"सूर्य मंदिर कोणार्क": अवतरणों में अंतर

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|विवरण=सूर्य मंदिर [[भारत]] के [[उड़ीसा]] राज्य के [[पुरी ज़िला|पुरी ज़िले]] के [[पुरी]] नामक शहर में स्थित है।  
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|विवरण=सूर्य मंदिर अपने निर्माण के 750 साल बाद भी अपनी अद्वितीयता, विशालता व कलात्मक भव्यता से हर किसी को निरुत्तर कर देता है।
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|मार्ग स्थिति=सूर्य मंदिर कोणार्क से 1.2 किमी की दूरी पर स्थित है।
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|प्रसिद्धि=सूर्य मंदिर में पत्थरों को इस प्रकार से तराशा गया कि वे इस प्रकार से बैठें कि जोड़ों का पता न चले।
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|यातायात=टैक्सी, जीप, ऑटो रिक्शा
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|हवाई अड्डा=नज़दीकी भुवनेश्वर हवाई अड्डा  
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|बस अड्डा=कोणार्क बस अड्डा
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|क्या देखें=माया देवी मंदिर और वैष्णव मंदिर
|कहाँ ठहरें=होटल, अतिथि ग्रह, धर्मशाला
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|अन्य जानकारी=सूर्य मंदिर के निर्माण में 1200 कुशल शिल्पियों ने 12 साल तक लगातार काम किया।
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'''सूर्य मंदिर''' [[भारत]] के [[उड़ीसा]] राज्य के [[पुरी ज़िला|पुरी ज़िले]] के [[पुरी]] नामक शहर में स्थित है। यह मंदिर अपने निर्माण के 750 साल बाद भी अपनी अद्वितीयता, विशालता व कलात्मक भव्यता से हर किसी को निरुत्तर कर देता है। कोणार्क सूर्य मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। वास्तव में जिसे हम कोणार्क के सूर्य मन्दिर के रूप में पहचानते हैं, वह पार्श्व में बने उस सूर्य मन्दिर का जगमोहन या महामण्डप है, जो कि बहुत पहले ध्वस्त हो चुका है। पुराविद व वास्तुकार मन्दिर की संरचना, मूर्तिशिल्प व पत्थरों पर उकेरी आकृतियों को वैज्ञानिक, तकनीकी व तार्किक कसौटी पर कसने के बाद तथ्यों को दुनिया के सामने रखते रहे हैं और यह क्रम जारी है। बहरहाल इस महामण्डप या जगमोहन की विराटता व भग्न हो चुके मुख्य मन्दिर के आधार पर उत्कीर्ण सज्जा से ही इसे यूनेस्को के [[विश्व विरासत स्थल]] की पहचान मिली है। '''भारत से ही नहीं बल्कि दुनिया भर से लाखों पर्यटक इसको देखने कोणार्क आते हैं।''' कोणार्क में बनी इस भव्य कृति को महज देखकर समझना कठिन है कि यह कैसे बनी होगी। इसे देखने का आनन्द तभी है जब इसके इतिहास की पृष्ठभूमि में जाकर इसे देखा जाए।
'''सूर्य मंदिर''' [[भारत]] के [[उड़ीसा]] राज्य के [[पुरी ज़िला|पुरी ज़िले]] के [[पुरी]] नामक शहर में स्थित है। सूर्य मंदिर अपने निर्माण के 750 साल बाद भी अपनी अद्वितीयता, विशालता व कलात्मक भव्यता से हर किसी को निरुत्तर कर देता है। कोणार्क सूर्य मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। वास्तव में जिसे हम कोणार्क के सूर्य मन्दिर के रूप में पहचानते हैं, वह पार्श्व में बने उस सूर्य मन्दिर का जगमोहन या महामण्डप है, जो कि बहुत पहले ध्वस्त हो चुका है। पुराविद व वास्तुकार मन्दिर की संरचना, मूर्तिशिल्प व पत्थरों पर उकेरी आकृतियों को वैज्ञानिक, तकनीकी व तार्किक कसौटी पर कसने के बाद तथ्यों को दुनिया के सामने रखते रहे हैं और यह क्रम जारी है। बहरहाल इस महामण्डप या जगमोहन की विराटता व भग्न हो चुके मुख्य मन्दिर के आधार पर उत्कीर्ण सज्जा से ही इसे [[यूनेस्को]] के [[विश्व विरासत स्थल]] की पहचान मिली है। '''भारत से ही नहीं बल्कि दुनिया भर से लाखों पर्यटक इसको देखने कोणार्क आते हैं।''' कोणार्क में बनी इस भव्य कृति को महज देखकर समझना कठिन है कि यह कैसे बनी होगी। इसे देखने का आनन्द तभी है जब इसके इतिहास की पृष्ठभूमि में जाकर इसे देखा जाए।
==वास्तु रचना==
==वास्तु रचना==
स्थान चयन से लेकर मन्दिर निर्माण सामग्री की व्यवस्था और मूर्तियों के निर्माण के लिए बड़ी योजना को रूप दिया गया। चूँकि उस काल में निर्माण वास्तुशास्त्र के आधार पर ही होता था, इसलिए मन्दिर निर्माण में भूमि से लेकर स्थान व दिन चयन में निर्धारित नियमों का पालन किया गया। '''इसके निर्माण में 1200 कुशल शिल्पियों ने 12 साल तक लगातार काम किया।''' शिल्पियों को निर्देश थे कि एक बार निर्माण आरम्भ होने पर वे अन्यत्र न जा सकेंगे। निर्माण स्थल में निर्माण योग्य पत्थरों का अभाव था। इसलिए सम्भवतया निर्माण सामग्री नदी मार्ग से यहाँ पर लाई गई। इसे मन्दिर के निकट ही तराशा गया। पत्थरों को स्थिरता प्रदान करने के लिए जंगरहित लोहे के क़ब्ज़ों का प्रयोग किया गया। '''इसमें पत्थरों को इस प्रकार से तराशा गया कि वे इस प्रकार से बैठें कि जोड़ों का पता न चले।'''
स्थान चयन से लेकर मन्दिर निर्माण सामग्री की व्यवस्था और मूर्तियों के निर्माण के लिए बड़ी योजना को रूप दिया गया। चूँकि उस काल में निर्माण वास्तुशास्त्र के आधार पर ही होता था, इसलिए मन्दिर निर्माण में भूमि से लेकर स्थान व [[दिन]] चयन में निर्धारित नियमों का पालन किया गया। '''इसके निर्माण में 1200 कुशल शिल्पियों ने 12 साल तक लगातार काम किया।''' शिल्पियों को निर्देश थे कि एक बार निर्माण आरम्भ होने पर वे अन्यत्र न जा सकेंगे। निर्माण स्थल में निर्माण योग्य पत्थरों का अभाव था। इसलिए सम्भवतया निर्माण सामग्री नदी मार्ग से यहाँ पर लाई गई। इसे मन्दिर के निकट ही तराशा गया। पत्थरों को स्थिरता प्रदान करने के लिए जंगरहित [[लोहा|लोहे]] के क़ब्ज़ों का प्रयोग किया गया। '''इसमें पत्थरों को इस प्रकार से तराशा गया कि वे इस प्रकार से बैठें कि जोड़ों का पता न चले।'''


'''सूर्यमन्दिर [[भारत]] का इकलौता सूर्य मन्दिर है''' जो पूरी दुनिया में अपनी भव्यता और बनावट के लिए  जाना जाता है। सूर्य मन्दिर [[उड़ीसा]] की राजधनी [[भुवनेश्वर]] से 65 किलोमीटर दूर कोणार्क में अपने समय की उत्कृष्ट वास्तु रचना है। [[गंग वंश|पूर्वी गंग वंश]] के राजा नरसिंह देव प्रथम ने सूर्य मन्दिर को तेरहवीं शताब्दी में बनवाया था। प्राचीन उड़िया स्थापत्य कला का यह मन्दिर बेजोड़ उदाहरण है। सूर्य मन्दिर की रचना इस तरह से की गई है कि यह सभी को आकर्षित करती है। सूर्य को ऊर्जा, जीवन और ज्ञान का प्रतीक माना जाता है। [[सूर्य देवता]] की सभी संस्कृतियों में पूजा की जाती रही है। सूर्य की इस मन्दिर में मानवीय आकार में मूर्ति है जो अन्य कहीं नहीं है।
'''सूर्यमन्दिर [[भारत]] का इकलौता सूर्य मन्दिर है''' जो पूरी दुनिया में अपनी भव्यता और बनावट के लिए  जाना जाता है। सूर्य मन्दिर [[उड़ीसा]] की राजधनी [[भुवनेश्वर]] से 65 किलोमीटर दूर कोणार्क में अपने समय की उत्कृष्ट वास्तु रचना है। [[गंग वंश|पूर्वी गंग वंश]] के राजा नरसिंह देव प्रथम ने सूर्य मन्दिर को तेरहवीं शताब्दी में बनवाया था। प्राचीन उड़िया स्थापत्य कला का यह मन्दिर बेजोड़ उदाहरण है। सूर्य मन्दिर की रचना इस तरह से की गई है कि यह सभी को आकर्षित करती है। सूर्य को ऊर्जा, जीवन और ज्ञान का प्रतीक माना जाता है। [[सूर्य देवता]] की सभी संस्कृतियों में पूजा की जाती रही है। सूर्य की इस मन्दिर में मानवीय आकार में मूर्ति है जो अन्य कहीं नहीं है।


'''इस मंदिर को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि अपने सात घोड़े वाले रथ पर विराजमान सूर्य देव अभी-अभी कहीं प्रस्थान करने वाले हैं।''' यह मूर्ति सूर्य मन्दिर की सबसे भव्य मूतियों में से एक है। सूर्य की चार पत्नियाँ रजनी, निक्षुभा, छाया और सुवर्चसा मूर्ति के दोनों तरफ  हैं। सूर्य की मूर्ति के चरणों के पास ही रथ का सारथी अरुण भी उपस्थित है।
'''इस मंदिर को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि अपने सात घोड़े वाले रथ पर विराजमान सूर्य देव अभी-अभी कहीं प्रस्थान करने वाले हैं।''' यह मूर्ति सूर्य मन्दिर की सबसे भव्य मूतियों में से एक है। सूर्य की चार पत्नियाँ रजनी, निक्षुभा, छाया और सुवर्चसा मूर्ति के दोनों तरफ  हैं। सूर्य की मूर्ति के चरणों के पास ही रथ का सारथी अरुण भी उपस्थित है।
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{{बाँयाबक्सा|पाठ='''इसके निर्माण में 1200 कुशल शिल्पियों ने 12 साल तक लगातार काम किया।''' शिल्पियों को निर्देश थे कि एक बार निर्माण आरम्भ होने पर वे अन्यत्र न जा सकेंगे। निर्माण स्थल में निर्माण योग्य पत्थरों का अभाव था। इसलिए सम्भवतया निर्माण सामग्री नदी मार्ग से यहाँ पर लाई गई। इसे मन्दिर के निकट ही तराशा गया। पत्थरों को स्थिरता प्रदान करने के लिए जंगरहित लोहे के क़ब्ज़ों का प्रयोग किया गया। '''इसमें पत्थरों को इस प्रकार से तराशा गया कि वे इस प्रकार से बैठें कि जोड़ों का पता न चले।'''
 
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==निर्माण सम्बन्धी अनुश्रुतियाँ==
==निर्माण सम्बन्धी अनुश्रुतियाँ==
मुख्य मन्दिर की संरचना को लेकर अनेक कहानियाँ प्रचलित हैं। कहा जाता है कि जहाँ पर मुख्य मन्दिर था, उसके गर्भगृह में [[सूर्यदेव]] की मूर्ति ऊपर व नीचे चुम्बकीय प्रभाव के कारण हवा में दोलित होती थी। प्रात: सूर्य की किरणें रंगशाला से होते हुए वर्तमान में मौजूद जगमोहन से होते हुए कुछ देर के लिए गर्भगृह में स्थित मूर्ति पर पड़ती थीं। समुद्र का तट उस समय मन्दिर के समीप ही था, जहाँ बड़ी नौकाओं का आवागमन होता रहता था। अक्सर चुम्बकीय प्रभाव के कारण नौकाओं के दिशा मापक यन्त्र दिशा का ज्ञान नहीं करा पाते थे। इसलिए इन चुम्बकों को हटा दिया गया और मन्दिर अस्थिर होने से ध्वस्त हो गया। इसकी ख्याति उत्तर में जब [[मुग़ल|मुग़लों]] तक पहुँची तो उन्होंने इसे नष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। 16वीं [[सदी]] के मध्य में मुग़ल आक्रमणकारी कालापहाड़ ने इसके आमलक को नुक़सान पहुँचाया व कई मूर्तियों को खण्डित किया, जिसके कारण मन्दिर का परित्याग कर दिया गया। इससे हुई उपेक्षा के कारण इसका क्षरण होने लगा। कुछ विद्वान मुख्य मन्दिर के टूटने का कारण इसकी विशालता व डिजाइन में दोष को बताते हैं। जो रेतीली भूमि में बनने के कारण धँसने लगा था, लेकिन इस बारे में एक राय नहीं है। '''कुछ का यह मानना है कि यह मन्दिर कभी पूर्ण नहीं हुआ''', जबकि '''[[आइना-ए-अकबरी|आईने अकबरी]]''' में [[अबुल फ़ज़ल]] ने इस मन्दिर का भ्रमण करके इसकी कीर्ति का वर्णन किया है। कुछ विद्वानों का मत है कि काफ़ी समय तक यह मन्दिर अपने मूल स्वरूप में ही था। ब्रिटिश पुराविद [[फ़र्ग्युसन]] ने जब 1837 में इसका भ्रमण किया था, तो उस समय मुख्य मन्दिर का एक कोना बचा हुआ था, जिसकी ऊँचाई उस समय 45 मीटर बताई गई। कुछ विद्वान मुख्य मन्दिर के खण्डित होने का कारण प्रकृति की मार यथा भूकम्प व समुद्री तूफ़ान आदि को मानते हैं। लेकिन इस क्षेत्र में भूकम्प के बाद भी निकटवर्ती मन्दिर कैसे बचे रह गए, यह विचारणीय है। गिरने का अन्य कारण इसमें कम गुणवत्ता का पत्थर प्रयोग होना भी है, जो काल के थपेड़ों व इसके भार को न सह सका। किन्तु एक सर्वस्वीकार्य तथ्य के अनुसार समुद्र से ख़ारे पानी की वाष्प युक्त हवा के लगातार थपेड़ों से मन्दिर में लगे पत्थरों का क्षरण होता चला गया और मुख्य मन्दिर ध्वस्त हो गया। यह प्रभाव सर्वत्र दिखाई देता है।
मुख्य मन्दिर की संरचना को लेकर अनेक कहानियाँ प्रचलित हैं। कहा जाता है कि जहाँ पर मुख्य मन्दिर था, उसके गर्भगृह में [[सूर्यदेव]] की मूर्ति ऊपर व नीचे चुम्बकीय प्रभाव के कारण हवा में दोलित होती थी। प्रात: सूर्य की किरणें रंगशाला से होते हुए वर्तमान में मौजूद जगमोहन से होते हुए कुछ देर के लिए गर्भगृह में स्थित मूर्ति पर पड़ती थीं। [[समुद्र]] का [[तट]] उस समय मन्दिर के समीप ही था, जहाँ बड़ी नौकाओं का आवागमन होता रहता था। अक्सर चुम्बकीय प्रभाव के कारण नौकाओं के दिशा मापक यन्त्र दिशा का ज्ञान नहीं करा पाते थे। इसलिए इन चुम्बकों को हटा दिया गया और मन्दिर अस्थिर होने से ध्वस्त हो गया। इसकी ख्याति उत्तर में जब [[मुग़ल|मुग़लों]] तक पहुँची तो उन्होंने इसे नष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। 16वीं [[सदी]] के मध्य में [[मुग़ल]] आक्रमणकारी कालापहाड़ ने इसके आमलक को नुक़सान पहुँचाया व कई मूर्तियों को खण्डित किया, जिसके कारण मन्दिर का परित्याग कर दिया गया। इससे हुई उपेक्षा के कारण इसका क्षरण होने लगा। कुछ विद्वान मुख्य मन्दिर के टूटने का कारण इसकी विशालता व डिजाइन में दोष को बताते हैं। जो रेतीली भूमि में बनने के कारण धँसने लगा था, लेकिन इस बारे में एक राय नहीं है। '''कुछ का यह मानना है कि यह मन्दिर कभी पूर्ण नहीं हुआ''', जबकि '''[[आइना-ए-अकबरी|आईने अकबरी]]''' में [[अबुल फ़ज़ल]] ने इस मन्दिर का भ्रमण करके इसकी कीर्ति का वर्णन किया है। कुछ विद्वानों का मत है कि काफ़ी समय तक यह मन्दिर अपने मूल स्वरूप में ही था। ब्रिटिश पुराविद [[फ़र्ग्युसन]] ने जब 1837 में इसका भ्रमण किया था, तो उस समय मुख्य मन्दिर का एक कोना बचा हुआ था, जिसकी ऊँचाई उस समय 45 मीटर बताई गई। कुछ विद्वान मुख्य मन्दिर के खण्डित होने का कारण प्रकृति की मार यथा भूकम्प व समुद्री तूफ़ान आदि को मानते हैं। लेकिन इस क्षेत्र में भूकम्प के बाद भी निकटवर्ती मन्दिर कैसे बचे रह गए, यह विचारणीय है। गिरने का अन्य कारण इसमें कम गुणवत्ता का पत्थर प्रयोग होना भी है, जो काल के थपेड़ों व इसके भार को न सह सका। किन्तु एक सर्वस्वीकार्य तथ्य के अनुसार समुद्र से ख़ारे पानी की वाष्प युक्त हवा के लगातार थपेड़ों से मन्दिर में लगे पत्थरों का क्षरण होता चला गया और मुख्य मन्दिर ध्वस्त हो गया। यह प्रभाव सर्वत्र दिखाई देता है।


==कला का अद्वितीय मन्दिर==     
==कला का अद्वितीय मन्दिर==     
[[चित्र:A-View-Of-Sun-Temple-Konark.jpg|thumb|left|250px|सूर्य मंदिर, [[कोणार्क]]<br /> Sun Temple, Konark]]                         
[[चित्र:A-View-Of-Sun-Temple-Konark.jpg|thumb|250px|सूर्य मंदिर, [[कोणार्क]]<br /> Sun Temple, Konark]]                         
कोणार्क [[उड़ीसा]] की प्राचीन वास्तुशैली का विशिष्ट मन्दिर है, जिसमें मन्दिर में मुख्य मन्दिर, महामण्डप, रंगशाला व सटा भोगमण्डप होते थे। इनमें से ज़्यादातर में जगमोहन व मुख्य मन्दिर एक साथ जुड़े होते थे। कोणार्क मन्दिर में थोड़ी भिन्नता है। यहाँ पर जगमोहन व मुख्यमन्दिर सटे थे। पूर्व में स्थित प्रवेश द्वार के बाद नाट्यमण्डप हैं। द्वार पर दोनों ओर दो विशालकाय सिंह एक [[हाथी]] को दबोचे हैं। नाट्यमण्डप पर स्तम्भों को तराश कर विभिन्न आकृतियों से सज्जित किया गया है। मन्दिर का भोगोंडप मन्दिर से पृथक निर्मित है। मुख्य सूर्य मन्दिर में महामण्डप व मुख्य मन्दिर जुड़े थे, जबकि भोगमण्डप रथ से पृथक था। मन्दिर को रथ का स्वरूप देने के लिए मन्दिर के आधार पर दोनों ओर एक जैसे पत्थर के 24 पहिए बनाए गए। पहियों को खींचने के लिए 7 घोड़े बनाए गए। इन पहियों का व्यास तीन मीटर है। मन्दिर के डिजायन व अंकरण में उस समय के सामाजिक व सांस्कृतिक परिवेश का ध्यान रखा गया। आधार की बाहरी दीवार पर लगे पत्थरों पर विभिन्न आकृतियों को इस प्रकार से उकेरा गया कि वे जीवन्त लगें। इनमें कुछ स्थानों पर [[खजुराहो]] की तरह कामातुर आकृतियाँ तो कहीं पर नारी सौंदर्य, महिला व पुरुष वादकों व नर्तकियों की विभिन्न भाव-भंगिमाओं को उकेरा गया। इसके अलावा इसमें मानव, पेड़-पौधों, जीव-जन्तुओं के साथ पुष्पीय व ज्यामितीय अंकरण हैं। मन्दिर का महामण्डप चबूतरे सहित कुल 39 मीटर है। इसकी विशालता से मुख्य मन्दिर की ऊँचाई का अनुमान लगाया जा सकता है, जो सम्भवतया [[लिंगराज मन्दिर|लिंगराज]] व [[पुरी]] से भव्य रहा होगा। पुरातत्त्ववेत्ता महामण्डप के पीछे इस रेखा मन्दिर या उर्ध्व मन्दिर की ऊँचाई 65 मीटर तक मानते हैं। इस भग्न मन्दिर के एक ओर साढ़े तीन मीटर ऊँची सूर्यदेव की मूर्ति बेहद आकर्षक हैं। इस मन्दिर की मूर्तियाँ लेहराइट, क्लोराइट और खोण्डोलाइट नाम के पत्थरों से बनाई गई हैं। कोर्णाक में ये पत्थर नहीं पाए जाते, इसलिए यह अनुमान लगाया जाता है कि नरसिंह देव ने इसे बाहर से मंगवाया होगा। इस मन्दिर के तीन हिस्से हैं -   
कोणार्क [[उड़ीसा]] की प्राचीन वास्तुशैली का विशिष्ट मन्दिर है, जिसमें मन्दिर में मुख्य मन्दिर, महामण्डप, रंगशाला व सटा भोगमण्डप होते थे। इनमें से ज़्यादातर में जगमोहन व मुख्य मन्दिर एक साथ जुड़े होते थे। कोणार्क मन्दिर में थोड़ी भिन्नता है। यहाँ पर जगमोहन व मुख्य मन्दिर सटे थे। पूर्व में स्थित प्रवेश द्वार के बाद नाट्यमण्डप हैं। द्वार पर दोनों ओर दो विशालकाय सिंह एक [[हाथी]] को दबोचे हैं। नाट्यमण्डप पर स्तम्भों को तराश कर विभिन्न आकृतियों से सज्जित किया गया है। मन्दिर का भोगोंडप मन्दिर से पृथक निर्मित है। मुख्य सूर्य मन्दिर में महामण्डप व मुख्य मन्दिर जुड़े थे, जबकि भोगमण्डप रथ से पृथक था। मन्दिर को रथ का स्वरूप देने के लिए मन्दिर के आधार पर दोनों ओर एक जैसे पत्थर के 24 पहिए बनाए गए। पहियों को खींचने के लिए 7 घोड़े बनाए गए। इन पहियों का व्यास तीन मीटर है। मन्दिर के डिजायन व अंकरण में उस समय के सामाजिक व सांस्कृतिक परिवेश का ध्यान रखा गया। आधार की बाहरी दीवार पर लगे पत्थरों पर विभिन्न आकृतियों को इस प्रकार से उकेरा गया कि वे जीवन्त लगें। इनमें कुछ स्थानों पर [[खजुराहो]] की तरह कामातुर आकृतियाँ तो कहीं पर नारी सौंदर्य, महिला व पुरुष वादकों व नर्तकियों की विभिन्न भाव-भंगिमाओं को उकेरा गया। इसके अलावा इसमें मानव, पेड़-पौधों, जीव-जन्तुओं के साथ पुष्पीय व ज्यामितीय अंकरण हैं। मन्दिर का महामण्डप चबूतरे सहित कुल 39 मीटर है। इसकी विशालता से मुख्य मन्दिर की ऊँचाई का अनुमान लगाया जा सकता है, जो सम्भवतया [[लिंगराज मन्दिर|लिंगराज]] व [[पुरी]] से भव्य रहा होगा। पुरातत्त्ववेत्ता महामण्डप के पीछे इस रेखा मन्दिर या उर्ध्व मन्दिर की ऊँचाई 65 मीटर तक मानते हैं। इस भग्न मन्दिर के एक ओर साढ़े तीन मीटर ऊँची सूर्यदेव की मूर्ति बेहद आकर्षक हैं। इस मन्दिर की मूर्तियाँ लेहराइट, क्लोराइट और खोण्डोलाइट नाम के पत्थरों से बनाई गई हैं। कोर्णाक में ये पत्थर नहीं पाए जाते, इसलिए यह अनुमान लगाया जाता है कि नरसिंह देव ने इसे बाहर से मंगवाया होगा। इस मन्दिर के तीन हिस्से हैं -   
#नृत्यमन्दिर,  
#नृत्यमन्दिर,  
#जगमोहन मन्दिर  
#जगमोहन मन्दिर  
#गर्भगृह।  
#गर्भगृह।  
मन्दिर का महामण्डप बेहद आकर्षक है, जिसका शीर्ष पिरामिड के आकार का है। '''इसमें विभिन्न स्तरों पर [[सूर्य देवता|सूर्य]], चन्द्र, मंगल, बुध, शनि आदि नक्षत्रों की प्रतिमाएँ हैं'''। इसके ऊपर विशाल आमलक है। समीप ही सूर्य की पत्नी मायादेवी व वैष्णव मन्दिर खण्डित अवस्था में है। समीप में भोगमण्डप था। एक नवग्रह मन्दिर भी यहाँ पर है।
[[चित्र:Sun-Temple-Konark-3.jpg|thumb|left|250px|सूर्य मंदिर, [[कोणार्क]]]]
मन्दिर का महामण्डप बेहद आकर्षक है, जिसका शीर्ष पिरामिड के आकार का है। '''इसमें विभिन्न स्तरों पर [[सूर्य देवता|सूर्य]], चन्द्र, मंगल, बुध, शनि आदि [[नक्षत्र|नक्षत्रों]] की प्रतिमाएँ हैं'''। इसके ऊपर विशाल आमलक है। समीप ही सूर्य की पत्नी मायादेवी व वैष्णव मन्दिर खण्डित अवस्था में है। समीप में भोगमण्डप था। एक नवग्रह मन्दिर भी यहाँ पर है।


==मान्यताएँ==
==मान्यताएँ==
[[चित्र:Sun-Temple-Konark-3.jpg|सूर्य मंदिर, [[कोणार्क]]|thumb|right|250px]]
<blockquote>कोणार्क के आध्यात्मिक महत्त्व, वर्तमान मन्दिर की स्थापना, इसके परित्याग करने से लेकर, मुख्य मन्दिर के ध्वस्त होने के बारे में अनेकानेक मान्यताएँ, अनुश्रुतियाँ हैं। मन्दिर के सम्बन्ध में कई बातें अब भी इतिहास के गर्भ में हैं। इसलिए कई बातों से विद्वतजन एकमत नहीं हैं। [[स्कन्दपुराण]] में कोणार्क की पहचान में सूर्यक्षेत्र, [[ब्रह्म पुराण]] में कोणादित्य, कपि संहिता में रवि क्षेत्र, भाम्बपुराण में मित्रवन व प्राचीन महात्यम में अर्कतीर्थ आदि नामों से की गई है। वहीं निकट में एक सूर्य मन्दिर था। [[पुराण|पुराणों]] में वर्णित मित्रवन व चन्द्रभागा की पहचान के बारे में अलग-अलग तर्क हैं। कुछ लोग इसे [[पाकिस्तान]] के [[मुल्तान]] में बताते हैं, जिसका प्राचीन नाम भाम्बापुरा था और यहीं से [[चिनाब नदी|चिनाब]] या [[चन्द्रभागा नदी|चन्द्रभागा]] गुज़रती है। उधर कोणार्क में भाम्बापुरा तो नहीं है किन्तु मन्दिर से 2 किलोमीटर दूर चन्द्रभागा का तट है, जहाँ पर माघ माह की सप्तमी को विशाल मेला लगता है।  
<blockquote>कोणार्क के आध्यात्मिक महत्त्व, वर्तमान मन्दिर की स्थापना, इसके परित्याग करने से लेकर, मुख्य मन्दिर के ध्वस्त होने के बारे में अनेकानेक मान्यताएँ, अनुश्रुतियाँ हैं। मन्दिर के सम्बन्ध में कई बातें अब भी इतिहास के गर्भ में हैं। इसलिए कई बातों से विद्वतजन एकमत नहीं हैं। [[स्कन्दपुराण]] में कोणार्क की पहचान में सूर्यक्षेत्र, [[ब्रह्म पुराण]] में कोणादित्य, कपि संहिता में रवि क्षेत्र, भाम्बपुराण में मित्रवन व प्राचीन महात्यम में अर्कतीर्थ आदि नामों से की गई है। वहीं निकट में एक सूर्य मन्दिर था। [[पुराण|पुराणों]] में वर्णित मित्रवन व चन्द्रभागा की पहचान के बारे में अलग-अलग तर्क हैं। कुछ लोग इसे [[पाकिस्तान]] के [[मुल्तान]] में बताते हैं, जिसका प्राचीन नाम भाम्बापुरा था और यहीं से [[चिनाब नदी|चिनाब]] या [[चन्द्रभागा नदी|चन्द्रभागा]] गुज़रती है। उधर कोणार्क में भाम्बापुरा तो नहीं है किन्तु मन्दिर से 2 किलोमीटर दूर चन्द्रभागा का तट है, जहाँ पर माघ माह की सप्तमी को विशाल मेला लगता है।  
गंग नरेश नरसिंहदेव ने सूर्य मन्दिर का ही निर्माण क्यों करवाया, इसे लेकर अनेक मान्यताएँ हैं।</blockquote>
गंग नरेश नरसिंहदेव ने सूर्य मन्दिर का ही निर्माण क्यों करवाया, इसे लेकर अनेक मान्यताएँ हैं।</blockquote>
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==बारह महीने के प्रतीक चक्र==
==बारह महीने के प्रतीक चक्र==
दीवार पर मन्दिर के बाहर बने विशालकाय चक्र पर्यटकों का ध्यान खींच लेते हैं। हर चक्र का व्यास तीन मीटर से ज़्यादा है। चक्रों के नीचे हाथियों के समूह को बेहद बारीकी से उकेरा गया है। सूर्य देवता के रथ के चबूतरे पर बारह जोड़ी चक्र हैं, जो साल के बारह महीने के प्रतीक हैं।
दीवार पर मन्दिर के बाहर बने विशालकाय चक्र पर्यटकों का ध्यान खींच लेते हैं। हर चक्र का व्यास तीन मीटर से ज़्यादा है। चक्रों के नीचे हाथियों के समूह को बेहद बारीकी से उकेरा गया है। सूर्य देवता के रथ के चबूतरे पर बारह जोड़ी चक्र हैं, जो साल के बारह महीने के प्रतीक हैं।
[[चित्र:Sun-Temple-Konark-4.jpg|सूर्य मंदिर, [[कोणार्क]]|thumb|left|250px]]
==खोज व संरक्षण==
==खोज व संरक्षण==
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'''1806 में जब इसका पता चला''' तो उस समय यह स्थान चारों ओर पेड़ों व झाड़ियों से घिरा व रेत से ढका था। 1838 में [[एशियाटिक सोसाइटी]] ने पहली बार इसके संरक्षण की बात उठाई। यहाँ से जंगल, झाड़ियों व रेत को हटाया गया। एक बात अच्छी रही कि दबे होने से मन्दिर आतताइयों से सुरक्षित रहा। उस समय मन्दिर का जगमोहन सुरक्षित था, जबकि मुख्य मन्दिर का पिछला हिस्सा ध्वस्त अवस्था में था और चारों ओर खण्डित मन्दिर के पत्थरों की बहुलता थी। 1900 में यहाँ पर वास्तविक संरक्षण करने का प्रयास हुआ। खण्डित हिस्सों को पुरानी संरचना के अनुसार संरक्षित करने का प्रयास किया गया। महामण्डप जो कि गिरने की हालत में था, को बचाने के लिए दरारों को पाटा गया। इसके लिए महामण्डप के आन्तरिक भाग को पत्थरों से भर दिया गया। शेष दोनों ओर के दरवाज़े भी चिनाई करके बन्द कर दिये गये। इस पर लगे पत्थरों का रासायनिक उपचार करके मन्दिर के स्वरूप को निखारा गया। संरक्षण का काम कई सालों तक चला। 20वीं [[सदी]] के मध्य में इसे '''भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण''' के अधीन कर दिया गया। अन्य सामग्री को लेकर निकट एक संग्रहालय बनाया गया। 1984 के बाद इसे [[विश्व विरासत स्थल]] घोषित किया गया।
'''1806 में जब इसका पता चला''' तो उस समय यह स्थान चारों ओर पेड़ों व झाड़ियों से घिरा व रेत से ढका था। 1838 में [[एशियाटिक सोसाइटी]] ने पहली बार इसके संरक्षण की बात उठाई। यहाँ से जंगल, झाड़ियों व रेत को हटाया गया। एक बात अच्छी रही कि दबे होने से मन्दिर आतताइयों से सुरक्षित रहा। उस समय मन्दिर का जगमोहन सुरक्षित था, जबकि मुख्य मन्दिर का पिछला हिस्सा ध्वस्त अवस्था में था और चारों ओर खण्डित मन्दिर के पत्थरों की बहुलता थी। 1900 में यहाँ पर वास्तविक संरक्षण करने का प्रयास हुआ। खण्डित हिस्सों को पुरानी संरचना के अनुसार संरक्षित करने का प्रयास किया गया। महामण्डप जो कि गिरने की हालत में था, को बचाने के लिए दरारों को पाटा गया। इसके लिए महामण्डप के आन्तरिक भाग को पत्थरों से भर दिया गया। शेष दोनों ओर के दरवाज़े भी चिनाई करके बन्द कर दिये गये। इस पर लगे पत्थरों का रासायनिक उपचार करके मन्दिर के स्वरूप को निखारा गया। संरक्षण का काम कई सालों तक चला। 20वीं [[सदी]] के मध्य में इसे '''भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण''' के अधीन कर दिया गया। अन्य सामग्री को लेकर निकट एक संग्रहालय बनाया गया। 1984 के बाद इसे [[विश्व विरासत स्थल]] घोषित किया गया।



09:45, 11 नवम्बर 2011 का अवतरण

सूर्य एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- सूर्य (बहुविकल्पी)
सूर्य मंदिर कोणार्क
सूर्य मंदिर, कोणार्क
सूर्य मंदिर, कोणार्क
विवरण सूर्य मंदिर अपने निर्माण के 750 साल बाद भी अपनी अद्वितीयता, विशालता व कलात्मक भव्यता से हर किसी को निरुत्तर कर देता है।
राज्य उड़ीसा
ज़िला पुरी
निर्माता नरसिंह देवा प्रथम
स्थापना 13 वीं सदी
भौगोलिक स्थिति उत्तर- 19.887444°, पूर्व- 86.094596°
मार्ग स्थिति सूर्य मंदिर कोणार्क से 1.2 किमी की दूरी पर स्थित है।
प्रसिद्धि सूर्य मंदिर में पत्थरों को इस प्रकार से तराशा गया कि वे इस प्रकार से बैठें कि जोड़ों का पता न चले।
कब जाएँ नवम्बर से अप्रैल
कैसे पहुँचें बस, रेल, हवाई जहाज़ आदि से पहुँचा जा सकता है।
हवाई अड्डा नज़दीकी भुवनेश्वर हवाई अड्डा
रेलवे स्टेशन नज़दीकी पुरी रेलवे स्टेशन
बस अड्डा कोणार्क बस अड्डा
यातायात टैक्सी, जीप, ऑटो रिक्शा, रिक्शा
क्या देखें माया देवी मंदिर और वैष्णव मंदिर
कहाँ ठहरें होटल, अतिथि ग्रह, धर्मशाला
क्या ख़रीदें पट्टचित्र की बनी तसवीरे भी खरीद सकते है।
एस.टी.डी. कोड 06758
ए.टी.एम लगभग सभी
गूगल मानचित्र
अन्य जानकारी सूर्य मंदिर के निर्माण में 1200 कुशल शिल्पियों ने 12 साल तक लगातार काम किया।
बाहरी कड़ियाँ सूर्य मंदिर
अद्यतन‎

सूर्य मंदिर भारत के उड़ीसा राज्य के पुरी ज़िले के पुरी नामक शहर में स्थित है। सूर्य मंदिर अपने निर्माण के 750 साल बाद भी अपनी अद्वितीयता, विशालता व कलात्मक भव्यता से हर किसी को निरुत्तर कर देता है। कोणार्क सूर्य मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। वास्तव में जिसे हम कोणार्क के सूर्य मन्दिर के रूप में पहचानते हैं, वह पार्श्व में बने उस सूर्य मन्दिर का जगमोहन या महामण्डप है, जो कि बहुत पहले ध्वस्त हो चुका है। पुराविद व वास्तुकार मन्दिर की संरचना, मूर्तिशिल्प व पत्थरों पर उकेरी आकृतियों को वैज्ञानिक, तकनीकी व तार्किक कसौटी पर कसने के बाद तथ्यों को दुनिया के सामने रखते रहे हैं और यह क्रम जारी है। बहरहाल इस महामण्डप या जगमोहन की विराटता व भग्न हो चुके मुख्य मन्दिर के आधार पर उत्कीर्ण सज्जा से ही इसे यूनेस्को के विश्व विरासत स्थल की पहचान मिली है। भारत से ही नहीं बल्कि दुनिया भर से लाखों पर्यटक इसको देखने कोणार्क आते हैं। कोणार्क में बनी इस भव्य कृति को महज देखकर समझना कठिन है कि यह कैसे बनी होगी। इसे देखने का आनन्द तभी है जब इसके इतिहास की पृष्ठभूमि में जाकर इसे देखा जाए।

वास्तु रचना

स्थान चयन से लेकर मन्दिर निर्माण सामग्री की व्यवस्था और मूर्तियों के निर्माण के लिए बड़ी योजना को रूप दिया गया। चूँकि उस काल में निर्माण वास्तुशास्त्र के आधार पर ही होता था, इसलिए मन्दिर निर्माण में भूमि से लेकर स्थान व दिन चयन में निर्धारित नियमों का पालन किया गया। इसके निर्माण में 1200 कुशल शिल्पियों ने 12 साल तक लगातार काम किया। शिल्पियों को निर्देश थे कि एक बार निर्माण आरम्भ होने पर वे अन्यत्र न जा सकेंगे। निर्माण स्थल में निर्माण योग्य पत्थरों का अभाव था। इसलिए सम्भवतया निर्माण सामग्री नदी मार्ग से यहाँ पर लाई गई। इसे मन्दिर के निकट ही तराशा गया। पत्थरों को स्थिरता प्रदान करने के लिए जंगरहित लोहे के क़ब्ज़ों का प्रयोग किया गया। इसमें पत्थरों को इस प्रकार से तराशा गया कि वे इस प्रकार से बैठें कि जोड़ों का पता न चले।

सूर्यमन्दिर भारत का इकलौता सूर्य मन्दिर है जो पूरी दुनिया में अपनी भव्यता और बनावट के लिए जाना जाता है। सूर्य मन्दिर उड़ीसा की राजधनी भुवनेश्वर से 65 किलोमीटर दूर कोणार्क में अपने समय की उत्कृष्ट वास्तु रचना है। पूर्वी गंग वंश के राजा नरसिंह देव प्रथम ने सूर्य मन्दिर को तेरहवीं शताब्दी में बनवाया था। प्राचीन उड़िया स्थापत्य कला का यह मन्दिर बेजोड़ उदाहरण है। सूर्य मन्दिर की रचना इस तरह से की गई है कि यह सभी को आकर्षित करती है। सूर्य को ऊर्जा, जीवन और ज्ञान का प्रतीक माना जाता है। सूर्य देवता की सभी संस्कृतियों में पूजा की जाती रही है। सूर्य की इस मन्दिर में मानवीय आकार में मूर्ति है जो अन्य कहीं नहीं है।

इस मंदिर को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि अपने सात घोड़े वाले रथ पर विराजमान सूर्य देव अभी-अभी कहीं प्रस्थान करने वाले हैं। यह मूर्ति सूर्य मन्दिर की सबसे भव्य मूतियों में से एक है। सूर्य की चार पत्नियाँ रजनी, निक्षुभा, छाया और सुवर्चसा मूर्ति के दोनों तरफ हैं। सूर्य की मूर्ति के चरणों के पास ही रथ का सारथी अरुण भी उपस्थित है।

इसके निर्माण में 1200 कुशल शिल्पियों ने 12 साल तक लगातार काम किया। शिल्पियों को निर्देश थे कि एक बार निर्माण आरम्भ होने पर वे अन्यत्र न जा सकेंगे। निर्माण स्थल में निर्माण योग्य पत्थरों का अभाव था। इसलिए सम्भवतया निर्माण सामग्री नदी मार्ग से यहाँ पर लाई गई। इसे मन्दिर के निकट ही तराशा गया। पत्थरों को स्थिरता प्रदान करने के लिए जंगरहित लोहे के क़ब्ज़ों का प्रयोग किया गया। इसमें पत्थरों को इस प्रकार से तराशा गया कि वे इस प्रकार से बैठें कि जोड़ों का पता न चले।

निर्माण सम्बन्धी अनुश्रुतियाँ

मुख्य मन्दिर की संरचना को लेकर अनेक कहानियाँ प्रचलित हैं। कहा जाता है कि जहाँ पर मुख्य मन्दिर था, उसके गर्भगृह में सूर्यदेव की मूर्ति ऊपर व नीचे चुम्बकीय प्रभाव के कारण हवा में दोलित होती थी। प्रात: सूर्य की किरणें रंगशाला से होते हुए वर्तमान में मौजूद जगमोहन से होते हुए कुछ देर के लिए गर्भगृह में स्थित मूर्ति पर पड़ती थीं। समुद्र का तट उस समय मन्दिर के समीप ही था, जहाँ बड़ी नौकाओं का आवागमन होता रहता था। अक्सर चुम्बकीय प्रभाव के कारण नौकाओं के दिशा मापक यन्त्र दिशा का ज्ञान नहीं करा पाते थे। इसलिए इन चुम्बकों को हटा दिया गया और मन्दिर अस्थिर होने से ध्वस्त हो गया। इसकी ख्याति उत्तर में जब मुग़लों तक पहुँची तो उन्होंने इसे नष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। 16वीं सदी के मध्य में मुग़ल आक्रमणकारी कालापहाड़ ने इसके आमलक को नुक़सान पहुँचाया व कई मूर्तियों को खण्डित किया, जिसके कारण मन्दिर का परित्याग कर दिया गया। इससे हुई उपेक्षा के कारण इसका क्षरण होने लगा। कुछ विद्वान मुख्य मन्दिर के टूटने का कारण इसकी विशालता व डिजाइन में दोष को बताते हैं। जो रेतीली भूमि में बनने के कारण धँसने लगा था, लेकिन इस बारे में एक राय नहीं है। कुछ का यह मानना है कि यह मन्दिर कभी पूर्ण नहीं हुआ, जबकि आईने अकबरी में अबुल फ़ज़ल ने इस मन्दिर का भ्रमण करके इसकी कीर्ति का वर्णन किया है। कुछ विद्वानों का मत है कि काफ़ी समय तक यह मन्दिर अपने मूल स्वरूप में ही था। ब्रिटिश पुराविद फ़र्ग्युसन ने जब 1837 में इसका भ्रमण किया था, तो उस समय मुख्य मन्दिर का एक कोना बचा हुआ था, जिसकी ऊँचाई उस समय 45 मीटर बताई गई। कुछ विद्वान मुख्य मन्दिर के खण्डित होने का कारण प्रकृति की मार यथा भूकम्प व समुद्री तूफ़ान आदि को मानते हैं। लेकिन इस क्षेत्र में भूकम्प के बाद भी निकटवर्ती मन्दिर कैसे बचे रह गए, यह विचारणीय है। गिरने का अन्य कारण इसमें कम गुणवत्ता का पत्थर प्रयोग होना भी है, जो काल के थपेड़ों व इसके भार को न सह सका। किन्तु एक सर्वस्वीकार्य तथ्य के अनुसार समुद्र से ख़ारे पानी की वाष्प युक्त हवा के लगातार थपेड़ों से मन्दिर में लगे पत्थरों का क्षरण होता चला गया और मुख्य मन्दिर ध्वस्त हो गया। यह प्रभाव सर्वत्र दिखाई देता है।

कला का अद्वितीय मन्दिर

सूर्य मंदिर, कोणार्क
Sun Temple, Konark

कोणार्क उड़ीसा की प्राचीन वास्तुशैली का विशिष्ट मन्दिर है, जिसमें मन्दिर में मुख्य मन्दिर, महामण्डप, रंगशाला व सटा भोगमण्डप होते थे। इनमें से ज़्यादातर में जगमोहन व मुख्य मन्दिर एक साथ जुड़े होते थे। कोणार्क मन्दिर में थोड़ी भिन्नता है। यहाँ पर जगमोहन व मुख्य मन्दिर सटे थे। पूर्व में स्थित प्रवेश द्वार के बाद नाट्यमण्डप हैं। द्वार पर दोनों ओर दो विशालकाय सिंह एक हाथी को दबोचे हैं। नाट्यमण्डप पर स्तम्भों को तराश कर विभिन्न आकृतियों से सज्जित किया गया है। मन्दिर का भोगोंडप मन्दिर से पृथक निर्मित है। मुख्य सूर्य मन्दिर में महामण्डप व मुख्य मन्दिर जुड़े थे, जबकि भोगमण्डप रथ से पृथक था। मन्दिर को रथ का स्वरूप देने के लिए मन्दिर के आधार पर दोनों ओर एक जैसे पत्थर के 24 पहिए बनाए गए। पहियों को खींचने के लिए 7 घोड़े बनाए गए। इन पहियों का व्यास तीन मीटर है। मन्दिर के डिजायन व अंकरण में उस समय के सामाजिक व सांस्कृतिक परिवेश का ध्यान रखा गया। आधार की बाहरी दीवार पर लगे पत्थरों पर विभिन्न आकृतियों को इस प्रकार से उकेरा गया कि वे जीवन्त लगें। इनमें कुछ स्थानों पर खजुराहो की तरह कामातुर आकृतियाँ तो कहीं पर नारी सौंदर्य, महिला व पुरुष वादकों व नर्तकियों की विभिन्न भाव-भंगिमाओं को उकेरा गया। इसके अलावा इसमें मानव, पेड़-पौधों, जीव-जन्तुओं के साथ पुष्पीय व ज्यामितीय अंकरण हैं। मन्दिर का महामण्डप चबूतरे सहित कुल 39 मीटर है। इसकी विशालता से मुख्य मन्दिर की ऊँचाई का अनुमान लगाया जा सकता है, जो सम्भवतया लिंगराजपुरी से भव्य रहा होगा। पुरातत्त्ववेत्ता महामण्डप के पीछे इस रेखा मन्दिर या उर्ध्व मन्दिर की ऊँचाई 65 मीटर तक मानते हैं। इस भग्न मन्दिर के एक ओर साढ़े तीन मीटर ऊँची सूर्यदेव की मूर्ति बेहद आकर्षक हैं। इस मन्दिर की मूर्तियाँ लेहराइट, क्लोराइट और खोण्डोलाइट नाम के पत्थरों से बनाई गई हैं। कोर्णाक में ये पत्थर नहीं पाए जाते, इसलिए यह अनुमान लगाया जाता है कि नरसिंह देव ने इसे बाहर से मंगवाया होगा। इस मन्दिर के तीन हिस्से हैं -

  1. नृत्यमन्दिर,
  2. जगमोहन मन्दिर
  3. गर्भगृह।
सूर्य मंदिर, कोणार्क

मन्दिर का महामण्डप बेहद आकर्षक है, जिसका शीर्ष पिरामिड के आकार का है। इसमें विभिन्न स्तरों पर सूर्य, चन्द्र, मंगल, बुध, शनि आदि नक्षत्रों की प्रतिमाएँ हैं। इसके ऊपर विशाल आमलक है। समीप ही सूर्य की पत्नी मायादेवी व वैष्णव मन्दिर खण्डित अवस्था में है। समीप में भोगमण्डप था। एक नवग्रह मन्दिर भी यहाँ पर है।

मान्यताएँ

कोणार्क के आध्यात्मिक महत्त्व, वर्तमान मन्दिर की स्थापना, इसके परित्याग करने से लेकर, मुख्य मन्दिर के ध्वस्त होने के बारे में अनेकानेक मान्यताएँ, अनुश्रुतियाँ हैं। मन्दिर के सम्बन्ध में कई बातें अब भी इतिहास के गर्भ में हैं। इसलिए कई बातों से विद्वतजन एकमत नहीं हैं। स्कन्दपुराण में कोणार्क की पहचान में सूर्यक्षेत्र, ब्रह्म पुराण में कोणादित्य, कपि संहिता में रवि क्षेत्र, भाम्बपुराण में मित्रवन व प्राचीन महात्यम में अर्कतीर्थ आदि नामों से की गई है। वहीं निकट में एक सूर्य मन्दिर था। पुराणों में वर्णित मित्रवन व चन्द्रभागा की पहचान के बारे में अलग-अलग तर्क हैं। कुछ लोग इसे पाकिस्तान के मुल्तान में बताते हैं, जिसका प्राचीन नाम भाम्बापुरा था और यहीं से चिनाब या चन्द्रभागा गुज़रती है। उधर कोणार्क में भाम्बापुरा तो नहीं है किन्तु मन्दिर से 2 किलोमीटर दूर चन्द्रभागा का तट है, जहाँ पर माघ माह की सप्तमी को विशाल मेला लगता है। गंग नरेश नरसिंहदेव ने सूर्य मन्दिर का ही निर्माण क्यों करवाया, इसे लेकर अनेक मान्यताएँ हैं।

बारह महीने के प्रतीक चक्र

दीवार पर मन्दिर के बाहर बने विशालकाय चक्र पर्यटकों का ध्यान खींच लेते हैं। हर चक्र का व्यास तीन मीटर से ज़्यादा है। चक्रों के नीचे हाथियों के समूह को बेहद बारीकी से उकेरा गया है। सूर्य देवता के रथ के चबूतरे पर बारह जोड़ी चक्र हैं, जो साल के बारह महीने के प्रतीक हैं।

खोज व संरक्षण

सूर्य मंदिर, कोणार्क

1806 में जब इसका पता चला तो उस समय यह स्थान चारों ओर पेड़ों व झाड़ियों से घिरा व रेत से ढका था। 1838 में एशियाटिक सोसाइटी ने पहली बार इसके संरक्षण की बात उठाई। यहाँ से जंगल, झाड़ियों व रेत को हटाया गया। एक बात अच्छी रही कि दबे होने से मन्दिर आतताइयों से सुरक्षित रहा। उस समय मन्दिर का जगमोहन सुरक्षित था, जबकि मुख्य मन्दिर का पिछला हिस्सा ध्वस्त अवस्था में था और चारों ओर खण्डित मन्दिर के पत्थरों की बहुलता थी। 1900 में यहाँ पर वास्तविक संरक्षण करने का प्रयास हुआ। खण्डित हिस्सों को पुरानी संरचना के अनुसार संरक्षित करने का प्रयास किया गया। महामण्डप जो कि गिरने की हालत में था, को बचाने के लिए दरारों को पाटा गया। इसके लिए महामण्डप के आन्तरिक भाग को पत्थरों से भर दिया गया। शेष दोनों ओर के दरवाज़े भी चिनाई करके बन्द कर दिये गये। इस पर लगे पत्थरों का रासायनिक उपचार करके मन्दिर के स्वरूप को निखारा गया। संरक्षण का काम कई सालों तक चला। 20वीं सदी के मध्य में इसे भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण के अधीन कर दिया गया। अन्य सामग्री को लेकर निकट एक संग्रहालय बनाया गया। 1984 के बाद इसे विश्व विरासत स्थल घोषित किया गया।

पौराणिक भारत के अलग-अलग प्रान्तों में धर्मिक उत्सवों के दौरान शोभायात्रा में देव मूर्तियों को लकड़ी के बने रथ पर सज़ा कर श्रद्धालुओं के बीच में ले जाया जाता था। इसीलिए यह माना जाता है कि सूर्य के इस मन्दिर को रथ का रूप दे दिया गया होगा।[1]


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