार का विषय उठाया गया। अजन्मा रूप में वह 'पदब्रह्म' समस्त चराचर प्रकृति में संव्याप्त है, किन्तु जीव उसकी सत्ता को भुलाये बैठा रहता है। इसीलिए ऋषियों ने इस उपनिषद में 'सोऽहम' एवं 'तत्त्वमसि' आदि सूत्रों से उसे समझाने का प्रयास किया है।
- 'सोऽहम' का अर्थ है- 'वह मैं हूं' और 'तत्त्वमसि' का अर्थ है- 'वह तुम हो।' विकारों से मुक्त होकर तथा अपनी इन्द्रियों को नियन्त्रित करने वाला साधक ही उसे प्राप्त कर पाता है, उसके मर्म को समझ पाता है।
- यहाँ जीवन-मुक्त अवस्था का वर्णन करते हुए, उस स्थिति में जब साधक भाग्य से प्राप्त कर्मफलों को भोग रहा है, मुक्ति पाने का सुझाव दिया गया है। गुरु द्वारा दिखाये मार्ग पर चलकर साधक हर प्रकार के कर्मफलों से मुक्त हो जाता है और परमात्मा का साक्षात्कार करता है।
वह अजन्मा ब्रह्म कहां है?
हमारे इस भौतिक नश्वर शरीर में वह अजन्मा ब्रह्म सदैव विद्यमान रहता है। वह - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश - सभी पंचतत्त्वों में निवास करता है। वह मन में, बुद्धि में, अहंकार में, चित्त में, अव्यक्त में, अक्षर में, मृत्यु में और सभी जड़-चेतन पदार्थों तथा जीवों में निवास करता है और कोई भी उसे नहीं जानता; क्योंकि वह सबसे तटस्थ रहता है। उसके जाते ही सभी कुछ नष्ट हो जाता है। साधना के द्वारा साधक उसे जानने का प्रयास करता है। यही अध्यात्म का विषय है। जो साधक सब ओर 'ब्रह्म की सत्ता' को ही देखता है, उसकी वासनाओं का स्वत: ही लय हो जाता है। वह 'विदेह' हो जाता है। जिसका 'आत्मतत्त्व' एकमात्र 'ब्रह्म' में लीन हो जाता है।, वह निर्विकार और निष्क्रिय हो जाता है। आवागमन के चक्र से मुक्त होकर वह 'मोक्ष' प्राप्त कर लेता है। 'मैं ब्रह्म हूँ' ऐसा ज्ञान हो जाने पर करोड़ों कल्पों से अर्जित कर्म नष्ट हो जाते हैं। प्रारब्ध (भाग्य) कर्म उसी समय सिद्ध होता है, जब देह में आत्म-भाव का उदय होता है, परन्तु देह से परे आत्मबुद्धि का परित्याग करके ही समस्त कर्मों का परित्याग करना चाहिए।
उसे सदैव यही सोचना चाहिए कि मैं-
अमर्ताऽहमभोक्ताऽमविकारोऽहमव्यय:।
शुद्धों बोधस्वरूपोऽहंकेवलोऽहम्सदाशिव:॥70॥ अर्थात् मैं अकर्ता हूं, अभोक्ता हूँ, अविकारी और अव्यय हूँ। मैं शुद्ध बोधस्वरूप और केवल सदाशिव हूँ। इस विद्या को पहले सदाशिव ने अपान्तरतम नामक देवपुत्र को दिया। फिर अपान्तरतम ने ब्रह्मा को दी। ब्रह्मा ने घोर आंगिरस ऋषि को दी। घोर आंगिरस ने रैक्व नामक गाड़ीवान को दी। रैक्व ने परशुराम को दी। परशुराम ने इसे समस्त प्राणियों को दिया। अध्यात्म द्वारा मोक्ष-प्राप्ति का यही वैदिक आदेश है।
संबंधित लेख