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'''[[नवरात्र|शारदीय नवरात्र]] के दिनों में गाया जाने वाला बालकों का गीत'''है। यह गीत [[ब्रज|ब्रजलोक]] में विशेष रूप से प्रचलित है। लड़के टेसू, जो '''मनुष्य की आकृति का खिलौना''' होता है, लेकर द्वार-द्वार पर घूमते हैं, टेसू के गीत गाते है और पैसे माँगते हैं। विषय की दृष्टि से यह गीत बहुत ही ऊटपटाँग और अद्भुत कहे जा सकते हैं, किन्तु येबड़े मनोरंजक  होते हैं । टेसू को जनश्रुति एक प्राचीन वीर के रूप में स्मरण करती है। [[पूर्णिमा]] के दिन टेसू तथा [[झाँझी |झाँझी]] का विवाह भी रचाया जाता है। {{cite book | last =धीरेंद्र| first =वर्मा| title =हिंदी साहित्य कोश| edition =| publisher =| location =| language =हिंदी| pages =334-335| chapter =भाग- 2 पर आधारित}}
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[[सांझी]] और टेसू के खेल अधिकांश उत्तर भारत में लोकप्रिय है। टेसू की अपनी ही छटा है। टेसू का खेल उत्तरा भारत और आसपास के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर खेला जाता है, यहां इसे बालक ही नहीं युवा भी खेलते हैं। सांझी बनाते समय बालिकायें जो गीत गाती हैं वे तो पूरे के पूरे प्रादेशिक भाषा के होते हैं।
[[सांझी]] और टेसू के खेल अधिकांश [[उत्तर भारत]] में लोकप्रिय है। टेसू की अपनी ही छटा है। टेसू का खेल [[उत्तर भारत]] और आसपास के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर खेला जाता है, यहां इसे बालक ही नहीं युवा भी खेलते हैं। [[सांझी]] बनाते समय बालिकायें जो गीत गाती हैं वे तो पूरे के पूरे प्रादेशिक [[भाषा]] के होते हैं।
 
;लुप्त होती प्रथा
टेसू खेलने की प्रथा अब धीरे कम होती जा रही है। इस कारण इसे खेलते समय गाये जाने वाले गीत भी विस्मृत होते जा रहे हैं। टेसू और सांझी के गीतों का अध्ययन करने पर प्रतीत होता है कि सांझी गीत व्यवस्थित और निश्चित विषय वस्तु को लेकर चलते है, जबकि टेसू गीत मात्र तुकबन्दियां प्रतीत होती हैं। टेसू का खेल [[दशहरा|दशहरे]] से प्रारम्भ होता है। यूं तो टेसू की धूम सारे उत्तर भारत में मचती है। ब्रज, बुंदेलखण्ड और ग्वालियर के टेसू विशेष रुप से प्रसिद्ध है। दशहरे के दिन से ही गाया जाता है-
[[चित्र:Tesu.jpg|thumb|टेसू]]
टेसू खेलने की प्रथा अब धीरे कम होती जा रही है। इस कारण इसे खेलते समय गाये जाने वाले गीत भी विस्मृत होते जा रहे हैं। टेसू और सांझी के गीतों का अध्ययन करने पर प्रतीत होता है कि सांझी गीत व्यवस्थित और निश्चित विषय वस्तु को लेकर चलते है, जबकि टेसू गीत मात्र तुकबन्दियां प्रतीत होती हैं। टेसू का खेल [[दशहरा|दशहरे]] से प्रारम्भ होता है। यूं तो टेसू की धूम सारे उत्तर भारत में मचती है। [[ब्रज]], [[बुंदेलखण्ड]] और [[ग्वालियर]] के टेसू विशेष रुप से प्रसिद्ध है। दशहरे के दिन से ही गाया जाता है-
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मेरा टेसू यहीं अड़ा  
मेरा टेसू यहीं अड़ा  
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दही बड़े में पन्नी,  
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धर दो झंया अठन्नी।</poem>  
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यह गाते हुए लड़कों की टोलियां गली मुहल्लों मे हाथ में टेसू लिये घूमती फिरती हैं। टेसू का यह त्योहार अत्यन्त प्राचीन समय से ही मनाया जाता है इस त्योहार का आरंभ महानवमी से हो जाता है और इसका समापन शरदपूर्णिमा को टैसू और सांझी के विवाह के साथ होता है।
यह गाते हुए लड़कों की टोलियां गली मुहल्लों मे हाथ में टेसू लिये घूमती फिरती हैं। टेसू का यह त्योहार अत्यन्त प्राचीन समय से ही मनाया जाता है इस त्योहार का आरंभ [[महानवमी |महानवमी]] से हो जाता है और इसका समापन [[पूर्णिमा|शरदपूर्णिमा]] को टैसू और सांझी के विवाह के साथ होता है।
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==बाहरी कड़ियाँ==
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*[http://www.sahityakunj.net/LEKHAK/N/NeerjaDewedy/jhanjhi_tesu_byaah.htm  झाँझी-टेसू का ब्याह]
*[http://ajeyklg.blogspot.com/2011/04/blog-post_19.html टेसू और झाँझी की शादी]
*[
==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==
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14:08, 10 दिसम्बर 2011 का अवतरण

शारदीय नवरात्र के दिनों में गाया जाने वाला बालकों का गीतहै। यह गीत ब्रजलोक में विशेष रूप से प्रचलित है। लड़के टेसू, जो मनुष्य की आकृति का खिलौना होता है, लेकर द्वार-द्वार पर घूमते हैं, टेसू के गीत गाते है और पैसे माँगते हैं। विषय की दृष्टि से यह गीत बहुत ही ऊटपटाँग और अद्भुत कहे जा सकते हैं, किन्तु ये बड़े मनोरंजक होते हैं । टेसू को जनश्रुति एक प्राचीन वीर के रूप में स्मरण करती है। पूर्णिमा के दिन टेसू तथा झाँझी का विवाह भी रचाया जाता है।[1] सांझी और टेसू के खेल अधिकांश उत्तर भारत में लोकप्रिय है। टेसू की अपनी ही छटा है। टेसू का खेल उत्तर भारत और आसपास के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर खेला जाता है, यहां इसे बालक ही नहीं युवा भी खेलते हैं। सांझी बनाते समय बालिकायें जो गीत गाती हैं वे तो पूरे के पूरे प्रादेशिक भाषा के होते हैं।

लुप्त होती प्रथा
टेसू

टेसू खेलने की प्रथा अब धीरे कम होती जा रही है। इस कारण इसे खेलते समय गाये जाने वाले गीत भी विस्मृत होते जा रहे हैं। टेसू और सांझी के गीतों का अध्ययन करने पर प्रतीत होता है कि सांझी गीत व्यवस्थित और निश्चित विषय वस्तु को लेकर चलते है, जबकि टेसू गीत मात्र तुकबन्दियां प्रतीत होती हैं। टेसू का खेल दशहरे से प्रारम्भ होता है। यूं तो टेसू की धूम सारे उत्तर भारत में मचती है। ब्रज, बुंदेलखण्ड और ग्वालियर के टेसू विशेष रुप से प्रसिद्ध है। दशहरे के दिन से ही गाया जाता है-

मेरा टेसू यहीं अड़ा
खाने को मांगे दही बड़ा,
दही बड़े में पन्नी,
धर दो झंया अठन्नी।

यह गाते हुए लड़कों की टोलियां गली मुहल्लों मे हाथ में टेसू लिये घूमती फिरती हैं। टेसू का यह त्योहार अत्यन्त प्राचीन समय से ही मनाया जाता है इस त्योहार का आरंभ महानवमी से हो जाता है और इसका समापन शरदपूर्णिमा को टैसू और सांझी के विवाह के साथ होता है।

किंवदंतियाँ

टैसू की उत्पत्ति और इस त्योहार के आरंभ के सम्बन्ध में यहां अनेक किवदंतियाँ प्रचलित है। माना जाता है कि टेसू का आरम्भ महाभारत काल से ही हो गया था। कहा जाता है कि कुन्ती को विवाह से पूर्व ही दो पुत्र उत्पन्न हुए थे जिनंमें पहला पुत्र बब्बरावाहन था जिसे कुन्ती जंगल में छोड़ आई थी। वह बड़ा विलक्षण बालक था। वह पैदा होते ही सामान्य बालक से दुगनी रफ़्तार से बढ़ने लगा और कुछ सालों बाद तो उसने बहुत ही उपद्रव करना शुरु कर दिया। पाण्डव उससे बहुत परेशान रहने लगे तो सुभद्रा ने भगवान कृष्ण से कहा कि वे उन्हें बब्बरावाहन के आतंक से बचाएं, तो कृष्ण भगवान ने अपने सुदर्शन चक्र से उसकी गर्दन काट दी। परन्तु बब्बरावाहन तो अमृत पी गया था इस लिये वह मरा ही नही। तब कृष्ण ने उसके सिर को छेकुर के पेड़ पर रख दिया। लेकिन फिर भी बब्बरावाहन शान्त नहीं हुआ तो कृष्ण ने अपनी माया से सांझी को उत्पन्न किया और टेसू से उसका विवाह रचाया।

दूसरी कथा

बब्बरावाहन, भीमसेन का किसी राक्षसी से हुआ पुत्र था जिसे घटोत्कच भी कहा गया है। यह परमवीर और दानी पुरुष था। उसकी यह आन थी कि वह हमेशा युद्ध में हारने वाले राजा की ओर से लड़ता था। जब महाभारत का युद्ध शुरु हुआ तो कृष्ण यह जानते थे कि यदि बब्बरावाहन कौरवों की ओर मिल गया तो पाण्डव युद्ध कभी नहीं जीत पायेंगे, इसलिये एक दिन ब्राह्मण का वेश धरकर बब्बरावाहन के पास गये और उससे उसका परिचय मांगा। तब बब्बरावाहन कहने लगा कि वह बड़ा भारी योद्धा और महादानी है। तो कृष्ण ने उससे कहा कि यदि तुम ऐसे ही महादानी हो तो अपना सिर काट कर दे दो और तब बब्बरावाहन ने अपना सिर काट कर कृष्ण को दे दिया परन्तु यह वचन मांगा कि वह उसके सिर को ऐसी जगह रखेंगे जहां से वह महाभारत का युद्ध देख सके। कृष्ण ने बब्बरावाहन को दिये वचन के अनुसार उसका सिर छेकुर के पेड़ पर रख दिया, जहां से युद्ध का मैदान दिखता था। परन्तु जब भी कौरवों पाण्डवों की सेनाएं युद्ध के लिये पास आती थी तो बब्बरावाहन का सिर यह सोचकर कि हाय कैसे-कैसे योद्धा मैदान में है पर मैं इन से लड़ न सका, जोर से हंसता था। कहते है उसकी हंसी से भयभीत होकर दोनों सेनाएं मीलों तक पीछे हट जाती थीं। इस प्रकार यह युद्ध कभी भी नहीं हो पायेगा यह सोचकर कृष्ण ने जिस डाल पर बब्बरावाहन का सिर रखा हुआ था उसमें दीमक लगा दी। दीमक के कारण सिर नीचे गिर पड़ा और उसका मुख दूसरी ओर होने के कारण उसे युद्ध दिखाई देना बन्द हो गया। तब कहीं जाकर महाभारत का युद्ध आरम्भ हो सका।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. धीरेंद्र, वर्मा “भाग- 2 पर आधारित”, हिंदी साहित्य कोश (हिंदी), 334-335।

धीरेंद्र, वर्मा “भाग- 1 पर आधारित”, हिंदी साहित्य कोश (हिंदी), 266।

बाहरी कड़ियाँ

संबंधित लेख

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