"सांसारिक प्रेम और देश प्रेम- प्रेमचंद": अवतरणों में अंतर

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शहर लन्दन के एक पुराने टूटे-फूटे होटल में जहाँ शाम ही से अँधेरा हो जाता है, जिस हिस्से में फ़ैशनेबुल लोग आना ही गुनाह समझते हैं और जहाँ जुआ, शराब-खोरी और बदचलनी के बड़े भयानक दृश्य हरदम आँख के सामने रहते हैं उस होटल में, उस बदचलनी के अखाड़े में इटली का नामवर देश-प्रेमी मैजि़नी ख़ामोश बैठा हुआ है। उसका सुन्दर चेहरा पीला है, आँखों से चिन्ता बरस रही है, होंठ सूखे हुए हैं, और शायद महीनों से हजामत नहीं बनी। कपड़े मैले-कुचैले हैं। कोई व्यक्ति जो मैजि़नी को पहले से न जानता हो, उसे देखकर यह ख़याल करने से नहीं रुक सकता कि हो न हो यह भी उन्ही अभागे लोगों में है जो अपनी वासनाओं के ग़ुलाम होकर ज़लील से ज़लील काम करते हैं।
शहर लन्दन के एक पुराने टूटे-फूटे होटल में जहाँ शाम ही से अँधेरा हो जाता है, जिस हिस्से में फ़ैशनेबुल लोग आना ही गुनाह समझते हैं और जहाँ जुआ, शराब-खोरी और बदचलनी के बड़े भयानक दृश्य हरदम आँख के सामने रहते हैं उस होटल में, उस बदचलनी के अखाड़े में इटली का नामवर देश-प्रेमी मैजि़नी ख़ामोश बैठा हुआ है। उसका सुन्दर चेहरा पीला है, आँखों से चिन्ता बरस रही है, होंठ सूखे हुए हैं, और शायद महीनों से हजामत नहीं बनी। कपड़े मैले-कुचैले हैं। कोई व्यक्ति जो मैजि़नी को पहले से न जानता हो, उसे देखकर यह ख़याल करने से नहीं रुक सकता कि हो न हो यह भी उन्ही अभागे लोगों में है जो अपनी वासनाओं के ग़ुलाम होकर ज़लील से ज़लील काम करते हैं।


मैजि़नी अपने विचारों में डूबा हुआ है। आह बदनसीब क़ौम! मज़लूम इटली! क्या तेरी क़िस्मतें कभी न सुधरेंगी, क्या तेरे सैकड़ों सपूतों का खून ज़रा भी रंग न लाएगा! क्या तेरे देश से निकाले हुए हज़ारों जाँनिसारों की आहों में ज़रा भी तासीर नहीं! क्या तू अन्याय और अत्याचार और ग़ुलामी के फन्दे में हमेशा गिरफ्तार रहेगी। शायद तुझमें अभी सुधरने, स्वतन्त्र होने की योग्यता नहीं आयी। शायद मेरी क़िस्मत में कुछ दिनों और जि़ल्लत और बर्बादी झेलनी लिखी है। आज़ादी, हाय आज़ादी, तेरे लिए मैंने कैसे-कैसे दोस्त, जान से प्यारे दोस्त कुर्बान किये। कैसे-कैसे नौजवान, होनहार नौजवान, जिनकी माँएँ और बीवियाँ आज उनकी क़ब्र पर आँसू बहा रही हैं और अपने कष्टों और आपदाओं से तंग आकर उनके वियोग के कष्ट में अभागे, आफ़त के मारे मैजि़नी को शाप दे रही हैं। कैसे-कैसे शेर जो दुश्मनों के सामने पीठ फेरना न जानते थे, क्या यह सब कुर्बानियाँ, यह सब भेंटें काफ़ी नहीं हैं? आज़ादी, तू ऐसी क़ीमती चीज़ है! हो तो फिर मैं क्यों जि़न्दा रहूँ? क्या यह देखने के लिए कि मेरा प्यारा वतन, मेरा प्यारा देश, धोखेबाज़, अत्याचारी दुश्मनों के पैरों तले रौंदा जाए, मेरे प्यारे भाई, मेरे प्यारे हमवतन,अत्याचार का शिकार बनें। नहीं मैं यह देखने के लिए जि़न्दा नहीं रह सकता!
मैजि़नी अपने विचारों में डूबा हुआ है। आह बदनसीब क़ौम! मज़लूम इटली! क्या तेरी क़िस्मतें कभी न सुधरेंगी, क्या तेरे सैकड़ों सपूतों का ख़ून ज़रा भी रंग न लाएगा! क्या तेरे देश से निकाले हुए हज़ारों जाँनिसारों की आहों में ज़रा भी तासीर नहीं! क्या तू अन्याय और अत्याचार और ग़ुलामी के फन्दे में हमेशा गिरफ्तार रहेगी। शायद तुझमें अभी सुधरने, स्वतन्त्र होने की योग्यता नहीं आयी। शायद मेरी क़िस्मत में कुछ दिनों और जि़ल्लत और बर्बादी झेलनी लिखी है। आज़ादी, हाय आज़ादी, तेरे लिए मैंने कैसे-कैसे दोस्त, जान से प्यारे दोस्त कुर्बान किये। कैसे-कैसे नौजवान, होनहार नौजवान, जिनकी माँएँ और बीवियाँ आज उनकी क़ब्र पर आँसू बहा रही हैं और अपने कष्टों और आपदाओं से तंग आकर उनके वियोग के कष्ट में अभागे, आफ़त के मारे मैजि़नी को शाप दे रही हैं। कैसे-कैसे शेर जो दुश्मनों के सामने पीठ फेरना न जानते थे, क्या यह सब कुर्बानियाँ, यह सब भेंटें काफ़ी नहीं हैं? आज़ादी, तू ऐसी क़ीमती चीज़ है! हो तो फिर मैं क्यों जि़न्दा रहूँ? क्या यह देखने के लिए कि मेरा प्यारा वतन, मेरा प्यारा देश, धोखेबाज़, अत्याचारी दुश्मनों के पैरों तले रौंदा जाए, मेरे प्यारे भाई, मेरे प्यारे हमवतन,अत्याचार का शिकार बनें। नहीं मैं यह देखने के लिए जि़न्दा नहीं रह सकता!


मैजि़नी इन्हीं ख़यालो में डूबा हुआ था कि उसका दोस्त रफेती जो उसके साथ निर्वासित किया गया था, इस कोठरी में दाख़िल हुआ। उसके हाथ में एक बिस्कुट का टुकड़ा था। रफेती उम्र में अपने दोस्त से दो-चार बरस छोटा था। भंगिमा से सज्जनता झलक रही थी। उसने मैजि़नी का कन्धा पकडक़र हिलाया और कहा-जोज़फ, यह लो, कुछ खा लो।
मैजि़नी इन्हीं ख़यालो में डूबा हुआ था कि उसका दोस्त रफेती जो उसके साथ निर्वासित किया गया था, इस कोठरी में दाख़िल हुआ। उसके हाथ में एक बिस्कुट का टुकड़ा था। रफेती उम्र में अपने दोस्त से दो-चार बरस छोटा था। भंगिमा से सज्जनता झलक रही थी। उसने मैजि़नी का कन्धा पकडक़र हिलाया और कहा-जोज़फ, यह लो, कुछ खा लो।
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क्रिसमस का दिन है, लन्दन में चारों तरफ़ खुशियों की गर्म बाज़ारी है। छोटे-बड़े, अमीर-ग़रीब सब अपने-अपने घर खुशियाँ मना रहे हैं और अपने अच्छे से अच्छे कपड़े पहनकर गिरजाघरों में जा रहे हैं। कोई उदास सूरत नज़र नहीं आती है। ऐसे वक़्त में मैजि़नी और रफेती दोनों उसी छोटी सी अँधेरी कोठरी में सर झुकाये खामोश बैठे हैं। मैजि़नी ठण्डी आहें भर रहा है और रफेती रह-रहकर दरवाज़े पर आता है और बदमस्त शराबियों को और दिनों से ज़्यादा बहकते और दीवानेपन की हरकतें करते देखकर अपनी ग़रीबी और मुहताजी की फ़िक्र दूर करना चाहता है। अफ़सोस! इटली का सरताज जिसकी एक ललकार पर हज़ारों आदमी अपना खून बहाने के लिए तैयार हो जाते थे, आज ऐसा मुहताज हो रहा है कि उसे खाने का ठिकाना नहीं। यहाँ तक कि आज सुबह से उसने एक सिगार भी नहीं पिया। तम्बाकू ही दुनिया की वह नेमत थी जिससे वह हाथ नहीं खींच सकता था और वह भी आज उसे नसीब न हुआ। मगर इस वक़्त उसे अपनी फ़िक्र नहीं रफेती,नौजवान, खुशहाल और ख़ूबसूरत होनहार रफेती की फ़िक्र जी पर भारी हो रही है। वह पूछता है कि मुझे क्या हक़ है कि मैं एक ऐसे आदमी को अपने साथ ग़रीबी की तकलीफे झेलने पर मजबूर करूँ जिसके स्वागत के लिए दुनिया की सब नेमतें बाँहें खोले खड़ी हैं।
क्रिसमस का दिन है, लन्दन में चारों तरफ़ खुशियों की गर्म बाज़ारी है। छोटे-बड़े, अमीर-ग़रीब सब अपने-अपने घर खुशियाँ मना रहे हैं और अपने अच्छे से अच्छे कपड़े पहनकर गिरजाघरों में जा रहे हैं। कोई उदास सूरत नज़र नहीं आती है। ऐसे वक़्त में मैजि़नी और रफेती दोनों उसी छोटी सी अँधेरी कोठरी में सर झुकाये खामोश बैठे हैं। मैजि़नी ठण्डी आहें भर रहा है और रफेती रह-रहकर दरवाज़े पर आता है और बदमस्त शराबियों को और दिनों से ज़्यादा बहकते और दीवानेपन की हरकतें करते देखकर अपनी ग़रीबी और मुहताजी की फ़िक्र दूर करना चाहता है। अफ़सोस! इटली का सरताज जिसकी एक ललकार पर हज़ारों आदमी अपना ख़ून बहाने के लिए तैयार हो जाते थे, आज ऐसा मुहताज हो रहा है कि उसे खाने का ठिकाना नहीं। यहाँ तक कि आज सुबह से उसने एक सिगार भी नहीं पिया। तम्बाकू ही दुनिया की वह नेमत थी जिससे वह हाथ नहीं खींच सकता था और वह भी आज उसे नसीब न हुआ। मगर इस वक़्त उसे अपनी फ़िक्र नहीं रफेती,नौजवान, खुशहाल और ख़ूबसूरत होनहार रफेती की फ़िक्र जी पर भारी हो रही है। वह पूछता है कि मुझे क्या हक़ है कि मैं एक ऐसे आदमी को अपने साथ ग़रीबी की तकलीफे झेलने पर मजबूर करूँ जिसके स्वागत के लिए दुनिया की सब नेमतें बाँहें खोले खड़ी हैं।


इतने में एक चिट्ठीरसा ने पूछा-जोज़ेफ मैजि़नी यहाँ कहीं रहता है? अपनी चिट्ठी ले जा।
इतने में एक चिट्ठीरसा ने पूछा-जोज़ेफ मैजि़नी यहाँ कहीं रहता है? अपनी चिट्ठी ले जा।

13:55, 31 जुलाई 2014 का अवतरण

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शहर लन्दन के एक पुराने टूटे-फूटे होटल में जहाँ शाम ही से अँधेरा हो जाता है, जिस हिस्से में फ़ैशनेबुल लोग आना ही गुनाह समझते हैं और जहाँ जुआ, शराब-खोरी और बदचलनी के बड़े भयानक दृश्य हरदम आँख के सामने रहते हैं उस होटल में, उस बदचलनी के अखाड़े में इटली का नामवर देश-प्रेमी मैजि़नी ख़ामोश बैठा हुआ है। उसका सुन्दर चेहरा पीला है, आँखों से चिन्ता बरस रही है, होंठ सूखे हुए हैं, और शायद महीनों से हजामत नहीं बनी। कपड़े मैले-कुचैले हैं। कोई व्यक्ति जो मैजि़नी को पहले से न जानता हो, उसे देखकर यह ख़याल करने से नहीं रुक सकता कि हो न हो यह भी उन्ही अभागे लोगों में है जो अपनी वासनाओं के ग़ुलाम होकर ज़लील से ज़लील काम करते हैं।

मैजि़नी अपने विचारों में डूबा हुआ है। आह बदनसीब क़ौम! मज़लूम इटली! क्या तेरी क़िस्मतें कभी न सुधरेंगी, क्या तेरे सैकड़ों सपूतों का ख़ून ज़रा भी रंग न लाएगा! क्या तेरे देश से निकाले हुए हज़ारों जाँनिसारों की आहों में ज़रा भी तासीर नहीं! क्या तू अन्याय और अत्याचार और ग़ुलामी के फन्दे में हमेशा गिरफ्तार रहेगी। शायद तुझमें अभी सुधरने, स्वतन्त्र होने की योग्यता नहीं आयी। शायद मेरी क़िस्मत में कुछ दिनों और जि़ल्लत और बर्बादी झेलनी लिखी है। आज़ादी, हाय आज़ादी, तेरे लिए मैंने कैसे-कैसे दोस्त, जान से प्यारे दोस्त कुर्बान किये। कैसे-कैसे नौजवान, होनहार नौजवान, जिनकी माँएँ और बीवियाँ आज उनकी क़ब्र पर आँसू बहा रही हैं और अपने कष्टों और आपदाओं से तंग आकर उनके वियोग के कष्ट में अभागे, आफ़त के मारे मैजि़नी को शाप दे रही हैं। कैसे-कैसे शेर जो दुश्मनों के सामने पीठ फेरना न जानते थे, क्या यह सब कुर्बानियाँ, यह सब भेंटें काफ़ी नहीं हैं? आज़ादी, तू ऐसी क़ीमती चीज़ है! हो तो फिर मैं क्यों जि़न्दा रहूँ? क्या यह देखने के लिए कि मेरा प्यारा वतन, मेरा प्यारा देश, धोखेबाज़, अत्याचारी दुश्मनों के पैरों तले रौंदा जाए, मेरे प्यारे भाई, मेरे प्यारे हमवतन,अत्याचार का शिकार बनें। नहीं मैं यह देखने के लिए जि़न्दा नहीं रह सकता!

मैजि़नी इन्हीं ख़यालो में डूबा हुआ था कि उसका दोस्त रफेती जो उसके साथ निर्वासित किया गया था, इस कोठरी में दाख़िल हुआ। उसके हाथ में एक बिस्कुट का टुकड़ा था। रफेती उम्र में अपने दोस्त से दो-चार बरस छोटा था। भंगिमा से सज्जनता झलक रही थी। उसने मैजि़नी का कन्धा पकडक़र हिलाया और कहा-जोज़फ, यह लो, कुछ खा लो।

मैजि़नी ने चौंककर सर उठाया और बिस्कुट देखकर बोला-यह कहाँ से लाये? तुम्हारे पास पैसे कहाँ थे?

रफेती-पहले खा लो फिर यह बातें पूछना, तुमने कल शाम से कुछ नहीं खाया है।

मैजि़नी-पहले यह बता दो, कहाँ से लाये। जेब में तम्बाकू का डिब्बा भी नज़र आता है। इतनी दौलत कहाँ हाथ लगी?

रफेती-पूछकर क्या करोगे? वही अपना नया कोट जो माँ ने भेजा था, गिरो रख आया हूँ।

मैजि़नी ने एक ठण्डी साँस ल़ी, आँखों से आँसू टप-टप ज़मीन पर गिर पड़े। रोते हुए बोला-यह तुमने क्या हरकत की, क्रिसमस के दिन आते हैं, उस वक़्त क्या पहनोगे? क्या इटली के एक लखपती व्यापारी का इकलौता बेटा क्रिसमस के दिन भी ऐसे ही फटे-पुराने कोट में बसर करेगा? ऐं?

रफेती-क्यों, क्या उस वक़्त तक कुछ आमदनी न होगी, हम तुम दोनों नये जोड़े बनवाएँगे और अपने प्यारे देश की आने-वाली आज़ादी के नाम पर खुशियाँ मनाएँगे।

मैजि़नी-आमदनी की तो कोई सूरत नज़र नहीं आती। जो लेख मासिक पत्रिकाओं के लिए लिखे गये थे, वह वापस ही आ गये। घर से जो कुछ मिलता है, वह कब का ख़त्म हो चुका। अब और कौन-सा ज़रिया है।

रफेती-अभी क्रिसमस को हफ़्ता भर पड़ा है। अभी से उसकी क्या फ़िक्र करें। और अगर मान लो यही कोट पहना तो क्या? तुमने नहीं मेरी बीमारी में डाक्टर की फीस के लिए मैग्डलीन की अँगूठी बेच डाली थी? मैं जल्दी ही यह बात उसे लिखने वाला हूँ, देखना तुम्हें कैसा बनाती है !

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क्रिसमस का दिन है, लन्दन में चारों तरफ़ खुशियों की गर्म बाज़ारी है। छोटे-बड़े, अमीर-ग़रीब सब अपने-अपने घर खुशियाँ मना रहे हैं और अपने अच्छे से अच्छे कपड़े पहनकर गिरजाघरों में जा रहे हैं। कोई उदास सूरत नज़र नहीं आती है। ऐसे वक़्त में मैजि़नी और रफेती दोनों उसी छोटी सी अँधेरी कोठरी में सर झुकाये खामोश बैठे हैं। मैजि़नी ठण्डी आहें भर रहा है और रफेती रह-रहकर दरवाज़े पर आता है और बदमस्त शराबियों को और दिनों से ज़्यादा बहकते और दीवानेपन की हरकतें करते देखकर अपनी ग़रीबी और मुहताजी की फ़िक्र दूर करना चाहता है। अफ़सोस! इटली का सरताज जिसकी एक ललकार पर हज़ारों आदमी अपना ख़ून बहाने के लिए तैयार हो जाते थे, आज ऐसा मुहताज हो रहा है कि उसे खाने का ठिकाना नहीं। यहाँ तक कि आज सुबह से उसने एक सिगार भी नहीं पिया। तम्बाकू ही दुनिया की वह नेमत थी जिससे वह हाथ नहीं खींच सकता था और वह भी आज उसे नसीब न हुआ। मगर इस वक़्त उसे अपनी फ़िक्र नहीं रफेती,नौजवान, खुशहाल और ख़ूबसूरत होनहार रफेती की फ़िक्र जी पर भारी हो रही है। वह पूछता है कि मुझे क्या हक़ है कि मैं एक ऐसे आदमी को अपने साथ ग़रीबी की तकलीफे झेलने पर मजबूर करूँ जिसके स्वागत के लिए दुनिया की सब नेमतें बाँहें खोले खड़ी हैं।

इतने में एक चिट्ठीरसा ने पूछा-जोज़ेफ मैजि़नी यहाँ कहीं रहता है? अपनी चिट्ठी ले जा।

रफेती ने खत ले लिया और खुशी के जोश से उछल कर बोला-जोज़ेफ, यह लो मैग्डलीन का खत है।

मैजि़नी ने चौंककर ख़त ले लिया और बड़ी बेसब्री से खोला। लिफ़ाफा खोलते ही थोड़े से बालों का एक गुच्छा गिर पड़ा, जो मैग्डलीन ने क्रिसमस के उपहार के रूप में भेजा था, मैजि़नी ने उस गुच्छे को चूमा और उसे उठाकर अपने सीने की जेब में खोंस लिया। ख़त में लिखा था-

माइ डियर जोज़फ,

यह तुच्छ भेंट स्वीकार करो। भगवान करे तुम्हें एक सौ क्रिसमस देखने नसीब हों। इस यादगार को हमेशा अपने पास रखना और ग़रीब मैग्डलीन को भूलना मत। मैं और क्या लिखूँ। कलेजा मुँह को आया जाता है। हाय, जोज़ेफ मेरे प्यारे, मेरे स्वामी, मेरे मालिक जोज़ेफ, तू मुझे कब तक तड़पाएगा! अब ज़ब्त नहीं होता। आँखों में आँसू उमड़े आते हैं। मैं तेरे साथ मुसीबतें झेलूँगी, भूखों मरूँगी, यह सब मुझे गवारा है, मगर तुझसे जुदा रहना गवारा नहीं। तुझे क़सम है, तुझे अपने ईमान की क़सम है, तुझे अपने वतन की क़सम, तुझे मेरी क़सम, यहाँ आजा, यह आँखें तरस रही हैं, कब तुझे देखूँगी। क्रिसमस क़रीब है, मुझे क्या, जब तक जि़न्दा हूँ, तेरी हूँ।

तुम्हारी

मैग्डलीन

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मैग्डलीन का घर स्विटज़रलैण्ड में था। वह एक समृद्घ व्यापारी की बेटी थी और अनिन्द्य सुन्दरी। आन्तरिक सौन्दर्य में भी उसका जोड़ मिलना मुश्किल था। कितने ही अमीर और रईस लोग उसका पागलपन सर में रखते थे, मगर वह किसी को कुछ ख़याल में न लाती थी। मैजि़नी जब इटली से भागा तो स्विटज़रलैण्ड में आकर शरण ली। मैग्डलीन उस वक़्त भोली-भाली, जवानी की गोद में खेल रही थी। मैजि़नी की हिम्मत और कुर्बानियों की तारीफें पहले ही सुन चुकी थी। कभी-कभी अपनी माँ के साथ उसके यहाँ आने लगी और आपस का मिलना-जुलना जैसे-जैसे बढ़ा और मैजि़नी के भीतरी सौन्दर्य का ज्यों-ज्यों उसके दिल पर गहरा असर होता गया, उसकी मुहब्बत उसके दिल मे पक्की होती गयी। यहाँ तक कि उसने एक दिन खुद लाज शर्म को किनारे रखकर मैजि़नी के पैरों पर सिर रख़ दिया और कहा-मुझे अपनी सेवा मे स्वीकार कर लीजिए।

मैजि़नी पर भी उस वक़्त जवानी छाई हुई थी, देश की चिन्ताओं ने अभी दिल को ठण्डा नहीं किया था। जवानी की पुरजोश उम्मीदें दिल में लहरें मार रही थीं, मगर उसने संकल्प कर लिया था कि मैं देश और जाति पर अपने को न्योछावर कर दूँगा। और इस संकल्प पर क़ायम रहा। एक ऐसी सुन्दर युवती के नाजुक-नाजुक होंठों से ऐसी दरख्वास्त सुनकर रद्द कर देना मैजि़नी ही जैसे संकल्प के पक्के हियाव के पूरे आदमी का काम था।

मैग्डलीन भीगी-भीगी आँखें लिये उठी मगर निराश न हुई थी। इस असफलता ने उसके दिल में प्रेम की आग और भी तेज़ कर दी और गोया आज मैजि़नी को स्विटज़रलैन्ड छोड़े कई साल गुज़रे मगर वफ़ादार मैग्डलीन अभी तक मैजि़नी को नहीं भूली। दिनों के साथ उसकी मुहब्बत और भी गाढ़ी और सच्ची होती जाती है।

मैजि़नी ख़त पढ़ चुका तो एक लम्बी आह भरकर रफेती से बोला-देखा मैग्डलीन क्या कहती है?

रफेती-उस ग़रीब की जान लेकर दम लोगे!

मैजि़नी फिर ख़याल में डूबा-मैग्डलीन, तू नौजवान है, सुन्दर है, भगवान ने तुझे अकूत दौलत दी है, तू क्यों एक ग़रीब, दुखियारे, कंगाल, फक्कड़, परदेश में मारे-मारे फिरने वाले आदमी के पीछे अपनी जि़न्दगी मिट्टी में मिला रही है! मुझ जैसा मायूस, आफ़त का मारा हुआ आदमी तुझे क्योंकर खुश रख सकेगा? नहीं, नहीं मैं ऐसा स्वार्थी नहीं हूँ। दुनिया में बहुत से ऐसे हँसमुख खुशहाल नौजवान हैं जो तुझे खुश रख सकते हैं जो तेरी पूजा कर सकते हैं। क्यों तू उनमें से किसी को अपनी ग़ुलामी में नहीं ले लेती! मैं तेरे प्रेम, सच्चे, नेक और नि:स्वार्थ प्रेम का आदर करता हूँ। मगर मेरे लिए, जिसका दिल देश और जाति पर समर्पित हो चुका है, तू एक प्यारी और हमदर्द बहन के सिवा और कुछ नहीं हो सकती। मुझमें ऐसी क्या खूबी है, ऐसे कौन से गुण हैं कि तुझ जैसी देवी मेरे लिए ऐसी मुसीबतें झेल रही है। आह मैजि़नी , कम्बख्त मैजि़नी, तू कहीं का न हुआ। जिनके लिए तूने अपने को न्योछावर कर दिया , वह तेरी सूरत से नफ़रत करते हैं। जो तेरे हमदर्द हैं, वह समझते हैं तू सपने देख रहा है।

इस ख़यालों से बेबस होकर मैजि़नी ने क़लम-दावात निकाली और मैग्डलीन को ख़त लिखना शुरू किया?

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प्यारी मैग्डलीन,

तुम्हारा ख़त उस अनमोल तोहफ़ा के साथ आया। मैं तुम्हारा हृदय से कृतज्ञ हूँ कि तुमने मुझ जैसे बेकस और बेबस आदमी को इस भेंट के क़ाबिल समझा। मैं उसकी हमेशा क़द्र करूँगा। यह मेरे पास हमेशा एक सच्चे नि:स्वार्थ और अमर प्रेम की स्मृति के रूप में रहेगी और जिस वक़्त यह मिट्टी का शरीर क़ब्र की गोद में जाएगा मेरी आख़िरी वसीयत यह होगी कि यह यादगार मेरे जनाज़े के साथ दफ़न कर दी जाय। मैं शायद खुद उस ताक़त का अन्दाजा नहीं लगा सकता जो मुझे इस ख़याल से मिलती है , कि दुनिया में जहाँ चारों तरफ़ मेरे बारे में बदगुमानियाँ फैल रही हैं, कम से कम एक ऐसी नेक औरत है जो मेरी नियत की सफाई और मेरी बुराइयों से पाक कोशिशों पर सच्ची निष्ठा रखती है और शायद तुम्हारी हमदर्दी का यक़ीन है कि मैं ज़िन्दगी की ऐसी कठिन परीक्षाओं में सफल होता जाता हूँ।

मगर प्यारी बहन, मुझे कोई तकलीफ़ नहीं है। तुम मेरी तकलीफों के ख़याल से अपना दिल मत दुखाना। मैं बहुत आराम से हूँ। तुम्हारे प्रेम जैसी अक्षयनिधि पाकर भी अगर मैं कुछ थोड़े से शारिक कष्टों का रोना रोऊँ तो मुझ जैसा अभागा आदमी दुनिया में कौन होगा।

मैंने सुना है, तुम्हारी सेहत रोज़-ब-रोज़ गिरती जाती है। मेरा जी बेअख्तियार चाहता है कि तुझे देखूँ। काश मैं आज़ाद होता, काश मेरा दिल इस क़ाबिल होता कि तुझे भेंट चढ़ा सकता। मगर एक पज़मुर्दा, उदास दिल तेरे क़ाबिल नहीं। मैग्डलीन, खुदा के वास्ते अपनी सेहत का ख़याल रक्खो, मुझे शायद इससे ज़्यादा और किसी बात की तकलीफ़ न होगी कि प्यारी मैग्डलीन तकलीफ़ में है और मेरे लिए! तेरा पाकीज़ा चेहरा इस वक़्त निगाहों के सामने है। मेगा! देखो मुझसे नाराज़ न हो। खुदा की क़सम, मैं तुम्हारे क़ाबिल नहीं हूँ। आज क्रिसमस का दिन है तुम्हें क्या तेहफ़ा भेजँू। खुदा तुम पर हमेशा अपनी बेइन्तहा बरकतों का साया रक्खें। अपनी माँ को मेरी तरफ़ से सलाम कहना। तुम लोगों को देखने की इच्छा है। देखें कब तक पूरी होती है।

तेरा जोज़ेफ।

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इस वाक़ये के बाद बहुत दिन गुज़र गये। जोजेफ़ मैजि़नी फिर इटली पहुँचा और रोम में पहली बार जनता के राज्य का एलान किया गया। तीन आदमी राज्य की व्यवस्था के लिए निर्वाचन किये गये। मैजि़नी भी उनमें एक था। मगर थोड़े ही दिनों में फ्रांस की ज़्यादातियों और पीडमाण्ट के बादशाह की दग़ाबाजि़यों की बदौलत इस जनता के राज का ख़ात्मा हो गया और उसके कर्मचारी और मन्त्री अपनी जानें लेकर भाग निकले। मैजि़नी अपने विश्वसनीय मित्रों की दग़ाबाजी और मौक़ा-परस्ती पर पेचोताब खाता हुआ ख़स्ताहाल और परेशान रोम की गलियों कि ख़ाक छानता फिरता था। उसका यह सपना कि रोम को मैं ज़रूर एक दिन जनता के राज का केन्द्र बनाकर छोडँूगा, पूरा होकर फिर तितर-बितर हो गया।

दोपहर का वक़्त था, धूप से परेशान होकर वह एक पेड़ की छाया में ज़रा दम लेने के लिए ठहर गया कि सामने से एक लेडी आती हुई दिखाई दी। उसका चेहरा पीला था, कपड़े बिलकुल सफेद और सादा, उम्र तीस साल से ज़्यादा। मैजि़नी आत्म-विस्मृति की दशा में था कि यह स्त्री प्रेम से व्यग्र होकर उसके गले लिपट गयी। मैजि़नी ने चौक़कर, देखा, बोला-प्यारी मैग्डलीन, तुम हो! यह कहते-कहते उसकी आँखें भीग गयीं। मैग्डलीन ने रोकर कहा-जोज़ेफ!और मुँह से कुछ न निकला।

दोनों ख़ामोश कई मिनट तक रोते रहे। आख़िर मैजि़नी बोला-तुम यहाँ कब आयी, मेगा?

मैग्डलीन -मैं यहाँ कई महीने से हूँ, मगर तुमसे मिलने की कोई सूरत नहीं निकलती थी। तुम्हें काम-काज में डूबा हुआ देखकर और यह समझकर कि अब तुम्हें मुझ जैसी औरत की हमदर्दी की ज़रूरत बाक़ी नहीं रही, तुमसे मिलने की कोई ज़रूरत न देखती थी। (रुककर) क्यों जोज़फ, यह क्या कारण है कि अक्सर लोग तुम्हारी बुराई किया करते हैं? क्या वह अन्धे हैं, क्या भगवान ने उन्हें आँखें नहीं दीं?

जोज़ेफ-मेगा, शायद वह लोग सच कहते होंगे। फ़िलहाल मुझमें वह गुण नहीं है जो मैं शान के मारे अक्सर कहा करता हूँ कि मुझमें हैं या जिन्हें तुम अपनी सरलता और पवित्रता के कारण मुझमें मौजूद समझती हो। मेरी कमज़ोरियाँ रोज़-ब-रोज़ मुझे मालूम होती जाती हैं।

मैग्डलीन -तभी तो तुम इस काबिल हो कि तैं तुम्हारी पूजा करूँ। मुबारक है वह इन्सान जो खुदी को मिटाकर अपने को हेच समझने लगे। जोज़ेफ भगवान के लिए मुझे इस तरह अपने से मत अलग करो। मैं तुम्हारी हो गयी हूँ और मुझे विश्वास है कि तुम वैसे ही पाक साफ़ हो जैसा हमारा ईसू था। यह ख़याल मेरे मन पर अंकित हो गया है और अगर उसमें ज़रा कमज़ोरी आ गयी थी तो तुम्हारी इस वक्त की बातचीत ने उसे और भी पक्का कर दिया। बेशक तुम फ़रिश्ते हो। मगर मुझे अफ़सोस है कि दुनिया में क्यों लोग इतने तंग-दिल और अन्धे होते हैं और ख़ासतौर पर वह लोग जिन्हें मैं तंग ख़यालो से ऊपर समझती थी। रेफेती, रसारीनो, पलाइनो, बर्नाबास यह सब के सब तुम्हारे दोस्त हैं। तुम उन्हें अपना दोस्त समझते हो, मगर वह सब तुम्हारे दुश्मन हैं और उन्होंने मुझसे मेरे सामने सैकड़ों ऐसी बातें तुम्हारे बारे में कही हैं जिनका मैं मरकर भी यकीन नहीं कर सकती। वह सब ग़लत झूठ बकते हैं, हमारा प्यारा जोज़ेफ वैसा ही है जैसा मैं समझती थी बल्कि उससे भी अच्छा। क्या यह भी तुम्हारी एक जाती खूबी नहीं है कि तुम अपने दुश्मनों को भी अपना दोस्त समझते हो?

जोज़फ से अब सब्र न हो सका। मैग्डलीन के मुरझाये हुए पीले-पीले हाथो को चूमकर कहा-प्यारी मेगा, मेरे दोस्त बेक़सूर हैं और मैं खुद दोषी हूँ। (रोकर) जो कुछ उन्होंने कहा वह सब मेरे ही इशारे और मर्ज़ी के अनुसार था, मैंने तुमसे दग़ा की मगर मेरी प्यारी बहन, यह सिर्फ इसलिए था कि तुम मेरी तरफ़ से बेपरवाह हो जाओ और अपनी जवानी के ब़ाकी दिन खुशी से बसर करो। मैं बहुत शर्मिन्दा हूँ। मैंने तुम्हें ज़रा भी न समझा था। मैं तुम्हारे प्रेम की गहराई से अपरिचित था क्योंकि मैं जो चाहता था उसका उल्टा असर हुआ। मगर मेगा, मैं माँफी चाहता हूँ।

मैग्डलीन -हाय, जोज़ेफ, तुम मुझसे माफ़ी माँगते हो, ऐं, तुम जो दुनिया के सब इन्सानों से ज़्यादा नेक, ज़्यादा सच्चे और ज़्यादा लायक़ हो! मगर हाँ, बेशक तुमने मुझे बिलकुल न समझा था जोज़ेफ! यह तुम्हारी ग़लती थी। मुझे ताज्जुब तो यह है कि तुम्हारा ऐसा पत्थर का दिल कैसे हो गया।

जोज़फ-मेगा, ईश्वर जानता है जब मैंने रफेती को यह सब सिखा-पढ़ाकर तुम्हारे पास भेजा है, उस वक़्त मेरे दिल की क्या कैफ़ियत थी। मैं जो दुनिया में नेकनामी को सबसे ज़्यादा क़ीमती समझता हूँ और मैं जिसने दुश्मनों के ज़ाती हमलों को कभी पूरी तरह काटे बिना न छोड़ा, अपने मुँह से सिखाऊँ कि जाकर मुझे बुरा कहो! मगर यह केवल इसलिए था कि तुम अपने शरीर का ध्यान रक्खो और मुझे भूल जाओ।

सच्चाई यह थी कि मैजि़नी ने मैग्डलीन के प्रेम को रोज़-ब-रोज़ बढ़ते देखकर एक ख़ास हिकमत की थी। उसे खूब मालूम था कि मैग्डलीन के प्रेमियों में से कितने ही ऐसे हैं जो उससे ज़्यादा सुन्दर, ज़्यादा दौलतमन्द और ज़्यादा अक़्लवाले हैं, मगर वह किसी को ख़याल में नहीं लाती। मुझमें उसके लिए जो ख़ास आकर्षण है, वह मेरे कुछ ख़ास गुण हैं और अगर मेरे ऐसे मित्र, जिनका आदर मैग्डलीन भी करती है, उससे मेरी शिकायत करके इन गुणों का महत्व उसके दिल से मिटा दें तो वह खुद-ब-खुद मुझे भूल जाएगी। पहले तो उसके दोस्त इस काम के लिए तैयार न होते थे मगर इस डर से कि कही मैग्डलीन ने घुल-घुलकर जान दे दी तो मैजि़नी जि़न्दगी भर हमें माफ़ न करेगा, उन्होंने यह अप्रिय काम स्वीकार कर लिया था। वह स्विटज़रलैण्ड गये और जहाँ तक उनकी जबान में ताक़त थी, अपने दोस्त की पीठ पीछे बुराई करने में खर्च की। मगर मैग्डलीन पर मुहब्बत का रंग ऐसा गहरा चढ़ा हुआ था कि इन कोशिशों का इसके सिवाय और कोई नतीजा न हो सकता था जो हुआ। वह एक रोज़ बेक़रार होकर घर से निकल खड़ी हुई और रोम में आकर एक सराय में ठहर गयी। यहाँ उसका रोज़ का नियम था कि मैजि़नी के पीछे-पीछे उसकी निगाह से दूर घूमा करती मगर उसे आश्वस्त और अपनी सफलता से प्रसन्न देखकर उसे छेडऩे का साहस न करती थी। आख़िरकार जब फिर उस पर असफलताओं का वार हुआ और वह फिर दुनिया में बेकस और बेबस हो गया तो मैग्डलीन ने समझा, अब इसको किसी हमदर्द की ज़रूरत है। और पाठक देख चुके हैं जिस तहर वह मैजि़नी से मिली।

6


मैजि़नी रोम से फिर इंगलिस्तान पहुँचा और यहाँ एक अरसे तक रहा। सन् 1870 में उसे ख़बर मिली कि सिसली की रिआया बग़ावत पर आमादा है और उन्हें मैदाने जंग में लाने के लिए एक उभारने वाले की ज़रूरत है। बस वह फ़ौरन सिसली पहुँचा मगर उसके जाने के पहले शाही फ़ौज ने बाग़ियों को दबा दिया था। मैजि़नी जहाज़ से उतरते ही गिरफ्तार करके एक कै़दखाने में डाल दिया गया। मगर चूँकि अब वह बहुत बुड्ढा हो गया था, शाही हुक्काम ने इस डर से कि कहीं वह क़ैद की तकलीफों से मर जाय तो जनता को सन्देह होगा कि बादशाह की प्रेरणा से वह क़त्ल कर डाला गया, उसे रिहा कर दिया। निराश और टूटा हुआ दिल लिये मैजि़नी स्विटज़रलैण्ड की तरफ़ रवाना हुआ। उसकी जि़न्दगी की तमाम उम्मीदें ख़ाक में मिल गयीं। इसमें शक नहीं कि इटली के एकताबद्घ हो जाने के दिन बहुत पास आ गये थे मगर उसकी हुकूमत की हालत उससे हरिगज बेहतर न थी जैसी आस्ट्रिया या नेपल्स के शासन-काल में। अन्तर यह था कि पहले वह एक दूसरी क़ौम की ज़्यादातियों से परेशान थे, अब अपनी क़ौम के हाथों। इन निरन्तर असफलताओं ने दृढ़व्रती मैजि़नी के दिल में यह ख़याल पैदा किया कि शायद जनता की राजनीतिक शिक्षा इस हद तक नहीं हुई, कि वह अपने लिए एक प्रजातान्त्रिक शासन-व्यवस्था की बुनियाद डाल सके और इसी नियत से वह स्विट्जरलैण्ड जा रहा था कि वहाँ से एक ज़बर्दस्त क़ौमी अख़बार निकाले, क्योंकि इटली में उसे अपने विचारों को फैलाने की इजाज़त न थी। वह रात भर नाम बदलकर रोम में ठहरा। फिर वहाँ से अपनी जन्मभूमि जिनेवा में आया और अपनी नेक माँ की क़ब्र पर फूल चढ़ाये। इसके बाद स्विटज़लैण्ड की तरफ़ चला और साल भर तक कुछ विश्वसनीय मित्रों की सहायता से अख़बार निकालता रहा। मगर निरन्तर चिन्ता और कष्टों ने उसे बिलकुल क़मज़ोर कर दिया था। सन् १८७० में वह सेहत के ख़याल से इंगलिस्तान आ रहा था कि आल्पस पर्वत की तलहटी में निमोनिया की बीमारी ने उसके जीवन का अन्त कर दिया और वह एक अरमानों से भरा हुआ दिल लिये स्वर्ग को सिधारा। इटली का नाम मरते दम उसकी ज़बान पर था। यहाँ भी उसके बहुत से समर्थक और हमदर्द शरीक थे। उसका जनाज़ा बड़ी धूम से निकला। हज़ारों आदमी साथ थे और एक बड़ी सुहानी खुली हुई जगह पर पानी के एक साफ़ चश्मे के किनारे पर क़ौम के लिए मर मिटने वाले को सुला दिया गया।

7


मैंजि़नी को क़ब्र में सोये हुए आज तीन दिन गुज़र गये। शाम का वक़्त था, सूरज की पीली किरणें इस ताज़ा क़ब्र पर हसरतभरी आँखों से ताक रही हैं। तभी एक अधेड़ ख़ूबसूरत औरत, सुहाग के जोड़े पहने, लडख़ड़ाती हुई आयी। यह मैग्डलीन थी। उसका चेहरा शोक में डूबा हुआ था, बिल्कुल मुर्झाया हुआ, कि जैसे अब इस शरीर में जान बाक़ी नहीं रही। वह इस क़ब्र के सिरहाने बैठ गयी और अपने सीने पर खुँसे हुए फूल उस पर चढ़ाये, फिर घुटनों के बल बैठकर सच्चे दिल से दुआ करती रही। जब खूब अँधेरा हो गया, बर्फ़ पडऩे लगी तो वह चुपके से उठी और ख़ामोश सर झुकाये क़रीब के एक गाँव में जाक़र रात बसर की और भोर की बेला अपने मकान की तरफ़ रवाना हुई।

मैग्डलीन अब अपने घर की मालिक थी। उसकी माँ बहुत ज़माना हुआ, मर चुकी थी। उसने मैजि़नी के नाम से एक आश्रम बनवाया और खुद आश्रम की ईसाई लेडियों के लिबास में वहाँ रहने लगी। मैजि़नी का नाम उसके लिए एक निहायत पुरदर्द और दिलकश गीत से कम न था। हमदर्दों और क़द्रदानों के लिए उसका घर उनका अपना घर था। मैजि़नी के ख़त उसकी इंजील और मैजि़नी का नाम उसका ईश्वर था। आस-पास के ग़रीब लडक़ों और मुफ़लिस बीवियों के लिए यही बरकत से भरा हुआ नाम जीविका का साधन था। मैग्डलीन तीन बरस तक जि़न्दा रही और जब मरी तो अपनी आख़िरी वसीयत के मुताबिक उसी आश्रम में दफ़न की गयी। उसका प्रेम मामूली प्रेम न था, एक पवित्र और निष्कलंक भाव था और वह हमको उन प्रेम-रस में डूबी हुई गोपियों की याद दिलाता है जो श्रीकृष्ण के प्रेम वृन्दावन की कुंजों और गलियों में मँडराया करती थीं, जो उससे मिले होने पर भी उससे अलग थीं और जिनके दिलों में प्रेम के सिवा और किसी चीज़ की जगह न थी। मैजि़नी का आश्रम आज तक क़ायम है और ग़रीब और साधु-सन्त अभी तक मैजि़नी का पवित्र नाम लेकर वहाँ हर तरह का सुख पाते हैं।

टीका टिप्पणी और संदर्भ


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