"जहाँगीर": अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
No edit summary
No edit summary
पंक्ति 45: पंक्ति 45:
==राज्याभिषेक==
==राज्याभिषेक==
'''1599 ई. तक सलीम अपनी महत्वाकांक्षा के कारण''' [[अकबर]] के विरुद्ध विद्रोह में संलग्न रहा। 21, अक्टूबर 1605 ई. को अकबर ने सलीम को अपनी पगड़ी एवं कटार से सुशोभित कर उत्तराधिकारी घोषित किया। अकबर की मृत्यु के आठवें दिन 3 नवम्बर, 1605 ई. को सलीम का राज्याभिषेक ‘नुरुद्दीन मुहम्मद जहाँगीर बादशाह ग़ाज़ी’ की उपाधि से [[आगरा]] के क़िले में सम्पन्न हुआ।
'''1599 ई. तक सलीम अपनी महत्वाकांक्षा के कारण''' [[अकबर]] के विरुद्ध विद्रोह में संलग्न रहा। 21, अक्टूबर 1605 ई. को अकबर ने सलीम को अपनी पगड़ी एवं कटार से सुशोभित कर उत्तराधिकारी घोषित किया। अकबर की मृत्यु के आठवें दिन 3 नवम्बर, 1605 ई. को सलीम का राज्याभिषेक ‘नुरुद्दीन मुहम्मद जहाँगीर बादशाह ग़ाज़ी’ की उपाधि से [[आगरा]] के क़िले में सम्पन्न हुआ।
==उदार व्यक्तित्व का शासक==
==व्यक्तित्व एवं अभिरूचि==
'''जहाँगीर अपने पिता अकबर की भाँति''' उदार प्रवृति का शासक था। बादशाह बनने के बाद जहाँगीर ने ‘न्याय की जंजीर’ के नाम से प्रसिद्ध सोने की जंजीर को आगरा क़िले के शाहबुर्ज एवं [[यमुना नदी]] के तट पर स्थित पत्थर के खम्बे में लगवाया। लोक कल्याण के कार्यों से सम्बन्धित 12 आदेशों की घोषणा जहाँगीर ने करवायी थी। उसके ये आदेश निम्नलिखित थे-
'''सम्राट जहाँगीर का व्यक्तित्व बड़ा आकर्षक था'''; किंतु उसका चरित्र बुरी−भली आदतों का अद्भुत मिश्रण था। अपने बचपन में कुसंग के कारण वह अनेक बुराईयों के वशीभूत हो गया था। उनमें कामुकता और मदिरा−पान विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। गद्दी पर बैठते ही उसने अपनी अनेक बुरी आदतों को छोड़कर अपने को बहुत कुछ सुधार लिया था; किंतु मदिरा−पान को वह अंत समय तक भी नहीं छोड़ सका था। अतिशय मद्य−सेवन के कारण उसके चरित्र की अनेक अच्छाईयाँ दब गई थीं। मदिरा−पान के संबंध में उसने स्वयं अपने आत्मचरित में लिखा है−'हमने सोलह वर्ष की आयु से मदिरा पीना आरंभ कर दिया था। प्रतिदिन बीस प्याला तथा कभी−कभी इससे भी अधिक पीते थे। इस कारण हमारी ऐसी अवस्था हो गई कि, यदि एक घड़ी भी न पीते तो हाथ काँपने लगते तथा बैठने की शक्ति नहीं रह जाती थी। हमने निरूपाय होकर इसे कम करना आरंभ कर दिया और छह महीने के समय में बीस प्याले से पाँच प्याले तक पहुँचा दिया।'<br />
जहाँगीर साहित्यप्रेमी था, जो उसको पैतृक देन थी। यद्यपि उसने अकबर की तरह उसके संरक्षण और प्रोत्साहन में विशेष योग नहीं दिया था, तथापि उसका ज्ञान उसे अपने पिता से अधिक था। वह [[अरबी भाषा|अरबी]], [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] और [[ब्रजभाषा]]−[[हिन्दी]] का ज्ञाता तथा फ़ारसी का अच्छा लेखक था। उसकी रचना 'तुज़क जहाँगीर' (जहाँगीर का आत्म चरित) उत्कृष्ट संस्मरणात्मक कृति है।
==उदार शासक==
'''जहाँगीर अपने पिता अकबर की भाँति''' उदार प्रवृति का शासक था। बादशाह बनने के बाद जहाँगीर ने ‘न्याय की जंजीर’ के नाम से प्रसिद्ध सोने की जंजीर को आगरा क़िले के शाहबुर्ज एवं [[यमुना नदी]] के तट पर स्थित पत्थर के खम्बे में लगवाया। लोक कल्याण के कार्यों से सम्बन्धित 12 आदेशों की घोषणा जहाँगीर ने करवायी थी। उसके ये आदेश निम्नलिखित थे-[[चित्र:Jahangir-Tomb-Lahore.jpg|जहाँगीर का मक़बरा, [[लाहौर]], [[पाकिस्तान]]<br /> Tomb Of Jahangir, Lahore, Pakistan|thumb]]
#‘तमगा’ नाम के कर की वसूली पर प्रतिबन्ध
#‘तमगा’ नाम के कर की वसूली पर प्रतिबन्ध
#सड़कों के किनारे सराय, मस्जिद एवं कुओं का निर्माण
#सड़कों के किनारे सराय, मस्जिद एवं कुओं का निर्माण
पंक्ति 69: पंक्ति 72:
==न्याय की जंजीर==
==न्याय की जंजीर==
'''जहाँगीर ने न्याय व्यवस्था ठीक रखने की ओर''' विशेष ध्यान दिया था। न्यायाधीशों के अतिरिक्त वह स्वयं भी जनता के दु:ख-दर्द को सुनता था। उसके लिए उसने अपने निवास−स्थान से लेकर नदी के किनारे तक एक जंजीर बंधवाई थी और उसमें बहुत सी घंटियाँ लटकवा दी थीं। यदि किसी को कुछ फरियाद करनी हो, तो वह उस जंजीर को पकड़ कर खींच सकता था, ताकि उसमें बंधी हुई घंटियों की आवाज़ सुनकर बादशाह उस फरियादी को अपने पास बुला सके। जहाँगीर के आत्मचरित से ज्ञात होता है, वह जंजीर सोने की थी और उसके बनवाने में बड़ी लागत आई थी। उसकी लंबाई 40 गज़ की थी और उसमें 60 घंटियाँ बँधी हुई थीं। उन सबका वज़न 10 मन के लगभग था। उससे जहाँ बादशाह के वैभव का प्रदर्शन होता था, वहाँ उसके न्याय का भी ढ़िंढोरा पिट गया था। किंतु इस बात का कोई उल्लेख नहीं मिलता है कि, किसी व्यक्ति ने उस जंजीर को हिलाकर बादशाह को कभी न्याय करने का कष्ट दिया हो। उस काल में मुस्लिम शासकों का ऐसा आंतक था कि, उस जंजीर में बँधी हुई घंटियों को बजा कर बादशाह के ऐशो−आराम में विध्न डालने का साहस करना बड़ा कठिन था।
'''जहाँगीर ने न्याय व्यवस्था ठीक रखने की ओर''' विशेष ध्यान दिया था। न्यायाधीशों के अतिरिक्त वह स्वयं भी जनता के दु:ख-दर्द को सुनता था। उसके लिए उसने अपने निवास−स्थान से लेकर नदी के किनारे तक एक जंजीर बंधवाई थी और उसमें बहुत सी घंटियाँ लटकवा दी थीं। यदि किसी को कुछ फरियाद करनी हो, तो वह उस जंजीर को पकड़ कर खींच सकता था, ताकि उसमें बंधी हुई घंटियों की आवाज़ सुनकर बादशाह उस फरियादी को अपने पास बुला सके। जहाँगीर के आत्मचरित से ज्ञात होता है, वह जंजीर सोने की थी और उसके बनवाने में बड़ी लागत आई थी। उसकी लंबाई 40 गज़ की थी और उसमें 60 घंटियाँ बँधी हुई थीं। उन सबका वज़न 10 मन के लगभग था। उससे जहाँ बादशाह के वैभव का प्रदर्शन होता था, वहाँ उसके न्याय का भी ढ़िंढोरा पिट गया था। किंतु इस बात का कोई उल्लेख नहीं मिलता है कि, किसी व्यक्ति ने उस जंजीर को हिलाकर बादशाह को कभी न्याय करने का कष्ट दिया हो। उस काल में मुस्लिम शासकों का ऐसा आंतक था कि, उस जंजीर में बँधी हुई घंटियों को बजा कर बादशाह के ऐशो−आराम में विध्न डालने का साहस करना बड़ा कठिन था।
==प्लेग का प्रकोप==
'''जहाँगीर के शासन−काल में प्लेग नामक''' भंयकर बीमारी का कई बार प्रकोप हुआ था। सन 1618 में जब वह बीमारी दोबारा [[आगरा]] में फैली थी, तब उससे बड़ी बर्बादी हुई थी। उसके संबंध में जहाँगीर ने लिखा है− 'आगरा में पुन: महामारी का प्रकोप हुआ, जिससे लगभग एक सौ मनुष्य प्रति दिन मर रहे हैं। बगल, पट्टे या गले में गिल्टियाँ उभर आती हैं और लोग मर जाते हैं। यह तीसरा वर्ष है कि, रोग जाड़े में ज़ोर पकड़ता है और गर्मी के आरंभ में समाप्त हो जाता है। इन तीन वर्षों में इसकी छूत आगरा के आस−पास के ग्रामों तथा बस्तियों में फैल गई है। ....जिस आदमी को यह रोग होता था, उसे ज़ोर का बुख़ार आता था और उसका [[रंग]] पीलापन लिये हुए स्याह हो जाता था, और दस्त होते थे तथा दूसरे दिन ही वह मर जाता था। जिस घर में एक आदमी बीमार होता, उससे सभी को उस रोग की छूत लग जाती और घर का घर बर्बाद हो जाता था।'
==शराबबंदी का निर्देश==
==शराबबंदी का निर्देश==
[[चित्र:Jahangir-Mahal-Orchha.jpg|thumb|250px|[[जहाँगीर महल]], [[ओरछा]]<br />Jahangir Mahal, Orchha]]   
[[चित्र:Jahangir-Mahal-Orchha.jpg|thumb|250px|[[जहाँगीर महल]], [[ओरछा]]<br />Jahangir Mahal, Orchha]]   
'''जहाँगीर को शराब पीने की लत थी''', जो अंतिम काल तक रही थी। वह उसके दुष्टपरिणाम को जानता था; किंतु उसे छोड़ने में असमर्थ था। किंतु जनता को शराब से बचाने के लिए उसने गद्दी पर बैठते ही उसे बनाने और बेचने पर पाबंदी लगा दी थी। उसने शासन सँभालते ही एक शाही फ़रमान निकाला था, जिसमें 12 आज्ञाओं को साम्राज्य भर में मानने का आदेश दिया गया था। इन आज्ञाओं में से एक शराबबंदी से संबंधित थी। उस प्रकार की आज्ञा होने पर भी वह स्वयं शराब पीता था और उसके प्राय: सभी सरदार सामंत, हाकिम और कर्मचारी भी शराब पीने के आदी थे। ऐसी स्थिति में शराबबंदी की शाही आज्ञा का कोई प्रभावकारी परिणाम निकला हो, इससे संदेह है।
'''जहाँगीर को शराब पीने की लत थी''', जो अंतिम काल तक रही थी। वह उसके दुष्टपरिणाम को जानता था; किंतु उसे छोड़ने में असमर्थ था। किंतु जनता को शराब से बचाने के लिए उसने गद्दी पर बैठते ही उसे बनाने और बेचने पर पाबंदी लगा दी थी। उसने शासन सँभालते ही एक शाही फ़रमान निकाला था, जिसमें 12 आज्ञाओं को साम्राज्य भर में मानने का आदेश दिया गया था। इन आज्ञाओं में से एक शराबबंदी से संबंधित थी। उस प्रकार की आज्ञा होने पर भी वह स्वयं शराब पीता था और उसके प्राय: सभी सरदार सामंत, हाकिम और कर्मचारी भी शराब पीने के आदी थे। ऐसी स्थिति में शराबबंदी की शाही आज्ञा का कोई प्रभावकारी परिणाम निकला हो, इससे संदेह है।
==प्लेग का प्रकोप==
'''जहाँगीर के शासन−काल में प्लेग नामक''' भंयकर बीमारी का कई बार प्रकोप हुआ था। सन 1618 में जब वह बीमारी दोबारा [[आगरा]] में फैली थी, तब उससे बड़ी बर्बादी हुई थी। उसके संबंध में जहाँगीर ने लिखा है− 'आगरा में पुन: महामारी का प्रकोप हुआ, जिससे लगभग एक सौ मनुष्य प्रति दिन मर रहे हैं। बगल, पट्टे या गले में गिल्टियाँ उभर आती हैं और लोग मर जाते हैं। यह तीसरा वर्ष है कि, रोग जाड़े में ज़ोर पकड़ता है और गर्मी के आरंभ में समाप्त हो जाता है। इन तीन वर्षों में इसकी छूत आगरा के आस−पास के ग्रामों तथा बस्तियों में फैल गई है। ....जिस आदमी को यह रोग होता था, उसे ज़ोर का बुख़ार आता था और उसका [[रंग]] पीलापन लिये हुए स्याह हो जाता था, और दस्त होते थे तथा दूसरे दिन ही वह मर जाता था। जिस घर में एक आदमी बीमार होता, उससे सभी को उस रोग की छूत लग जाती और घर का घर बर्बाद हो जाता था।'
==ब्रज की धार्मिक स्थिति==
==ब्रज की धार्मिक स्थिति==
'''ब्रज अपनी सुदृढ़ धार्मिक स्थिति के लिए परंपरा से''' प्रसिद्ध रहा है। उसकी यह स्थिति कुछ सीमा तक [[मुग़ल]] काल में थी। सम्राट अकबर के शासनकाल में [[ब्रज]] की धार्मिक स्थिति में नये युग का सूत्रपात हुआ था। मुग़ल साम्राज्य की राजधानी [[आगरा]] ब्रजमंडल के अंतर्गत थी; अत: ब्रज के धार्मिक स्थलों से सीधा संबंध था। आगरा की शाही रीति-नीति, शासन−व्यवस्था और उसकी उन्नति−अवनति का ब्रज पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा था। सम्राट अकबर के काल में ब्रज की जैसी धार्मिक स्थिति थी, वैसी जहाँगीर के शासन काल में नहीं रही थी; फिर भी वह प्राय: संतोषजनक थी। उसने अपने पिता अकबर की उदार धार्मिक नीति का अनुसरण किया, जिससे उसके शासन−काल में ब्रजमंडल में प्राय: शांति और सुव्यवस्था कायम रही। उसके 22 वर्षीय शासन काल में दो−तीन बार ही ब्रज में शांति−भंग हुई थी। उस समय धार्मिक स्थिति गड़बड़ा गई थी और भक्तजनों का कुछ उत्पीड़न भी हुआ था, किंतु शीघ्र ही उस पर काबू पा लिया गया था।
'''ब्रज अपनी सुदृढ़ धार्मिक स्थिति के लिए परंपरा से''' प्रसिद्ध रहा है। उसकी यह स्थिति कुछ सीमा तक [[मुग़ल]] काल में थी। सम्राट अकबर के शासनकाल में [[ब्रज]] की धार्मिक स्थिति में नये युग का सूत्रपात हुआ था। मुग़ल साम्राज्य की राजधानी [[आगरा]] ब्रजमंडल के अंतर्गत थी; अत: ब्रज के धार्मिक स्थलों से सीधा संबंध था। आगरा की शाही रीति-नीति, शासन−व्यवस्था और उसकी उन्नति−अवनति का ब्रज पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा था। सम्राट अकबर के काल में ब्रज की जैसी धार्मिक स्थिति थी, वैसी जहाँगीर के शासन काल में नहीं रही थी; फिर भी वह प्राय: संतोषजनक थी। उसने अपने पिता अकबर की उदार धार्मिक नीति का अनुसरण किया, जिससे उसके शासन−काल में ब्रजमंडल में प्राय: शांति और सुव्यवस्था कायम रही। उसके 22 वर्षीय शासन काल में दो−तीन बार ही ब्रज में शांति−भंग हुई थी। उस समय धार्मिक स्थिति गड़बड़ा गई थी और भक्तजनों का कुछ उत्पीड़न भी हुआ था, किंतु शीघ्र ही उस पर काबू पा लिया गया था।
==ब्रज के जंगलों में शिकार==
==ब्रज के जंगलों में शिकार==
'''उस समय में ब्रज में अनेक बीहड़ वन थे''', जिनमें शेर आदि हिंसक पशु भी पर्याप्त संख्या में रहते थे। मुस्लिम शासक इन वनों में शिकार करने को आते थे। जहाँगीर बादशाह ने भी नूरजहाँ के साथ यहाँ कई बार शिकार किया था। जहाँगीर अचूक निशानेबाज़ था। सन 1614 में जहाँगीर [[मथुरा]] में था, तब अहेरिया ने सूचना दी, कि पास के जंगल में एक शेर है, जो जनता को कष्ट दे रहा है । यह सुनकर बादशाह ने हाथियों द्वारा जंगल पर घेरा डाल दिया और ख़ुद नूरजहाँ के साथ शिकार को गया। उस समय जहाँगीर ने जीव−हिंसा न करने का व्रत लिया था, अत: स्वयं गोली न चला कर उसने नूरजहाँ को ही गोली चलाने की आज्ञा दी थी। नूरजहाँ ने [[हाथी]] पर से एक ही निशाने में शेर को मार दिया था। सन 1626 में जब जहाँगीर मथुरा में नाव में बैठ कर [[यमुना नदी]] की [[सैर]] कर रहा था, तब अहेरियों ने उसे सूचना दी, कि पास के जंगल में एक शेरनी अपने तीन बच्चों के साथ मौजूद है। वह नाव से उतर कर जंगल में गया और वहाँ उसने शेरनी को मार कर उसके बच्चों को जीवित पकड़वा लिया था। उस अवसर पर जहाँगीर ने अपने जन्मदिन का उत्सव भी मथुरा में ही मनाया था। उसका तब 56 वर्ष पूरे कर 57 वाँ वर्ष आरंभ हुआ था। उसके उपलक्ष में उसने तुलादान किया और बहुत-सा दानपुण्य किया था।
'''उस समय में ब्रज में अनेक बीहड़ वन थे''', जिनमें शेर आदि हिंसक पशु भी पर्याप्त संख्या में रहते थे। मुस्लिम शासक इन वनों में शिकार करने को आते थे। जहाँगीर बादशाह ने भी नूरजहाँ के साथ यहाँ कई बार शिकार किया था। जहाँगीर अचूक निशानेबाज़ था। सन 1614 में जहाँगीर [[मथुरा]] में था, तब अहेरिया ने सूचना दी, कि पास के जंगल में एक शेर है, जो जनता को कष्ट दे रहा है । यह सुनकर बादशाह ने हाथियों द्वारा जंगल पर घेरा डाल दिया और ख़ुद नूरजहाँ के साथ शिकार को गया। उस समय जहाँगीर ने जीव−हिंसा न करने का व्रत लिया था, अत: स्वयं गोली न चला कर उसने नूरजहाँ को ही गोली चलाने की आज्ञा दी थी। नूरजहाँ ने [[हाथी]] पर से एक ही निशाने में शेर को मार दिया था। सन 1626 में जब जहाँगीर मथुरा में नाव में बैठ कर [[यमुना नदी]] की [[सैर]] कर रहा था, तब अहेरियों ने उसे सूचना दी, कि पास के जंगल में एक शेरनी अपने तीन बच्चों के साथ मौजूद है। वह नाव से उतर कर जंगल में गया और वहाँ उसने शेरनी को मार कर उसके बच्चों को जीवित पकड़वा लिया था। उस अवसर पर जहाँगीर ने अपने जन्मदिन का उत्सव भी मथुरा में ही मनाया था। उसका तब 56 वर्ष पूरे कर 57 वाँ वर्ष आरंभ हुआ था। उसके उपलक्ष में उसने तुलादान किया और बहुत-सा दानपुण्य किया था।
==साम्राज्य विस्तार==
जहाँगीर ने उन्हीं प्रदेशों को जीतने पर विशेष बल दिया, जिसे [[अकबर]] के समय पूर्णतः विजित नहीं किया गया था।
====क़ंधार (1606-1607 ई.)====
जहाँगीर ने [[फ़ारस]] वासियों से ‘[[भारत]] का सिंहद्वार’ कहे जाने वाले तथा व्यापार एवं सैनिक दृष्टि से महत्वपूर्ण प्रांत [[कंधार]] को जीता। शाह अब्बास ने 1611 ई., 1615 ई. और 1620 ई. में बहुत सी भेंटे एवं खुशमदी पत्र जहाँगीर के दरबार में भेजा, किन्तु 1621 ई. में उसने कंधार पर आक्रमण कर उसे जीता। लेकिन 1622 ई. में शाहरहाँ के विद्रोह के कारण जहाँगीर के समय ही क़ंधार [[मुग़ल]] अधिकार से पुनः निकल गया।
====मेवाड़ से युद्ध एवं संधि====
अकबर के पूरे प्रयास के बाद भी [[मेवाड़]] पूर्णतः मुग़लों के अधिकार में नहीं आ सका। [[राणा प्रताप]] ने अपनी मृत्यु के पूर्व ही लगभग 1597 ई. तक अकबर के क़ब्ज़े से अधिकांश मेवाड़ के क्षेत्रों पर पुनः क़ब्ज़ा कर लिया था। राणा प्रताप की मृत्यु के बाद जहाँगीर मुग़ल सिंहासन पर बैठा। जहाँगीर ने अपने शासन काल के प्रथम वर्ष 1605 ई. में मेवाड़ को जीतने के लिए अपने पुत्र शाहजादा ख़ुर्रम (शाहजहाँ) तथा परवेज के नेतृत्व में लगभग 20,000 अश्वारोहियों की सेना को भेजा। सामरिक सलाह के लिए आसफ़ ख़ाँ एवं जफ़र बेग को परवेज के साथ भेजा गया। राणा अमरसिंह एवं परवेज की सेनाओं के मध्य ‘बेबार के दर्रे’ में संघर्ष हुआ, किन्तु संघर्ष को कोई परिणाम नहीं निकल सका। ख़ुसरों के विद्रोह के कारण परवेज को वापस बुला लिया गया था। 1608 ई. में महावत ख़ाँ के नेतृत्व में एक बड़ी मुग़ल सेना, जिसमें लगभग 12000 घुड़सवार सैनिक थे, को भेजा गया। महावत ख़ाँ ने राणा अमरसिंह को समीप की पहाडि़यों में छिपने के लिए मजबूर किया।
1609 ई. में महावत ख़ाँ के स्थान पर अब्दुल्ला ख़ाँ को मुग़ल सेना का नेतृत्व करने के लिए भेजा गया। उसने 1611 ई. में ‘रनपुर के दर्रे’ में राजकुमार ‘कर्ण’ को परास्त किया, परन्तु ‘रणपुरा’ के संघर्ष में अब्दुल्ला ख़ाँ को पराजय का सामना करना पड़ा। बसु के बाद मिर्ज़ा अजीज कोका को भेजा गया, खुद जहाँगीर अपने प्रभाव से शत्रु को आतंकित करने के लिए 1613 ई. में [[अजमेर]] गया। इस समय जहाँगीर ने मेवाड़ के आक्रमण का भार शाहज़ादा ख़ुर्रम (शाहजहाँ) को दिया। शाहज़ादा ख़ुर्रम के नेतृत्व मे मुग़ल सेना के दबाब के सामने मेवाड़ की सेना को समझौते के लिए बाध्य होना पड़ा। राणा के राजदूत शुभकरण एवं हरिदास का जहाँगीर के राजदरबार में यथोचित सत्कार किया गया। राणा अमरसिंह की शर्तों पर जहाँगीर सन्धि के लिए तेयार हो गया। 1615 ई. में सम्राट जहाँगीर एवं राण अमरसिंह के मध्य सन्धि सम्पन्न हुई।
====सन्धि के शर्तें====
राणा अमरसिंह एवं जहाँगीर के मध्य सन्धि की शर्तें इस प्रकार थीं-
#राणा अमरसिंह ने मुग़लों की अधीनता स्वीकार की।
#[[अकबर]] के शासन काल में जीते गये [[मेवाड़]] के क्षेत्रों एवं [[चित्तौड़]] के क़िले राणा अमरसिंह को वापस मिल गये। चित्तौड़ के क़िले को और मजबूत करने एवं उसकी मरम्मत पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा दिया गया।
#राणा अमरसिंह पर मुग़लों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करने के लिए दबाब नहीं डाला गया। राणा को अपने स्थान पर मुग़ल सेना में अपने पुत्र ‘कर्ण’ को भेजने की छूट मिली।
युवराज कर्ण को मुग़ल दरबार में पूर्ण सम्मान के साथ बादशाह के दाहिनी ओर स्थान मिला, साथ ही 5000 ‘जात’ का मनसब प्रदान किया गया। राणा अमरसिंह इस संधि से आहत थे, फलस्वरूप उन्होंने सिंहासन अपने पुत्र करन को सौंप दिया और एक एकान्त स्थान 'नौ चैकी' में अपना शेष जीवन व्यतीत किया।
इस तरह लम्बे अर्से से चलने वाला संघर्ष दोनों पक्षों की राजनीतिक सूझबूझ के कारण समाप्त हो गया, जिसमें जहाँगीर एवं उसके पुत्र ख़ुर्रम की महत्वपूर्ण भूमिका रही। सम्राट जहाँगीर ने सन्धि का पालन करते हुए मेवाड़ के प्रति पूर्ण उदार दृष्टिकोण के साथ उसके व्यक्गित मामलों में हस्तक्षेप नहीं किया। जहाँगीर के शास काल की यह महत्वपूर्ण उपलब्धि थी।
==दक्षिण की विजय==
'''जहाँगीर की दक्षिण विजय अकबर की अग्रगामी''' नीतियों का अनुसरण मात्र थी। जहाँगीर के सामने लक्ष्य था ‘[[ख़ानदेश]]’ एवं ‘[[अहमदनगर]]’ की पूर्ण विजय, जिसे अकबर की मृत्यु के कारण पूरा नहीं किया जा सका था तथा स्वतंत्र प्रदेश ‘[[बीजापुर]]’ एवं ‘[[गोलकुण्डा]]’ पर अधिकार करना।


==व्यक्तित्व एवं अभिरूचि==
[[चित्र:Jahangir-Tomb-Lahore.jpg|जहाँगीर का मक़बरा, [[लाहौर]], [[पाकिस्तान]]<br /> Tomb Of Jahangir, Lahore, Pakistan|thumb]]
सम्राट जहाँगीर का व्यक्तित्व बड़ा आकर्षक था; किंतु उसका चरित्र बुरी−भली आदतों का अद्भुत मिश्रण था। अपने बचपन में कुसंग के कारण वह अनेक बुराईयों के वशीभूत हो गया था, उनमें कामुकता और मदिरा−पान विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। गद्दी पर बैठते ही उसने अपनी अनेक बुरी आदतों को छोड़ कर अपने को बहुत कुछ सुधार लिया था; किंतु मदिरा−पान को वह अंत समय तक भी नहीं छोड़ सका था। अतिशय मद्य−सेवन के कारण उसके चरित्र की अनेक अच्छाईयाँ दब गई थीं। मदिरा−पान के संबंध में उसने स्वयं अपने आत्मचरित में लिखा है −'हमने सोलह वर्ष की आयु से मदिरा पीना आरंभ कर दिया था। प्रतिदिन बीस प्याला तथा कभी−कभी इससे भी अधिक पीते थे। इस कारण हमारी ऐसी अवस्था हो गई कि यदि एक घड़ी भी न पीते तो हाथ काँपने लगते तथा बैठने की शक्ति नहीं रह जाती थी। हमने निरूपाय होकर इसे कम करना आरंभ कर दिया और छह महीने का समय में बीस प्याले से पाँच प्याले तक पहुँचा दिया।' <br />
जहाँगीर साहित्यप्रेमी था, जो उसको पैतृक देन थी। यद्यपि उसने अकबर की तरह उसके संरक्षण और प्रोत्साहन में विशेष योग नहीं दिया था, तथापि उसका ज्ञान उसे अपने पिता से अधिक था। वह अरबी, फ़ारसी और ब्रजभाषा−हिन्दी का ज्ञाता तथा फ़ारसी का अच्छा लेखक था। उसकी रचना 'तुज़क जहाँगीर' (जहाँगीर का आत्म चरित) उत्कृष्ट संस्मरणात्मक कृति है।
==अंतिम काल और मृत्यु==  
==अंतिम काल और मृत्यु==  
जहाँगीर ने अपने उत्तर जीवन में शासन का समस्त भार नूरजहाँ को सौंप दिया था। वह स्वयं शराब पीकर निश्चिंत पड़े रहने में ही अपने जीवन की सार्थकता समझता था। शराब की बुरी लत और ऐश−आराम ने उसके शरीर को निकम्मा कर दिया था। वह कोई महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं कर सकता था। सौभाग्य से अकबर के काल में मुग़ल साम्राज्य की नींव इतनी सृदृढ़ रखी गई थी कि जहाँगीर के निकम्मेपन से उसमें कोई ख़ास कमी नहीं आई थी। अपने पिता द्वारा स्थापित नीति और परंपरा का पल्ला पकड़े रहने से जहाँगीर अपने शासन−काल के 22 वर्ष बिना ख़ास झगड़े−झंझटों के प्राय: सुख−चैन से पूरे कर गया था। नूरजहाँ अपने सौतेले पुत्र ख़ुर्रम को नहीं चाहती थी। इसलिए जहाँगीर के उत्तर काल में ख़ुर्रम ने एक−दो बार विद्रोह भी किया था; किंतु वह असफल रहा था। जहाँगीर की मृत्यु सन् 1627 में उस समय हुई जब वह [[कश्मीर]] से वापिस आ रहा था। रास्ते में लाहौर में उसका देहावसान हो गया। उसे वहाँ के रमणीक उद्यान में दफ़नाया गया था। बाद में वहाँ उसका भव्य मक़बरा बनाया गया। मृत्यु के समय उसकी आयु 58 वर्ष की थी। जहाँगीर के पश्चात उसका पुत्र ख़ुर्रम [[शाहजहाँ]] के नाम से मुग़ल सम्राट हुआ।   
जहाँगीर ने अपने उत्तर जीवन में शासन का समस्त भार नूरजहाँ को सौंप दिया था। वह स्वयं शराब पीकर निश्चिंत पड़े रहने में ही अपने जीवन की सार्थकता समझता था। शराब की बुरी लत और ऐश−आराम ने उसके शरीर को निकम्मा कर दिया था। वह कोई महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं कर सकता था। सौभाग्य से अकबर के काल में मुग़ल साम्राज्य की नींव इतनी सृदृढ़ रखी गई थी कि जहाँगीर के निकम्मेपन से उसमें कोई ख़ास कमी नहीं आई थी। अपने पिता द्वारा स्थापित नीति और परंपरा का पल्ला पकड़े रहने से जहाँगीर अपने शासन−काल के 22 वर्ष बिना ख़ास झगड़े−झंझटों के प्राय: सुख−चैन से पूरे कर गया था। नूरजहाँ अपने सौतेले पुत्र ख़ुर्रम को नहीं चाहती थी। इसलिए जहाँगीर के उत्तर काल में ख़ुर्रम ने एक−दो बार विद्रोह भी किया था; किंतु वह असफल रहा था। जहाँगीर की मृत्यु सन् 1627 में उस समय हुई जब वह [[कश्मीर]] से वापिस आ रहा था। रास्ते में लाहौर में उसका देहावसान हो गया। उसे वहाँ के रमणीक उद्यान में दफ़नाया गया था। बाद में वहाँ उसका भव्य मक़बरा बनाया गया। मृत्यु के समय उसकी आयु 58 वर्ष की थी। जहाँगीर के पश्चात उसका पुत्र ख़ुर्रम [[शाहजहाँ]] के नाम से मुग़ल सम्राट हुआ।   

10:28, 10 अप्रैल 2011 का अवतरण

जहाँगीर
पूरा नाम नूरुद्दीन सलीम जहाँगीर
अन्य नाम शेख़ू
जन्म 30 अगस्त, सन 1569
जन्म भूमि फ़तेहपुर सीकरी
मृत्यु तिथि 8 नवम्बर सन 1627 (उम्र 58 वर्ष)
मृत्यु स्थान लाहौर
पिता/माता अकबर, मरियम ज़मानी(हरका बाई)
पति/पत्नी नूरजहाँ, मानभवती, मानमती
संतान ख़ुसरो मिर्ज़ा, ख़ुर्रम (शाहजहाँ), परवेज़, शहरयार, जहाँदार, निसार बेगम, बहार बेगम बानू
उपाधि जहाँगीर
शासन मुख्यत: उत्तरी भारत
धार्मिक मान्यता सुन्नी मुस्लिम
राज्याभिषेक 24 अक्टूबर 1605 आगरा
राजधानी आगरा,दिल्ली
राजघराना मुग़ल
वंश तिमुरि वंश
शासन काल सन 15 अक्टूबर, 1605- 8 नवंबर, 1627
मक़बरा शहादरा लाहौर पाकिस्तान
संबंधित लेख मुग़ल काल
प्रसिद्धि जहाँगीर का न्याय
अन्य जानकारी सलीम और अनारकली की बेहद मशहूर और काल्पनिक प्रेम कहानी पर बनी फ़िल्म मुग़ल-ए-आज़म भारत की महान फ़िल्मों में गिनी जाती है।

(शासन काल सन 1605 से सन 1627)
नूरुद्दीन सलीम जहाँगीर का जन्म फ़तेहपुर सीकरी में स्थित ‘शेख़ सलीम चिश्ती’ की कुटिया में राजा भारमल की बेटी ‘मरियम ज़मानी’ के गर्भ से 30 अगस्त, 1569 ई. को हुआ था। अकबर सलीम को ‘शेख़ू बाबा’ कहा करता था। सलीम का मुख्य शिक्षक अब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना था। अपने आरंभिक जीवन में जहाँगीर शराबी और आवारा शाहज़ादे के रूप में बदनाम था। उसके पिता सम्राट अकबर ने उसकी बुरी आदतें छुड़ाने की बड़ी चेष्टा की, किंतु उसे सफलता नहीं मिली। इसीलिए समस्त सुखों के होते हुए भी वह अपने बिगड़े हुए बेटे के कारण जीवन-पर्यंत दुखी: रहा। अंतत: अकबर की मृत्यु के पश्चात जहाँगीर ही मुग़ल सम्राट बना था। उस समय उसकी आयु 36 वर्ष की थी। ऐसे बदनाम व्यक्ति के गद्दीनशीं होने से जनता में असंतोष एवं घबराहट थी। लोगों को आंशका होने लगी कि, अब सुख−शांति के दिन विदा हो गये और अशांति−अव्यवस्था एवं लूट−खसोट का ज़माना फिर आ गया। उस समय जनता में कितना भय और आतंक था, इसका विस्तृत वर्णन जैन कवि बनारसीदास ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ 'अर्थकथानक' में किया है। उसका कुछ अंश यहाँ प्रस्तुत है,−

"घर−घर, दर−दर दिये कपाट। हटवानी नहीं बैठे हाट।
भले वस्त्र अरू भूषण भले। ते सब गाढ़े धरती चले।
घर−घर सबन्हि विसाहे अस्त्र। लोगन पहिरे मोटे वस्त्र।।"

मनसब प्राप्ति एवं विवाह

सर्वप्रथम 1581 ई. में सलीम (जहाँगीर) को एक सैनिक टुकड़ी का मुखिया बनाकर काबुल पर आक्रमण के लिए भेजा गया। 1585 ई. में अकबर ने जहाँगीर को 12 हज़ार मनसबदार बनाया। 13 फ़रबरी, 1585 ई. को सलीम का विवाह आमेर के राजा भगवानदास की पुत्री ‘मानबाई’ से सम्पन्न हआ। मानबाई को जहाँगीर ने ‘शाह बेगम’ की उपाधि प्रदान की थी। मानबाई ने जहाँगीर की शराब की आदतों से दुखी होकर आत्महत्या कर ली। कालान्तर में जहाँगीर ने राजा उदयसिंह की पुत्री ‘जगत गोसाई’ या 'जोधाबाई' से विवाह किया था।

राज्याभिषेक

1599 ई. तक सलीम अपनी महत्वाकांक्षा के कारण अकबर के विरुद्ध विद्रोह में संलग्न रहा। 21, अक्टूबर 1605 ई. को अकबर ने सलीम को अपनी पगड़ी एवं कटार से सुशोभित कर उत्तराधिकारी घोषित किया। अकबर की मृत्यु के आठवें दिन 3 नवम्बर, 1605 ई. को सलीम का राज्याभिषेक ‘नुरुद्दीन मुहम्मद जहाँगीर बादशाह ग़ाज़ी’ की उपाधि से आगरा के क़िले में सम्पन्न हुआ।

व्यक्तित्व एवं अभिरूचि

सम्राट जहाँगीर का व्यक्तित्व बड़ा आकर्षक था; किंतु उसका चरित्र बुरी−भली आदतों का अद्भुत मिश्रण था। अपने बचपन में कुसंग के कारण वह अनेक बुराईयों के वशीभूत हो गया था। उनमें कामुकता और मदिरा−पान विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। गद्दी पर बैठते ही उसने अपनी अनेक बुरी आदतों को छोड़कर अपने को बहुत कुछ सुधार लिया था; किंतु मदिरा−पान को वह अंत समय तक भी नहीं छोड़ सका था। अतिशय मद्य−सेवन के कारण उसके चरित्र की अनेक अच्छाईयाँ दब गई थीं। मदिरा−पान के संबंध में उसने स्वयं अपने आत्मचरित में लिखा है−'हमने सोलह वर्ष की आयु से मदिरा पीना आरंभ कर दिया था। प्रतिदिन बीस प्याला तथा कभी−कभी इससे भी अधिक पीते थे। इस कारण हमारी ऐसी अवस्था हो गई कि, यदि एक घड़ी भी न पीते तो हाथ काँपने लगते तथा बैठने की शक्ति नहीं रह जाती थी। हमने निरूपाय होकर इसे कम करना आरंभ कर दिया और छह महीने के समय में बीस प्याले से पाँच प्याले तक पहुँचा दिया।'
जहाँगीर साहित्यप्रेमी था, जो उसको पैतृक देन थी। यद्यपि उसने अकबर की तरह उसके संरक्षण और प्रोत्साहन में विशेष योग नहीं दिया था, तथापि उसका ज्ञान उसे अपने पिता से अधिक था। वह अरबी, फ़ारसी और ब्रजभाषा−हिन्दी का ज्ञाता तथा फ़ारसी का अच्छा लेखक था। उसकी रचना 'तुज़क जहाँगीर' (जहाँगीर का आत्म चरित) उत्कृष्ट संस्मरणात्मक कृति है।

उदार शासक

जहाँगीर अपने पिता अकबर की भाँति उदार प्रवृति का शासक था। बादशाह बनने के बाद जहाँगीर ने ‘न्याय की जंजीर’ के नाम से प्रसिद्ध सोने की जंजीर को आगरा क़िले के शाहबुर्ज एवं यमुना नदी के तट पर स्थित पत्थर के खम्बे में लगवाया। लोक कल्याण के कार्यों से सम्बन्धित 12 आदेशों की घोषणा जहाँगीर ने करवायी थी। उसके ये आदेश निम्नलिखित थे-

जहाँगीर का मक़बरा, लाहौर, पाकिस्तान
Tomb Of Jahangir, Lahore, Pakistan
  1. ‘तमगा’ नाम के कर की वसूली पर प्रतिबन्ध
  2. सड़कों के किनारे सराय, मस्जिद एवं कुओं का निर्माण
  3. व्यापारियों के समान की तलाशी उनकी इजाजत के बिना नहीं
  4. किसी भी व्यक्ति के मरने पर उसकी सम्पत्ति उसके उत्तराधिकारी के अभाव में उस धन को सार्वजनिक निर्माण कार्य पर ख़र्च किया जाय
  5. शराब एवं अन्य मादक पदार्थों की बिक्री एवं निर्माण पर प्रतिबन्ध
  6. दण्डस्वरूप नाक एवं कान काटने की प्रथा समाप्त
  7. किसी भी व्यक्ति के घर पर अवैध क़ब्ज़ा करने लिए राज्य कर्मचारियों को मनाही
  8. किसानों की भूमि पर जबरन अधिकार करने पर रोक
  9. कोई भी जागीर सम्राट की आज्ञा के वगैर परिणय सूत्र में नहीं बन सकती थी
  10. ग़रीबों के लिए अस्पतान एवं इलाज के लिए डाक्टरों की व्यवस्था का आदेश
  11. सप्ताह के दो दिन गुरूवार (जहाँगीर के राज्याभिषक का दिन) एवं रविवार (अकबर का जन्म दिन) को पशुहत्या पर पूर्णतः प्रतिबन्ध था।
  12. अकबर के शासन काल के समय के सभी कर्मचारियों एवं ज़मींदारों को उनके पद पुनः दे दिये गये।

जहाँगीर ने अपने कुछ विश्वासपात्र लोगों को, जैसे अबुल फ़ज़ल के हत्यारे 'वीरसिंह बुन्देला' को तीन हज़ारी घुड़सवारों का सेनापति बनाया, नूरजहाँ के पिता ग़ियासबेग को दीवान बनाकर एतमाद्दौला की उपाधि प्रदान की, जमानबेग को महावत ख़ाँ की उपाधि प्रदान कर डेढ़ हज़ार का मनसब दिया, अबुल फ़ज़ल के पुत्र अब्दुर्रहीम को दो हज़ार का मनसब प्रदान किया। जहाँगीर ने अपने कुछ कृपापात्र, जैसे कुतुबुद्दीन कोका को बंगाल का गर्वनर एवं शरीफ़ ख़ाँ को प्रधानमंत्री पद प्रदान किया।

ख़ुसरो का विद्रोह

जहाँगीर का सबसे बड़ा पुत्र ख़ुसरो, जो 'मानबाई' से उत्पन्न हुआ था, रूपवान, गुणी और वीर था। अपने अनेक गुणों में वह अकबर के समान था, इसलिए बड़ा लोकप्रिय था। अकबर भी अपने उस पौत्र को बड़ा प्यार करता था। जहाँगीर के कुकृत्यों से जब अकबर बड़ा दुखी हो गया, तब अपने अंतिम काल में उसने ख़ुसरो को अपना उत्तराधिकारी बनाने का विचार किया था। फिर बाद में सोच-विचार करने पर अकबर ने जहाँगीर को ही अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। ख़ुसरो के मन में बादशाह बनने की लालसा पैदा हुई थी। अपने मामा मानसिंह एवं ससुर मिर्ज़ा अजीज कोका की सह पर अप्रैल, 1606 ई. में अपने पिता जहाँगीर के विरुद्ध उसने विद्रोह कर दिया। जहाँगीर ने ख़ुसरो को आगरा के क़िले में नज़रबंद रखा, परन्तु ख़ुसरो अकबर के मक़बरे की यात्रा के बहाने भाग निकला। लगभग 12000 सैनिकों के साथ ख़ुसरों एवं जहाँगीर की सेना का मुक़ाबला जालंधर के निकट ‘भैरावल’ के मैदान में हुआ। ख़ुसरों को पकड़ कर क़ैद में डाल दिया गया। सिक्खों के पाँचवें गुरू अर्जुनदेव को जहाँगीर ने फांसी दिलवा दी, क्योंकि उन्होंने विद्रोह के समय ख़ुसरो की सहायता की थी। कालान्तर में ख़ुसरो द्वारा जहाँगीर की हत्या का षड्यन्त्र रचने के कारण, उसे अन्धा करवा दिया गया। खुर्रम (शाहजहाँ) ने अपने दक्षिण अभियान के समय ख़ुसरो को अपने साथ ले जाकर 1621 ई. में उसकी हत्या करवा दी।

ग्रामीणों का विद्रोह

जहाँगीर के शासन−काल में एक बार ब्रज में यमुना पार के किसानों और ग्रामीणों ने विद्रोह करते हुए कर देना बंद कर दिया था। जहाँगीर ने ख़ुर्रम (शाहजहाँ) को उसे दबाने के लिए भेजा। विद्रोहियों ने बड़े साहस और दृढ़ता से युद्ध किया; किंतु शाही सेना से वे पराजित हो गये थे। उनमें से बहुत से मार दिये गये और स्त्रियों तथा बच्चों को क़ैद कर लिया गया। उस अवसर पर सेना ने ख़ूब लूट की थी, जिसमें उसे बहुत धन मिला था। उक्त घटना का उल्लेख स्वयं जहाँगीर ने अपने आत्म-चरित्र में किया है, किंतु उसके कारण पर प्रकाश नहीं डाला। संभव है, वह विद्रोह हुसैनबेग बख्शी की लूटमार के प्रतिरोध में किया गया हो।

प्रशासन

जहाँगीर ने अपनी बदनामी को दूर करने के लिए अपने विशाल साम्राज्य का प्रशासन अच्छा करने की ओर ध्यान दिया। उसने यथासंभव अपने पिता अकबर की शासन नीति का ही अनुसरण किया और पुरानी व्यवस्था को कायम रखा था। जिन व्यक्तियों ने उसके षड़यंत्र में सहायता की थी, उसने उन्हें मालामाल कर दिया; जो कर्मचारी जिन पदों पर अकबर के काल में थे, उन्हें उन्हीं पदों पर रखते हुए उनकी प्रतिष्ठा को यथावत बनाये रखा। कुछ अधिकारियों की उसने पदोन्नति भी कर दी थी। इस प्रकार के उदारतापूर्ण व्यवहार का उसके शासन पर बड़ा अनुकूल प्रभाव पडा।

न्याय की जंजीर

जहाँगीर ने न्याय व्यवस्था ठीक रखने की ओर विशेष ध्यान दिया था। न्यायाधीशों के अतिरिक्त वह स्वयं भी जनता के दु:ख-दर्द को सुनता था। उसके लिए उसने अपने निवास−स्थान से लेकर नदी के किनारे तक एक जंजीर बंधवाई थी और उसमें बहुत सी घंटियाँ लटकवा दी थीं। यदि किसी को कुछ फरियाद करनी हो, तो वह उस जंजीर को पकड़ कर खींच सकता था, ताकि उसमें बंधी हुई घंटियों की आवाज़ सुनकर बादशाह उस फरियादी को अपने पास बुला सके। जहाँगीर के आत्मचरित से ज्ञात होता है, वह जंजीर सोने की थी और उसके बनवाने में बड़ी लागत आई थी। उसकी लंबाई 40 गज़ की थी और उसमें 60 घंटियाँ बँधी हुई थीं। उन सबका वज़न 10 मन के लगभग था। उससे जहाँ बादशाह के वैभव का प्रदर्शन होता था, वहाँ उसके न्याय का भी ढ़िंढोरा पिट गया था। किंतु इस बात का कोई उल्लेख नहीं मिलता है कि, किसी व्यक्ति ने उस जंजीर को हिलाकर बादशाह को कभी न्याय करने का कष्ट दिया हो। उस काल में मुस्लिम शासकों का ऐसा आंतक था कि, उस जंजीर में बँधी हुई घंटियों को बजा कर बादशाह के ऐशो−आराम में विध्न डालने का साहस करना बड़ा कठिन था।

शराबबंदी का निर्देश

जहाँगीर महल, ओरछा
Jahangir Mahal, Orchha

जहाँगीर को शराब पीने की लत थी, जो अंतिम काल तक रही थी। वह उसके दुष्टपरिणाम को जानता था; किंतु उसे छोड़ने में असमर्थ था। किंतु जनता को शराब से बचाने के लिए उसने गद्दी पर बैठते ही उसे बनाने और बेचने पर पाबंदी लगा दी थी। उसने शासन सँभालते ही एक शाही फ़रमान निकाला था, जिसमें 12 आज्ञाओं को साम्राज्य भर में मानने का आदेश दिया गया था। इन आज्ञाओं में से एक शराबबंदी से संबंधित थी। उस प्रकार की आज्ञा होने पर भी वह स्वयं शराब पीता था और उसके प्राय: सभी सरदार सामंत, हाकिम और कर्मचारी भी शराब पीने के आदी थे। ऐसी स्थिति में शराबबंदी की शाही आज्ञा का कोई प्रभावकारी परिणाम निकला हो, इससे संदेह है।

प्लेग का प्रकोप

जहाँगीर के शासन−काल में प्लेग नामक भंयकर बीमारी का कई बार प्रकोप हुआ था। सन 1618 में जब वह बीमारी दोबारा आगरा में फैली थी, तब उससे बड़ी बर्बादी हुई थी। उसके संबंध में जहाँगीर ने लिखा है− 'आगरा में पुन: महामारी का प्रकोप हुआ, जिससे लगभग एक सौ मनुष्य प्रति दिन मर रहे हैं। बगल, पट्टे या गले में गिल्टियाँ उभर आती हैं और लोग मर जाते हैं। यह तीसरा वर्ष है कि, रोग जाड़े में ज़ोर पकड़ता है और गर्मी के आरंभ में समाप्त हो जाता है। इन तीन वर्षों में इसकी छूत आगरा के आस−पास के ग्रामों तथा बस्तियों में फैल गई है। ....जिस आदमी को यह रोग होता था, उसे ज़ोर का बुख़ार आता था और उसका रंग पीलापन लिये हुए स्याह हो जाता था, और दस्त होते थे तथा दूसरे दिन ही वह मर जाता था। जिस घर में एक आदमी बीमार होता, उससे सभी को उस रोग की छूत लग जाती और घर का घर बर्बाद हो जाता था।'

ब्रज की धार्मिक स्थिति

ब्रज अपनी सुदृढ़ धार्मिक स्थिति के लिए परंपरा से प्रसिद्ध रहा है। उसकी यह स्थिति कुछ सीमा तक मुग़ल काल में थी। सम्राट अकबर के शासनकाल में ब्रज की धार्मिक स्थिति में नये युग का सूत्रपात हुआ था। मुग़ल साम्राज्य की राजधानी आगरा ब्रजमंडल के अंतर्गत थी; अत: ब्रज के धार्मिक स्थलों से सीधा संबंध था। आगरा की शाही रीति-नीति, शासन−व्यवस्था और उसकी उन्नति−अवनति का ब्रज पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ा था। सम्राट अकबर के काल में ब्रज की जैसी धार्मिक स्थिति थी, वैसी जहाँगीर के शासन काल में नहीं रही थी; फिर भी वह प्राय: संतोषजनक थी। उसने अपने पिता अकबर की उदार धार्मिक नीति का अनुसरण किया, जिससे उसके शासन−काल में ब्रजमंडल में प्राय: शांति और सुव्यवस्था कायम रही। उसके 22 वर्षीय शासन काल में दो−तीन बार ही ब्रज में शांति−भंग हुई थी। उस समय धार्मिक स्थिति गड़बड़ा गई थी और भक्तजनों का कुछ उत्पीड़न भी हुआ था, किंतु शीघ्र ही उस पर काबू पा लिया गया था।

ब्रज के जंगलों में शिकार

उस समय में ब्रज में अनेक बीहड़ वन थे, जिनमें शेर आदि हिंसक पशु भी पर्याप्त संख्या में रहते थे। मुस्लिम शासक इन वनों में शिकार करने को आते थे। जहाँगीर बादशाह ने भी नूरजहाँ के साथ यहाँ कई बार शिकार किया था। जहाँगीर अचूक निशानेबाज़ था। सन 1614 में जहाँगीर मथुरा में था, तब अहेरिया ने सूचना दी, कि पास के जंगल में एक शेर है, जो जनता को कष्ट दे रहा है । यह सुनकर बादशाह ने हाथियों द्वारा जंगल पर घेरा डाल दिया और ख़ुद नूरजहाँ के साथ शिकार को गया। उस समय जहाँगीर ने जीव−हिंसा न करने का व्रत लिया था, अत: स्वयं गोली न चला कर उसने नूरजहाँ को ही गोली चलाने की आज्ञा दी थी। नूरजहाँ ने हाथी पर से एक ही निशाने में शेर को मार दिया था। सन 1626 में जब जहाँगीर मथुरा में नाव में बैठ कर यमुना नदी की सैर कर रहा था, तब अहेरियों ने उसे सूचना दी, कि पास के जंगल में एक शेरनी अपने तीन बच्चों के साथ मौजूद है। वह नाव से उतर कर जंगल में गया और वहाँ उसने शेरनी को मार कर उसके बच्चों को जीवित पकड़वा लिया था। उस अवसर पर जहाँगीर ने अपने जन्मदिन का उत्सव भी मथुरा में ही मनाया था। उसका तब 56 वर्ष पूरे कर 57 वाँ वर्ष आरंभ हुआ था। उसके उपलक्ष में उसने तुलादान किया और बहुत-सा दानपुण्य किया था।

साम्राज्य विस्तार

जहाँगीर ने उन्हीं प्रदेशों को जीतने पर विशेष बल दिया, जिसे अकबर के समय पूर्णतः विजित नहीं किया गया था।

क़ंधार (1606-1607 ई.)

जहाँगीर ने फ़ारस वासियों से ‘भारत का सिंहद्वार’ कहे जाने वाले तथा व्यापार एवं सैनिक दृष्टि से महत्वपूर्ण प्रांत कंधार को जीता। शाह अब्बास ने 1611 ई., 1615 ई. और 1620 ई. में बहुत सी भेंटे एवं खुशमदी पत्र जहाँगीर के दरबार में भेजा, किन्तु 1621 ई. में उसने कंधार पर आक्रमण कर उसे जीता। लेकिन 1622 ई. में शाहरहाँ के विद्रोह के कारण जहाँगीर के समय ही क़ंधार मुग़ल अधिकार से पुनः निकल गया।

मेवाड़ से युद्ध एवं संधि

अकबर के पूरे प्रयास के बाद भी मेवाड़ पूर्णतः मुग़लों के अधिकार में नहीं आ सका। राणा प्रताप ने अपनी मृत्यु के पूर्व ही लगभग 1597 ई. तक अकबर के क़ब्ज़े से अधिकांश मेवाड़ के क्षेत्रों पर पुनः क़ब्ज़ा कर लिया था। राणा प्रताप की मृत्यु के बाद जहाँगीर मुग़ल सिंहासन पर बैठा। जहाँगीर ने अपने शासन काल के प्रथम वर्ष 1605 ई. में मेवाड़ को जीतने के लिए अपने पुत्र शाहजादा ख़ुर्रम (शाहजहाँ) तथा परवेज के नेतृत्व में लगभग 20,000 अश्वारोहियों की सेना को भेजा। सामरिक सलाह के लिए आसफ़ ख़ाँ एवं जफ़र बेग को परवेज के साथ भेजा गया। राणा अमरसिंह एवं परवेज की सेनाओं के मध्य ‘बेबार के दर्रे’ में संघर्ष हुआ, किन्तु संघर्ष को कोई परिणाम नहीं निकल सका। ख़ुसरों के विद्रोह के कारण परवेज को वापस बुला लिया गया था। 1608 ई. में महावत ख़ाँ के नेतृत्व में एक बड़ी मुग़ल सेना, जिसमें लगभग 12000 घुड़सवार सैनिक थे, को भेजा गया। महावत ख़ाँ ने राणा अमरसिंह को समीप की पहाडि़यों में छिपने के लिए मजबूर किया।

1609 ई. में महावत ख़ाँ के स्थान पर अब्दुल्ला ख़ाँ को मुग़ल सेना का नेतृत्व करने के लिए भेजा गया। उसने 1611 ई. में ‘रनपुर के दर्रे’ में राजकुमार ‘कर्ण’ को परास्त किया, परन्तु ‘रणपुरा’ के संघर्ष में अब्दुल्ला ख़ाँ को पराजय का सामना करना पड़ा। बसु के बाद मिर्ज़ा अजीज कोका को भेजा गया, खुद जहाँगीर अपने प्रभाव से शत्रु को आतंकित करने के लिए 1613 ई. में अजमेर गया। इस समय जहाँगीर ने मेवाड़ के आक्रमण का भार शाहज़ादा ख़ुर्रम (शाहजहाँ) को दिया। शाहज़ादा ख़ुर्रम के नेतृत्व मे मुग़ल सेना के दबाब के सामने मेवाड़ की सेना को समझौते के लिए बाध्य होना पड़ा। राणा के राजदूत शुभकरण एवं हरिदास का जहाँगीर के राजदरबार में यथोचित सत्कार किया गया। राणा अमरसिंह की शर्तों पर जहाँगीर सन्धि के लिए तेयार हो गया। 1615 ई. में सम्राट जहाँगीर एवं राण अमरसिंह के मध्य सन्धि सम्पन्न हुई।

सन्धि के शर्तें

राणा अमरसिंह एवं जहाँगीर के मध्य सन्धि की शर्तें इस प्रकार थीं-

  1. राणा अमरसिंह ने मुग़लों की अधीनता स्वीकार की।
  2. अकबर के शासन काल में जीते गये मेवाड़ के क्षेत्रों एवं चित्तौड़ के क़िले राणा अमरसिंह को वापस मिल गये। चित्तौड़ के क़िले को और मजबूत करने एवं उसकी मरम्मत पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा दिया गया।
  3. राणा अमरसिंह पर मुग़लों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करने के लिए दबाब नहीं डाला गया। राणा को अपने स्थान पर मुग़ल सेना में अपने पुत्र ‘कर्ण’ को भेजने की छूट मिली।

युवराज कर्ण को मुग़ल दरबार में पूर्ण सम्मान के साथ बादशाह के दाहिनी ओर स्थान मिला, साथ ही 5000 ‘जात’ का मनसब प्रदान किया गया। राणा अमरसिंह इस संधि से आहत थे, फलस्वरूप उन्होंने सिंहासन अपने पुत्र करन को सौंप दिया और एक एकान्त स्थान 'नौ चैकी' में अपना शेष जीवन व्यतीत किया।

इस तरह लम्बे अर्से से चलने वाला संघर्ष दोनों पक्षों की राजनीतिक सूझबूझ के कारण समाप्त हो गया, जिसमें जहाँगीर एवं उसके पुत्र ख़ुर्रम की महत्वपूर्ण भूमिका रही। सम्राट जहाँगीर ने सन्धि का पालन करते हुए मेवाड़ के प्रति पूर्ण उदार दृष्टिकोण के साथ उसके व्यक्गित मामलों में हस्तक्षेप नहीं किया। जहाँगीर के शास काल की यह महत्वपूर्ण उपलब्धि थी।

दक्षिण की विजय

जहाँगीर की दक्षिण विजय अकबर की अग्रगामी नीतियों का अनुसरण मात्र थी। जहाँगीर के सामने लक्ष्य था ‘ख़ानदेश’ एवं ‘अहमदनगर’ की पूर्ण विजय, जिसे अकबर की मृत्यु के कारण पूरा नहीं किया जा सका था तथा स्वतंत्र प्रदेश ‘बीजापुर’ एवं ‘गोलकुण्डा’ पर अधिकार करना।






अंतिम काल और मृत्यु

जहाँगीर ने अपने उत्तर जीवन में शासन का समस्त भार नूरजहाँ को सौंप दिया था। वह स्वयं शराब पीकर निश्चिंत पड़े रहने में ही अपने जीवन की सार्थकता समझता था। शराब की बुरी लत और ऐश−आराम ने उसके शरीर को निकम्मा कर दिया था। वह कोई महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं कर सकता था। सौभाग्य से अकबर के काल में मुग़ल साम्राज्य की नींव इतनी सृदृढ़ रखी गई थी कि जहाँगीर के निकम्मेपन से उसमें कोई ख़ास कमी नहीं आई थी। अपने पिता द्वारा स्थापित नीति और परंपरा का पल्ला पकड़े रहने से जहाँगीर अपने शासन−काल के 22 वर्ष बिना ख़ास झगड़े−झंझटों के प्राय: सुख−चैन से पूरे कर गया था। नूरजहाँ अपने सौतेले पुत्र ख़ुर्रम को नहीं चाहती थी। इसलिए जहाँगीर के उत्तर काल में ख़ुर्रम ने एक−दो बार विद्रोह भी किया था; किंतु वह असफल रहा था। जहाँगीर की मृत्यु सन् 1627 में उस समय हुई जब वह कश्मीर से वापिस आ रहा था। रास्ते में लाहौर में उसका देहावसान हो गया। उसे वहाँ के रमणीक उद्यान में दफ़नाया गया था। बाद में वहाँ उसका भव्य मक़बरा बनाया गया। मृत्यु के समय उसकी आयु 58 वर्ष की थी। जहाँगीर के पश्चात उसका पुत्र ख़ुर्रम शाहजहाँ के नाम से मुग़ल सम्राट हुआ।

बाहरी कड़ियाँ

www.incois.gov.in/Tutor

संबंधित लेख