"चमत्कार -प्रेमचंद": अवतरणों में अंतर
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'क्या जितने आदमी बैंकों में नौकर हैं, उनकी नीयत बदलती रहती है ?' वह बोला। | 'क्या जितने आदमी बैंकों में नौकर हैं, उनकी नीयत बदलती रहती है ?' वह बोला। | ||
चम्पा ने गला छुड़ाना चाहा- तुम जबान पकड़ते हो। ठाकुर साहब के यहाँ इस शादी ही में तुम अपनी नीयत ठीक नहीं रख सके। सौ-दो सौ रुपये की चीज़ें घर रख ही लीं। | चम्पा ने गला छुड़ाना चाहा- तुम जबान पकड़ते हो। ठाकुर साहब के यहाँ इस शादी ही में तुम अपनी नीयत ठीक नहीं रख सके। सौ-दो सौ रुपये की चीज़ें घर रख ही लीं। | ||
प्रकाश के दिल से बोझ उतर गया। मुस्कराकर बोला- अच्छा, तुम्हारा संकेत उस तरफ था, लेकिन मैंने कमीशन के सिवा उनकी एक पाई भी नहीं छुई। और कमीशन लेना तो कोई पाप नहीं ! बड़े-बड़े हुक्काम खुले- | प्रकाश के दिल से बोझ उतर गया। मुस्कराकर बोला- अच्छा, तुम्हारा संकेत उस तरफ था, लेकिन मैंने कमीशन के सिवा उनकी एक पाई भी नहीं छुई। और कमीशन लेना तो कोई पाप नहीं ! बड़े-बड़े हुक्काम खुले-ख़ज़ाने कमीशन लिया करते हैं। | ||
चम्पा ने तिरस्कार के भाव से कहा- ज़ो आदमी अपने ऊपर इतना विश्वास रखे, उसकी आँख बचाकर एक पाई भी लेना मैं पाप समझती हूँ। तुम्हारी सज्जनता तो मैं जब जानती कि तुम कमीशन के रुपये ले जाकर उनके हवाले कर देते। इन छ: महीनों में उन्होंने तुम्हारे साथ क्या-क्या सलूक किये, कुछ याद है ? मकान तुमने खुद छोड़ा; लेकिन वह 20) महीने देते जाते हैं। इलाके से कोई सौगात आती है, तो तुम्हारे यहाँ ज़रूर भेजते हैं। तुम्हारे पास घड़ी न थी, अपनी घड़ी तुम्हें दे दी। तुम्हारी महरी जब नागा करती है, खबर पाते ही अपना नौकर भेज देते हैं। मेरी बीमारी ही में डाक्टर साहब की फीस उन्होंने दी, और दिन में दो बार हाल-चाल भी पूछने आया करते थे। यह जमानत ही क्या छोटी बात है ? अपने सम्बन्धियों तक की जमानत तो जल्दी कोई करता ही नहीं, तुम्हारी जमानत के लिए दस हज़ार रुपये नकद निकाल कर दे दिये। इसे तुम छोटी बात समझते हो ? आज तुमसे कोई भूल-चूक हो जाय, तो उनके रुपये तो जब्त हो ही जायेंगे ! जो आदमी अपने ऊपर इतनी दया रखे, उसके लिए हमें भी प्राण देने को तैयार रहना चाहिए। | चम्पा ने तिरस्कार के भाव से कहा- ज़ो आदमी अपने ऊपर इतना विश्वास रखे, उसकी आँख बचाकर एक पाई भी लेना मैं पाप समझती हूँ। तुम्हारी सज्जनता तो मैं जब जानती कि तुम कमीशन के रुपये ले जाकर उनके हवाले कर देते। इन छ: महीनों में उन्होंने तुम्हारे साथ क्या-क्या सलूक किये, कुछ याद है ? मकान तुमने खुद छोड़ा; लेकिन वह 20) महीने देते जाते हैं। इलाके से कोई सौगात आती है, तो तुम्हारे यहाँ ज़रूर भेजते हैं। तुम्हारे पास घड़ी न थी, अपनी घड़ी तुम्हें दे दी। तुम्हारी महरी जब नागा करती है, खबर पाते ही अपना नौकर भेज देते हैं। मेरी बीमारी ही में डाक्टर साहब की फीस उन्होंने दी, और दिन में दो बार हाल-चाल भी पूछने आया करते थे। यह जमानत ही क्या छोटी बात है ? अपने सम्बन्धियों तक की जमानत तो जल्दी कोई करता ही नहीं, तुम्हारी जमानत के लिए दस हज़ार रुपये नकद निकाल कर दे दिये। इसे तुम छोटी बात समझते हो ? आज तुमसे कोई भूल-चूक हो जाय, तो उनके रुपये तो जब्त हो ही जायेंगे ! जो आदमी अपने ऊपर इतनी दया रखे, उसके लिए हमें भी प्राण देने को तैयार रहना चाहिए। | ||
प्रकाश भोजन करके लेटा; तो उसकी आत्मा उसे धिक्कार रही थी। दुखते हुए फोड़े में कितना मवाद भरा हुआ है, यह उस वक्त मालूम होता है, जब नश्तर लगाया जाता है। मन का विकार उस वक्त मालूम होता है, जब कोई उसे हमारे सामने खोलकर रख देता है। किसी सामाजिक या राजनीतिक अन्याय का व्यंग्य-चित्र देखकर क्यों हमारे मन को चोट लगती है ? इसीलिए कि वह चित्र हमारी पशुता को खोलकर हमारे सामने रख देता है। वह, जो मनो-सागर में बिखरा हुआ पड़ा था, जैसे केन्द्रीभूत होकर वृहदाकार हो जाता है। तब हमारे मुँह से निकल पड़ता है उफ्फोह ! चम्पा के इन तिरस्कार-भरे शब्दों ने प्रकाश के मन में ग्लानि उत्पन्न कर दी। वह सन्दूक कई गुना भारी होकर शिला की भाँति उसे दबाने लगा। मन में फैला हुआ विकार एक बिन्दु पर एकत्र होकर टीसने लगा। | प्रकाश भोजन करके लेटा; तो उसकी आत्मा उसे धिक्कार रही थी। दुखते हुए फोड़े में कितना मवाद भरा हुआ है, यह उस वक्त मालूम होता है, जब नश्तर लगाया जाता है। मन का विकार उस वक्त मालूम होता है, जब कोई उसे हमारे सामने खोलकर रख देता है। किसी सामाजिक या राजनीतिक अन्याय का व्यंग्य-चित्र देखकर क्यों हमारे मन को चोट लगती है ? इसीलिए कि वह चित्र हमारी पशुता को खोलकर हमारे सामने रख देता है। वह, जो मनो-सागर में बिखरा हुआ पड़ा था, जैसे केन्द्रीभूत होकर वृहदाकार हो जाता है। तब हमारे मुँह से निकल पड़ता है उफ्फोह ! चम्पा के इन तिरस्कार-भरे शब्दों ने प्रकाश के मन में ग्लानि उत्पन्न कर दी। वह सन्दूक कई गुना भारी होकर शिला की भाँति उसे दबाने लगा। मन में फैला हुआ विकार एक बिन्दु पर एकत्र होकर टीसने लगा। |
10:55, 26 अप्रैल 2013 का अवतरण
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बी.ए. पास करने के बाद चन्द्रप्रकाश को एक टयूशन करने के सिवा और कुछ न सूझा। उसकी माता पहले ही मर चुकी थी, इसी साल पिता का भी देहान्त हो गया और प्रकाश जीवन के जो मधुर स्वप्न देखा करता था, वे सब धूल में मिल गये। पिता ऊँचे ओहदे पर थे, उनकी कोशिश से चन्द्रप्रकाश को कोई अच्छी जगह मिलने की पूरी आशा थी; पर वे सब मनसूबे धरे रह गये और अब गुजर-बसर के लिए वही 30) महीने की टयूशन रह गई। पिता ने कुछ सम्पत्ति भी न छोड़ी, उलटे वधू का बोझ और सिर पर लाद दिया और स्त्री भी मिली, तो पढ़ी-लिखी, शौकीन, जबान की तेज जिसे मोटा खाने और मोटा पहनने से मर जाना कबूल था। चन्द्रप्रकाश को 30) की नौकरी करते शर्म तो आयी; लेकिन ठाकुर साहब ने रहने का स्थान देकर उसके आँसू पोंछ दिये। यह मकान ठाकुर साहब के मकान से बिलकुल मिला हुआ था पक्का, हवादार, साफ-सुथरा और जरूरी सामान से लैस। ऐसा मकान 20) से कम पर न मिलता, काम केवल दो घंटे का। लड़का था तो लगभग उन्हीं की उम्र का; पर बड़ा कुन्दजेहन, कामचोर। अभी नवें दरजे में पढ़ता था। सबसे बड़ी बात यह कि ठाकुर और ठाकुराइन दोनों प्रकाश का बहुत आदर करते थे, बल्कि उसे लड़का ही समझते थे। वह नौकर नहीं, घर का आदमी था और घर के हर एक मामले में उसकी सलाह ली जाती थी। ठाकुर साहब अँगरेजी नहीं जानते थे। उनकी समझ में अँगरेजीदाँ लौंडा भी उनसे ज़्यादा बुद्धिमान, चतुर और तजरबेकार था। २ सन्ध्या का समय था। प्रकाश ने अपने शिष्य वीरेन्द्र को पढ़ाकर छड़ी उठायी, तो ठाकुराइन ने आकर कहा, अभी न जाओ बेटा, जरा मेरे साथ आओ, तुमसे कुछ सलाह करनी है। प्रकाश ने मन में सोचा आज कैसी सलाह है, वीरेन्द्र के सामने क्यों नहीं कहा ? उसे भीतर ले जाकर रमा देवी ने कहा- तुम्हारी क्या सलाह है, बीरू को ब्याह दूं ? एक बहुत अच्छे घर से सन्देशा आया है। प्रकाश ने मुस्कराकर कहा- यह तो बीरू बाबू ही से पूछिए। 'नहीं, मैं तुमसे पूछती हूँ।' प्रकाश ने असमंजस में पड़कर कहा- मैं इस विषय में क्या सलाह दे सकता हूँ ? उनका बीसवाँ साल तो है; लेकिन यह समझ लीजिए कि पढ़ना हो चुका। 'तो अभी न करूँ, यही सलाह है ?' 'जैसा आप उचित समझें। मैंने तो दोनों बातें कह दीं।' 'तो कर डालूँ ? मुझे यही डर लगता है कि लड़का कहीं बहक न जाय।' 'मेरे रहते इसकी तो आप चिन्ता न करें। हाँ, इच्छा हो, तो कर डालिए। कोई हरज भी नहीं है।' 'सब तैयारियाँ तुम्हीं को करनी पड़ेंगी, यह समझ लो।' 'तो मैं इनकार कब करता हूँ।' रोटी की खैर मनोनवाले शिक्षित युवकों में एक प्रकार की दुविधा होती है, जो उन्हें अप्रिय सत्य कहने से रोकती है। प्रकाश में भी यही कमजोरी थी। बात पक्की हो गयी और विवाह का सामान होने लगा। ठाकुर साहब उन मनुष्यों में थे, जिन्हें अपने ऊपर विश्वास नहीं होता। उनकी निगाह में प्रकाश की डिग्री, उनके साठ साल के अनुभव से कहीं मूल्यवान् थी। विवाह का सारा आयोजन प्रकाश के हाथों में था। दस-बारह हज़ार रुपये खर्च करने का अधिकार कुछ कम गौरव की बात न थी। देखते-देखते ही फटेहाल युवक ज़िम्मेदार मैनेजर बन बैठा। कहीं कपड़ेवाला उसे सलाम करने आया है; कहीं मुहल्ले का बनिया घेरे हुए है; कहीं गैस और शामियानेवाला खुशामद कर रहा है। वह चाहता, तो दो-चार सौ रुपये बड़ी आसानी से बना लेता, लेकिन इतना नीच न था। फिर उसके साथ क्या दगा करता, जिसने सबकुछ उसी पर छोड़ दिया था। पर जिस दिन उसने पाँच हज़ार के जेवर ख़रीदे, उस दिन उसका मन चंचल हो उठा। घर आकर चम्पा से बोला, हम तो यहाँ रोटियों के मुहताज हैं और दुनिया में ऐसे आदमी पड़े हुए हैं जो हजारों-लाखों रुपये के जेवर बनवा डालते हैं। ठाकुर साहब ने आज बहू के चढ़ावे के लिए पाँच हज़ार के जेवर ख़रीदे। ऐसी-ऐसी चीज़ें कि देखकर आँखें ठण्डी हो जायँ। सच कहता हूँ, बाज चीजों पर तो आँख नहीं ठहरती थी। चम्पा ईर्ष्या-जनित विराग से बोली- ऊँह, हमें क्या करना है ? जिन्हें ईश्वर ने दिया है, वे पहनें। यहाँ तो रोकर मरने ही के लिए पैदा हुए हैं। चन्द्रप्रकाश - इन्हीं लोगों की मौज़ है। न कमाना, न धमाना। बाप-दादा छोड़ गये हैं, मजे से खाते और चैन करते हैं। इसी से कहता हूँ, ईश्वर बड़ा अन्यायी है। चम्पा- अपना-अपना पुरुषार्थ है, ईश्वर का क्या दोष ? तुम्हारे बाप-दादा छोड़ गये होते, तो तुम भी मौज करते। यहाँ तो रोटियाँ चलना मुश्किल हैं, गहने-कपड़े को कौन रोये। और न इस ज़िन्दगी में कोई ऐसी आशा ही है। कोई गत की साड़ी भी नहीं रही कि किसी भले आदमी के घर जाऊँ, तो पहन लूँ। मैं तो इसी सोच में हूँ कि ठकुराइन के यहाँ ब्याह में कैसे जाऊँगी। सोचती हूँ, बीमार पड़ जाती तो जान बचती। यह कहते-कहते चम्पा की आँखें भर आयीं। प्रकाश ने तसल्ली दी- साड़ी तुम्हारे लिए लाऊँ। अब क्या इतना भी न कर सकूँगा ? मुसीबत के ये दिन क्या सदा बने रहेंगे ? ज़िन्दा रहा, तो एक दिन तुम सिर से पाँव तक जेवरों से लदी रहोगी। चम्पा मुस्कराकर बोली- चलो, ऐसी मन की मिठाई मैं नहीं खाती। निबाह होता जाय, यही बहुत है। गहनों की साध नहीं है। प्रकाश ने चम्पा की बातें सुनकर लज्जा और दु:ख से सिर झुका लिया। चम्पा उसे इतना पुरुषार्थहीन समझती है। ३ रात को दोनों भोजन करके लेटे, तो प्रकाश ने फिर गहनों की बात छेड़ी। गहने उसकी आँखों में बसे हुए थे- इस शहर में ऐसे बढ़िया गहने बनते हैं, मुझे इसकी आशा न थी। चम्पा ने कहा- क़ोई और बात करो। गहनों की बात सुनकर जी जलता है। 'वैसी चीज़ें तुम पहनो, तो रानी मालूम होने लगो।' 'गहनों से क्या सुन्दरता बढ़ जाती है ? तो ऐसी बहुत-सी औरतें देखी हैं, जो गहने पहनकर भद्दी दीखने लगती हैं।' 'ठाकुर साहब भी मतलब के यार हैं। यह न हुआ कि कहते, इसमें से कोई चीज़ चम्पा के लिए भी लेते जाओ।' 'तुम भी कैसी बच्चों की-सी बातें करते हो ?' 'इसमें बचपने की क्या बात है ? कोई उदार आदमी कभी इतनी कृपणता न करता।' 'मैंने तो कोई ऐसा उदार आदमी नहीं देखा, जो अपनी बहू के गहने किसी गैर को दे दे।' 'मैं गैर नहीं हूँ। हम दोनों एक ही मकान में रहते हैं। मैं उनके लड़के को पढ़ाता हूँ और शादी का सारा इन्तज़ाम कर रहा हूँ। अगर सौ-दो सौ की कोई चीज़ दे देते, तो वह निष्फल न जाती। मगर धनवानों का हृदय धन के भार से दबकर सिकुड़ जाता है। उनमें उदारता के लिए स्थान ही नहीं रहता।' रात के बारह बज गये हैं, फिर भी प्रकाश को नींद नहीं आती। बार-बार ही चमकीले गहने आँखों के सामने आ जाते हैं। कुछ बादल हो आये हैं और बार-बार बिजली चमक उठती है। सहसा प्रकाश चारपाई से उठ खड़ा हुआ। उसे चम्पा का आभूषणहीन अंग देखकर दया आयी। यही तो खाने-पहनने की उम्र है और इसी उम्र में इस बेचारी को हर एक चीज़ के लिए तरसना पड़ रहा है। वह दबे पाँव कमरे से बाहर निकलकर छत पर आया। ठाकुर साहब की छत इस छत से मिली हुई थी। बीच में एक पाँच फीट ऊँची दीवार थी। वह दीवार पर चढ़कर ठाकुर साहब की छत पर आहिस्ता से उतर गया। घर में बिलकुल सन्नाटा था। उसने सोचा पहले जीने से उतरकर ठाकुर साहब के कमरे में चलूँ। अगर वह जाग गये, तो ज़ोर से हँसूँगा और कहूँगा- क़ैसा चरका दिया, या कह दूँगा- मेरे घर की छत से कोई आदमी इधर आता दिखायी दिया, इसलिए मैं भी उसके पीछे-पीछे आया कि देखूँ, यह क्या करता है। अगर सन्दूक की कुंजी मिल गयी तो फिर फतह है। किसी को मुझ पर सन्देह ही न होगा। सब लोग नौकरों पर सन्देह करेंगे, मैं भी कहूँगा- साहब ! नौकरों की हरकत है, इन्हें छोड़कर और कौन ले जा सकता है ? मैं बेदाग़ बच जाऊँगा ! शादी के बाद कोई दूसरा घर लूँगा। फिर धीरे-धीरे एक-एक चीज़ चम्पा को दूंगा,जिसमें उसे कोई सन्देह न हो। फिर भी वह जीने से उतरने लगा तो उसकी छाती धड़क रही थी। धूप निकल आयी थी। प्रकाश अभी सो रहा था कि चम्पा ने उसे जगाकर कहा- बड़ा गजब हो गया। रात को ठाकुर साहब के घर में चोरी हो गयी। चोर गहने की सन्दूकची उठा ले गया। प्रकाश ने पड़े-पड़े पूछा- क़िसी ने पकड़ा नहीं चोर को ? 'किसी को खबर भी हो ! वह सन्दूकची ले गया, जिसमें ब्याह के गहने रखे थे। न-जाने कैसे कुंजी उड़ा ली और न-जाने कैसे उसे मालूम हुआ कि इस सन्दूक में सन्दूकची रखी है !' 'नौकरों की कार्रवाई होगी। बाहरी चोर का यह काम नहीं है।' 'नौकर तो उनके तीनों पुराने हैं।' 'नीयत बदलते क्या देर लगती है ! आज मौक़ा देखा, उठा ले गये !' 'तुम जाकर जरा उन लोगों को तसल्ली तो दो। ठाकुराइन बेचारी रो रही थीं। तुम्हारा नाम ले-लेकर कहती थीं कि बेचारा महीनों इन गहनों के लिए दौड़ा, एक-एक चीज़ अपने सामने जँचवायी और चोर दाढ़ीजारों ने उसकी सारी मेहनत पर पानी फेर दिया।' प्रकाश चटपट उठ बैठा और घबड़ाता हुआ-सा जाकर ठाकुराइन से बोला- यह तो बड़ा अनर्थ हो गया माताजी, मुझसे तो अभी-अभी चम्पा ने कहा। ठाकुर साहब सिर पर हाथ रखे बैठे हुए थे। बोले- क़हीं सेंध नहीं, कोई ताला नहीं टूटा, किसी दरवाज़े की चूल नहीं उतरी। समझ में नहीं आता, चोर आया किधर से ! ठाकुराइन ने रोकर कहा- मैं तो लुट गयी भैया, ब्याह सिर पर खड़ा है, कैसे क्या होगा, भगवान् ! तुमने दौड़-धूप की थी, तब कहीं जाके चीज़ें आयी थीं। न-जाने किस मनहूस सायत से लग्न आयी थी। प्रकाश ने ठाकुर साहब के कान में कहा- मुझे तो किसी नौकर की शरारत मालूम होती है। ठाकुराइन ने विरोध किया- अरे नहीं भैया, नौकरों में ऐसा कोई नहीं। दस-दस हज़ार रुपये यों ही ऊपर रखे रहते थे, कभी एक पाई भी नहीं गयी। ठाकुर साहब ने नाक सिकोड़कर कहा- तुम क्या जानो, आदमी का मन कितना जल्द बदल जाया करता है। जिसने अब तक चोरी नहीं की, वह कभी चोरी न करेगा, यह कोई नहीं कह सकता। मैं पुलिस में रिपोर्ट करूँगा और एक-एक नौकर की तलाशी कराऊँगा। कहीं माल उड़ा दिया होगा। जब पुलिस के जूते पड़ेंगे तो आप ही कबूलेंगे। प्रकाश ने पुलिस का घर में आना खतरनाक समझा। कहीं उन्हीं के घर में तलाशी ले, तो अनर्थ ही हो जाय। बोले- पुलिस में रिपोर्ट करना और तहकीकात कराना व्यर्थ है। पुलिस माल तो न बरामद कर सकेगी। हाँ, नौकरों को मार-पीट भले ही लेगी। कुछ नजर भी उसे चाहिए, नहीं तो कोई दूसरा ही स्वाँग खड़ा कर देगी। मेरी तो सलाह है कि एक-एक नौकर को एकान्त में बुलाकर पूछा जाय। ठाकुर साहब ने मुँह बनाकर कहा- तुम भी क्या बच्चों की-सी बात करते हो, प्रकाश बाबू ! भला चोरी करने वाला अपने आप कबूलेगा? तुम मारपीट भी तो नहीं करते। हाँ, पुलिस में रिपोर्ट करना मुझे भी फजूल मालूम होता है। माल बरामद होने से रहा, उलटे महीनों की परेशानी हो जायेगी। प्रकाश – लेकिन कुछ-न-कुछ तो करना ही पड़ेगा। ठाकुर – क़ोई लाभ नहीं। हाँ, अगर कोई खुफिया पुलिस हो, जो चुपके-चुपके पता लगावे, तो अलबत्ता माल निकल आये; लेकिन यहाँ ऐसी पुलिस कहाँ ? तकदीर ठोंककर बैठ रहो और क्या।‘ प्रकाश – ‘आप बैठ रहिए; लेकिन मैं बैठने वाला नहीं। मैं इन्हीं नौकरों के सामने चोर का नाम निकलवाऊँगा ! ठाकुराइन – नौकरों पर मुझे पूरा विश्वास है। किसी का नाम निकल भी आये, तो मुझे सन्देह ही रहेगा। किसी बाहर के आदमी का काम है। चाहे जिधर से आया हो; पर चोर आया बाहर से। तुम्हारे कोठे से भी तो आ सकता है! ठाकुर- हाँ, जरा अपने कोठे पर तो देखो, शायद कुछ निशान मिले। कल दरवाजा तो खुला नहीं रह गया ? प्रकाश का दिल धड़कने लगा। बोला- मैं तो दस बजे द्वार बन्द कर लेता हूँ। हाँ, कोई पहले से मौक़ा पाकर कोठे पर चला गया हो और वहाँ छिपा बैठा रहा हो, तो बात दूसरी है। तीनों आदमी छत पर गये तो बीच की मुँड़ेर पर किसी के पाँव की रगड़ के निशान दिखाई दिये। जहाँ पर प्रकाश का पाँव पड़ा था वहाँ का चूना लग जाने के कारण छत पर पाँव का निशान पड़ गया था। प्रकाश की छत पर जाकर मुँड़ेर की दूसरी तरफ देखा तो वैसे ही निशान वहाँ भी दिखाई दिये। ठाकुर साहब सिर झुकाये खड़े थे, संकोच के मारे कुछ कह न सकते थे। प्रकाश ने उनके मन की बात खोल दी- इससे तो स्पष्ट होता है कि चोर मेरे ही घर में से आया। अब तो कोई सन्देह ही नहीं रहा। ठाकुर साहब ने कहा- हाँ, मैं भी यही समझता हूँ; लेकिन इतना पता लग जाने से ही क्या हुआ। माल तो जाना था, सो गया। अब चलो, आराम से बैठें ! आज रुपये की कोई फिक्र करनी होगी। प्रकाश – मैं आज ही वह घर छोड़ दूंगा। ठाकुर- क्यों, इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं। प्रकाश – आप कहें; लेकिन मैं समझता हूँ मेरे सिर बड़ा भारी अपराध लग गया। मेरा दरवाजा नौ-दस बजे तक खुला ही रहता है। चोर ने रास्ता देख लिया। संभव है, दो-चार दिन में फिर आ घुसे। घर में अकेली एक औरत सारे घर की निगरानी नहीं कर सकती। इधर वह तो रसोई में बैठी है, उधर कोई आदमी चुपके से ऊपर चढ़ जाय, तो जरा भी आहट नहीं मिल सकती। मैं घूम-घामकर कभी नौ बजे आया, कभी दस बजे। और शादी के दिनों में तो देर होती ही रहेगी। उधर का रास्ता बन्द हो जाना चाहिए। मैं तो समझता हूँ, इस चोरी की सारी ज़िम्मेदारी मेरे सिर है। ठाकुराइन डरीं – तुम चले जाओगे भैया, तब तो घर और फाड़ खायगा। प्रकाश – क़ुछ भी हो माताजी, मुझे बहुत जल्द घर छोड़ना ही पड़ेगा। मेरी गफ़लत से चोरी हुई, उसका मुझे प्रायश्चित्त करना ही पड़ेगा। प्रकाश चला गया, तो ठाकुर ने स्त्री से कहा- बड़ा लायक़ आदमी है। ठाकुराइन – क्या बात है। चोर उधर से आया, यही बात उसे लग गयी। 'कहीं यह चोर को पकड़ पावे, तो कच्चा खा जाय।' 'मार ही डाले !' 'देख लेना, कभी-न-कभी माल बरामद करेगा।' 'अब इस घर में कदापि न रहेगा, कितना ही समझाओ।' 'किराये के 20) और दे दूंगा।' 'हम किराया क्यों दें ? वह आप ही घर छोड़ रहे हैं। हम तो कुछ कहते नहीं।' 'किराया तो देना ही पड़ेगा। ऐसे आदमी के साथ कुछ बल भी खाना पड़े, तो बुरा नहीं लगता।' 'मैं तो समझती हूँ, वह किराया लेंगे ही नहीं।' 'तीस रुपये में गुजर भी तो न होता होगा।' ५ प्रकाश ने उसी दिन वह घर छोड़ दिया। उस घर में रहने से जोखिम था। लेकिन जब तक शादी की धूमधाम रही, प्राय: सारे दिन यहीं रहते थे। चम्पा से कहा- एक सेठजी के यहाँ 50) महीने का काम और मिल गया है; मगर वह रुपये मैं उन्हीं के पास जमा करता जाऊँगा। वह आमदनी केवल जेवरों में खर्च होगी। उसमें से एक पाई भी घर के खर्च में न आने दूंगा। चम्पा फड़क उठी। पति-प्रेम का यह परिचय पाकर उसने अपने भाग्य को सराहा, देवताओं में उसकी श्रद्धा और भी बढ़ गयी। अब तक प्रकाश और चम्पा के बीच में कोई परदा न था। प्रकाश के पास जो कुछ था, वह चम्पा का था। चम्पा ही के पास उसके बक्से, संदूक, आलमारी की कुंजियाँ रहती थीं; मगर अब प्रकाश का एक संदूक हमेशा बन्द रहता। उसकी कुंजी कहाँ है, इसका चम्पा को पता नहीं। वह पूछती है, इस सन्दूक में क्या है, तो वह कह देते हैं- क़ुछ नहीं, पुरानी किताबें मारी-मारी फिरती थीं, उठा के सन्दूक में बन्द कर दी हैं। चम्पा को सन्देह का कोई कारण न था। एक दिन चम्पा पति को पान देने गयी तो देखा, वह उस सन्दूक को खोले हुए देख रहे हैं। उसे देखते ही उन्होंने सन्दूक जल्दी से बन्द कर दिया। उनका चेहरा जैसे फक हो गया। सन्देह का अंकुर जमा; मगर पानी न पाकर सूख गया। चम्पा किसी ऐसे कारण की कल्पना ही न कर सकी, जिससे सन्देह को आश्रय मिलता। लेकिन पाँच हज़ार की सम्पत्ति को इस तरह छोड़ देना कि उसका ध्यान ही न आवे, प्रकाश के लिए असम्भव था। वह कहीं बाहर से आता तो एक बार सन्दूक अवश्य खोलता। एक दिन पड़ोस में चोरी हो गयी। उस दिन से प्रकाश अपने कमरे ही में सोने लगा। असाढ़ के दिन थे। उमस के मारे दम घुटता था। ऊपर एक साफ-सुथरा बरामदा था, जो बरसात में सोने के लिए ही शायद बनाया गया था। चम्पा ने कई बार ऊपर सोने के लिए कहा,पर प्रकाश ने न माना। अकेला घर कैसे छोड़ दे ? चम्पा ने कहा- चोरी ऐसों के यहाँ नहीं होती। चोर घर में कुछ देखकर ही जान खतरे में डालता है। यहाँ क्या रखा है ? प्रकाश ने क्रुद्ध होकर कहा- क़ुछ नहीं है, बरतन-भाँड़े तो हैं ही। गरीब के लिए अपनी हाँड़ी ही बहुत है। एक दिन चम्पा ने कमरे में झाड़ू लगायी तो सन्दूक को खिसकाकर दूसरी तरफ रख दिया। प्रकाश ने सन्दूक का स्थान बदला हुआ पाया तो सशंक होकर बोला- सन्दूक तुमने हटाया ? यह पूछने की कोई बात न थी। झाड़ू लगाते वक्त प्राय: चीज़ें इधर-उधर खिसक ही जाती हैं। बोली- मैं क्यों हटाने लगी? 'फिर किसने हटाया ?' 'मैं नहीं जानती।' 'घर में तुम रहती हो, जानेगा कौन ?' 'अच्छा, अगर मैंने ही हटा दिया, तो इसमें पूछने की क्या बात है ?' 'कुछ नहीं, यों ही पूछता था।' मगर जब तक सन्दूक खोलकर सब चीज़ें देख न ले, प्रकाश को चैन कहाँ ? चम्पा ज्यों ही भोजन पकाने लगी, उसने सन्दूक खोला और आभूषणों को देखने लगा। आज चम्पा ने पकौड़ियाँ बनायी थीं। पकौड़ियाँ गरम-गरम ही मजा देती हैं। प्रकाश को पकौड़ियाँ पसन्द भी थीं। उसने थोड़ी-सी पकौड़ियाँ एक तश्तरी में रखीं और प्रकाश को देने गयी। प्रकाश ने उसको देखते ही सन्दूक धमाके से बन्द कर दिया और ताला लगाकर उसे बहलाने के इरादे से बोला, ‘तश्तरी में क्या लायीं ? अच्छा, पकौड़ियाँ हैं !’ आज चम्पा को सन्देह हो गया। सन्दूक में क्या है, यह देखने की उत्सुकता हुई। प्रकाश उसकी कुंजी कहीं छिपाकर रखता था। चम्पा किसी तरह वह कुंजी उड़ा देने की चाल सोचने लगी। एक दिन एक बिसाती कुंजियों का गुच्छा बेचने आ निकला। चम्पा ने उस ताले की कुंजी ले ली और सन्दूक खोल डाली। अरे ! ये तो आभूषण हैं। उसने एक-एक आभूषण को निकालकर देखा। ये गहने कहाँ से आये ! मुझसे कभी इनकी चर्चा नहीं की। सहसा उसके मन में भाव उठा क़हीं ये ठाकुर साहब के गहने तो नहीं हैं। चीज़ें वही थीं, जिनका वह बखान करते रहते थे। उसे अब कोई सन्देह न रहा; लेकिन इतना घोर पतन ! लज्जा और खेद से उसका सिर झुक गया। उसने तुरन्त सन्दूक बन्द कर दिया और चारपाई पर लेटकर सोचने लगी। इनकी इतनी हिम्मत पड़ी कैसे ? यह दुर्भावना इनके मन में आयी ही क्यों ? मैंने तो कभी आभूषणों के लिए आग्रह नहीं किया। अगर आग्रह भी करती, तो क्या उसका आशय यह होता कि वह चोरी करके लावें ? चोरी आभूषणों के लिए ! इनका मन क्यों इतना दुर्बल हो गया ? उसके जी में आया, इन गहनों को उठा ले और ठाकुराइन के चरणों पर डाल दे । उनसे कहे – ‘यह मत पूछिए, ये गहने मेरे पास कैसे आये। आपकी चीज़ आपके पास आ गयी, इसी से सन्तोष कर लीजिए।‘ लेकिन परिणाम कितना भयंकर होगा ! ६ उस दिन से चम्पा कुछ उदास रहने लगी। प्रकाश से उसे वह प्रेम न रहा, न वह सम्मान-भाव। बात-बात पर तकरार होती। अभाव में जो परस्पर सद्भाव था, वह गायब हो गया। तब एक दूसरे से दिल की बात कहता था, भविष्य के मनसूबे बाँधे जाते थे, आपस में सहानुभूति थी। अब दोनों ही दिलगीर रहते। कई-कई दिनों तक आपस में एक बात भी न होती। कई महीने गुजर गये। शहर के एक बैंक में असिस्टेण्ट मैनेजर की जगह खाली हुई। प्रकाश ने अर्थशास्त्र पढ़ा था; लेकिन शर्त यह थी कि नकद दस हज़ार की जमानत दाखिल की जाय। इतनी बड़ी रकम कहाँ से आवे। प्रकाश तड़प-तड़पकर रह जाता था। एक दिन ठाकुर साहब से इस विषय में बात चल पड़ी। ठाकुर साहब ने कहा- तुम क्यों नहीं दरख्वास्त भेजते ? प्रकाश ने सिर झुकाकर कहा, दस हज़ार की नकद जमानत माँगते हैं। मेरे पास रुपये कहाँ रखे हैं ! 'अजी, तुम दरख्वास्त तो दो। अगर सारी बातें तय हो जायॅ, तो जमानत भी दे दी जायगी। इसकी चिन्ता न करो।' प्रकाश ने स्तम्भित होकर कहा- आप जमानत दे देंगे ? 'हाँ-हाँ, यह कौन-सी बड़ी बात है।' प्रकाश घर चला तो बहुत रंजीदा था ! उसको यह जगह अब अवश्य मिलेगी; लेकिन फिर भी वह प्रसन्न नहीं है। ठाकुर साहब की सरलता, उनका उस पर इतना अटल विश्वास, उसे आहत कर रहा है। उनकी शराफत उसके कमीनेपन को कुचले डालती है। उसने घर आकर चम्पा को यह खुशखबरी सुनायी। चम्पा ने सुनकर मुँह फेर लिया। एक क्षण के बाद बोली, ‘ठाकुर साहब से तुमने क्यों जमानत दिलवायी ? प्रकाश ने चिढ़कर कहा, ‘फ़िर और किससे दिलवाता ?’ 'यही न होता कि जगह न मिलती। रोटियाँ तो मिल ही जातीं। रुपये-पैसे की बात है। कहीं भूल-चूक हो जाय, तो तुम्हारे साथ उनके रुपये भी जायॅ ?' 'यह तुम कैसे समझती हो कि भूल-चूक होगी ? क्या मैं अनाड़ी हूँ ?' चम्पा ने विरक्त मन से कहा, ‘आदमी की नीयत भी तो हमेशा एक-सी नहीं रहती !’ प्रकाश ठक-से रह गया। उसने चम्पा को चुभती हुई आँखों से देखा; पर चम्पा ने मुँह फेर लिया था। वह उसके भावों के विषय में कुछ निश्चय न कर सका, लेकिन ऐसी खुशखबरी सुनकर भी चम्पा का उदासीन रहना उसे विकल करने लगा। उसके मन में प्रश्न उठा इस वाक्य में कहीं आक्षेप तो नहीं छिपा हुआ है। चम्पा ने सन्दूक खोलकर देख तो नहीं लिया ? इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए इस समय वह अपनी एक आँख भी भेंट कर सकता था। भोजन करते समय प्रकाश ने चम्पा से पूछा- तुमने क्या सोचकर कहा था कि आदमी की नीयत तो हमेशा एक-सी नहीं रहती ? जैसे यह उसके जीवन या मृत्यु का प्रश्न हो। चम्पा ने संकट में पड़कर कहा- क़ुछ नहीं, मैंने दुनिया की बात कही थी। प्रकाश को संतोष न हुआ। 'क्या जितने आदमी बैंकों में नौकर हैं, उनकी नीयत बदलती रहती है ?' वह बोला। चम्पा ने गला छुड़ाना चाहा- तुम जबान पकड़ते हो। ठाकुर साहब के यहाँ इस शादी ही में तुम अपनी नीयत ठीक नहीं रख सके। सौ-दो सौ रुपये की चीज़ें घर रख ही लीं। प्रकाश के दिल से बोझ उतर गया। मुस्कराकर बोला- अच्छा, तुम्हारा संकेत उस तरफ था, लेकिन मैंने कमीशन के सिवा उनकी एक पाई भी नहीं छुई। और कमीशन लेना तो कोई पाप नहीं ! बड़े-बड़े हुक्काम खुले-ख़ज़ाने कमीशन लिया करते हैं। चम्पा ने तिरस्कार के भाव से कहा- ज़ो आदमी अपने ऊपर इतना विश्वास रखे, उसकी आँख बचाकर एक पाई भी लेना मैं पाप समझती हूँ। तुम्हारी सज्जनता तो मैं जब जानती कि तुम कमीशन के रुपये ले जाकर उनके हवाले कर देते। इन छ: महीनों में उन्होंने तुम्हारे साथ क्या-क्या सलूक किये, कुछ याद है ? मकान तुमने खुद छोड़ा; लेकिन वह 20) महीने देते जाते हैं। इलाके से कोई सौगात आती है, तो तुम्हारे यहाँ ज़रूर भेजते हैं। तुम्हारे पास घड़ी न थी, अपनी घड़ी तुम्हें दे दी। तुम्हारी महरी जब नागा करती है, खबर पाते ही अपना नौकर भेज देते हैं। मेरी बीमारी ही में डाक्टर साहब की फीस उन्होंने दी, और दिन में दो बार हाल-चाल भी पूछने आया करते थे। यह जमानत ही क्या छोटी बात है ? अपने सम्बन्धियों तक की जमानत तो जल्दी कोई करता ही नहीं, तुम्हारी जमानत के लिए दस हज़ार रुपये नकद निकाल कर दे दिये। इसे तुम छोटी बात समझते हो ? आज तुमसे कोई भूल-चूक हो जाय, तो उनके रुपये तो जब्त हो ही जायेंगे ! जो आदमी अपने ऊपर इतनी दया रखे, उसके लिए हमें भी प्राण देने को तैयार रहना चाहिए। प्रकाश भोजन करके लेटा; तो उसकी आत्मा उसे धिक्कार रही थी। दुखते हुए फोड़े में कितना मवाद भरा हुआ है, यह उस वक्त मालूम होता है, जब नश्तर लगाया जाता है। मन का विकार उस वक्त मालूम होता है, जब कोई उसे हमारे सामने खोलकर रख देता है। किसी सामाजिक या राजनीतिक अन्याय का व्यंग्य-चित्र देखकर क्यों हमारे मन को चोट लगती है ? इसीलिए कि वह चित्र हमारी पशुता को खोलकर हमारे सामने रख देता है। वह, जो मनो-सागर में बिखरा हुआ पड़ा था, जैसे केन्द्रीभूत होकर वृहदाकार हो जाता है। तब हमारे मुँह से निकल पड़ता है उफ्फोह ! चम्पा के इन तिरस्कार-भरे शब्दों ने प्रकाश के मन में ग्लानि उत्पन्न कर दी। वह सन्दूक कई गुना भारी होकर शिला की भाँति उसे दबाने लगा। मन में फैला हुआ विकार एक बिन्दु पर एकत्र होकर टीसने लगा। ७ कई दिन बीत गये। प्रकाश को बैंक में जगह मिल गयी। इसी उत्सव में उसके यहाँ मेहमानों की दावत है। ठाकुर साहब, उनकी स्त्री, बीरू और उसकी नवेली बहू सभी आये हुए हैं। चम्पा सेवा-सत्कार में लगी हुई है। बाहर दो-चार मित्र गा-बजा रहे हैं। भोजन करने के बाद ठाकुर साहब चलने को तैयार हुए। प्रकाश ने कहा- आज आपको यहीं रहना होगा, दादा ! मैं इस वक्त न जाने दूंगा। चम्पा को उसका यह आग्रह बुरा लगा। चारपाइयाँ नहीं हैं, बिछावन नहीं है और न काफी जगह ही है। रात-भर उन्हें तकलीफ देने और आप तकलीफ उठाने की कोई जरूरत उसकी समझ में न आयी; लेकिन प्रकाश आग्रह करता ही रहा, यहाँ तक कि ठाकुर साहब राजी हो गये। बारह बज गये थे। ठाकुर साहब ऊपर सो रहे थे। बीरू और प्रकाश बाहर बरामदे में थे। तीन स्त्रियाँ अन्दर कमरे में थीं, प्रकाश जाग रहा था। बीरू के सिरहाने उसकी कुंजियों का गुच्छा पड़ा हुआ था। प्रकाश ने गुच्छा उठा लिया। फिर कमरा खोलकर उसमें से गहनों की सन्दूकची निकाली और ठाकुर साहब के घर की तरफ चला। कई महीने पहले वह इसी भाँति कंपित हृदय के साथ ठाकुर साहब के घर में घुसा था। उसके पाँव तब भी इसी तरह थरथरा रहे थे; लेकिन तब काँटा चुभने की वेदना थी, आज काँटा निकलने की। तब ज्वर का चढ़ाव था उन्माद, ताप और विकलता से भरा हुआ; अब ज्वर का उतार था शान्त और शीतल। तब क़दम पीछे हटता था, आज आगे बढ़ रहा था। ठाकुर साहब के घर पहुँचकर उसने धीरे से बीरू का कमरा खोला और अन्दर जाकर ठाकुर साहब की खाट के नीचे संदूकची रख दी, फिर तुरन्त बाहर आकर धीरे से द्वार बन्द किया और घर को लौट पड़ा। हनुमान संजीवनी बूटीवाला धवलागिर उठाये जिस गर्वीले आनन्द का अनुभव कर रहे थे, कुछ वैसा ही आनन्द प्रकाश को भी हो रहा था। गहनों को अपने घर ले जाते समय उसके प्राण सूखे हुए थे, मानो किसी गहरी अथाह खाई में गिरा जा रहा हो। आज सन्दूकची को लौटाकर उसे मालूम हो रहा था, जैसे वह किसी विमान पर बैठा हुआ आकाश की ओर उड़ा जा रहा है ऊपर, ऊपर और ऊपर ! वह घर पहुँचा, तो बीरू सोया हुआ था। कुंजी उसने सिरहाने रख दी। ८ ठाकुर साहब प्रात:काल चले गये। प्रकाश सन्ध्या-समय पढ़ाने जाया करता था। आज वह अधीर होकर तीसरे ही पहर जा पहुँचा। देखना चाहता था, वहाँ आज क्या गुल खिल रहे हैं। वीरेन्द्र ने उसे देखते ही खुश होकर कहा- बापूजी, कल आपके यहाँ की दावत बड़ी मुबारक थी। जो गहने चोरी गये थे, सब मिल गये। ठाकुर साहब भी आ गये और बोले, ‘बड़ी मुबारक दावत थी तुम्हारी ! पूरा सन्दूक-का-सन्दूक मिल गया। एक चीज़ भी नहीं छुई। जैसे केवल रखने ही के लिए ले गया हो।‘ प्रकाश को इन बातों पर कैसे विश्वास आये, जब तक वह अपनी आँखों से सन्दूक न देख ले। कहीं ऐसा भी हो सकता है कि चोरी गया हुआ माल छ: महीने के बाद मिल जाय और ज्यों-का-त्यों ! सन्दूक को देखकर उसने गम्भीर भाव से कहा- बड़े आश्चर्य की बात है। मेरी बुद्धि तो कुछ काम नहीं करती। ठाकुर – क़िसी की बुद्धि काम नहीं करती भई, तुम्हारी ही क्यों। बीरू की माँ कहती है, कोई दैवी घटना है। आज मुझे भी देवताओं में श्रद्धा हो गयी। प्रकाश—अगर आँखों-देखी बात न होती, तो मुझे तो कभी विश्वास ही न आता। ठाकुर— आज इसी खुशी में हमारे यहाँ दावत होगी। प्रकाश – आपने कोई अनुष्ठान तो नहीं कराया था ? ठाकुर –अनुष्ठान तो बीसों ही कराये। प्रकाश –बस, तो यह अनुष्ठान ही की करामात है। घर लौटकर प्रकाश ने चम्पा को यह खबर सुनायी; तो वह दौड़कर उसके गले से चिपट गई और न-जाने क्यों रोने लगी, जैसे उसका बिछुड़ा हुआ पति बहुत दिनों के बाद घर आ गया हो। प्रकाश ने कहा- आज उनके यहाँ हमारी दावत है। 'मैं कल एक हज़ार कॅगलों को भोजन कराऊँगी।' 'तुम तो सैकड़ों का खर्च बतला रही हो।' 'मुझे इतना आनन्द हो रहा है कि लाखों खर्च करने पर भी अरमान पूरा न होगा।' प्रकाश की आँखों से भी आँसू निकल आये।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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