मारवाडी बोली राजस्थान के मारवाड़ क्षेत्र में बोली जाती है। मिश्रित रूप से यह पूर्व में अजमेर, किसनगढ़, मेवाड़ तक, दक्षिण में सिरोही, रानीवाड़ा तक, पश्चिम में जैसलमेर, शाहगढ़ तक तथा उत्तर में बीकानेर, गंगानगर तक तथा जयपुर के उत्तरी भाग में पिलानी तक बोली जाती है। यह शुद्ध रूप से जोधपुर क्षेत्र की बोली है। बाड़मेर, पाली, नागौर और जालौर ज़िलों में इस बोली का व्यापक प्रभाव है। मारवाड़ी बोली की कई उप-बोलियाँ भी हैं, जिनमें ठटकी, थाली, बीकानेरी, बांगड़ी, शेखावटी, मेवाड़ी, खैराड़ी, सिरोही, गौड़वाडी, नागौरी, देवड़ावाटी आदि प्रमुख हैं। साहित्यिक मारवाड़ी को डिंगल कहते हैं। डिंगल साहित्यिक दृष्टि से सम्पन्न बोली है।
डॉ. ग्रियर्सन ने इसके बोलने वालों की संख्या 60 लाख बतलायी थी। सन् 1951 की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार इसके बोलने वालों की संख्या 46 लाख (45,14,737) थी। इसके पूर्व में जयपुरी और हाड़ौती बोलियाँ हैं। दक्षिण-पूर्व में मालवी, दक्षिण-पश्चिम में गुजराती भाषा, पश्चिम में उत्तर में लहँदा तथा उत्तर-पूर्व में पंजाबी भाषा और हरियाणवी बोली जाती है। सीमावर्ती क्षेत्रों में यह सम्बद्ध भाषा एवं बोलियों में इतनी अधिक प्रभावित है कि इसकी अनेक उपबोलियाँ विकसित हो गयी हैं। जैसे पूर्वी क्षेत्र में ढूँढ़ाड़ी, गोडावती, मेवाड़ी, दक्षिण क्षेत्र में सिरोही, देवड़ावाटी, पश्चिमी क्षेत्र में थाली और टटकी तथा उत्तरी क्षेत्र में बीकानेरी, शेखावटी और बाँगड़ी हैं। साहित्य की दृष्टि से मारवाड़ी सम्पन्न है। इसके साहित्यिक रूप डिंगल का प्रयोग कविता में होता रहा है। अपने आश्रयदाताओं की प्रशंसा के निमित्त चारण, भाटों ने डिंगल में हज़ारों ग्रंथों की रचना की है। भाषा अध्ययन की दृष्टि से भी डिंगल महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि शौरसेनी, प्राकृत और आधुनिक हिन्दी के विकास को स्पष्ट करने में यह महत्त्वपूर्ण कड़ी का काम करती है।
विशेषताएँ
- ध्वनि विशिष्टताएँ
- ऐ और-औ का उच्चारण तत्सम शब्दों में - अइ और - अउ जैसा होता है।
- अनेक स्थानों च् और छ् प्राय: स् उच्चारित मिलता है; जैसे
चक्की सक्की
छाछ सास
- ल् अनेक स्थानों पर ळ उच्चारित मिलते हैं; जैसे-
बाल बाळ
जल जळ
- ह् के लोप की प्रवृत्ति सामान्य है; जैसे
कह्यो कयो
रहणो रैणो
- दो विशिष्ट ध्वनियाँ इसमें मिलती हैं- ध् और स् प्रथम उच्चारण की दृष्टि से द्-व् के मध्य उच्चारित ध्वनि है दूसरी स्-ह् के मध्य उच्चारित होती है। दोनों में श्वांस भीतर की और खींचना पड़ता है।
उदाहरण-धावो जास्यों
- परसर्ग- निम्नलिखित परसर्गों का प्रयोग होता है-
- कर्म - सम्प्रदान - नै, ने, कने, रै
- करण - सम्प्रदान - सूँ, ऊँ
- सम्बन्ध - रौ, नो, को,
- अधिकरण - में, मैं, माहै, माई
- दो या अधिक वस्तुओं में तुलना-निर्देशक के लिए अतिरिक्त करताँ का प्रयोग भी किया जाता है; जैसे-
मोअन करताँ सोअन भलो रो है।
(मोहन की अपेक्षा सोहन भला है)
- सर्वनामों में अत्यधिक विविंधता है।
'कौन' के लिए कुण, कण का प्रयोग किया जाता है।
- क्रिया पद
- मारवाड़ी में भविष्य काल की क्रिया में धातु के साथ - हूँ, हाँ, हो, ही प्रत्यक्ष जोड़ते हैं।
उ.पुरुष | देख + हूँ = देखहूँ | देख + हाँ = देखहाँ |
म. पुरुष | देख + ही = देखड़ी | देख + हो = देखहो |
अ.पुरुष | देख + ही = देखही | देख + ही = देखही |
- वर्तमान दंत के साथ रहणो के योग से नकारात्मक क्रिया का बोध होता है।
गातो रहणो (न गाना)
- संयुक्त क्रिया का निर्माण करते समय अतिरिक्त क्रिया के पूर्व-रो (री) अथवा परो जोड़ देते हैं;
जैसे - री दीवी (दे दी)
छव (छ:) | मौर (पीठ) |
जोडायन (पत्नी) | माची (खाट) |
डीकरो (पुत्र) | करसो (किसान) |
जीमणों (खान) | अलगो (दूर) |
काचो (कच्चा) | कादो (कीचड़) |
भेमाता (विधाता) | लाण (बेचारी) |
रूपो (चाँदी) | टाट (बकरी) |
गिड़क (कुत्ता) | च्यारू (चारो) |
वेपारी (व्यापारी) | गीडँवा (ताकिया) |
सुबे (सुबह) | जबत (जब्त) |
परो माखो (मार डालना) | हेट (सेठ) |
शीर्षक | सर्वनाम | एकवचन | बहुवचन |
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उत्तम पुरुष |
अविकारी कर्म सम्प्रदान तिर्यक् |
हूँ, म्है, मैं, म्हैं मनै, म्हनै म, म्है |
म्हैं माँनै, म्हाने माँ, म्हाँ |
मध्यम पुरुष |
अविकारी कर्म सम्प्रदान तिर्यक् सम्बन्ध |
तूँ, थूँ तनै, थनै तैं, थैं थारों |
थे, तमें थाँने, तमाने थाँ, तमाँ थाँर्रा |
अन्य पुरुष |
वह अधिकारी तिर्यक् एक अधिकारी तिर्यक |
वो, ऊ (स्त्री.वा/उवा) ऊँ, उण ओ, यो (स्त्री.आ/या) ई, इण |
वे/वै, उवै वैं, वाँ उणाँ, वणाँ ए, ऐ ऐं, ऑ |
सम्बन्धवाची | जिको (स्त्री. जी.जिका) | जिका | |
जो | तिर्यक | जीं. जिव, जिकण, तिको (स्त्री. तिका) | जै, जो, जिण जिको |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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