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'''सप्तपदी''' [[हिन्दू धर्म]] में [[विवाह संस्कार]] का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। इसमें वर उत्तर दिशा में वधु को सात मंत्रों के द्वारा सप्त मण्डलिकाओं में सात पदों तक साथ ले जाता है। इस क्रिया के समय वधु भी दक्षिण पाद उठाकर पुन: वामपाद मण्डलिकाओं में रखती है। विवाह के समय सप्तपदी क्रिया के बिना विवाह कर्म पक्का नहीं होता है। [[अग्नि]] की चार परिक्रमाओं से यह कृत्य अलग है। जिस विवाह में सप्तपदी होती है, वह 'वैदिक विवाह' कहलाता है। सप्तपदी वैदिक विवाह का अभिन्न अंग है। इसके बिना विवाह पूरा नहीं माना जाता। सप्तपदी के बाद ही कन्या को वर के वाम अंग में बैठाया जाता है।
'''सप्तपदी''' [[हिन्दू धर्म]] में [[विवाह संस्कार]] का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। इसमें वर उत्तर दिशा में वधु को सात मंत्रों के द्वारा सप्त मण्डलिकाओं में सात पदों तक साथ ले जाता है। इस क्रिया के समय वधु भी दक्षिण पाद उठाकर पुन: वामपाद मण्डलिकाओं में रखती है। विवाह के समय सप्तपदी क्रिया के बिना विवाह कर्म पक्का नहीं होता है। [[अग्नि]] की चार परिक्रमाओं से यह कृत्य अलग है। जिस विवाह में सप्तपदी होती है, वह 'वैदिक विवाह' कहलाता है। सप्तपदी वैदिक विवाह का अभिन्न अंग है। इसके बिना विवाह पूरा नहीं माना जाता। सप्तपदी के बाद ही कन्या को वर के वाम अंग में बैठाया जाता है।
==अनिवार्य कर्म==
हिन्दू धर्म में [[विवाह]] के समय फेरे इत्यादि समस्त आवश्यक कार्य पूर्ण हो जाने पर भी, जब तक कन्या वर के वाम भाग में नहीं आती, तब तक विवाह कार्य सम्पन्न नहीं होता तथा कन्या भी तब तक कुमारी ही कहलाती है। 'सप्तपदी' वैदिक विवाह का अभिन्न अंग है। इसके बिना विवाह पूरा नहीं माना जाता। सप्तपदी के बाद ही कन्या को वर के वाम अंग में बैठाया जाता है-
<blockquote>"यावत्कन्या न वामांगी तावत्कन्या कुमारिका"</blockquote>
जब तक कन्या वर के वामांग की अधिकारिणी नहीं होती, उसे कुमारी ही कहा जाएगा। चाहे [[माता]]-[[पिता]] कन्यादान भी कर दें, भाई लाजा होम भी करवा दें, पाणिग्रहण संस्कार भी हो जाए, लेकिन जब तक सप्तपदी नहीं होती, तब तक वर और कन्या पति-पत्नी नहीं बनते। वैदिक विवाह में अंतिम अधिकार कन्या को ही दिया गया है। जब तक सप्तपदी के सातों वचन पूरे नहीं हो जाते और कन्या वर के वाम अंग में नहीं बैठ जाती, तब तक विवाह पूरा माना ही नहीं जाएगा। आधुनिक विचारधारा के लोग चाहे इसे दिखावा ही क्यों न कहें, लेकिन उन्हें भी ये जान कर हैरानी होगी कि इसमें दोनों बराबर हैं और सातवें पद के बाद दोनों सखा बन जाते हैं। दुनिया की किसी विवाह पद्धति में ऐसा बराबर का रिश्ता नहीं है।
==सात वचन==
प्राचीन काल से ही [[भारत]] में विवाह के समय सात वचनों का [[हिन्दू]] समाज में बहुत अधिक प्रभाव रहा है। यह सात वचन वर-वधू को सुखी दाम्पत्य जीवन की ओर प्रेरित करते हैं। कन्या का विवाह करते समय किसी भी माता-पिता के मन में यह आशंका तो रहती ही है कि विवाह के पश्चात उनकी पुत्री का जीवन कैसा व्यतीत होगा? ससुराल में उसके साथ कैसा व्यवहार किया जाएगा? माता-पिता की इसी आशंका को दूर करने के लिए ही युगों पूर्व [[ऋषि]]-मुनियों द्वारा ऐसी व्यवस्था की गई, जिससे विवाह के पश्चात भी कन्या को किसी कष्ट का सामना न करना पडे। इसके लिए कन्या पति के वामांग में आने से पूर्व उससे निम्नलिखित सात वचन माँगती है-
====पथम वचन====
<blockquote><poem>तीर्थव्रतोद्यापन यज्ञकर्म मया सहैव प्रियवयं कुर्या:
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति वाक्यं प्रथमं कुमारी।</poem></blockquote>
यहाँ कन्या वर से कहती है कि "यदि आप कभी तीर्थयात्रा को जाओ तो मुझे भी अपने संग लेकर जाना। कोई व्रत-उपवास अथवा अन्य धर्म कार्य आप करें तो आज की भांति ही मुझे अपने वाम भाग में अवश्य स्थान देना। यदि आप इसे स्वीकार करते हैं तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।" [[हिन्दू धर्म]] में किसी भी प्रकार के धार्मिक कृ्त्यों की पूर्णता हेतु पति के साथ पत्नि का होना अनिवार्य माना गया है। जिस धर्मानुष्ठान को पति-पत्नि मिल कर करते हैं, वही सुखद फलदायक होता है। पत्नि द्वारा इस वचन के माध्यम से धार्मिक कार्यों में पत्नि की सहभागिता, उसके महत्व को स्पष्ट किया गया है।
====द्वितीय वचन====
<blockquote><poem>पुज्यौ यथा स्वौ पितरौ ममापि तथेशभक्तो निजकर्म कुर्या:
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं द्वितीयम॥</poem></blockquote>
कन्या वर से दूसरा वचन यह माँगती है कि "जिस प्रकार आप अपने [[माता]]-[[पिता]] का सम्मान करते हैं, उसी प्रकार मेरे माता-पिता का भी सम्मान करें तथा कुटुम्ब की मर्यादा के अनुसार धर्मानुष्ठान करते हुए ईश्वर [[भक्त]] बने रहें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।" यहाँ इस वचन के द्वारा कन्या की दूरदृष्टि का आभास होता है। आज समय और लोगों की सोच कुछ इस प्रकार की हो चुकी है कि अक्सर देखने को मिलता है कि गृ्हस्थ में किसी भी प्रकार के आपसी वाद-विवाद की स्थिति उत्पन होने पर पति अपनी पत्नि के परिवार से या तो सम्बंध कम कर देता है अथवा समाप्त कर देता है। उपरोक्त वचन को ध्यान में रखते हुए वर को अपने ससुराल पक्ष के साथ सदव्यवहार के लिए अवश्य विचार करना चाहिए।
====तृतीय वचन====
<blockquote><poem>जीवनम अवस्थात्रये मम पालनां कुर्यात
वामांगंयामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं तृ्तीयं॥</poem></blockquote>
उपरोक्त तीसरे वचन में कन्या वर से कहती है कि "आप मुझे ये वचन दें कि आप जीवन की तीनों अवस्थाओं- 'युवावस्था', 'प्रौढावस्था', 'वृ्द्धावस्था' में मेरा पालन करते रहेंगें, तो ही मैं आपके वामांग में आने को तैयार हूँ।"
यही सातों वचन दाम्पत्य सम्बन्धों को सुदृ्ड आधार प्रदान करते हैं. कभी जिस समय यह व्यवस्था बनाई गई होगी, उस युग में पुरूष दिए गए वचनों को पूरी तरह से निभाने को संकल्पशील होता होगा. कहा भी तो गया है कि “प्राण जाई पर वचन न जाई”. विवाहोपरान्त पत्त्नि की समस्त आवश्यकताओं को पूरा करने के साथ साथ उसकी अस्मिता तथा गरिमा की रक्षा का दायित्व भी पति का ही होता था, इसलिए यह वचन भी पति से ही लिए जाते ताकि वह पत्नि का पूर्ण रूप से ध्यान रख सके. पति भी जी जान से अपने वचनों को निभाता था. इस कारण तब दाम्पत्य सम्बंधों में भी मधुरता, प्रेम, अनुराग, समर्पण आदि देखने को मिलता था. लेकिन आज के जमाने में भला किसी शपथ, संकल्प या वचन की कीमत ही क्या रह गई है. जहाँ लोग जुबान देकर मुकरने में एक पल भी नहीं लगाते तो वहा जीवनभर इन वचनों पर खरा उतर पाने की उम्मीद भी कहाँ की जा सकती है……


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07:40, 30 मई 2013 का अवतरण

सप्तपदी हिन्दू धर्म में विवाह संस्कार का एक महत्त्वपूर्ण अंग है। इसमें वर उत्तर दिशा में वधु को सात मंत्रों के द्वारा सप्त मण्डलिकाओं में सात पदों तक साथ ले जाता है। इस क्रिया के समय वधु भी दक्षिण पाद उठाकर पुन: वामपाद मण्डलिकाओं में रखती है। विवाह के समय सप्तपदी क्रिया के बिना विवाह कर्म पक्का नहीं होता है। अग्नि की चार परिक्रमाओं से यह कृत्य अलग है। जिस विवाह में सप्तपदी होती है, वह 'वैदिक विवाह' कहलाता है। सप्तपदी वैदिक विवाह का अभिन्न अंग है। इसके बिना विवाह पूरा नहीं माना जाता। सप्तपदी के बाद ही कन्या को वर के वाम अंग में बैठाया जाता है।

अनिवार्य कर्म

हिन्दू धर्म में विवाह के समय फेरे इत्यादि समस्त आवश्यक कार्य पूर्ण हो जाने पर भी, जब तक कन्या वर के वाम भाग में नहीं आती, तब तक विवाह कार्य सम्पन्न नहीं होता तथा कन्या भी तब तक कुमारी ही कहलाती है। 'सप्तपदी' वैदिक विवाह का अभिन्न अंग है। इसके बिना विवाह पूरा नहीं माना जाता। सप्तपदी के बाद ही कन्या को वर के वाम अंग में बैठाया जाता है-

"यावत्कन्या न वामांगी तावत्कन्या कुमारिका"

जब तक कन्या वर के वामांग की अधिकारिणी नहीं होती, उसे कुमारी ही कहा जाएगा। चाहे माता-पिता कन्यादान भी कर दें, भाई लाजा होम भी करवा दें, पाणिग्रहण संस्कार भी हो जाए, लेकिन जब तक सप्तपदी नहीं होती, तब तक वर और कन्या पति-पत्नी नहीं बनते। वैदिक विवाह में अंतिम अधिकार कन्या को ही दिया गया है। जब तक सप्तपदी के सातों वचन पूरे नहीं हो जाते और कन्या वर के वाम अंग में नहीं बैठ जाती, तब तक विवाह पूरा माना ही नहीं जाएगा। आधुनिक विचारधारा के लोग चाहे इसे दिखावा ही क्यों न कहें, लेकिन उन्हें भी ये जान कर हैरानी होगी कि इसमें दोनों बराबर हैं और सातवें पद के बाद दोनों सखा बन जाते हैं। दुनिया की किसी विवाह पद्धति में ऐसा बराबर का रिश्ता नहीं है।

सात वचन

प्राचीन काल से ही भारत में विवाह के समय सात वचनों का हिन्दू समाज में बहुत अधिक प्रभाव रहा है। यह सात वचन वर-वधू को सुखी दाम्पत्य जीवन की ओर प्रेरित करते हैं। कन्या का विवाह करते समय किसी भी माता-पिता के मन में यह आशंका तो रहती ही है कि विवाह के पश्चात उनकी पुत्री का जीवन कैसा व्यतीत होगा? ससुराल में उसके साथ कैसा व्यवहार किया जाएगा? माता-पिता की इसी आशंका को दूर करने के लिए ही युगों पूर्व ऋषि-मुनियों द्वारा ऐसी व्यवस्था की गई, जिससे विवाह के पश्चात भी कन्या को किसी कष्ट का सामना न करना पडे। इसके लिए कन्या पति के वामांग में आने से पूर्व उससे निम्नलिखित सात वचन माँगती है-

पथम वचन

तीर्थव्रतोद्यापन यज्ञकर्म मया सहैव प्रियवयं कुर्या:
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति वाक्यं प्रथमं कुमारी।

यहाँ कन्या वर से कहती है कि "यदि आप कभी तीर्थयात्रा को जाओ तो मुझे भी अपने संग लेकर जाना। कोई व्रत-उपवास अथवा अन्य धर्म कार्य आप करें तो आज की भांति ही मुझे अपने वाम भाग में अवश्य स्थान देना। यदि आप इसे स्वीकार करते हैं तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।" हिन्दू धर्म में किसी भी प्रकार के धार्मिक कृ्त्यों की पूर्णता हेतु पति के साथ पत्नि का होना अनिवार्य माना गया है। जिस धर्मानुष्ठान को पति-पत्नि मिल कर करते हैं, वही सुखद फलदायक होता है। पत्नि द्वारा इस वचन के माध्यम से धार्मिक कार्यों में पत्नि की सहभागिता, उसके महत्व को स्पष्ट किया गया है।

द्वितीय वचन

पुज्यौ यथा स्वौ पितरौ ममापि तथेशभक्तो निजकर्म कुर्या:
वामांगमायामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं द्वितीयम॥

कन्या वर से दूसरा वचन यह माँगती है कि "जिस प्रकार आप अपने माता-पिता का सम्मान करते हैं, उसी प्रकार मेरे माता-पिता का भी सम्मान करें तथा कुटुम्ब की मर्यादा के अनुसार धर्मानुष्ठान करते हुए ईश्वर भक्त बने रहें तो मैं आपके वामांग में आना स्वीकार करती हूँ।" यहाँ इस वचन के द्वारा कन्या की दूरदृष्टि का आभास होता है। आज समय और लोगों की सोच कुछ इस प्रकार की हो चुकी है कि अक्सर देखने को मिलता है कि गृ्हस्थ में किसी भी प्रकार के आपसी वाद-विवाद की स्थिति उत्पन होने पर पति अपनी पत्नि के परिवार से या तो सम्बंध कम कर देता है अथवा समाप्त कर देता है। उपरोक्त वचन को ध्यान में रखते हुए वर को अपने ससुराल पक्ष के साथ सदव्यवहार के लिए अवश्य विचार करना चाहिए।

तृतीय वचन

जीवनम अवस्थात्रये मम पालनां कुर्यात
वामांगंयामि तदा त्वदीयं ब्रवीति कन्या वचनं तृ्तीयं॥

उपरोक्त तीसरे वचन में कन्या वर से कहती है कि "आप मुझे ये वचन दें कि आप जीवन की तीनों अवस्थाओं- 'युवावस्था', 'प्रौढावस्था', 'वृ्द्धावस्था' में मेरा पालन करते रहेंगें, तो ही मैं आपके वामांग में आने को तैयार हूँ।"


यही सातों वचन दाम्पत्य सम्बन्धों को सुदृ्ड आधार प्रदान करते हैं. कभी जिस समय यह व्यवस्था बनाई गई होगी, उस युग में पुरूष दिए गए वचनों को पूरी तरह से निभाने को संकल्पशील होता होगा. कहा भी तो गया है कि “प्राण जाई पर वचन न जाई”. विवाहोपरान्त पत्त्नि की समस्त आवश्यकताओं को पूरा करने के साथ साथ उसकी अस्मिता तथा गरिमा की रक्षा का दायित्व भी पति का ही होता था, इसलिए यह वचन भी पति से ही लिए जाते ताकि वह पत्नि का पूर्ण रूप से ध्यान रख सके. पति भी जी जान से अपने वचनों को निभाता था. इस कारण तब दाम्पत्य सम्बंधों में भी मधुरता, प्रेम, अनुराग, समर्पण आदि देखने को मिलता था. लेकिन आज के जमाने में भला किसी शपथ, संकल्प या वचन की कीमत ही क्या रह गई है. जहाँ लोग जुबान देकर मुकरने में एक पल भी नहीं लगाते तो वहा जीवनभर इन वचनों पर खरा उतर पाने की उम्मीद भी कहाँ की जा सकती है……


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