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14:24, 13 अगस्त 2014 का अवतरण
असहयोग आंदोलन
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विवरण | 'असहयोग आन्दोलन' का संचालन स्वराज की माँग को लेकर किया गया था। |
शुरुआत | 1 अगस्त, 1920 |
उद्देश्य | अंग्रेज़ी सरकार के साथ सहयोग न करके कार्यवाही में बाधा उपस्थित करना था। |
प्रभाव | पश्चिमी भारत, बंगाल तथा उत्तरी भारत में असहयोग आन्दोलन को अभूतपूर्व सफलता मिली। विद्यार्थियों के अध्ययन के लिए अनेक शिक्षण संस्थाएँ जैसे काशी विद्यापीठ, बिहार विद्यापीठ, गुजरात विद्यापीठ, बनारस विद्यापीठ, तिलक महाराष्ट्र विद्यापीठ एवं अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय आदि स्थापित की गईं। |
संबंधित लेख | गांधी जी के आह्वान पर असहयोग आन्दोलन के ख़र्च की पूर्ति के लिए 1920 ई. में तिलक स्वराज्य फ़ण्ड की स्थापना की गई, जिसमें लोगों द्वारा एक करोड़ से अधिक रुपये जमा किये गए। |
असहयोग आन्दोलन का संचालन स्वराज की माँग को लेकर किया गया। इसका उद्देश्य सरकार के साथ सहयोग न करके कार्यवाही में बाधा उपस्थित करना था। असहयोग आन्दोलन गांधी जी ने 1 अगस्त, 1920 को आरम्भ किया।
अधिवेशन का आयोजन
सितम्बर, 1920 में असहयोग आन्दोलन के कार्यक्रम पर विचार करने के लिए कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में 'कांग्रेस महासमिति के अधिवेशन' का आयोजन किया गया। इस अधिवेशन की अध्यक्षता लाला लाजपत राय ने की। इसी अधिवेशन में कांग्रेस ने पहली बार भारत में विदेशी शासन के विरुद्ध सीधी कार्यवाही करने, विधान परिषदों का बहिष्कार करने तथा असहयोग व सविनय अवज्ञा आन्दोलन को प्रारम्भ करने का निर्णय लिया। कलकत्ता अधिवेशन में गांधी जी ने प्रस्ताव पेश करते हुए कहा कि, "अंग्रेज़ी सरकार शैतान है, जिसके साथ सहयोग सम्भव नहीं। अंग्रेज़ सरकार को अपनी भूलों पर कोई दु:ख नहीं है, अत: हम कैसे स्वीकार कर सकते हैं कि नवीन व्यवस्थापिकाएँ हमारे स्वराज्य का मार्ग प्रशस्त करेंगी। स्वराज्य की प्राप्ति के लिए हमारे द्वारा प्रगतिशील अहिंसात्मक असहयोग की नीति अपनाई जानी चाहिए।"
प्रस्ताव का विरोध
गांधी जी के इस प्रस्ताव का विरोध करते हुए ऐनी बेसेन्ट ने कहा कि, "यह प्रस्ताव भारतीय स्वतंत्रता को सबसे बड़ा धक्का है।" गांधी जी के इस विरोध तथा समाज और सभ्य जीवन के विरुद्ध संघर्ष की घोषणा का सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, मदनमोहन मालवीय, देशबन्धु चित्तरंजन दास, विपिनचन्द्र पाल, मुहम्मद अली जिन्ना, शंकर नायर, सर नारायण चन्द्रावरकर ने प्रारम्भ में विरोध किया। फिर भी अली बन्धुओं एवं मोतीलाल नेहरू के समर्थन से यह प्रस्ताव कांग्रेस ने स्वीकार कर लिया। यही वह क्षण था, जहाँ से गाँधी युग की शुरुआत हुई।
गवर्नमेन्ट ऑफ़ इंडिया एक्ट
सरकार ने पहले की तरह आंदोलन को दबाने के लिए दमन और समझौते के दोनों रास्ते अख़्तियार किये और 1935 का 'गवर्नमेन्ट ऑफ़ इंडिया एक्ट' पास किया। इस एक्ट के द्वारा ब्रिटिश भारत तथा देशी रियासतों के लिए सम्मिलित रूप से एक संघीय शासन का प्रस्ताव किया, केन्द्र में एक प्रकार के द्वैध शासन की स्थापना की गयी तथा प्रान्तों को स्वशासन प्रदान कर दिया गया। एक्ट का प्रान्तों से सम्बन्धित भाग लागू कर दिया गया तथा अप्रैल 1937 ई. में प्रान्तीय स्वशासन का श्रीगणेश कर दिया गया। परन्तु एक्ट के संघ सरकार से सम्बन्धित भाग के लागू होने से पहले ही सितम्बर 1939 ई. में 'द्वितीय विश्वयुद्ध' शुरू हो गया जो 1945 ई. तक जारी रहा। यह विश्वव्यापी युद्ध था और ब्रिटेन को अपने सारे साधन उसमें झोंक देने पड़े। भारत ने ब्रिटेन का साथ दिया और भारत के पास जन और धन की जो विशाल शक्ति थी, उससे लाभ उठाकर तथा अमरीका की सहायता से ब्रिटेन युद्ध जीत गया। गाँधी जी के अमित प्रभाव तथा अहिंसा में उनकी दृढ़ निष्ठा के कारण भारत ने यद्यपि ब्रिटिश सम्बन्ध को बनाये रखा, फिर भी यह स्पष्ट हो गया कि भारत अब ब्रिटिश साम्राज्य की अधीनता में नहीं रहना चाहता।
नागपुर अधिवेशन
कांग्रेस के नागपुर अधिवेशन में असहयोग के प्रस्ताव की पुष्टि कर दी गई तथा दो महत्त्वपूर्ण निर्णय लिये गए। पहले निर्णय के अंतर्गत कांग्रेस ने अब ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर स्वशासन का लक्ष्य त्यागकर ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर और आवश्यकता हो तो बाहर 'स्वराज्य का लक्ष्य' घोषित किया। दूसरे निर्णय के द्वारा कांग्रेस ने रचनात्मक कार्यक्रमों की एक सूची तैयार की, जो इस प्रकार थी-
- सभी वयस्कों को कांग्रेस का सदस्य बनाना।
- तीन सौ सदस्यों की 'अखिल भारतीय कांग्रेस समिति' का गठन।
- भाषायी आधार पर प्रान्तीय कांग्रेस समितियों का पुनर्गठन।
- स्वदेशी वस्तुओं अर्थात मुख्यत: हाथ की कताई-बुनाई को प्रोत्साहन।
- यथासम्भव हिन्दी का प्रयोग आदि।
असहयोग सम्बन्धी प्रस्ताव की मुख्य बातें इस प्रकार थीं-
- सरकारी उपाधि एवं अवैतनिक सरकारी पदों को छोड़ दिया जाए।
- सरकार द्वारा आयोजित सरकारी तथा अर्धसरकारी उत्सवों का बहिष्कार किया जाए। स्थानीय संस्थाओं की सरकारी सदस्यता से इस्तीफ़ा दिया जाए।
- सरकारी स्कूलों एवं कॉलेजों का बहिष्कार तथा वकीलों के द्वारा न्यायालय का बहिष्कार किया जाए।
- आपसी विवाद पंचायती अदालतों के द्वारा निपटाया जाए।
- असैनिक श्रमिक व कर्मचारी वर्ग मेसोपोटामिया में जाकर नौकरी करने से इन्कार करे।
- विदेशी सामानों का पूर्णत: बहिष्कार किया जाए।
बहिष्कार का निर्णय
गांधी जी के विधान परिषदों के बहिष्कार के प्रस्ताव पर चित्तरंजन दास सहमत नहीं थे। उन्होंने कहा कि, मैं परिषदों को स्वराज्य प्राप्ति का साधन समझता हूँ। लाला लाजपत राय स्कूलों में बहिष्कार के विरोधी थे, लेकिन मोतीलाल नेहरू के प्रयास से सम्पन्न समझौते में तय हुआ कि स्कूलों एवं अदालतों का बहिष्कार धीरे-धीरे किया जाए।
आन्दोलन को हिंसक होने से बचाने के लिए मैं हर एक अपमान, हर एक यातनापूर्ण बहिष्कार, यहाँ तक की मौत भी सहने को तैयार हूँ।
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स्वराज्य का लक्ष्य
दिसम्बर, 1920 में नागपुर में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन में असहयोग प्रस्ताव से सम्बन्धित लाला लाजपत राय एवं चित्तरंजन दास ने अपना विरोध वापस ले लिया। गांधी जी ने नागपुर में कांग्रेस के पुराने लक्ष्य अंग्रेज़ी साम्राज्य के अंतर्गत 'स्वशासन' के स्थान पर अंग्रेज़ी के अंतर्गत 'स्वराज्य' का नया लक्ष्य घोषित किया। साथ ही गांधी जी ने यह भी कहा कि यदि आवश्यक हुआ तो स्वराज्य के लक्ष्य को अंग्रेज़ी साम्राज्य से बाहर भी प्राप्त किया जा सकता है। मोतीलाल नेहरू एवं मोहम्मद अली जिन्ना ने 'स्वराज्य' के उद्देश्य का विरोध इस आधार पर किया कि उसमें यह स्पष्ट नहीं किया गया था कि साम्राज्य से कोई सम्बन्ध बनाये रखा जायेगा या नहीं। ऐनी बेसेन्ट, मोहम्मद अली जिन्ना एवं पाल जैसे नेता गांधी जी के प्रस्ताव से असंतुष्ट होकर कांग्रेस छोड़कर चले गए। नागपुर अधिवेशन का ऐतिहासिक दृष्टिकोण से महत्त्व इसलिए है, क्योंकि यहाँ पर वैधानिक साधनों के अंतर्गत स्वराज्य प्राप्ति के लक्ष्य को त्यागकर सरकार के सक्रिय विरोध करने की बात को स्वीकार किया गया।
रचनात्मक कार्य
असहयोग आन्दोलन की सफलता के लिए गांधी जी द्वारा अपनाये गए रचनात्मक कार्यों में शराब का बहिष्कार, हिन्दू-मुस्लिम एकता एवं अहिंसा पर बल, छुआछूत से परहेज, स्वदेशी वस्तुओं का प्रयोग, हाथ से कते या बुने खादी के कपड़ों का प्रयोग, कांग्रेस के झण्डे के नीचे समस्त राष्ट्र को एकत्र करना, कड़े क़ानूनों की सविनय अवज्ञा करना, कर न देना आदि शामिल था। गांधी जी ने आश्वासन दिया कि असहयोग के तरीके को अपनाते हुए यदि इन कार्यक्रमों पर पूरी तरह से अमल हुआ तो एक वर्ष के भीतर ही आज़ादी मिल जायेगी।
आन्दोलन की प्रगति
आन्दोलन शुरू करने से पहले गांधी जी ने कैसर-ए-हिन्द[1] पुरस्कार को लौटा दिया, अन्य सैकड़ों लोगों ने भी गांधी जी के पदचिह्नों पर चलते हुए अपनी पदवियों एवं उपाधियों को त्याग दिया। राय बहादुर की उपाधि से सम्मानित जमनालाल बजाज ने भी यह उपाधि वापस कर दी। असहयोग आन्दोलन गांधी जी ने 1 अगस्त, 1920 को आरम्भ किया। पश्चिमी भारत, बंगाल तथा उत्तरी भारत में असहयोग आन्दोलन को अभूतपूर्व सफलता मिली। विद्यार्थियों के अध्ययन के लिए अनेक शिक्षण संस्थाएँ जैसे काशी विद्यापीठ, बिहार विद्यापीठ, गुजरात विद्यापीठ, बनारस विद्यापीठ, तिलक महाराष्ट्र विद्यापीठ एवं अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय आदि स्थापित की गईं।
शिक्षा संस्थाओं का बहिष्कार
असहयोग आन्दोलन के दौरान शिक्षा संस्थाओं का सर्वाधिक बहिष्कार बंगाल में हुआ। सुभाषचन्द्र बोस 'नेशनल कॉलेज कलकत्ता' के प्रधानाचार्य बने। पंजाब में लाला लाजपत राय के नेतृत्व में बहिष्कार किया गया। शिक्षा का बहिष्कार मद्रास में बिल्कुल असफल रहा। वकालत का बहिष्कार करने वाले वकीलों में प्रमुख थे-बंगाल के देशबन्धु चित्तरंजन दास, उत्तर प्रदेश के मोतीलाल नेहरू एवं जवाहरलाल नेहरू, गुजरात के विट्ठलभाई पटेल एवं वल्लभ भाई पटेल, बिहार के राजेन्द्र प्रसाद, मद्रास के चक्रवर्ती राजगोपालाचारी एवं दिल्ली के आसफ़ अली आदि। मुस्लिम नेताओं में असहयोग में सर्वाधिक योगदान देने वाले नेता थे-डॉक्टर अन्सारी, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, शौक़त अली, मुहम्मद अली आदि। गांधी जी के आह्वान पर असहयोग आन्दोलन के ख़र्च की पूर्ति के लिए 1920 ई. में तिलक स्वराज्य फ़ण्ड की स्थापना की गई, जिसमें लोगों द्वारा एक करोड़ से अधिक रुपये जमा किये गए।
आन्दोलन का चरमोत्कर्ष
1919 ई. के सुधार अधिनियम के उदघाटन के लिए 'ड्यूक ऑफ़ कनॉट' के भारत आने पर विरोध एवं बहिष्कार किया गया। 1921 ई. में असहयोग आन्दोलन अपने चरमोत्कर्ष पर था। बहिष्कार आन्दोलन के दौरान एक कार्यवाही जो बहुत लोकप्रिय हुई, हालाँकि वह मूल कार्यक्रम में नहीं थी, वह थी-ताड़ी की दुकानों पर धरना। सरकार ने असहयोग आन्दोलन को कुचलने के लिए हर सम्भव प्रयास किया। 4 मार्च, 1921 ई. को ननकाना के एक गुरुद्वारे, जहाँ पर शान्तिपूर्ण ढंग से सभा का संचालन किया जा रहा था, पर सैनिकों के द्वारा गोली चलाने के कारण 70 लोगों की जानें गई। 1921 ई. में लॉर्ड रीडिंग के भारत के वायसराय बनने पर दमन चक्र कुछ और ही कड़ाई से चलाया गया। मुहम्मद अली जिन्ना, मोतीलाल नेहरू, चित्तरंजन दास, लाला लाजपत राय, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, राजगोपालाचारी, राजेन्द्र प्रसाद, सरदार पटेल जैसे नेता गिरफ़्तार कर लिये गए। मुहम्मद अली पहले नेता थे, जिन्हें सर्वप्रथम 'असहयोग आन्दोलन' में गिरफ़्तार किया गया।
कलकत्ता अधिवेशन में गांधी जी ने प्रस्ताव पेश करते हुए कहा कि अंग्रेज़ी सरकार शैतान है, जिसके साथ सहयोग सम्भव नहीं। अंग्रेज़ सरकार को अपनी भूलों पर कोई दु:ख नहीं है, अत: हम कैसे स्वीकार कर सकते हैं कि नवीन व्यवस्थापिकाएँ हमारे स्वराज्य का मार्ग प्रशस्त करेंगीं। स्वराज्य की प्राप्ति के लिए हमारे द्वारा प्रगतिशील अहिंसात्मक असहयोग की नीति अपनाई जानी चाहिए।
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प्रिन्स ऑफ़ वेल्स का बहिष्कार
अप्रैल, 1921 में प्रिन्स ऑफ़ वेल्स के भारत आगमन पर उनका सर्वत्र काला झण्डा दिखाकर स्वागत किया गया। गांधी जी ने अली बन्धुओं की रिहाई न किये जाने के कारण प्रिन्स ऑफ़ वेल्स के भारत आगमन का बहिष्कार किया। 17 नवम्बर, 1921 को जब प्रिन्स ऑफ़ वेल्स का बम्बई, वर्तमान मुम्बई आगमन हुआ, तो उनका स्वागत राष्ट्रव्यापी हड़ताल से हुआ। इसी बीच दिसम्बर, 1921 में अहमदाबाद में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। यहाँ पर असहयोग आन्दोलन को तेज़ करने एवं सविनय अवज्ञा आन्दोलन चलाने की योजना बनी।
आन्दोलन समाप्ति का निर्णय
इसी बीच 5 फ़रवरी, 1922 को देवरिया ज़िले के चौरी चौरा नामक स्थान पर पुलिस ने जबरन एक जुलूस को रोकना चाहा, इसके फलस्वरूप जनता ने क्रोध में आकर थाने में आग लगा दी, जिसमें एक थानेदार एवं 21 सिपाहियों की मृत्यु हो गई। इस घटना से गांधी जी स्तब्ध रह गए। 12 फ़रवरी, 1922 को बारदोली में हुई कांग्रेस की बैठक में असहयोग आन्दोलन को समाप्त करने के निर्णय के बारे में गांधी जी ने 'यंग इण्डिया' में लिखा था कि, "आन्दोलन को हिंसक होने से बचाने के लिए मैं हर एक अपमान, हर एक यातनापूर्ण बहिष्कार, यहाँ तक की मौत भी सहने को तैयार हूँ।" अब गांधी जी ने रचनात्मक कार्यों पर ज़ोर दिया।
नेताओं के विचार
असहयोग आन्दोलन के स्थगन पर मोतीलाल नेहरू ने कहा कि, "यदि कन्याकुमारी के एक गाँव ने अहिंसा का पालन नहीं किया, तो इसकी सज़ा हिमालय के एक गाँव को क्यों मिलनी चाहिए।" अपनी प्रतिक्रिया में सुभाषचन्द्र बोस ने कहा, "ठीक इस समय, जबकि जनता का उत्साह चरमोत्कर्ष पर था, वापस लौटने का आदेश देना राष्ट्रीय दुर्भाग्य से कम नहीं"। आन्दोलन के स्थगित करने का प्रभाव गांधी जी की लोकप्रियता पर पड़ा। 13 मार्च, 1922 को गांधी जी को गिरफ़्तार किया गया तथा न्यायाधीश ब्रूम फ़ील्ड ने गांधी जी को असंतोष भड़काने के अपराध में 6 वर्ष की क़ैद की सज़ा सुनाई। स्वास्थ्य सम्बन्धी कारणों से उन्हें 5 फ़रवरी, 1924 को रिहा कर दिया गया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यह पुरस्कार गांधी जी को प्रथम विश्व युद्ध के दौरान सरकार के सहयोग के बदले मिला था।
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