"दोलोत्सव": अवतरणों में अंतर
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'''दोलोत्सव''' [[भारत]] में धार्मिक व्रतों का सर्वव्यापी प्रचार रहा है। यह हिन्दू धर्म ग्रंथों में उल्लिखित [[हिन्दू धर्म]] का एक व्रत संस्कार है। | '''दोलोत्सव''' [[भारत]] में धार्मिक व्रतों का सर्वव्यापी प्रचार रहा है। यह हिन्दू धर्म ग्रंथों में उल्लिखित [[हिन्दू धर्म]] का एक व्रत संस्कार है। दोलोत्सव मुख्यत: [[वैष्णव संप्रदाय|वैष्णव संप्रदायों]] के मंदिरों में मनाया जाने वाला प्रमुख उत्सव है। यों तो समस्त [[भारत]] में इस उत्सव का प्रचलन है, किंतु [[वृन्दावन]] तथा [[बंगाल]] में यह विशेष समारोह से मनाया जात है। बंगाल में इसे 'दोलयात्रा' कहते हैं। आजकल यह उत्सव [[प्रतिपदा]] से युक्त [[फाल्गुन मास|फाल्गुन]] [[शुक्ल पक्ष|शुक्ला]] [[पूर्णिमा]] तथा [[चैत्र मास|चैत्र]] शुक्ला द्वादशी को मनाया जाता है। | ||
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*[[चैत्र]] शुक्ल तृतीया पर गौरी का तथा<ref>पुरुषचिन्तामणि 85, व्रतराज 84</ref> [[राम]] का दोलोत्सव<ref>समयमयूख 35</ref> होता है। | ==पूजन विधि== | ||
जैसा नाम से ही स्पष्ट है, इसमें दोल या हिंडोल की प्रमुखता है। श्री गोपालभट्ट गोस्वामी विरचित 'श्री हरिभक्ति विलास' नामक निबंध ग्रंथ के अनुसार चैत्र शुक्ला द्वादशी को वैष्णवों को आमंत्रित कर गीत-वाद्य-संकीर्तन-सहित विविध उपचारों से [[कृष्ण|भगवान श्रीकृष्ण]] या [[विष्णु]] का पूजन करके प्रणामपूर्वक उन्हें दोलारूढ़ कराके झुलाने का विधान है। इस प्रकार दिन व्यतीत होने पर वैष्णवों सहित रात्रि जागरण करें। चैत्र शुक्ला तृतीया तथा उत्तराफाल्गुनी से युक्त फाल्गुनी पूर्णिमा को भी यह उत्सव करना चाहिए। | |||
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'पद्मपुराण' के पाताल खंड में भी दोलोत्सव या दोलयात्रा का विशद वर्णन है। दोलोत्सव करने के निमित्त चार द्वारों वाला, वेदिका से युक्त मंडप का निर्माण करें। सुंदर सुगंधित पुष्पों तथा पल्लवों आदि से मंडप को सजाकर उसे चामर, छत्र, ध्वजा आदि से अलंकृत करें। इस मंडप में विविधोपचार पूजन करके स्वर्ण-रत्न-मंडित अथवा पुष्प पत्र आदि से निर्मित डोल में भगवान को झुलाएँ। उक्त पौराणिक वर्णन से यह स्पष्ट है कि यह उत्सव अति प्राचीन काल से प्राय: समस्त भारत में प्रचलित था। पहले यह उत्सव फाल्गुन तथा चैत्र मास में अनेक दिनों तक होता था। कालांतर में यह संक्षिप्त होता गया। अब यह केवल दो दिनों का रह गया है- फाल्गुन शुक्ला पूर्णिमा तथा चैत्र शुक्ला द्वादशी। इस उत्सव को वसंतोत्सव का अंग माना जा सकता है। 'पद्मपुराण' (पाताल खंड), 'गरुड़ पुराण', 'दोलयात्रातत्व' तथा 'श्रीहरिभक्तिविलास' में इस उत्सव के विशद विवेचन तथा मतमतांतर उपलब्ध हैं। | |||
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05:33, 25 सितम्बर 2015 का अवतरण
दोलोत्सव भारत में धार्मिक व्रतों का सर्वव्यापी प्रचार रहा है। यह हिन्दू धर्म ग्रंथों में उल्लिखित हिन्दू धर्म का एक व्रत संस्कार है। दोलोत्सव मुख्यत: वैष्णव संप्रदायों के मंदिरों में मनाया जाने वाला प्रमुख उत्सव है। यों तो समस्त भारत में इस उत्सव का प्रचलन है, किंतु वृन्दावन तथा बंगाल में यह विशेष समारोह से मनाया जात है। बंगाल में इसे 'दोलयात्रा' कहते हैं। आजकल यह उत्सव प्रतिपदा से युक्त फाल्गुन शुक्ला पूर्णिमा तथा चैत्र शुक्ला द्वादशी को मनाया जाता है।
पौराणिक उल्लेख
पद्म पुराण[1] जिसमें आया है कि कलियुग में फाल्गुन चतुर्दशी पर आठवें प्रहर में या पूर्णिमा तथा प्रथमा के योग पर दोलोत्सव 3 दिनों या 5 दिनों तक किया जाता है। पालने में झूलते हुए कृष्ण को दक्षिणामुख हो एक बार देख लेने से पापों के भार से मुक्ति मिल जाती है। पद्मपुराण[2] में विष्णु का दोलोत्सव भी वर्णित है।
- चैत्र शुक्ल तृतीया पर गौरी का तथा[3] राम का दोलोत्सव[4] होता है। कृष्ण का दोलोत्सव चैत्र शुक्ल एकादशी[5] पर होता है। गायत्री के समान मन्त्र यह है—'ओं दोलारूढाय विद्महे माधवाय च धीमहि। तन्नो देवः प्रचोदयात्।।' आज भी मथुरा-वृन्दावन, अयोध्या, द्वारका, डाकोर आदि में कृष्ण का दोलोत्सव मनाया जाता है।
पूजन विधि
जैसा नाम से ही स्पष्ट है, इसमें दोल या हिंडोल की प्रमुखता है। श्री गोपालभट्ट गोस्वामी विरचित 'श्री हरिभक्ति विलास' नामक निबंध ग्रंथ के अनुसार चैत्र शुक्ला द्वादशी को वैष्णवों को आमंत्रित कर गीत-वाद्य-संकीर्तन-सहित विविध उपचारों से भगवान श्रीकृष्ण या विष्णु का पूजन करके प्रणामपूर्वक उन्हें दोलारूढ़ कराके झुलाने का विधान है। इस प्रकार दिन व्यतीत होने पर वैष्णवों सहित रात्रि जागरण करें। चैत्र शुक्ला तृतीया तथा उत्तराफाल्गुनी से युक्त फाल्गुनी पूर्णिमा को भी यह उत्सव करना चाहिए।
विशद वर्णन
'पद्मपुराण' के पाताल खंड में भी दोलोत्सव या दोलयात्रा का विशद वर्णन है। दोलोत्सव करने के निमित्त चार द्वारों वाला, वेदिका से युक्त मंडप का निर्माण करें। सुंदर सुगंधित पुष्पों तथा पल्लवों आदि से मंडप को सजाकर उसे चामर, छत्र, ध्वजा आदि से अलंकृत करें। इस मंडप में विविधोपचार पूजन करके स्वर्ण-रत्न-मंडित अथवा पुष्प पत्र आदि से निर्मित डोल में भगवान को झुलाएँ। उक्त पौराणिक वर्णन से यह स्पष्ट है कि यह उत्सव अति प्राचीन काल से प्राय: समस्त भारत में प्रचलित था। पहले यह उत्सव फाल्गुन तथा चैत्र मास में अनेक दिनों तक होता था। कालांतर में यह संक्षिप्त होता गया। अब यह केवल दो दिनों का रह गया है- फाल्गुन शुक्ला पूर्णिमा तथा चैत्र शुक्ला द्वादशी। इस उत्सव को वसंतोत्सव का अंग माना जा सकता है। 'पद्मपुराण' (पाताल खंड), 'गरुड़ पुराण', 'दोलयात्रातत्व' तथा 'श्रीहरिभक्तिविलास' में इस उत्सव के विशद विवेचन तथा मतमतांतर उपलब्ध हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
अन्य संबंधित लिंक
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