"मुहम्मद बिन तुग़लक़": अवतरणों में अंतर

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मुहम्मद बिन तुग़लक़ 1325 से 1351 ई. तक [[तुग़लक़ वंश]] का शासक था। वह तुग़लक़ वंश की नींव डालने वाले [[गयासुद्दीन तुग़लक]] का पुत्र और उत्तराधिकारी था। कुछ विद्वानों के अनुसार गयासुद्दीन की आकस्मिक मृत्यु मुहम्मद तुग़लक़ के षड़यंत्र से हुई थी।
[[ग़यासुद्दीन तुग़लक़]] की मृत्यु के बाद उसका पुत्र 'जूना ख़ाँ', '''मुहम्मद बिन तुग़लक़''' (1325-1351 ई.) के नाम से [[दिल्ली]] की गद्दी पर बैठा। इसका मूल नाम 'उलूग ख़ाँ' था। राजामुंदरी के एक अभिलेख में मुहम्मद तुग़लक़ (जौना या जूना ख़ाँ) को दुनिया का ख़ान कहा गया है। सम्भवतः मध्यकालीन सभी सुल्तानों में मुहम्मद तुग़लक़ सर्वाधिक शिक्षित, विद्वान एवं योग्य व्यक्ति था। अपनी सनक भरी योजनाओं, क्रूर-कृत्यों एवं दूसरे के सुख-दुख के प्रति उपेक्षा का भाव रखने के कारण इसे 'स्वप्नशील', 'पागल' एवं 'रक्त-पिपासु' कहा गया है। बरनी, सरहिंदी , निज़ामुद्दीन, [[बदायूंनी]] एवं फ़रिश्ता जैसे इतिहासकारों ने सुल्तान को अधर्मी घोषित किया गया है।
==कुशल व्यक्तित्व==
==पद व्यवस्था==
मुहम्मद तुग़लक़ का व्यक्तित्व अत्यन्त जटिल था। अपनी सनक भरी योजनाओं, क्रूरकृत्यों और दूसरों के सुख-दुख के प्रति पूर्ण उपेक्षा भाव के कारण उसे पागल और रक्त-पिपासु भी कहा जाता है। मुहम्मद बिन तुग़लक़ [[दिल्ली]] के सभी सुल्तानों से अधिक विद्वान और सुसंस्कृत तथा योग्य सेनापति था और अधिकांश युद्ध में उसे विजय प्राप्त हुई थी। बहुत ही कम अवसरों पर उसे पराजय का मुंह देखना पड़ा। उसमें ज्ञानार्जन की अदम्य लालसा रहती थी। उसने मुसलमान होते हुए भी मुल्लाओं की उपेक्षा करके राज्य का शासन प्रबंध करने का प्रयास किया और कुछ ऐसी मौलिक योजनाएँ प्रचलित कीं, जो साम्राज्य हित में थीं। इसीलिए कुछ विद्वानों ने उसे असाधारण प्रतिभाशाली शासक माना है। जिसके विचार अपने युग से काफ़ी आगे बढ़े हुए थे, और इसलिए वह प्रतिक्रियावादियों का शिकार हुआ। कदाचित् सत्यता दोनों ही मतों में है। वास्तव में मुहम्मद तुग़लक़ न तो पागल था और न ही असाधारण प्रतिभाशाली शासक ही था। वह अवश्य मौलिक योजनाएँ बनाता था, परन्तु उसमें व्यावहारिकता और धैर्य की कमी थी। इसलिए उसे असफलताएँ ही हाथ लगीं।
'''सिंहासन पर बैठने के बाद''' तुग़लक़ ने अमीरों एवं सरदारों को विभिन्न उपाधियाँ एवं पद प्रदान किया। उसने तातार ख़ाँ को 'बहराम ख़ाँ' की उपाधि, मलिक क़बूल को 'इमाद-उल-मुल्क' की उपाधि एवं 'वज़ीर-ए-मुमालिक' का पद दिया था, पर कालान्तर में उसे 'ख़ानेजहाँ' की उपाधि के साथ [[गुजरात]] का हाक़िम बनाया गया। उसने मलिक अरूयाज को ख्वाजा जहान की उपाधि के साथ ‘शहना-ए-इमारत’ का पद, मौलाना गयासुद्दीन को (सुल्तान का अध्यापक) 'कुतुलुग ख़ाँ' की उपाधि के साथ 'वकील-ए-दर' की पदवी, अपने चचेरे भाई [[फ़िरोज शाह तुग़लक़]] को 'नायब बारबक' का पद प्रदान किया था।
==शासनकाल==
==गुणवान व्यक्ति==
मुहम्मद तुग़लक़ का शासनकाल महत्त्वपूर्ण उपलब्धियों से आरम्भ हुआ। 1327 ई. में उसके चचेरे भाई ने दक्षिण में और 1328 ई. में मुल्तान के हाक़िम ने विद्रोह कर दिया, परन्तु दोनों ही विद्रोह दबा दिये गये। उपरान्त [[बारंगल]], [[मअबर]] और [[द्वारसमुद्र]] को जीत कर [[दिल्ली सल्तनत]] की सीमा [[मदुरा]] तक विस्तृत कर दी गयी। सभी प्रान्तों के राजस्व संबंधी काग़ज़  पत्र दुरुस्त कराये गये, स्थान-स्थान पर अस्पताल और खैरातखाने खोले गये और इब्नबबूता सहित अनेक विद्वानों को राज्याश्रय प्रदान करके सब तरह से सम्मानित किया गया। परन्तु जैसे-जैसे शासनकाल लम्बा होता गया वैसे-वैसे कठिनाइयों में वृद्धि होने लगी। 1327 ई. में सुल्तान ने आदेश दिया कि राजधानी का स्थानान्तरण दिल्ली से देवगिरि किया जाए, जो साम्राज्य के केन्द्र में पड़ता था। [[देवगिरि]] का नाम बदलकर [[दौलताबाद]] रखा गया। सुल्तान ने दिल्ली से दौलताबाद जाने वालों को अनेक सुविधाएँ प्रदान कीं, किन्तु उसकी यह योजना इस हठधर्मि के कारण असफल रही कि उसने राज्य कर्मचारियों के साथ दिल्ली के साधारण नागरिकों को भी वहाँ जाने के लिए विवश किया।
'''मुहम्मद बिन तुग़लक़''' [[दिल्ली]] के सभी सुल्तानों में सर्वाधिक कुशाग्र, बुद्धि सम्पन्न, [[धर्म]]-निरेपक्ष, [[कला]]-प्रेमी एवं अनुभवी सेनापति था। वह [[अरबी भाषा]] एवं [[फ़ारसी भाषा]] का विद्धान तथा खगोलशास्त्र, [[दर्शन]], गणित, चिकित्सा, [[विज्ञान]], तर्कशास्त्र आदि में पारंगत था। [[अलाउद्दीन ख़िलजी]] की भाँति अपने शासन काल के प्रारम्भ में उसने, न तो ख़लीफ़ा से अपने पद की स्वीकृति ली और न उलेमा वर्ग का सहयोग लिया, यद्यपि बाद मे ऐसा करना पड़ा। उसने न्याय विभाग पर उलेमा वर्ग का एकाधिपत्य समाप्त किया। क़ाज़ी के जिस फैसले से वह संतुष्ट नहीं होता था, उसे बदल देता था। सर्वप्रथम मुहम्मद तुग़लक़ ने ही बिना किसी भेदभाव के योग्यता के आधार पर पदों का आवंटन किया। नस्ल और वर्ग-विभेद को समाप्त करके योग्यता के आधार पर अधिकारियों को नियुक्त करने की नीति अपनायी। वस्तुत: यह उस शासक का दुर्भाग्य था कि, उसकी योजनाएं सफलतापूर्वक क्रियान्वित नहीं हुई। जिसके कारण यह इतिहासकारों की आलोचना का पात्र बना।
==मुद्राप्रणाली का प्रचलन==
==दिल्ली सल्तनत==
1330 ई. में सुल्तान ने प्रतीकाकात्मक मुद्राप्रणाली का प्रचलन किया, जैसी कि आजकल विश्व के समस्त देशों में प्रचलित है। उसने ताँबे के सिक्के चलाये, जिनका मूल्य सोने-चाँदी के सिक्कों के समान ठहराया गया। उसकी यह योजना भी असफल रही, क्योंकि उसने जाली सिक्कों की रोकथाम का समुचित प्रबंध नहीं किया।
{{मुख्य|दिल्ली सल्तनत}}
==आक्रमण==
'''मुहम्मद तुग़लक़ के सिंहासन पर बैठते समय''' [[दिल्ली सल्तनत]] कुल 23 प्रांतों में बँटा थी, जिनमें मुख्य थे - दिल्ली, [[देवगिरि]], [[लाहौर]], मुल्तान, सरमुती, [[गुजरात]], [[अवध]], [[कन्नौज]], लखनौती, [[बिहार]], [[मालवा]], जाजनगर ([[उड़ीसा]]), द्वारसमुद्र आदि। [[कश्मीर]] एवं बलूचिस्तान दिल्ली सल्तनत में शामिल नहीं थे। दिल्ली सल्तनत की सीमा का सर्वाधिक विस्तार इसी के शासनकाल में हुआ था। परन्तु इसकी क्रूर नीति के कारण राज्य में विद्रोह आरम्भ हो गया। जिसके फलस्वरूप दक्षिण में नए स्वतंत्र राज्य की स्थापना हुई और ये क्षेत्र दिल्ली सल्तनत से अलग हो गए। [[बंगाल]] भी स्वतंत्र हो गया। राज्यारोहण के बाद मुहम्मद तुग़लक़ ने कुछ नवीन योजनाओं का निर्माण कर उन्हें क्रियान्वित करने का प्रयत्न किया। जैसे -<br />
1332 ई. में उसने फ़ारस पर आक्रमण करने के लिए विशाल सेना का संग्रह किया, जिस पर अत्यधिक धन व्यय हुआ। इसके बाद यह योजना त्याग दी गई। उपरान्त उसने कूर्माचल अथवा कुमायूँ ( न कि चीन जैसा फ़रिश्ता का कथन है) को जीतने के लिए सेना भेजी, यद्यपि इस अभियान में वह कुछ पर्वतीय राजाओं का दमन करने में अवश्य सफल हुआ, परन्तु इसमें धन जन की अत्यधिक हानि हुई। आर्थिक कठिनाइयों के कारण सुल्तान को करों की दरें, विशेषकर दोआब के भू-भाग में अत्यधिक बढ़ा देनी पड़ी थीं। जब लोग कर अदा नहीं कर पाते तो उन्हें अन्य पशुओं की भाँति खदेड़-खदेड़ कर मारा जाता था। साम्राज्य के कई भागों में दुर्भिक्ष फैल गया और सुल्तान के अत्याचार और भी बढ़ गये। फलस्वरूप 1334-35 में मअबर में विद्रोह हुआ जो बाद में दक्षिण के अन्य भू-भागों, उत्तरी [[भारत]], [[पश्चिम बंगाल|बंगाल]], [[गुजरात]] और [[सिंध प्रांत|सिंध]] में भी फैल गया। 1351 ई. में जब सुल्तान सिंध में विद्रोह का दमन करने में व्यस्त था तभी विषमज्वर के कारण उसकी मृत्यु हो गयी।
# दोआब क्षेत्र में कर वृद्धि (1326-27 ई.)
# राजधानी परिवर्तन (1326-27 ई.)
# सांकेतिक मुद्रा का प्रचलन (1329-30 ई.)
# खुरासन एवं काराचिल का अभियान आदि।
==दोआब क्षेत्र में कर वृद्धि==
'''अपनी प्रथम योजना के द्वारा''' मुहम्मद तुग़लक़ ने दोआब के ऊपजाऊ प्रदेश में कर की वृद्धि कर दी (संभवतः 50 प्रतिशत), परन्तु उसी वर्ष दोआब में भयंकर अकाल पड़ गया, जिससे पैदावार प्रभावित हुई। तुग़लक़ के अधिकारियों द्वारा ज़बरन कर वसूलने से उस क्षेत्र में विद्रोह हो गया, जिससे तुग़लक़ की यह योजना असफल रही। मुहम्मद तुग़लक़ ने [[कृषि]] के विकास के लिए ‘अमीर-ए-कोही’ नामक एक नवीन विभाग की स्थापना की। सरकारी कर्मचारियों के भ्रष्टाचार, किसानों की उदासीनता, भूमि का अच्छा न होना इत्यादि कारणों से कृषि उन्नति सम्बन्धी अपनी योजना को तीन वर्ष पश्चात् समाप्त कर दिया। मुहम्मद बिन तुग़लक़ ने किसानों को बहुत कम ब्याज पर ऋण (सोनथर) उपलब्ध कराया।
==राजधानी परिवर्तन==
'''तुग़लक़ ने अपनी दूसरी योजना के अन्तर्गत''' राजधानी को [[दिल्ली]] से [[देवगिरि]] स्थानान्तरित किया। देवगिरि को “कुव्वतुल इस्लाम” भी कहा गया। सुल्तान [[कुतुबुद्दीन मुबारक ख़िलजी]] ने देवगिरि का नाम 'कुतुबाबाद' रखा था और मुहम्मद बिन तुग़लक़ ने इसका नाम बदलकर [[दौलताबाद]] कर दिया। सुल्तान की इस योजना के लिए सर्वाधिक आलोचना की गई। मुहम्मद तुग़लक़ द्वारा राजधानी परिवर्तन के कारणों पर इतिहासकारों में बड़ा विवाद है, फिर भी निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि, देवगिरि का [[दिल्ली सल्तनत]] के मध्य स्थित होना, [[मंगोल]] आक्रमणकारियों के भय से सुरक्षित रहना, दक्षिण-भारत की सम्पन्नता की ओर खिंचाव आदि ऐसे कारण थे, जिनके कारण सुल्तान ने राजधानी परिवर्तित करने की बात सोची। मुहम्मद तुग़लक़ की यह योजना भी पूर्णतः असफल रही और उसने 1355 ई. में दौलताबाद से लोगों को दिल्ली वापस आने की अनुमति दे दी। राजधानी परिवर्तन के परिणामस्वरूप दक्षिण में मुस्लिम संस्कृति का विकास हुआ, जिसने अंततः बहमनी साम्राज्य के उदय का मार्ग खोला।
==सांकेतिक मुद्रा का प्रचलन===
'''तीसरी योजना के अन्तर्गत मुहम्मद तुग़लक़ ने''' सांकेतिक व प्रतीकात्मक सिक्कों का प्रचलन करवाया। सिक्के संबंधी विविध प्रयोगों के कारण ही एडवर्ड टामस ने उसे ‘धनवानों का राजकुमार’ कहा है। मुहम्मद तुग़लक़ ने दोकानी नामक सिक्के का प्रचलन करवाया। बरनी के अनुसार सम्भवतः सुल्तान ने राजकोष की रिक्तता के कारण एवं अपनी साम्राज्य विस्तार की नीति को सफल बनाने हेतु सांकेतिक मुद्रा का प्रचलन करवाया। सांकेतिक मुद्रा के अन्तर्गत सुल्तान ने संभवतः पीतल (फ़रिश्ता के अनुसार) और [[तांबा]] (बरनी के अनुसार) धातुओं के सिक्के चलाये, जिसका मूल्य [[चांदी]] के रुपये टका के बराबर होता था। सिक्का ढालने पर राज्य का नियंत्रण नहीं रहने से अनेक जाली टकसाल बन गये। लगान जाली सिक्के से दिया जाने लगा, जिससे अर्थव्यवसथा ठप्प हो गई। सांकेतिक मुद्रा चलाने की प्रेरणा [[चीन]] तथा ईरान से मिली। वहाँ के शासकों ने इन योजनाओं को सफलतापूर्वक चलाया, जबकि मुहम्मद तुग़लक़ का प्रयोग विफल रहा। सुल्तान को अपनी इस योजना की असफलता पर भयानक आर्थिक क्षति का सामना करना पड़ा।
==खुरासान एवं कराचिल अभियान==
'''चौथी योजना के अन्तर्गत मुहम्मद तुग़लक़ के''' खुरासान एवं कराचिल विजय अभियान का उल्लेख किया जाता है। खुरासन को जीतने के लिए मुहम्मद तुग़लक़ ने 3,70,000 सैनिकों की विशाल सेना को एक वर्ष का अग्रिम वेतन दे दिया, परन्तु राजनैतिक परिवर्तन के कारण दोनों देशों के मध्य समझौता हो गया, जिससे सुल्तान की यह योजना असफल रही और उसे आर्थिक रूप से हानि उठानी पड़ी। कराचित अभियान के अन्तर्गत सुल्तान ने खुसरों मलिक के नेतृत्व में एक विशाल सेना को पहाड़ी राज्यों को जीतने के लिए भेजा। उसकी पूरी सेना जंगली रास्तों में भटक गई, इब्नबतूता के अनुसार अन्ततः केवल तीन अधिकारी ही बचकर वापस आ सके। इस प्रकार मुहम्मद तुग़लक़ की यह योजना भी असफल रही। सम्भवतः 1328-29 ई. के मध्य मंगोल आक्रमणकारी तरमाशरीन चगताई ने एक विशाल सेना के साथ भारत पर आक्रमण कर मुल्तान, लाहौर से लेकर दिल्ली तक के प्रदेशों को रौंद डाला। ऐसा माना जाता है कि सुल्तान मुहम्मद तुग़लक़ ने मंगोल नेतो को घूस देकर वापस कर दिया था। इस नीति के कारण सुल्तान को आलोचना का शिकार बनना पड़ा। इसके बाद फिर कभी मुहम्मद तुग़लक़ के समय में भारत पर मंगोल आक्रमण नहीं हुआ। अपनी महत्वाकांक्षी असफल योजनाओं के कारण मुहम्मद तुग़लक़ को ‘असफलताओं का बादशाह’ कहा जाता है।
 
 
 
 
 
 
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13:45, 23 फ़रवरी 2011 का अवतरण

ग़यासुद्दीन तुग़लक़ की मृत्यु के बाद उसका पुत्र 'जूना ख़ाँ', मुहम्मद बिन तुग़लक़ (1325-1351 ई.) के नाम से दिल्ली की गद्दी पर बैठा। इसका मूल नाम 'उलूग ख़ाँ' था। राजामुंदरी के एक अभिलेख में मुहम्मद तुग़लक़ (जौना या जूना ख़ाँ) को दुनिया का ख़ान कहा गया है। सम्भवतः मध्यकालीन सभी सुल्तानों में मुहम्मद तुग़लक़ सर्वाधिक शिक्षित, विद्वान एवं योग्य व्यक्ति था। अपनी सनक भरी योजनाओं, क्रूर-कृत्यों एवं दूसरे के सुख-दुख के प्रति उपेक्षा का भाव रखने के कारण इसे 'स्वप्नशील', 'पागल' एवं 'रक्त-पिपासु' कहा गया है। बरनी, सरहिंदी , निज़ामुद्दीन, बदायूंनी एवं फ़रिश्ता जैसे इतिहासकारों ने सुल्तान को अधर्मी घोषित किया गया है।

पद व्यवस्था

सिंहासन पर बैठने के बाद तुग़लक़ ने अमीरों एवं सरदारों को विभिन्न उपाधियाँ एवं पद प्रदान किया। उसने तातार ख़ाँ को 'बहराम ख़ाँ' की उपाधि, मलिक क़बूल को 'इमाद-उल-मुल्क' की उपाधि एवं 'वज़ीर-ए-मुमालिक' का पद दिया था, पर कालान्तर में उसे 'ख़ानेजहाँ' की उपाधि के साथ गुजरात का हाक़िम बनाया गया। उसने मलिक अरूयाज को ख्वाजा जहान की उपाधि के साथ ‘शहना-ए-इमारत’ का पद, मौलाना गयासुद्दीन को (सुल्तान का अध्यापक) 'कुतुलुग ख़ाँ' की उपाधि के साथ 'वकील-ए-दर' की पदवी, अपने चचेरे भाई फ़िरोज शाह तुग़लक़ को 'नायब बारबक' का पद प्रदान किया था।

गुणवान व्यक्ति

मुहम्मद बिन तुग़लक़ दिल्ली के सभी सुल्तानों में सर्वाधिक कुशाग्र, बुद्धि सम्पन्न, धर्म-निरेपक्ष, कला-प्रेमी एवं अनुभवी सेनापति था। वह अरबी भाषा एवं फ़ारसी भाषा का विद्धान तथा खगोलशास्त्र, दर्शन, गणित, चिकित्सा, विज्ञान, तर्कशास्त्र आदि में पारंगत था। अलाउद्दीन ख़िलजी की भाँति अपने शासन काल के प्रारम्भ में उसने, न तो ख़लीफ़ा से अपने पद की स्वीकृति ली और न उलेमा वर्ग का सहयोग लिया, यद्यपि बाद मे ऐसा करना पड़ा। उसने न्याय विभाग पर उलेमा वर्ग का एकाधिपत्य समाप्त किया। क़ाज़ी के जिस फैसले से वह संतुष्ट नहीं होता था, उसे बदल देता था। सर्वप्रथम मुहम्मद तुग़लक़ ने ही बिना किसी भेदभाव के योग्यता के आधार पर पदों का आवंटन किया। नस्ल और वर्ग-विभेद को समाप्त करके योग्यता के आधार पर अधिकारियों को नियुक्त करने की नीति अपनायी। वस्तुत: यह उस शासक का दुर्भाग्य था कि, उसकी योजनाएं सफलतापूर्वक क्रियान्वित नहीं हुई। जिसके कारण यह इतिहासकारों की आलोचना का पात्र बना।

दिल्ली सल्तनत

मुहम्मद तुग़लक़ के सिंहासन पर बैठते समय दिल्ली सल्तनत कुल 23 प्रांतों में बँटा थी, जिनमें मुख्य थे - दिल्ली, देवगिरि, लाहौर, मुल्तान, सरमुती, गुजरात, अवध, कन्नौज, लखनौती, बिहार, मालवा, जाजनगर (उड़ीसा), द्वारसमुद्र आदि। कश्मीर एवं बलूचिस्तान दिल्ली सल्तनत में शामिल नहीं थे। दिल्ली सल्तनत की सीमा का सर्वाधिक विस्तार इसी के शासनकाल में हुआ था। परन्तु इसकी क्रूर नीति के कारण राज्य में विद्रोह आरम्भ हो गया। जिसके फलस्वरूप दक्षिण में नए स्वतंत्र राज्य की स्थापना हुई और ये क्षेत्र दिल्ली सल्तनत से अलग हो गए। बंगाल भी स्वतंत्र हो गया। राज्यारोहण के बाद मुहम्मद तुग़लक़ ने कुछ नवीन योजनाओं का निर्माण कर उन्हें क्रियान्वित करने का प्रयत्न किया। जैसे -

  1. दोआब क्षेत्र में कर वृद्धि (1326-27 ई.)
  2. राजधानी परिवर्तन (1326-27 ई.)
  3. सांकेतिक मुद्रा का प्रचलन (1329-30 ई.)
  4. खुरासन एवं काराचिल का अभियान आदि।

दोआब क्षेत्र में कर वृद्धि

अपनी प्रथम योजना के द्वारा मुहम्मद तुग़लक़ ने दोआब के ऊपजाऊ प्रदेश में कर की वृद्धि कर दी (संभवतः 50 प्रतिशत), परन्तु उसी वर्ष दोआब में भयंकर अकाल पड़ गया, जिससे पैदावार प्रभावित हुई। तुग़लक़ के अधिकारियों द्वारा ज़बरन कर वसूलने से उस क्षेत्र में विद्रोह हो गया, जिससे तुग़लक़ की यह योजना असफल रही। मुहम्मद तुग़लक़ ने कृषि के विकास के लिए ‘अमीर-ए-कोही’ नामक एक नवीन विभाग की स्थापना की। सरकारी कर्मचारियों के भ्रष्टाचार, किसानों की उदासीनता, भूमि का अच्छा न होना इत्यादि कारणों से कृषि उन्नति सम्बन्धी अपनी योजना को तीन वर्ष पश्चात् समाप्त कर दिया। मुहम्मद बिन तुग़लक़ ने किसानों को बहुत कम ब्याज पर ऋण (सोनथर) उपलब्ध कराया।

राजधानी परिवर्तन

तुग़लक़ ने अपनी दूसरी योजना के अन्तर्गत राजधानी को दिल्ली से देवगिरि स्थानान्तरित किया। देवगिरि को “कुव्वतुल इस्लाम” भी कहा गया। सुल्तान कुतुबुद्दीन मुबारक ख़िलजी ने देवगिरि का नाम 'कुतुबाबाद' रखा था और मुहम्मद बिन तुग़लक़ ने इसका नाम बदलकर दौलताबाद कर दिया। सुल्तान की इस योजना के लिए सर्वाधिक आलोचना की गई। मुहम्मद तुग़लक़ द्वारा राजधानी परिवर्तन के कारणों पर इतिहासकारों में बड़ा विवाद है, फिर भी निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि, देवगिरि का दिल्ली सल्तनत के मध्य स्थित होना, मंगोल आक्रमणकारियों के भय से सुरक्षित रहना, दक्षिण-भारत की सम्पन्नता की ओर खिंचाव आदि ऐसे कारण थे, जिनके कारण सुल्तान ने राजधानी परिवर्तित करने की बात सोची। मुहम्मद तुग़लक़ की यह योजना भी पूर्णतः असफल रही और उसने 1355 ई. में दौलताबाद से लोगों को दिल्ली वापस आने की अनुमति दे दी। राजधानी परिवर्तन के परिणामस्वरूप दक्षिण में मुस्लिम संस्कृति का विकास हुआ, जिसने अंततः बहमनी साम्राज्य के उदय का मार्ग खोला।

सांकेतिक मुद्रा का प्रचलन=

तीसरी योजना के अन्तर्गत मुहम्मद तुग़लक़ ने सांकेतिक व प्रतीकात्मक सिक्कों का प्रचलन करवाया। सिक्के संबंधी विविध प्रयोगों के कारण ही एडवर्ड टामस ने उसे ‘धनवानों का राजकुमार’ कहा है। मुहम्मद तुग़लक़ ने दोकानी नामक सिक्के का प्रचलन करवाया। बरनी के अनुसार सम्भवतः सुल्तान ने राजकोष की रिक्तता के कारण एवं अपनी साम्राज्य विस्तार की नीति को सफल बनाने हेतु सांकेतिक मुद्रा का प्रचलन करवाया। सांकेतिक मुद्रा के अन्तर्गत सुल्तान ने संभवतः पीतल (फ़रिश्ता के अनुसार) और तांबा (बरनी के अनुसार) धातुओं के सिक्के चलाये, जिसका मूल्य चांदी के रुपये टका के बराबर होता था। सिक्का ढालने पर राज्य का नियंत्रण नहीं रहने से अनेक जाली टकसाल बन गये। लगान जाली सिक्के से दिया जाने लगा, जिससे अर्थव्यवसथा ठप्प हो गई। सांकेतिक मुद्रा चलाने की प्रेरणा चीन तथा ईरान से मिली। वहाँ के शासकों ने इन योजनाओं को सफलतापूर्वक चलाया, जबकि मुहम्मद तुग़लक़ का प्रयोग विफल रहा। सुल्तान को अपनी इस योजना की असफलता पर भयानक आर्थिक क्षति का सामना करना पड़ा।

खुरासान एवं कराचिल अभियान

चौथी योजना के अन्तर्गत मुहम्मद तुग़लक़ के खुरासान एवं कराचिल विजय अभियान का उल्लेख किया जाता है। खुरासन को जीतने के लिए मुहम्मद तुग़लक़ ने 3,70,000 सैनिकों की विशाल सेना को एक वर्ष का अग्रिम वेतन दे दिया, परन्तु राजनैतिक परिवर्तन के कारण दोनों देशों के मध्य समझौता हो गया, जिससे सुल्तान की यह योजना असफल रही और उसे आर्थिक रूप से हानि उठानी पड़ी। कराचित अभियान के अन्तर्गत सुल्तान ने खुसरों मलिक के नेतृत्व में एक विशाल सेना को पहाड़ी राज्यों को जीतने के लिए भेजा। उसकी पूरी सेना जंगली रास्तों में भटक गई, इब्नबतूता के अनुसार अन्ततः केवल तीन अधिकारी ही बचकर वापस आ सके। इस प्रकार मुहम्मद तुग़लक़ की यह योजना भी असफल रही। सम्भवतः 1328-29 ई. के मध्य मंगोल आक्रमणकारी तरमाशरीन चगताई ने एक विशाल सेना के साथ भारत पर आक्रमण कर मुल्तान, लाहौर से लेकर दिल्ली तक के प्रदेशों को रौंद डाला। ऐसा माना जाता है कि सुल्तान मुहम्मद तुग़लक़ ने मंगोल नेतो को घूस देकर वापस कर दिया था। इस नीति के कारण सुल्तान को आलोचना का शिकार बनना पड़ा। इसके बाद फिर कभी मुहम्मद तुग़लक़ के समय में भारत पर मंगोल आक्रमण नहीं हुआ। अपनी महत्वाकांक्षी असफल योजनाओं के कारण मुहम्मद तुग़लक़ को ‘असफलताओं का बादशाह’ कहा जाता है।





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