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शिकागो वक्तृता -स्वामी विवेकानन्द
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लेखक | स्वामी विवेकानन्द |
मूल शीर्षक | शिकागो वक्तृता |
अनुवादक | स्वामी शान्तानन्द जी |
प्रकाशक | रामकृष्ण मठ |
प्रकाशन तिथि | 1 जनवरी, 2004 |
देश | भारत |
भाषा | हिंदी |
मुखपृष्ठ रचना | अजिल्द |
विशेष | स्स्वामी विवेकानंद जी के हिन्दू धर्म पर विश्वविख्यात व्याख्यान Chicago Address का हिन्दी अनुवाद है। |
शिकागो वक्तृता नामक यह पुस्तक स्स्वामी विवेकानंद जी के हिन्दू धर्म पर विश्वविख्यात व्याख्यान Chicago Address का हिन्दी अनुवाद है। यह अनुवाद पहले अद्वैत आश्रम द्वारा प्रकाशित हुआ था और उस आश्रम के अध्यक्ष श्री स्वामी शान्तानन्द जी ने इस अनुवाद को फिर प्रकाशित करने की अनुमति दी है। पहले का अनुवाद श्री बाबू ठाकुर प्रसाद तथा श्री पं. उमा शंकर जी बी. ए. ने किया था। इन सज्जनों के इस अनुवाद कार्य में उस आश्रम के एक संन्यासी ने भी बहुत सहायता दी थी। प्रस्तुत पुस्तक में यत्रतत्र बहुत हेरफेर कर दिए गए हैं तथा अनेक संशोधन भी हुए हैं। इसमें भगिनी निवेदिता (मिस् मार्गरेट नोबल) की ‘भूमिका’ भी शामिल कर दी गई है। साहित्य शास्त्री प्रोफेसर श्री पं. विद्याभास्कर जी शुक्ल, एम्. एस्स. पी. ई. एस्. कालेज ऑफ साइन्स, नागपुर के हम परम कृतज्ञ है जिन्होंने इस पुस्तक के संशोधन कार्य में हमें बहुमूल्य सहायता दी है।
भूमिका
सन् 1893 ई. में विश्व-प्रदर्शनी के उपलक्ष्य में शिकागो में जो धर्मसभा हुई थी, वही विश्व-धर्मपरिषद थी। पाश्चात्य देशों में आजकल आमतौर से होने वाली प्रदर्शनियों के साथ-साथ विज्ञान, कला तथा साहित्य-सम्बन्धी बैठकों का होना भी एक रिवाज सा हो गया है। इस प्रकार यह आशा की जाती है कि ऐसी प्रत्येक बैठक उन विषयों के इतिहास में चिरस्मरणीय हो जाएगी, जिनकी उन्नति मानव-जाति के लिए वांछित है। इन पर मानवों का जो एक विराट समूह एकत्र होता है, उससे औषधिशास्त्र, न्यायशास्त्र, शिल्पशास्त्र तथा विद्या के अन्यान्य क्षेत्रों में तात्विक गवेषणा एवं प्रायोगिक शोध सम्बन्धी आपसी विचार-विनिमय द्वारा उन सबका संवर्धन हो सके। साहस एवं मौलिकता से प्रेरित शिकागो निवासियों के मन में यह विचार आया कि संसार के प्रमुख धर्मों का सम्मेलन अन्य सब परिषदों में उच्चतर एवं श्रेष्ठ होगा। अतः ऐसा प्रस्ताव रखा गया कि इस सम्मेलन में प्रत्येक धर्म के प्रतिनिधि का भाषण हो और श्रोतागण प्रत्येक प्रतिनिधि के उन विचारों को सहानुभूति और ध्यानपूर्वक सुनें, जिनके कारण उस प्रतिनिधि को अपने धर्म में अटूट श्रद्धा है। उन्होंने यह सोचा कि इस प्रकार आपस में समभाव के मेल-जोल तथा भाषण की स्वतन्त्रा से सब एकत्रित प्रतिनिधियों का एक धार्मिक सम्मेलन अर्थात् ‘पार्लमेंट’ बन जाएगा और इस तरह भिन्न-भिन्न धर्मों में आपसी बन्धुत्व-भाव के जो आधार हैं, वे संसार के लोगों के सम्मुख भलीभाँति रखे जा सकेंगे।
इसी समय दक्षिण भारत में कुछ शिष्यों ने, जिन्हें इस बात का बहुत थोड़ा ज्ञान था कि किसी दूसरे देश में प्रतिनिधि किस प्रकार भेजे जाते हैं, अपने गुरुदेव से इस बात का अनुरोध किया कि वे इस अवसर पर अमेरिका जाकर हिन्दू-धर्म के प्रतिनिधि-रूप में अपना भाषण दें। अटूट भक्ति से प्रेरित उन शिष्यों को यह ध्यान नहीं आया कि वे एक ऐसी बात की इच्छा कर रहे थे जो साधारण दृष्टि से असम्भव-सी थी। उनका ऐसा अनुमान था कि स्वामी विवेकानन्द वहाँ चले भर जाएं और उन्हें प्रतिनिधि का स्थान दे दिया जाएगा इधर स्वामी जी भी अपने शिष्यों की ही भाँति सांसारिक व्यवहारों में सरल प्रकृति के थे; और जब उन्हें यह विश्वास हो गया कि उनको वहाँ भेजने की प्रेरणा दैवी ही थी, तो फिर उन्होंने अधिक अनिच्छा नहीं प्रकट की। स्वामीजी भारतवर्ष की किसी मान्य संस्था द्वारा नहीं भेजे गये थे और न उन्हें किसी प्रकार का निमन्त्रण ही प्राप्त हुआ था। फिर उधर इस परिषद में प्रतिनिधियों को घटाने-बढ़ाने का समय भी निकल चुका था तथा उनकी संख्या भी निर्धारित हो चुकी थी।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ शिकागो वक्तृता (हिंदी) भारतीय साहित्य संग्रह। अभिगमन तिथि: 19 जनवरी, 2014।
बाहरी कड़ियाँ
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