"हल षष्ठी": अवतरणों में अंतर

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[[चित्र:Baldev-Temple-1.jpg|[[बलदेव मन्दिर मथुरा|दाऊजी मन्दिर]], [[बलदेव]]|thumb|250px]]
{{सूचना बक्सा संक्षिप्त परिचय
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|विवरण='हल षष्ठी' [[हिन्दू धर्म]] ग्रंथों में उल्लिखित एक प्रमुख [[व्रत]] है। इस दिन व्रत करने का विधान है, जिसका बहुत महत्त्व है।
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'''हल षष्ठी''' [[भाद्रपद मास]] के [[कृष्ण पक्ष]] की [[षष्ठी]] तिथि को कहा जाता है। यह [[हिन्दू धर्म]] ग्रंथों में उल्लिखित एक प्रमुख [[व्रत]] है। 'हल षष्ठी' के दिन [[मथुरा]] मण्डल और [[भारत]] के समस्त बलदेव मन्दिरों में भगवान [[श्रीकृष्ण]] के बड़े भाई और [[ब्रज]] के राजा [[बलराम]] का जन्मोत्सव धूमधाम के साथ मनाया जाता है। इस दिन [[गाय]] का [[दूध]] व [[दही]] का सेवन वर्जित माना गया है। इस दिन व्रत करने का विधान भी है। हल षष्ठी व्रत पूजन के अंत में हल षष्ठी व्रत की छ: कथाओं को सुनकर आरती आदि से पूजन की प्रक्रियाओं को पूरा किया जाता है।
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'हल षष्ठी' के दिन भगवान [[शिव]], [[पार्वती]], [[गणेश]], [[कार्तिकेय]], [[नंदी]] और सिंह आदि की [[पूजा]] का विशेष महत्व बताया गया है। इस प्रकार विधिपूर्वक 'हल षष्ठी' व्रत का पूजन करने से जो संतानहीन हैं, उनको दीर्घायु और श्रेष्ठ संतान की प्राप्ति होती है। इस व्रत एवं पूजन से संतान की आयु, आरोग्य एवं ऐश्वर्य में वृद्धि होती है। विद्वानों के अनुसार सबसे पहले [[द्वापर युग]] में [[देवकी|माता देवकी]] द्वारा 'कमरछठ' व्रत किया गया था, क्योंकि खुद को बचाने के लिए [[मथुरा]] का राजा [[कंस]] उनके सभी संतानों का वध करता जा रहा था। उसे देखते हुए [[नारद|देवर्षि नारद]] ने 'हल षष्ठी' का व्रत करने की सलाह माता देवकी को दी थी। उनके द्वारा किए गए व्रत के प्रभाव से ही [[बलराम|बलदाऊ]] और भगवान [[कृष्ण]] कंस पर विजय प्राप्त करने में सफल हुए थे। उसके बाद से यह व्रत हर माता अपनी संतान की खुशहाली और सुख-शांति की कामना के लिए करती है। इस व्रत को करने से संतान को सुखी व सुदीर्घ जीवन प्राप्त होता है। 'कमरछठ' पर रखे जाने वाले व्रत में माताएँ विशेष तौर पर पसहर [[चावल]] का उपयोग करती हैं।<ref>{{cite web |url=http://navabharat.org/jyotish/vastu/12813-%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%A8-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%B8%E0%A5%81%E0%A4%A6%E0%A5%80%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%98-%E0%A4%9C%E0%A5%80%E0%A4%B5%E0%A4%A8-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%B2%E0%A4%BF%E0%A4%8F-%E0%A4%95%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%82-%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%A4|title=संतान की सुदीर्घ के लिए व्रत|accessmonthday=04 जून|accessyear=2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref>
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==हलधर जन्मोत्सव==
==हलधर जन्मोत्सव==
'हल षष्ठी' के दिन [[मथुरा|मथुरा मण्डल]] और [[भारत]] के समस्त बलदेव मन्दिरों में [[[ब्रज]] के राजा [[बलराम]] का जन्मोत्सव आज भी उसी प्रकार मनाया जाता है। बलदेव छठ को दाऊजी में 'हलधर जन्मोत्सव' का आयोजन बड़ी भव्यता के साथ किया जाता है। [[दाऊजी मंदिर मथुरा|दाऊजी महाराज]] कमर में धोती बाँधे हैं। कानों में कुण्डल, गले में [[वैजयंती माला]] है। विग्रह के चरणों में सुषल तोष व श्रीदामा आदि सखाओं की मूर्तियाँ हैं। [[ब्रजमण्डल]] के प्रमुख देवालयों में स्थापित विग्रहों में बल्देव जी का विग्रह अति प्राचीन माना जाता है। यहाँ पर इतना बड़ा तथा आकर्षक विग्रह [[वैष्णव]] विग्रहों में दिखाई नहीं देता है। बताया जाता है कि [[गोकुल]] में [[वल्लभाचार्य|श्रीमद बल्लभाचार्य महाप्रभु]] के पौत्र [[गोस्वामी गोकुलनाथ]] को बल्देव जी ने स्वप्न दिया कि श्याम गाय जिस स्थान पर प्रतिदिन [[दूध]] स्त्रावित कर जाती है, उस स्थान पर भूमि में उनकी प्रतिमा दबी हुई है, उन्होंने भूमि की खुदाई कराकर श्री विग्रह को निकाला तथा 'क्षीरसागर' का निर्माण हुआ। गोस्वामी जी ने विग्रह को कल्याण देवजी को [[पूजा]]-अर्चना के लिये सौंप दिया तथा मन्दिर का निर्माण कराया। उस दिन से आज तक कल्याण देव के वंशज ही मन्दिर में सेवा-पूजा करते हैं।
'हल षष्ठी' के दिन [[मथुरा|मथुरा मण्डल]] और [[भारत]] के समस्त बलदेव मन्दिरों में [[ब्रज]] के राजा [[बलराम]] का जन्मोत्सव आज भी उसी प्रकार मनाया जाता है। बलदेव छठ को दाऊजी में 'हलधर जन्मोत्सव' का आयोजन बड़ी भव्यता के साथ किया जाता है। [[दाऊजी मंदिर मथुरा|दाऊजी महाराज]] कमर में धोती बाँधे हैं।[[चित्र:Baldev-Temple-1.jpg|[[बलदेव मन्दिर मथुरा|दाऊजी मन्दिर]], [[बलदेव]]|thumb|left|220px]] कानों में कुण्डल, गले में [[वैजयंती माला]] है। विग्रह के चरणों में सुषल तोष व श्रीदामा आदि सखाओं की मूर्तियाँ हैं। [[ब्रजमण्डल]] के प्रमुख देवालयों में स्थापित विग्रहों में बल्देव जी का विग्रह अति प्राचीन माना जाता है। यहाँ पर इतना बड़ा तथा आकर्षक विग्रह [[वैष्णव]] विग्रहों में दिखाई नहीं देता है। बताया जाता है कि [[गोकुल]] में [[वल्लभाचार्य|श्रीमद बल्लभाचार्य महाप्रभु]] के पौत्र [[गोस्वामी गोकुलनाथ]] को बल्देव जी ने स्वप्न दिया कि श्याम गाय जिस स्थान पर प्रतिदिन [[दूध]] स्त्रावित कर जाती है, उस स्थान पर भूमि में उनकी प्रतिमा दबी हुई है, उन्होंने भूमि की खुदाई कराकर श्री विग्रह को निकाला तथा 'क्षीरसागर' का निर्माण हुआ। गोस्वामी जी ने विग्रह को कल्याण देवजी को [[पूजा]]-अर्चना के लिये सौंप दिया तथा मन्दिर का निर्माण कराया। उस दिन से आज तक कल्याण देव के वंशज ही मन्दिर में सेवा-पूजा करते हैं।


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11:37, 4 जून 2013 का अवतरण

हल षष्ठी
बलराम
बलराम
विवरण 'हल षष्ठी' हिन्दू धर्म ग्रंथों में उल्लिखित एक प्रमुख व्रत है। इस दिन व्रत करने का विधान है, जिसका बहुत महत्त्व है।
तिथि भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि।
ग्राह्य वस्तुएँ बिना हल चले धरती का अन्न, शाकसब्जियाँ
त्याज्य वस्तुएँ 'हल षष्ठी' पर गाय के दूधदही का सेवन वर्जित माना गया है।
विशेष 'हल षष्ठी' को दाऊजी, मथुरा में 'हलधर जन्मोत्सव' का आयोजन बड़ी भव्यता के साथ किया जाता है।
संबंधित लेख बलराम, दाऊजी मन्दिर, मथुरा
अन्य जानकारी 'हल षष्ठी' को व्रत की छ: कथाओं को सुनकर आरती आदि से पूजन की प्रक्रियाओं को पूरा किया जाता है। इस दिन शिव, पार्वती, गणेश, कार्तिकेय और नंदी की पूजा का भी महत्त्व है।

हल षष्ठी भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की षष्ठी तिथि को कहा जाता है। यह हिन्दू धर्म ग्रंथों में उल्लिखित एक प्रमुख व्रत है। 'हल षष्ठी' के दिन मथुरा मण्डल और भारत के समस्त बलदेव मन्दिरों में भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भाई और ब्रज के राजा बलराम का जन्मोत्सव धूमधाम के साथ मनाया जाता है। इस दिन गाय का दूधदही का सेवन वर्जित माना गया है। इस दिन व्रत करने का विधान भी है। हल षष्ठी व्रत पूजन के अंत में हल षष्ठी व्रत की छ: कथाओं को सुनकर आरती आदि से पूजन की प्रक्रियाओं को पूरा किया जाता है।

व्रत पूजन

भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की षष्ठी को 'हल षष्ठी' पर्व मनाया जाता है। धर्म शास्त्रों के अनुसार इस दिन भगवान शेषनाग द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भाई बलराम के रूप में धरती पर अवतरित हुए थे। बलराम जी का प्रधान शस्त्र 'हल' व 'मूसल' है। इसी कारण इन्हें 'हलधर' भी कहा गया है। उन्हीं के नाम पर इस पर्व का नाम 'हल षष्ठी' पड़ा। इसे 'हरछठ' भी कहा जाता है। हल को कृषि प्रधान भारत का प्राण तत्व माना गया है और कृषि से ही मानव जाति का कल्याण है। इसलिए इस दिन बिना हल चले धरती का अन्न व शाक, भाजी खाने का विशेष महत्व है। इस दिन गाय का दूधदही का सेवन वर्जित माना गया है। इस दिन व्रत करने का विधान भी है। हलषष्ठी व्रत पूजन के अंत में हलषष्ठी व्रत की छ: कथाओं को सुनकर आरती आदि से पूजन की प्रक्रियाओं को पूरा किया जाता है।

संतान दीर्घायु व्रत

'हल षष्ठी' के दिन भगवान शिव, पार्वती, गणेश, कार्तिकेय, नंदी और सिंह आदि की पूजा का विशेष महत्व बताया गया है। इस प्रकार विधिपूर्वक 'हल षष्ठी' व्रत का पूजन करने से जो संतानहीन हैं, उनको दीर्घायु और श्रेष्ठ संतान की प्राप्ति होती है। इस व्रत एवं पूजन से संतान की आयु, आरोग्य एवं ऐश्वर्य में वृद्धि होती है। विद्वानों के अनुसार सबसे पहले द्वापर युग में माता देवकी द्वारा 'कमरछठ' व्रत किया गया था, क्योंकि खुद को बचाने के लिए मथुरा का राजा कंस उनके सभी संतानों का वध करता जा रहा था। उसे देखते हुए देवर्षि नारद ने 'हल षष्ठी' का व्रत करने की सलाह माता देवकी को दी थी। उनके द्वारा किए गए व्रत के प्रभाव से ही बलदाऊ और भगवान कृष्ण कंस पर विजय प्राप्त करने में सफल हुए थे। उसके बाद से यह व्रत हर माता अपनी संतान की खुशहाली और सुख-शांति की कामना के लिए करती है। इस व्रत को करने से संतान को सुखी व सुदीर्घ जीवन प्राप्त होता है। 'कमरछठ' पर रखे जाने वाले व्रत में माताएँ विशेष तौर पर पसहर चावल का उपयोग करती हैं।[1]

हलधर जन्मोत्सव

'हल षष्ठी' के दिन मथुरा मण्डल और भारत के समस्त बलदेव मन्दिरों में ब्रज के राजा बलराम का जन्मोत्सव आज भी उसी प्रकार मनाया जाता है। बलदेव छठ को दाऊजी में 'हलधर जन्मोत्सव' का आयोजन बड़ी भव्यता के साथ किया जाता है। दाऊजी महाराज कमर में धोती बाँधे हैं।

दाऊजी मन्दिर, बलदेव

कानों में कुण्डल, गले में वैजयंती माला है। विग्रह के चरणों में सुषल तोष व श्रीदामा आदि सखाओं की मूर्तियाँ हैं। ब्रजमण्डल के प्रमुख देवालयों में स्थापित विग्रहों में बल्देव जी का विग्रह अति प्राचीन माना जाता है। यहाँ पर इतना बड़ा तथा आकर्षक विग्रह वैष्णव विग्रहों में दिखाई नहीं देता है। बताया जाता है कि गोकुल में श्रीमद बल्लभाचार्य महाप्रभु के पौत्र गोस्वामी गोकुलनाथ को बल्देव जी ने स्वप्न दिया कि श्याम गाय जिस स्थान पर प्रतिदिन दूध स्त्रावित कर जाती है, उस स्थान पर भूमि में उनकी प्रतिमा दबी हुई है, उन्होंने भूमि की खुदाई कराकर श्री विग्रह को निकाला तथा 'क्षीरसागर' का निर्माण हुआ। गोस्वामी जी ने विग्रह को कल्याण देवजी को पूजा-अर्चना के लिये सौंप दिया तथा मन्दिर का निर्माण कराया। उस दिन से आज तक कल्याण देव के वंशज ही मन्दिर में सेवा-पूजा करते हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. संतान की सुदीर्घ के लिए व्रत (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 04 जून, 2013।

संबंधित लेख

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