"वैदेही वनवास पंचम सर्ग": अवतरणों में अंतर
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इच्छा है कुछ काल के लिए तुमको स्थानान्तरित करूँ। | इच्छा है कुछ काल के लिए तुमको स्थानान्तरित करूँ। | ||
इस प्रकार उपजा प्रतीति मैं प्रजा-पुंज की भ्रान्ति हरूँ॥ | इस प्रकार उपजा प्रतीति मैं प्रजा-पुंज की भ्रान्ति हरूँ॥ | ||
क्यों दूसरे पिसें, संकट में पड़, बहु | क्यों दूसरे पिसें, संकट में पड़, बहु दु:ख भोगते रहें। | ||
क्यों न लोक-हित के निमित्त जो सह पाएँ हम स्वयं सहें॥21॥ | क्यों न लोक-हित के निमित्त जो सह पाएँ हम स्वयं सहें॥21॥ | ||
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क्षमा कीजिए आकुलता में क्या कहते क्या कहा गया। | क्षमा कीजिए आकुलता में क्या कहते क्या कहा गया। | ||
नहीं उपस्थित कर सकती हूँ मैं कोई प्रस्ताव नया॥ | नहीं उपस्थित कर सकती हूँ मैं कोई प्रस्ताव नया॥ | ||
अपने | अपने दु:ख की जितनी बातें मैंने हो उद्विग्न कहीं। | ||
आपको प्रभावित करने का था उनका उद्देश्य नहीं॥25॥ | आपको प्रभावित करने का था उनका उद्देश्य नहीं॥25॥ | ||
पंक्ति 186: | पंक्ति 186: | ||
कहा राम ने प्रिये, अब 'प्रिये' कहते कुण्ठित होता हूँ। | कहा राम ने प्रिये, अब 'प्रिये' कहते कुण्ठित होता हूँ। | ||
अपने सुख-पथ में अपने हाथों मैं काँटे बोता हूँ॥ | अपने सुख-पथ में अपने हाथों मैं काँटे बोता हूँ॥ | ||
मैं | मैं दु:ख भोगूँ व्यथा सहूँ इसकी मुझको परवाह नहीं। | ||
पडूं संकटों में कितने निकलेगी मुँह से आह नहीं॥33॥ | पडूं संकटों में कितने निकलेगी मुँह से आह नहीं॥33॥ | ||
किन्तु सोचकर कष्ट तुमारा थाम कलेजा लेता हूँ। | किन्तु सोचकर कष्ट तुमारा थाम कलेजा लेता हूँ। | ||
कैसे क्या समझाऊँ जब मैं ही तुम को | कैसे क्या समझाऊँ जब मैं ही तुम को दु:ख देता हूँ॥ | ||
तो विचित्रता भला कौन है जो प्राय: घबराता हूँ। | तो विचित्रता भला कौन है जो प्राय: घबराता हूँ। | ||
अपने हृदय-वल्लभा को मैं वन-वासिनी बनाता हूँ॥34॥ | अपने हृदय-वल्लभा को मैं वन-वासिनी बनाता हूँ॥34॥ | ||
पंक्ति 292: | पंक्ति 292: | ||
कर याद दयानिधिता की। | कर याद दयानिधिता की। | ||
भूलूँगी बातें | भूलूँगी बातें दु:ख की॥ | ||
उर-तिमिर दूर कर देगी। | उर-तिमिर दूर कर देगी। | ||
रति चन्द-विनिन्दक मुख की॥54॥ | रति चन्द-विनिन्दक मुख की॥54॥ |
14:06, 2 जून 2017 के समय का अवतरण
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प्रकृति-सुन्दरी विहँस रही थी चन्द्रानन था दमक रहा। |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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