"निम्बार्काचार्य": अवतरणों में अंतर

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'''जीवन-काल'''
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==द्वैताद्वैतवाद मत==
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श्रीनिम्बार्काचार्य के अनुसार इनका मत अत्यन्त प्राचीन काल से सम्बद्ध है, कोई नया मत नहीं है। इन्होंने अपने भाष्य में नारद और सनत्कुमार के नाम का उल्लेख करके यह सिद्ध किया है कि इनका मत सृष्टि के आदि से है। कहते हैं कि पहले इनका नाम नियमानन्द था। श्रीदेवाचार्य ने इसी नाम से इनको नमस्कार किया है। जब ये [[यमुना नदी|यमुना]] तटवर्ती ध्रुव क्षेत्र में निवास करते थे, तब एक दिन एक दण्डी संन्यासी इनके आश्रम पर आये। उनके साथ ये आध्यात्मिक विचार-विमर्श में इतने तल्लीन हो गये कि सूर्यास्त हो गया। सूर्यास्त होने पर जब इन्होंने अपने अतिथि संन्यासी से भोजन करने का निवेदन किया, तब उन्होंने सूर्यास्त की बात कहकर भोजन करने में अपनी असमर्थता व्यक्त की। दण्डी संन्यासी प्राय: सूर्यास्त के बाद भोजन नहीं करते हैं। अतिथि के बिना भोजन किये लौट जाने की बात पर श्रीनिम्बार्काचार्य को काफ़ी चिन्ता हुई। भगवान ने इनकी समस्या के समाधान के लिये प्रकृति के नियमों में परिवर्तन की अद्भुत लीला रची। सभी लोगों ने आश्चर्यचकित होकर देखा कि इनके आश्रम के सन्निकट नीम के ऊपर सूर्यदेव प्रकाशित हो गये। भगवान की अपार करुणा का प्रत्यक्ष दर्शन करके आचार्य का हृदय गद्गद हो गया। भगवान की करुणा के प्रति शत-शत कृतज्ञता प्रकट करते हुए इन्होंने अपने अतिथि को भोजन कराया। अतिथि के भोजनोपरान्त ही सूर्यास्त हुआ। भगवान की इस असीम करुणा को लोगों ने श्रीनिम्बार्काचार्य की सिद्धि के रूप में देखा, तभी से इनका नाम निम्बादित्य अथवा निम्बार्क प्रसिद्ध हुआ। यद्यपि श्रीनिम्बार्काचार्य ने अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया, किन्तु वर्तमान में वेदान्त-कृष्ण की पूजा होती है। [[भागवत पुराण|श्रीमद्भागवत]] इस सम्प्रदाय का प्रधान ग्रन्थ है। इनके मत में ब्रह्म से जीव पृथक् भी है और एक भी है।  
श्रीनिम्बार्काचार्य के अनुसार इनका मत अत्यन्त प्राचीन काल से सम्बद्ध है, कोई नया मत नहीं है। इन्होंने अपने भाष्य में नारद और सनत्कुमार के नाम का उल्लेख करके यह सिद्ध किया है कि इनका मत सृष्टि के आदि से है। कहते हैं कि पहले इनका नाम नियमानन्द था। श्रीदेवाचार्य ने इसी नाम से इनको नमस्कार किया है। जब ये [[यमुना नदी|यमुना]] तटवर्ती ध्रुव क्षेत्र में निवास करते थे, तब एक दिन एक दण्डी संन्यासी इनके आश्रम पर आये। उनके साथ ये आध्यात्मिक विचार-विमर्श में इतने तल्लीन हो गये कि सूर्यास्त हो गया। सूर्यास्त होने पर जब इन्होंने अपने अतिथि संन्यासी से भोजन करने का निवेदन किया, तब उन्होंने सूर्यास्त की बात कहकर भोजन करने में अपनी असमर्थता व्यक्त की। दण्डी संन्यासी प्राय: सूर्यास्त के बाद भोजन नहीं करते हैं। अतिथि के बिना भोजन किये लौट जाने की बात पर श्रीनिम्बार्काचार्य को काफ़ी चिन्ता हुई। भगवान ने इनकी समस्या के समाधान के लिये प्रकृति के नियमों में परिवर्तन की अद्भुत लीला रची। सभी लोगों ने आश्चर्यचकित होकर देखा कि इनके आश्रम के सन्निकट नीम के ऊपर सूर्यदेव प्रकाशित हो गये। भगवान की अपार करुणा का प्रत्यक्ष दर्शन करके आचार्य का हृदय गद्गद हो गया। भगवान की करुणा के प्रति शत-शत कृतज्ञता प्रकट करते हुए इन्होंने अपने अतिथि को भोजन कराया। अतिथि के भोजनोपरान्त ही सूर्यास्त हुआ। भगवान की इस असीम करुणा को लोगों ने श्रीनिम्बार्काचार्य की सिद्धि के रूप में देखा, तभी से इनका नाम निम्बादित्य अथवा निम्बार्क प्रसिद्ध हुआ। यद्यपि श्रीनिम्बार्काचार्य ने अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया, किन्तु वर्तमान में वेदान्त-कृष्ण की पूजा होती है। [[भागवत पुराण|श्रीमद्भागवत]] इस सम्प्रदाय का प्रधान ग्रन्थ है। इनके मत में ब्रह्म से जीव पृथक् भी है और एक भी है।  
 
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07:49, 4 जून 2010 का अवतरण

जीवन-काल

श्रीनिम्बार्काचार्य की माता का नाम जयन्ती देवी और पिता का नाम श्रीअरुण मुनि था। इन्हें भगवान सूर्य का अवतार कहा जाता है। कुछ लोग इनको भगवान के सुदर्शन चक्र का भी अवतार मानते हैं तथा इनके पिता का नाम श्री जगन्नाथ बतलाते हैं। वर्तमान अन्वेषकों ने अपने प्रमाणों से इनका जीवन-काल ग्यारहवीं शताब्दी सिद्ध किया है। इनके भक्त इनका जन्म काल द्वापर का मानते हैं। इनका जन्म दक्षिण भारत के गोदावरी के तट पर स्थित वैदूर्यपत्तन के निकट अरुणाश्रम में हुआ था। ऐसा प्रसिद्ध है कि इनके उपनयन के समय स्वयं देवर्षि नारद ने इन्हें श्री गोपाल-मन्त्री की दीक्षा प्रदान की थी तथा श्रीकृष्णोपासना का उपदेश दिया था। इनके गुरु देवर्षि नारद थे तथा नारद के गुरु श्रीसनकादि थे। इसलिये इनका सम्प्रदाय सनकादि सम्प्रदाय के नाम से प्रसिद्ध है। इनके मत को द्वैताद्वैतवाद कहते हैं।

द्वैताद्वैतवाद मत

श्रीनिम्बार्काचार्य के अनुसार इनका मत अत्यन्त प्राचीन काल से सम्बद्ध है, कोई नया मत नहीं है। इन्होंने अपने भाष्य में नारद और सनत्कुमार के नाम का उल्लेख करके यह सिद्ध किया है कि इनका मत सृष्टि के आदि से है। कहते हैं कि पहले इनका नाम नियमानन्द था। श्रीदेवाचार्य ने इसी नाम से इनको नमस्कार किया है। जब ये यमुना तटवर्ती ध्रुव क्षेत्र में निवास करते थे, तब एक दिन एक दण्डी संन्यासी इनके आश्रम पर आये। उनके साथ ये आध्यात्मिक विचार-विमर्श में इतने तल्लीन हो गये कि सूर्यास्त हो गया। सूर्यास्त होने पर जब इन्होंने अपने अतिथि संन्यासी से भोजन करने का निवेदन किया, तब उन्होंने सूर्यास्त की बात कहकर भोजन करने में अपनी असमर्थता व्यक्त की। दण्डी संन्यासी प्राय: सूर्यास्त के बाद भोजन नहीं करते हैं। अतिथि के बिना भोजन किये लौट जाने की बात पर श्रीनिम्बार्काचार्य को काफ़ी चिन्ता हुई। भगवान ने इनकी समस्या के समाधान के लिये प्रकृति के नियमों में परिवर्तन की अद्भुत लीला रची। सभी लोगों ने आश्चर्यचकित होकर देखा कि इनके आश्रम के सन्निकट नीम के ऊपर सूर्यदेव प्रकाशित हो गये। भगवान की अपार करुणा का प्रत्यक्ष दर्शन करके आचार्य का हृदय गद्गद हो गया। भगवान की करुणा के प्रति शत-शत कृतज्ञता प्रकट करते हुए इन्होंने अपने अतिथि को भोजन कराया। अतिथि के भोजनोपरान्त ही सूर्यास्त हुआ। भगवान की इस असीम करुणा को लोगों ने श्रीनिम्बार्काचार्य की सिद्धि के रूप में देखा, तभी से इनका नाम निम्बादित्य अथवा निम्बार्क प्रसिद्ध हुआ। यद्यपि श्रीनिम्बार्काचार्य ने अनेक ग्रन्थों का प्रणयन किया, किन्तु वर्तमान में वेदान्त-कृष्ण की पूजा होती है। श्रीमद्भागवत इस सम्प्रदाय का प्रधान ग्रन्थ है। इनके मत में ब्रह्म से जीव पृथक् भी है और एक भी है।

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