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||'देवसेन' [[प्राकृत भाषा]] में '[[स्यादवाद]]' और 'नय' का प्ररूपण करने वाले दूसरे [[जैन]] आचार्य थे। इनका समय दसवीं शताब्दी माना जाता है। [[देवसेन]] नय मनीषी के रूप में प्रसिद्ध हैं। इन्होंने नयचक्र' की रचना की थी। संभव है कि इसी का उल्लेख [[विद्यानन्द|आचार्य विद्यानन्द]] ने अपने 'तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक' में किया हो और इससे ही नयों को विशेष जानने की सूचना की हो। देवसेन की न्यायविषयक एक अन्य रचना 'आलाप-पद्धति' है। इसकी रचना [[संस्कृत]] के गद्य में हुई है। जैन न्याय में सरलता से प्रवेश पाने के लिये यह छोटा-सा [[ग्रन्थ]] बहुत सहायक है।{{point}}अधिक जानकारी के लिए देखें:-[[देवसेन]] | ||'देवसेन' [[प्राकृत भाषा]] में '[[स्यादवाद]]' और 'नय' का प्ररूपण करने वाले दूसरे [[जैन]] आचार्य थे। इनका समय दसवीं शताब्दी माना जाता है। [[देवसेन]] नय मनीषी के रूप में प्रसिद्ध हैं। इन्होंने नयचक्र' की रचना की थी। संभव है कि इसी का उल्लेख [[विद्यानन्द|आचार्य विद्यानन्द]] ने अपने 'तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक' में किया हो और इससे ही नयों को विशेष जानने की सूचना की हो। देवसेन की न्यायविषयक एक अन्य रचना 'आलाप-पद्धति' है। इसकी रचना [[संस्कृत]] के गद्य में हुई है। जैन न्याय में सरलता से प्रवेश पाने के लिये यह छोटा-सा [[ग्रन्थ]] बहुत सहायक है।{{point}}अधिक जानकारी के लिए देखें:-[[देवसेन]] | ||
{चीनी-तिब्बती भाषा समूह की भाषाओं के बोलने वालों को कहा जाता है? | {चीनी-तिब्बती भाषा समूह की [[भाषा|भाषाओं]] के बोलने वालों को कहा जाता है? | ||
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-[[किरात]] | -[[किरात]] | ||
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-[[द्रविड़]] | -[[द्रविड़]] | ||
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||'निषाद' एक अत्यन्त प्राचीन [[शूद्र|शूद्र जाति]] थी। इस जाति के लोग [[समुद्र]] के मध्य दूर सुदूर क्षेत्र में रहते थे। [[निषाद]] मत्स्य जीवी थे। यह प्राचीन जाति [[पर्वत]], घाटियों और वनांचलों तथा नदियों के तटों पर भी निवास करती थी। निषादों को [[क्षत्रिय|क्षत्रियों]] की भार्याओं से उत्पन्न 'शूद्र' पुत्र माना गया। फिर वनवासी जातियों के मिश्रण से निषाद पैदा होते रहे। [[अयोध्या]] के [[राजा दशरथ]] के पुत्र [[राम]] को वन जाते समय निषादों ने ही नदी पार कराई थी। [[महाभारत]] में भी निषादों का कई स्थानों पर उल्लेख हुआ है।{{point}}अधिक जानकारी के लिए देखें:-[[निषाद]] | |||
{[[अपभ्रंश]] के योग से [[राजस्थानी भाषा]] का जो साहित्यिक रूप बना, उसे कहा जाता है- | |||
{अपभ्रंश के योग से [[राजस्थानी भाषा]] का जो साहित्यिक रूप बना, उसे कहा जाता है | |||
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- पिंगल भाषा | -पिंगल भाषा | ||
+ [[डिंगल|डिंगल भाषा]] | +[[डिंगल|डिंगल भाषा]] | ||
- मेवाड़ी भाषा | -मेवाड़ी भाषा | ||
- बाँगरु भाषा | -बाँगरु भाषा | ||
||'डिंगल' [[राजस्थानी भाषा|राजस्थानी]] की प्रमुख बोली '[[मारवाड़ी बोली|मारवाड़ी]]' का साहित्यिक रूप है। कुछ लोग [[डिंगल]] को मारवाड़ी से भिन्न चारणों की एक अलग [[भाषा]] बतलाते हैं, किंतु ऐसा मानना निराधार है। डिंगल को 'भाटभाषा' भी कहा गया है। मारवाड़ी के साहित्यिक रूप का नाम डिंगल क्यों पड़ा, इस प्रश्न पर बहुत मत-वैभिन्न्य है। [[डॉ. श्यामसुन्दर दास]] के अनुसार- "पिंगल के सादृश्य पर यह एक गढ़ा हुआ शब्द है।" [[चन्द्रधर शर्मा गुलेरी]] के अनुसार- "डिंगल यादृच्छात्मक अनुकरण शब्द है।" [[साहित्य]] में डिंगल का प्रयोग 13वीं सदी के मध्य से लेकर आज तक मिलता है। डॉ. तेस्सितोरी ने 'डिंगल' के प्राचीन और अर्वाचीन दो भेद किए हैं।{{point}}अधिक जानकारी के लिए देखें:-[[डिंगल]] | |||
{'एक नार पिया को भानी। तन वाको सगरा ज्यों पानी।' यह पंक्ति किस भाषा की है? | {'एक नार पिया को भानी। तन वाको सगरा ज्यों पानी।' यह पंक्ति किस भाषा की है? |
07:20, 31 जुलाई 2013 का अवतरण
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- इस विषय से संबंधित लेख पढ़ें:- भाषा प्रांगण, हिन्दी भाषा
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