"वैदेही वनवास प्रथम सर्ग": अवतरणों में अंतर
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लोक-रंजिनी उषा-सुन्दरी रंजन-रत थी। | |||
नभ-तल था अनुराग-रँगा आभा-निर्गत थी॥ | |||
धीरे-धीरे तिरोभूत तामस होता था। | |||
ज्योति-बीज प्राची-प्रदेश में दिव बोता था॥1॥ | |||
किरणों का आगमन देख ऊषा मुसकाई। | |||
मिले साटिका-लैस-टँकी लसिता बन पाई॥ | |||
अरुण-अंक से छटा छलक क्षिति-तल पर छाई। | |||
भृंग गान कर उठे विटप पर बजी बधाई॥2॥ | |||
दिन मणि निकले, किरण ने नवलज्योति जगाई। | |||
मुक्त-मालिका विटप तृणावलि तक ने पाई॥ | |||
शीतल बहा समीर कुसुम-कुल खिले दिखाए। | |||
तरु-पल्लव जगमगा उठे नव आभा पाए॥3॥ | |||
सर-सरिता का सलिल सुचारु बना लहराया। | |||
बिन्दु-निचय ने रवि के कर से मोती पाया॥ | |||
उठ-उठ कर नाचने लगीं बहु-तरल तरंगें। | |||
दिव्य बन गईं वरुण-देव की विपुल उमंगें॥4॥ | |||
सारा-तम टल गया अंधता भव की छूटी। | |||
प्रकृति-कंठ-गत मुग्ध-करी मणिमाला टूटी॥ | |||
बीत गयी यामिनी दिवस की फिरी दुहाई। | |||
बनीं दिशाएँ दिव्य प्रभात प्रभा दिखलाई॥5॥ | |||
एक रम्यतम-नगर सुधा-धावलित-धामों पर। | |||
पड़ कर किरणें दिखा रही थीं दृश्य-मनोहर॥ | |||
गगन-स्पर्शी ध्वजा-पुंज के, रत्न-विमण्डित- | |||
कनक-दण्ड, द्युति दिखा बनाते थे बहु-हर्षित॥6॥ | |||
किरणें उनकी कान्त कान्ति से मिल जब लसतीं। | |||
निज आभा को जब उनकी आभा पर कसतीं॥ | |||
दर्शक दृग उस समय न टाले से टल पाते। | |||
वे होते थे मुग्ध, हृदय थे उछले जाते॥7॥ | |||
दमक-दमक कर विपुल-कलस जो कला दिखाते। | |||
उसे देख रवि ज्योति दान करते न अघाते॥ | |||
दिवस काल में उन्हें न किरणें तज पाती थीं। | |||
आये संध्या-समय विवश बन हट जाती थीं॥8॥ | |||
हिल हिल मंजुल-ध्वजा अलौकिकता थी पाती। | |||
दर्शक-दृग को बार-बार थी मुग्ध बनाती॥ | |||
तोरण पर से सरस-वाद्य ध्वनि जो आती थी। | |||
मानो सुन वह उसे नृत्य-रत दिखलाती थी॥9॥ | |||
इन धामों के पार्श्व-भाग में बड़ा मनोहर। | |||
एक रम्य-उपवन था नन्दन-वन सा सुन्दर॥ | |||
उसके नीचे तरल-तरंगायित सरि-धारा। | |||
प्रवह-मान हो करती थी कल-कल-रव न्यारा॥10॥ | |||
उसके उर में लसी कान्त-अरुणोदय-लाली। | |||
किरणों से मिल, दिखा रही थी कान्ति-निराली। | |||
कियत्काल उपरान्त अंक सरि का हो उज्ज्वल। | |||
लगा जगमगाने नयनों में भर कौतूहल॥11॥ | |||
उठे बुलबुले कनक-कान्ति से कान्तिमान बन। | |||
लगे दिखाने सामूहिक अति-अद्भुत-नर्तन॥ | |||
उठी तरंगें रवि कर का चुम्बन थीं करती। | |||
पाकर मंद-समीर विहरतीं उमग उभरतीं॥12॥ | |||
सरित-गर्भ में पड़ा बिम्ब प्रासाद-निचय का। | |||
कूल-विराजित विटप-राजि छाया अभिनय का॥ | |||
दृश्य बड़ा था रम्य था महा-मंजु दिखाता। | |||
लहरों में लहरा लहरा था मुग्ध बनाता॥13॥ | |||
उपवन के अति-उच्च एक मण्डप में विलसी। | |||
मूर्ति-युगल इन दृश्यों के देखे थी विकसी॥ | |||
इनमें से थे एक दिवाकर कुल के मण्डन। | |||
श्याम गात आजानु-बाहु सरसीरूह-लोचन॥14॥ | |||
मर्यादा के धाम शील-सौजन्य-धुरंधर। | |||
दशरथ-नन्दन राम परम-रमणीय-कलेवर॥ | |||
थीं दूसरी विदेह-नन्दिनी लोक-ललामा। | |||
सुकृति-स्वरूपा सती विपुल-मंजुल-गुण-धामा॥15॥ | |||
वे बैठी पति साथ देखती थीं सरि-लीला। | |||
था वदनांबुज विकच वृत्ति थी संयम-शीला॥ | |||
सरस मधुर वचनों के मोती कभी पिरोतीं। | |||
कभी प्रभात-विभूति विलोक प्रफुल्लित होतीं॥16॥ | |||
बोले रघुकुल-तिलक प्रिये प्रात:-छबि प्यारी। | |||
है नितान्त-कमनीय लोक-अनुरंजनकारी॥ | |||
प्रकृति-मृदुल-तम-भाव-निचय से हो हो लसिता। | |||
दिनमणि-कोमल-कान्ति व्याज से है सुविकसिता॥17॥ | |||
सरयू सरि ही नहीं सरस बन है लहराती। | |||
सभी ओर है छटा छलकती सी दिखलाती॥ | |||
रजनी का वर-व्योम विपुल वैचित्रय भरा है। | |||
दिन में बनती दिव्य-दृश्य-आधार धरा है॥18॥ | |||
हो तरंगिता-लसिता-सरिता यदि है भाती। | |||
तो दोलित-तरु-राजि कम नहीं छटा दिखाती॥ | |||
जल में तिरती केलि मयी मछलियाँ मनोहर। | |||
कर देती हैं सरित-अंक को जो अति सुन्दर॥19॥ | |||
तो तरुओं पर लसे विहरते आते जाते। | |||
रंग विरंगे विहग-वृन्द कम नहीं लुभाते॥ | |||
सरिता की उज्वलता तरुचय की हरियाली। | |||
रखती है छबि दिखा मंजुता-मुख की लाली॥20॥ | |||
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== |
10:01, 4 अप्रैल 2013 का अवतरण
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लोक-रंजिनी उषा-सुन्दरी रंजन-रत थी। |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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