"दुग्धेश्वरनाथ": अवतरणों में अंतर
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'''दुग्धेश्वरनाथ''' भगवान [[शिव]] को समर्पित प्राचीन मन्दिर है। यह मन्दिर [[उत्तर प्रदेश]] में [[देवरिया ज़िला|देवरिया ज़िले]] के रुद्रपुर क़स्बे के पास स्थित है। यहाँ जो [[शिवलिंग]] है, वह 'महाकाल' का उपलिंग माना जाता है। यह स्थान बहुत प्राचीन है। नगर और दुर्ग के विस्तृत [[अवशेष]] तथा [[वैष्णव]], [[शैव]], [[जैन]] एवं [[बौद्ध]] मूर्तियाँ यहाँ पाई जाती हैं। इनकी चर्चा चीनी यात्री [[फ़ाह्यान]] ने भी है। पहले यहाँ पंचकोसी परिक्रमा होती थी, जिसमें अनेक तीर्थ पड़ते थे। [[शिवरात्रि]] तथा [[अधिक मास]] में यहाँ मेला लगता है। मुख्य मन्दिर के आसपास अनेक नवीन मन्दिर हैं।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=हिन्दू धर्मकोश|लेखक=डॉ. राजबली पाण्डेय|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान |संकलन= |संपादन= |पृष्ठ संख्या=322|url=}}</ref> | '''दुग्धेश्वरनाथ''' भगवान [[शिव]] को समर्पित प्राचीन मन्दिर है। यह मन्दिर [[उत्तर प्रदेश]] में [[देवरिया ज़िला|देवरिया ज़िले]] के रुद्रपुर क़स्बे के पास स्थित है। यहाँ जो [[शिवलिंग]] है, वह 'महाकाल' का उपलिंग माना जाता है। यह स्थान बहुत प्राचीन है। नगर और दुर्ग के विस्तृत [[अवशेष]] तथा [[वैष्णव]], [[शैव]], [[जैन]] एवं [[बौद्ध]] मूर्तियाँ यहाँ पाई जाती हैं। इनकी चर्चा चीनी यात्री [[फ़ाह्यान]] ने भी है। पहले यहाँ पंचकोसी परिक्रमा होती थी, जिसमें अनेक [[तीर्थ]] पड़ते थे। [[शिवरात्रि]] तथा [[अधिक मास]] में यहाँ मेला लगता है। मुख्य मन्दिर के आसपास अनेक नवीन मन्दिर हैं।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=हिन्दू धर्मकोश|लेखक=डॉ. राजबली पाण्डेय|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान |संकलन= |संपादन= |पृष्ठ संख्या=322|url=}}</ref> | ||
==विशेषताएँ== | ==विशेषताएँ== | ||
भारत में वैसे तो अनेकानेक शिवालय हैं, परन्तु देवरिया में 11वीं सदी के अष्टकोण में बने प्रसिद्ध दुग्धेश्वरनाथ मंदिर में स्थापित शिवलिंग अपनी अनूठी विशेषता के लिए विश्वविख्यात है। इस शिवलिंग का आधार कहाँ तक है, इसका आज तक पता नहीं चल पाया। मान्यता है कि मंदिर में स्थित शिवलिंग की लम्बाई [[पाताल]] तक है। सबसे बड़ी बात है कि यहाँ लिंग को किसी मनुष्य ने नहीं बनाया, बल्कि यह स्वयं धरती से निकला है।<ref name="mcc">{{cite web |url=http://hindi.webdunia.com/religion-shravan/%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%96%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A4-%E0%A4%B9%E0%A5%88%E0%A4%82-%E0%A4%B0%E0%A5%81%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0-%E0%A4%95%E0%A4%BE-%E0%A4%B6%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%97-1110726030_1.htm|title=रुद्रपुर का शिवलिंग|accessmonthday=07 मार्च|accessyear=2012|last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल.|publisher= |language=[[हिन्दी]]}}</ref> | [[भारत]] में वैसे तो अनेकानेक शिवालय हैं, परन्तु देवरिया में 11वीं सदी के अष्टकोण में बने प्रसिद्ध 'दुग्धेश्वरनाथ मंदिर' में स्थापित शिवलिंग अपनी अनूठी विशेषता के लिए विश्वविख्यात है। इस शिवलिंग का आधार कहाँ तक है, इसका आज तक पता नहीं चल पाया। मान्यता है कि मंदिर में स्थित शिवलिंग की लम्बाई [[पाताल]] तक है। सबसे बड़ी बात है कि यहाँ लिंग को किसी मनुष्य ने नहीं बनाया, बल्कि यह स्वयं धरती से निकला है।<ref name="mcc">{{cite web |url=http://hindi.webdunia.com/religion-shravan/%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%B5%E0%A4%BF%E0%A4%96%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%A4-%E0%A4%B9%E0%A5%88%E0%A4%82-%E0%A4%B0%E0%A5%81%E0%A4%A6%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0-%E0%A4%95%E0%A4%BE-%E0%A4%B6%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%97-1110726030_1.htm|title=रुद्रपुर का शिवलिंग|accessmonthday=07 मार्च|accessyear=2012|last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल.|publisher= |language=[[हिन्दी]]}}</ref> | ||
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मंदिर के संबंध में | मंदिर के संबंध में जानकारी रखने वाले बताते हैं कि ग्यारहवीं सदी में इस मंदिर के वर्तमान स्वरूप का निर्माण तत्कालीन रुद्रपुर नरेश हरीसिंह ने करवाया था, जिनका संभवत: सत्तासी कोस में साम्राज्य स्थापित था। यह भी कहा जाता है कि यह मंदिर ईसा पूर्व के ही समय से यहाँ है। [[पुरातत्त्व]] विभाग के [[पटना]] कार्यालय में भी 'नाथबाबा' के नाम से प्रसिद्ध इस मंदिर के संबंध में उल्लेख मिलता है। मंदिर के बारे में पुजारी ने बताया कि यह [[काशी]] के ही क्षेत्र में आता है और [[शिवपुराण]] में इसका वर्णन है। [[महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग]], [[उज्जैन]] की भांति इसे पौराणिक महत्ता प्रदान की गई है। यह उनका उपलिंग है। | ||
====मेले का आयोजन==== | ====मेले का आयोजन==== | ||
ज़िला मुख्यालय से क़रीब 22 कि.मी. पश्चिम दिशा में स्थित दूसरी | ज़िला मुख्यालय से क़रीब 22 कि.मी. पश्चिम दिशा में स्थित 'दूसरी काशी' के नाम से प्रसिद्ध अष्टकोण में बना बाबा दुग्धेश्वरनाथ के विशाल मंदिर में वैसे तो पूरे साल [[भक्त]] एवं श्रद्धालु आते हैं, लेकिन [[श्रावण मास]] में [[शिव]] के भक्तों द्वारा [[सरयू नदी]] से कांवड़ से [[जल]] चढ़ाने की पुरातन परम्परा आज भी विद्यमान है। [[महाशिवरात्रि]] के दिन एवं श्रावण मास में यहाँ भारी भीड़ होती है। इन दिनों में यहाँ पर एक विशाल मेला आयोजित होता है, जिसमें भाग लेने के लिए दूर-दूर से लोगों की भीड़ यहाँ आती है। उस समय यहाँ चारों ओर सिर्फ़ [[शिव]] की भक्तिधारा ही दिखाई देती है। इस दौरान पूरा मंदिर परिसर हर-हर महादेव, ओम नम: शिवाय और बाबा भोलेनाथ की जयकारों से गुंजायमान रहता है।<ref name="mcc"/> | ||
==जनश्रुतियाँ== | ==जनश्रुतियाँ== | ||
यहाँ की जनश्रुतियों के अनुसार, मंदिर बनने से पहले यहाँ घना जंगल था। बताते हैं कि उस समय दिन में [[गाय]], भैंस चराने के लिए कुछ लोग आया करते थे। आज जहाँ [[शिवलिंग]] है, वहाँ नित्य प्रतिदिन एक गाय प्राय: आकर खड़ी हो जाती थी तथा उसके थन से अपने आप वहाँ [[दूध]] गिरना शुरू हो जाता था। इस बात की जानकारी धीरे-धीरे तत्कालीन रुद्रपुर नरेश के कानों तक पहुँची तो उन्होंने वहाँ खुदाई करवाई। खुदाई में शिवलिंग निकला। राजा ने सोचा कि इस घने जंगल से शिवलिंग को निकालकर अपने महल के आस-पास मंदिर बनवाकर इसकी स्थापना की जाए। कहा जाता है कि जैसे-जैसे मजदूर शिवलिंग निकालने के लिए खुदाई करते जाते वैसे-वैसे शिवलिंग जमीन में धँसता चला जाता। कई दिनों तक यह सिलसिला चला। शिवलिंग तो नहीं निकला, किंतु वहाँ एक कुआं ज़रूर बन गया। बाद में राजा को भगवान [[शंकर]] ने स्वप्न में वहीं पर मंदिर स्थापित करने का आदेश दिया। भगवान के आदेश के बाद राजा ने वहाँ धूमधाम से काशी के विद्धान पंडितों को बुलवाकर भगवान शंकर के इस लिंग की विधिवत स्थापना करवाई। जब तक वह जीवित रहे, भगवान दुग्धेश्वरनाथ की [[पूजा]]-अर्चना और श्रावण मास में मेला आयोजित करवाते थे। मंदिर में आज भी भक्तों को लिंग स्पर्श के लिए 14 सीढ़ियाँ नीचे उतरना पड़ता है। यहाँ भगवान का लिंग सदैव भक्तों के दूध और [[जल]] के चढ़ावे में डूबा रहता है। | यहाँ की जनश्रुतियों के अनुसार, मंदिर बनने से पहले यहाँ घना जंगल था। बताते हैं कि उस समय दिन में [[गाय]], भैंस चराने के लिए कुछ लोग आया करते थे। आज जहाँ [[शिवलिंग]] है, वहाँ नित्य प्रतिदिन एक गाय प्राय: आकर खड़ी हो जाती थी तथा उसके थन से अपने आप वहाँ [[दूध]] गिरना शुरू हो जाता था। इस बात की जानकारी धीरे-धीरे तत्कालीन रुद्रपुर नरेश के कानों तक पहुँची तो उन्होंने वहाँ खुदाई करवाई। खुदाई में शिवलिंग निकला। राजा ने सोचा कि इस घने जंगल से शिवलिंग को निकालकर अपने महल के आस-पास मंदिर बनवाकर इसकी स्थापना की जाए। कहा जाता है कि जैसे-जैसे मजदूर शिवलिंग निकालने के लिए खुदाई करते जाते वैसे-वैसे शिवलिंग जमीन में धँसता चला जाता। कई दिनों तक यह सिलसिला चला। शिवलिंग तो नहीं निकला, किंतु वहाँ एक कुआं ज़रूर बन गया। बाद में राजा को भगवान [[शंकर]] ने स्वप्न में वहीं पर मंदिर स्थापित करने का आदेश दिया। भगवान के आदेश के बाद राजा ने वहाँ धूमधाम से काशी के विद्धान पंडितों को बुलवाकर भगवान शंकर के इस लिंग की विधिवत स्थापना करवाई। जब तक वह जीवित रहे, भगवान दुग्धेश्वरनाथ की [[पूजा]]-अर्चना और श्रावण मास में मेला आयोजित करवाते थे। मंदिर में आज भी भक्तों को लिंग स्पर्श के लिए 14 सीढ़ियाँ नीचे उतरना पड़ता है। यहाँ भगवान का लिंग सदैव भक्तों के दूध और [[जल]] के चढ़ावे में डूबा रहता है। |
04:56, 13 मार्च 2012 का अवतरण
दुग्धेश्वरनाथ भगवान शिव को समर्पित प्राचीन मन्दिर है। यह मन्दिर उत्तर प्रदेश में देवरिया ज़िले के रुद्रपुर क़स्बे के पास स्थित है। यहाँ जो शिवलिंग है, वह 'महाकाल' का उपलिंग माना जाता है। यह स्थान बहुत प्राचीन है। नगर और दुर्ग के विस्तृत अवशेष तथा वैष्णव, शैव, जैन एवं बौद्ध मूर्तियाँ यहाँ पाई जाती हैं। इनकी चर्चा चीनी यात्री फ़ाह्यान ने भी है। पहले यहाँ पंचकोसी परिक्रमा होती थी, जिसमें अनेक तीर्थ पड़ते थे। शिवरात्रि तथा अधिक मास में यहाँ मेला लगता है। मुख्य मन्दिर के आसपास अनेक नवीन मन्दिर हैं।[1]
विशेषताएँ
भारत में वैसे तो अनेकानेक शिवालय हैं, परन्तु देवरिया में 11वीं सदी के अष्टकोण में बने प्रसिद्ध 'दुग्धेश्वरनाथ मंदिर' में स्थापित शिवलिंग अपनी अनूठी विशेषता के लिए विश्वविख्यात है। इस शिवलिंग का आधार कहाँ तक है, इसका आज तक पता नहीं चल पाया। मान्यता है कि मंदिर में स्थित शिवलिंग की लम्बाई पाताल तक है। सबसे बड़ी बात है कि यहाँ लिंग को किसी मनुष्य ने नहीं बनाया, बल्कि यह स्वयं धरती से निकला है।[2]
निर्माणकाल
मंदिर के संबंध में जानकारी रखने वाले बताते हैं कि ग्यारहवीं सदी में इस मंदिर के वर्तमान स्वरूप का निर्माण तत्कालीन रुद्रपुर नरेश हरीसिंह ने करवाया था, जिनका संभवत: सत्तासी कोस में साम्राज्य स्थापित था। यह भी कहा जाता है कि यह मंदिर ईसा पूर्व के ही समय से यहाँ है। पुरातत्त्व विभाग के पटना कार्यालय में भी 'नाथबाबा' के नाम से प्रसिद्ध इस मंदिर के संबंध में उल्लेख मिलता है। मंदिर के बारे में पुजारी ने बताया कि यह काशी के ही क्षेत्र में आता है और शिवपुराण में इसका वर्णन है। महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग, उज्जैन की भांति इसे पौराणिक महत्ता प्रदान की गई है। यह उनका उपलिंग है।
मेले का आयोजन
ज़िला मुख्यालय से क़रीब 22 कि.मी. पश्चिम दिशा में स्थित 'दूसरी काशी' के नाम से प्रसिद्ध अष्टकोण में बना बाबा दुग्धेश्वरनाथ के विशाल मंदिर में वैसे तो पूरे साल भक्त एवं श्रद्धालु आते हैं, लेकिन श्रावण मास में शिव के भक्तों द्वारा सरयू नदी से कांवड़ से जल चढ़ाने की पुरातन परम्परा आज भी विद्यमान है। महाशिवरात्रि के दिन एवं श्रावण मास में यहाँ भारी भीड़ होती है। इन दिनों में यहाँ पर एक विशाल मेला आयोजित होता है, जिसमें भाग लेने के लिए दूर-दूर से लोगों की भीड़ यहाँ आती है। उस समय यहाँ चारों ओर सिर्फ़ शिव की भक्तिधारा ही दिखाई देती है। इस दौरान पूरा मंदिर परिसर हर-हर महादेव, ओम नम: शिवाय और बाबा भोलेनाथ की जयकारों से गुंजायमान रहता है।[2]
जनश्रुतियाँ
यहाँ की जनश्रुतियों के अनुसार, मंदिर बनने से पहले यहाँ घना जंगल था। बताते हैं कि उस समय दिन में गाय, भैंस चराने के लिए कुछ लोग आया करते थे। आज जहाँ शिवलिंग है, वहाँ नित्य प्रतिदिन एक गाय प्राय: आकर खड़ी हो जाती थी तथा उसके थन से अपने आप वहाँ दूध गिरना शुरू हो जाता था। इस बात की जानकारी धीरे-धीरे तत्कालीन रुद्रपुर नरेश के कानों तक पहुँची तो उन्होंने वहाँ खुदाई करवाई। खुदाई में शिवलिंग निकला। राजा ने सोचा कि इस घने जंगल से शिवलिंग को निकालकर अपने महल के आस-पास मंदिर बनवाकर इसकी स्थापना की जाए। कहा जाता है कि जैसे-जैसे मजदूर शिवलिंग निकालने के लिए खुदाई करते जाते वैसे-वैसे शिवलिंग जमीन में धँसता चला जाता। कई दिनों तक यह सिलसिला चला। शिवलिंग तो नहीं निकला, किंतु वहाँ एक कुआं ज़रूर बन गया। बाद में राजा को भगवान शंकर ने स्वप्न में वहीं पर मंदिर स्थापित करने का आदेश दिया। भगवान के आदेश के बाद राजा ने वहाँ धूमधाम से काशी के विद्धान पंडितों को बुलवाकर भगवान शंकर के इस लिंग की विधिवत स्थापना करवाई। जब तक वह जीवित रहे, भगवान दुग्धेश्वरनाथ की पूजा-अर्चना और श्रावण मास में मेला आयोजित करवाते थे। मंदिर में आज भी भक्तों को लिंग स्पर्श के लिए 14 सीढ़ियाँ नीचे उतरना पड़ता है। यहाँ भगवान का लिंग सदैव भक्तों के दूध और जल के चढ़ावे में डूबा रहता है।
ऐतिहासिक तथ्य
कहा जाता है कि प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी जब भारत की यात्रा की थी, तब वह देवरिया के रुद्रपुर में भी आए थे। उस समय मंदिर की विशालता एवं धार्मिक महत्व को देखते हुए उन्होंने चीनी भाषा में मंदिर परिसर में ही एक स्थान पर दीवार पर कुछ चीनी भाषा में टिप्पणी अंकित थी, जो आज भी अस्पष्ट रुप से दृष्टिगोचर होती है। कई इतिहासकारों ने उस लिपि को पढ़ने की चेष्टा की, लेकिन सफल नहीं हो पाए। मंदिर के पश्चिम में एक विशाल तालाब है, जो इस समय भी कमल के फूलों से भरा रहता है। सत्तासी नरेश और उनका काल तो इतिहास के पन्नों में अब समा चुका है, लेकिन उनका बनवाया हुआ मंदिर आज भी श्रद्धा एवं शिव-भक्ति भाव का प्रतीक है। रुद्रपुर क़स्बे में आज भी सैकड़ों छोटे-बड़े भगवान शिव के मंदिर एवं शिवलिंग मिल जाएंगे। पुराने मकानों एवं खण्डहरों में से छोटे शिवलिंग एवं शिव मूर्तियों का मिलना इस बात का प्रमाण है कि रुद्रपुर में पुरातन काल में घर-घर भगवान शिव की पूजा एवं आराधना होती थी, इसलिए रुद्रपुर को दूसरी काशी का नाम दिया गया है।[2]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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