"ज्ञानपीठ पुरस्कार": अवतरणों में अंतर
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'''ज्ञानपीठ पुरस्कार''' [[भारतीय ज्ञानपीठ]] न्यास द्वारा भारतीय [[साहित्य]] के लिए दिया जाने वाला सर्वोच्च पुरस्कार है। [[भारत]] का कोई भी नागरिक जो [[आठवीं अनुसूची]] में बताई गई 22 भाषाओं में से किसी भाषा में लिखता हो इस पुरस्कार के योग्य है। पुरस्कार में पांच लाख रुपये की धनराशि, प्रशस्तिपत्र और [[वाग्देवी]] की कांस्य प्रतिमा दी जाती है। [[1965]] में 1 लाख रुपये की पुरस्कार राशि से प्रारंभ हुए इस पुरस्कार को [[2005]] में 7 लाख रुपए कर दिया गया। [[2005]] के लिए चुने गए हिन्दी साहित्यकार [[कुंवर नारायण]] पहले व्यक्ति थे, जिन्हें 7 लाख रुपए का ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ।<ref>[http://hindi.webdunia.com/miscellaneous/literature/articles/0811/24/1081124028_1.htm कुंवर नारायण को ज्ञानपीठ पुरस्कार (स्रोत- वेबदुनिया हिंदी)]</ref> वर्ष 2012 से ज्ञानपीठ पुरस्कार के रूप में दी जाने वाली राशि को 7 लाख रुपये से बढ़ाकर 11 लाख रुपये कर दिया गया है।<ref>[http://navbharattimes.indiatimes.com/india/national-india/-11--/articleshow/16808890.cms अब 11 लाख रुपये का ज्ञानपीठ पुरस्कार (स्रोत- नवभारत टाइम्स)]</ref> प्रथम ज्ञानपीठ पुरस्कार [[1965|1965]] में मलयालम लेखक [[जी शंकर कुरुप]] को प्रदान किया गया था। उस समय पुरस्कार की धनराशि 1 लाख रुपए थी। [[1982|1982]] तक यह पुरस्कार लेखक की एकल कृति के लिये दिया जाता था। लेकिन इसके बाद से यह लेखक के [[साहित्य|भारतीय साहित्य]] में संपूर्ण योगदान के लिये दिया जाने लगा। अब तक [[हिन्दी]] तथा [[कन्नड़ भाषा|कन्नड़]] भाषा के लेखक सबसे अधिक सात बार यह पुरस्कार पा चुके हैं। यह पुरस्कार [[बांग्ला भाषा|बांग्ला]] को 5 बार, [[मलयालम भाषा|मलयालम]] को 4 बार, [[उड़िया भाषा|उड़िया]], [[उर्दू]] और [[गुजराती भाषा|गुजराती]] को तीन-तीन बार, [[असमिया भाषा|असमिया]], [[मराठी भाषा|मराठी]], [[तेलुगु भाषा|तेलुगु]], [[पंजाबी भाषा|पंजाबी]] और [[तमिल भाषा|तमिल]] को दो-दो बार मिल चुका है।<ref>{{cite web |url= http://jnanpith.net/awards/index.html|title= भारतीय ज्ञानपीठ अवार्ड्स|accessmonthday=[[28 मई]]|accessyear=[[2007]]|format= एचटीएमएल|publisher= भारतीय ज्ञानपीठ|language=[[अंग्रेज़ी भाषा|अंग्रेज़ी]]}}</ref> | '''ज्ञानपीठ पुरस्कार''' [[भारतीय ज्ञानपीठ]] न्यास द्वारा भारतीय [[साहित्य]] के लिए दिया जाने वाला सर्वोच्च पुरस्कार है। [[भारत]] का कोई भी नागरिक जो [[आठवीं अनुसूची]] में बताई गई 22 भाषाओं में से किसी भाषा में लिखता हो इस पुरस्कार के योग्य है। पुरस्कार में पांच लाख रुपये की धनराशि, प्रशस्तिपत्र और [[वाग्देवी]] की कांस्य प्रतिमा दी जाती है। [[1965]] में 1 लाख रुपये की पुरस्कार राशि से प्रारंभ हुए इस पुरस्कार को [[2005]] में 7 लाख रुपए कर दिया गया। [[2005]] के लिए चुने गए हिन्दी साहित्यकार [[कुंवर नारायण]] पहले व्यक्ति थे, जिन्हें 7 लाख रुपए का ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ।<ref>[http://hindi.webdunia.com/miscellaneous/literature/articles/0811/24/1081124028_1.htm कुंवर नारायण को ज्ञानपीठ पुरस्कार (स्रोत- वेबदुनिया हिंदी)]</ref> वर्ष 2012 से ज्ञानपीठ पुरस्कार के रूप में दी जाने वाली राशि को 7 लाख रुपये से बढ़ाकर 11 लाख रुपये कर दिया गया है।<ref>[http://navbharattimes.indiatimes.com/india/national-india/-11--/articleshow/16808890.cms अब 11 लाख रुपये का ज्ञानपीठ पुरस्कार (स्रोत- नवभारत टाइम्स)]</ref> प्रथम ज्ञानपीठ पुरस्कार [[1965|1965]] में मलयालम लेखक [[जी शंकर कुरुप]] को प्रदान किया गया था। उस समय पुरस्कार की धनराशि 1 लाख रुपए थी। [[1982|1982]] तक यह पुरस्कार लेखक की एकल कृति के लिये दिया जाता था। लेकिन इसके बाद से यह लेखक के [[साहित्य|भारतीय साहित्य]] में संपूर्ण योगदान के लिये दिया जाने लगा। अब तक [[हिन्दी]] तथा [[कन्नड़ भाषा|कन्नड़]] भाषा के लेखक सबसे अधिक सात बार यह पुरस्कार पा चुके हैं। यह पुरस्कार [[बांग्ला भाषा|बांग्ला]] को 5 बार, [[मलयालम भाषा|मलयालम]] को 4 बार, [[उड़िया भाषा|उड़िया]], [[उर्दू]] और [[गुजराती भाषा|गुजराती]] को तीन-तीन बार, [[असमिया भाषा|असमिया]], [[मराठी भाषा|मराठी]], [[तेलुगु भाषा|तेलुगु]], [[पंजाबी भाषा|पंजाबी]] और [[तमिल भाषा|तमिल]] को दो-दो बार मिल चुका है।<ref>{{cite web |url= http://jnanpith.net/awards/index.html|title= भारतीय ज्ञानपीठ अवार्ड्स|accessmonthday=[[28 मई]]|accessyear=[[2007]]|format= एचटीएमएल|publisher= भारतीय ज्ञानपीठ|language=[[अंग्रेज़ी भाषा|अंग्रेज़ी]]}}</ref> | ||
==पुरस्कार की शुरुआत== | ==पुरस्कार की शुरुआत== | ||
[[22 मई]] [[1961]] को भारतीय ज्ञानपीठ के संस्थापक श्री साहू शांति प्रसाद जैन के पचासवें जन्म दिवस के अवसर पर उनके परिवार के सदस्यों के मन में यह विचार आया कि साहित्यिक या सांस्कृतिक क्षेत्र में कोई ऐसा महत्त्वपूर्ण कार्य किया जाए जो राष्ट्रीय गौरव तथा अंतर्राष्ट्रीय प्रितमान के अनुरूप हो। इसी विचार के अंतर्गत [[16 सितंबर]] [[1961]] को भारतीय ज्ञानपीठ की संस्थापक अध्यक्ष श्रीमती रमा जैन ने न्यास की एक गोष्ठी में इस पुरस्कार का प्रस्ताव रखा। [[2 अप्रैल]] [[1962]] को [[दिल्ली]] में भारतीय ज्ञानपीठ और टाइम्स ऑफ़ इंडिया के संयुक्त तत्त्वावधान में देश की सभी भाषाओं के 300 मूर्धन्य विद्वानों ने एक गोष्ठी में इस विषय पर विचार किया। इस गोष्ठी के दो सत्रों की अध्यक्षता डॉ वी राघवन और श्री [[भगवती चरण वर्मा]] ने की और इसका संचालन [[धर्मवीर भारती|डॉ. धर्मवीर भारती]] ने किया। इस गोष्ठी में [[काका कालेलकर]], हरे कृष्ण मेहताब, निसीम इजेकिल, [[डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी]], डॉ. मुल्कराज आनंद, सुरेंद्र मोहंती, देवेश दास, [[सियारामशरण गुप्त]], [[रामधारी सिंह दिनकर]], उदयशंकर भट्ट, जगदीशचंद्र माथुर, [[डॉ. नगेन्द्र]], डॉ. बी.आर.बेंद्रे, [[जैनेंद्र कुमार]], [[मन्मथनाथ गुप्त]], लक्ष्मीचंद्र जैन आदि प्रख्यात विद्वानों ने भाग लिया। इस पुरस्कार के स्वरूप का निर्धारण करने के लिए गोष्ठियाँ होती रहीं और [[1965]] में पहले ज्ञानपीठ पुरस्कार का निर्णय लिया गया।<ref>{{cite book |last= |first= |title= ज्ञानपीठ पुरस्कार|year= 2005 |publisher= भारतीय ज्ञानपीठ|location= नई दिल्ली, भारत|id=263-1140-1 |page= 11-12-13|editor: प्रभाकर श्रोत्रिय|accessday= 28|accessmonth=मई|accessyear=2007}}</ref> | [[22 मई]], [[1961]] को भारतीय ज्ञानपीठ के संस्थापक श्री साहू शांति प्रसाद जैन के पचासवें जन्म दिवस के अवसर पर उनके परिवार के सदस्यों के मन में यह विचार आया कि साहित्यिक या सांस्कृतिक क्षेत्र में कोई ऐसा महत्त्वपूर्ण कार्य किया जाए जो राष्ट्रीय गौरव तथा अंतर्राष्ट्रीय प्रितमान के अनुरूप हो। इसी विचार के अंतर्गत [[16 सितंबर]] [[1961]] को भारतीय ज्ञानपीठ की संस्थापक अध्यक्ष श्रीमती रमा जैन ने न्यास की एक गोष्ठी में इस पुरस्कार का प्रस्ताव रखा। [[2 अप्रैल]] [[1962]] को [[दिल्ली]] में भारतीय ज्ञानपीठ और टाइम्स ऑफ़ इंडिया के संयुक्त तत्त्वावधान में देश की सभी भाषाओं के 300 मूर्धन्य विद्वानों ने एक गोष्ठी में इस विषय पर विचार किया। इस गोष्ठी के दो सत्रों की अध्यक्षता डॉ वी राघवन और श्री [[भगवती चरण वर्मा]] ने की और इसका संचालन [[धर्मवीर भारती|डॉ. धर्मवीर भारती]] ने किया। इस गोष्ठी में [[काका कालेलकर]], [[हरे कृष्ण मेहताब]], निसीम इजेकिल, [[डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी]], डॉ. मुल्कराज आनंद, सुरेंद्र मोहंती, देवेश दास, [[सियारामशरण गुप्त]], [[रामधारी सिंह दिनकर]], उदयशंकर भट्ट, जगदीशचंद्र माथुर, [[डॉ. नगेन्द्र]], डॉ. बी.आर.बेंद्रे, [[जैनेंद्र कुमार]], [[मन्मथनाथ गुप्त]], लक्ष्मीचंद्र जैन आदि प्रख्यात विद्वानों ने भाग लिया। इस पुरस्कार के स्वरूप का निर्धारण करने के लिए गोष्ठियाँ होती रहीं और [[1965]] में पहले ज्ञानपीठ पुरस्कार का निर्णय लिया गया।<ref name="भारतीय ज्ञानपीठ">{{cite book |last= |first= |title= ज्ञानपीठ पुरस्कार|year= 2005 |publisher= भारतीय ज्ञानपीठ|location= नई दिल्ली, भारत|id=263-1140-1 |page= 11-12-13|editor: प्रभाकर श्रोत्रिय|accessday= 28|accessmonth=मई|accessyear=2007}}</ref> | ||
==चयन प्रक्रिया== | ==चयन प्रक्रिया== | ||
ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेताओं की सूची पृष्ठ के दाहिनी ओर देखी जा सकती है। इस पुरस्कार के चयन प्रक्रिया जटिल है और कई महीनों तक चलती है। प्रक्रिया का आरंभ विभिन्न भाषाओं के साहित्यकारों, अध्यापकों, समालोचकों, प्रबुद्ध पाठकों, विश्वविद्यालयों, साहित्यिक तथा भाषायी संस्थाओं से प्रस्ताव भेजने के साथ होता है। जिस भाषा के साहित्यकार को एक बार पुरस्कार मिल जाता है उस पर अगले तीन वर्ष तक विचार नहीं किया जाता है। हर भाषा की एक ऐसी परामर्श समिति है जिसमें तीन विख्यात साहित्य-समालोचक और विद्वान सदस्य होते हैं। इन समितियों का गठन तीन-तीन वर्ष के लिए होता | ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेताओं की सूची पृष्ठ के दाहिनी ओर देखी जा सकती है। इस पुरस्कार के चयन प्रक्रिया जटिल है और कई महीनों तक चलती है। प्रक्रिया का आरंभ विभिन्न भाषाओं के साहित्यकारों, अध्यापकों, समालोचकों, प्रबुद्ध पाठकों, विश्वविद्यालयों, साहित्यिक तथा भाषायी संस्थाओं से प्रस्ताव भेजने के साथ होता है। जिस भाषा के साहित्यकार को एक बार पुरस्कार मिल जाता है उस पर अगले तीन वर्ष तक विचार नहीं किया जाता है। हर भाषा की एक ऐसी परामर्श समिति है जिसमें तीन विख्यात साहित्य-समालोचक और विद्वान सदस्य होते हैं। इन समितियों का गठन तीन-तीन वर्ष के लिए होता है। | ||
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भाषा परामर्श समितियों की अनुशंसाएँ प्रवर परिषद के समक्ष प्रस्तुत की जाती हैं। प्रवर परिषद में कम से कम सात और अधिक से अधिक ग्यारह ऐसे सदस्य होते हैं, जिनकी ख्याति और विश्वसनीयता उच्चकोटि की होती है। पहली प्रवर परिषद का गठन भारतीय ज्ञानपीठ के न्यास-मंडल द्वारा किया गया था। इसके बाद इन सदस्यों की नियुक्ति परिषद की संस्तुति पर होती है। प्रत्येक सदस्य का कार्यकाल 3 वर्ष को होता है पर उसको दो बार और बढ़ाया जा सकता है। प्रवर परिषद भाषा परामर्श समितियों की संस्तुतियों का तुलनात्मक मूल्यांकन करती है। प्रवर परिषद के गहन चिंतन और पर्यालोचन के बाद ही पुरस्कार के लिए किसी साहित्यकार का अंतिम चयन होता है। भारतीय ज्ञानपीठ के न्यास मंडल का इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं होता।<ref | प्राप्त प्रस्ताव संबंधित 'भाषा परामर्श समिति' द्वारा जाँचे जाते हैं। भाषा समितियों पर यह प्रतिबंध नहीं है कि वे अपना विचार विमर्ष प्राप्त प्रस्तावों तक ही सीमित रखें। उन्हें किसी भी लेखक पर विचार करने की स्वतंत्रता है। भारतीय ज्ञानपीठ, परामर्श समिति से यह अपेक्षा रखती है कि संबद्ध भाषा का कोई भी पुरस्कार योग्य साहित्यकार विचार परिधि से बाहर न रह जाए। किसी साहित्यकार पर विचार करते समय भाषा-समिति को उसके संपूर्ण कृतित्व का मूल्यांकन तो करना ही होता है, साथ ही, समसामयिक भारतीय साहित्य की पृष्ठभूमि में भी उसको परखना होता है। अट्ठाइसवें पुरस्कार के नियम में किए गए संशोधन के अनुसार, पुरस्कार वर्ष को छोड़कर पिछले बीस वर्ष की अवधि में प्रकाशित कृतियों के आधार पर लेखक का मूल्यांकन किया जाता है। भाषा परामर्श समितियों की अनुशंसाएँ प्रवर परिषद के समक्ष प्रस्तुत की जाती हैं। प्रवर परिषद में कम से कम सात और अधिक से अधिक ग्यारह ऐसे सदस्य होते हैं, जिनकी ख्याति और विश्वसनीयता उच्चकोटि की होती है। पहली प्रवर परिषद का गठन भारतीय ज्ञानपीठ के न्यास-मंडल द्वारा किया गया था। इसके बाद इन सदस्यों की नियुक्ति परिषद की संस्तुति पर होती है। प्रत्येक सदस्य का कार्यकाल 3 वर्ष को होता है पर उसको दो बार और बढ़ाया जा सकता है। प्रवर परिषद भाषा परामर्श समितियों की संस्तुतियों का तुलनात्मक मूल्यांकन करती है। प्रवर परिषद के गहन चिंतन और पर्यालोचन के बाद ही पुरस्कार के लिए किसी साहित्यकार का अंतिम चयन होता है। भारतीय ज्ञानपीठ के न्यास मंडल का इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं होता।<ref name="भारतीय ज्ञानपीठ"/> | ||
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वर्तमान प्रवर परिषद के अध्यक्ष डॉ. लक्ष्मीमल सिंघवी हैं जो एक सुपरिचित विधिवेत्ता, राजनयिक, चिंतक और लेखक हैं। इससे पूर्व [[काका कालेलकर]], [[संपूर्णानन्द|डॉ. संपूर्णानंद]], डॉ. बी गोपाल रेड्डी, [[कर्ण सिंह|डॉ.कर्ण सिंह]], [[नरसिंह राव पी. वी.|डॉ. पी.वी. नरसिंह राव]], [[हज़ारी प्रसाद द्विवेदी|आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी]], डॉ. आर. के. दासगुप्ता, [[डॉ. विनायक कृष्ण गोकाक]], डॉ. उमाशंकर जोशी, डॉ.मसूद हुसैन, प्रो.एम.वी.राज्याध्यक्ष, डॉ. आदित्यनाथ झा, श्री जगदीशचंद्र माथुर सदृश विद्वान और साहित्यकार इस परिषद के अध्यक्ष या सदस्य रह चुके हैं।<ref | वर्तमान प्रवर परिषद के अध्यक्ष डॉ. लक्ष्मीमल सिंघवी हैं जो एक सुपरिचित विधिवेत्ता, राजनयिक, चिंतक और लेखक हैं। इससे पूर्व [[काका कालेलकर]], [[संपूर्णानन्द|डॉ. संपूर्णानंद]], डॉ. बी गोपाल रेड्डी, [[कर्ण सिंह|डॉ.कर्ण सिंह]], [[नरसिंह राव पी. वी.|डॉ. पी.वी. नरसिंह राव]], [[हज़ारी प्रसाद द्विवेदी|आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी]], डॉ. आर. के. दासगुप्ता, [[डॉ. विनायक कृष्ण गोकाक]], डॉ. उमाशंकर जोशी, डॉ.मसूद हुसैन, प्रो.एम.वी.राज्याध्यक्ष, डॉ. आदित्यनाथ झा, श्री जगदीशचंद्र माथुर सदृश विद्वान और साहित्यकार इस परिषद के अध्यक्ष या सदस्य रह चुके हैं।<ref name="भारतीय ज्ञानपीठ"/> | ||
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'''ज्ञानपीठ पुरस्कार''' में प्रतीक स्वरूप दी जाने वाली [[वाग्देवी]] का कांस्य प्रतिमा मूलतः [[धार ज़िला|धार]], [[मालवा]] के सरस्वती मंदिर में स्थित प्रतिमा की अनुकृति है। इस मंदिर की स्थापना विद्याव्यसनी राजा भोज ने 1035 ईस्वी में की थी। अब यह प्रतिमा ब्रिटिश म्यूज़ियम [[लंदन]] में है। भारतीय ज्ञानपीठ ने साहित्य पुरस्कार के प्रतीक के रूप में इसको ग्रहण करते समय शिरोभाग के पार्श्व में प्रभामंडल सम्मिलित किया है। इस प्रभामंडल में तीन रश्मिपुंज हैं जो [[भारत]] के प्राचीनतम जैन तोरण द्वार ([[कंकाली टीला मथुरा|कंकाली टीला]], [[मथुरा]]) के रत्नत्रय को निरूपित करते हैं। हाथ में कमंडलु, पुस्तक, कमल और अक्षमाला ज्ञान तथा आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि के प्रतीक हैं। <ref | '''ज्ञानपीठ पुरस्कार''' में प्रतीक स्वरूप दी जाने वाली [[वाग्देवी]] का कांस्य प्रतिमा मूलतः [[धार ज़िला|धार]], [[मालवा]] के सरस्वती मंदिर में स्थित प्रतिमा की अनुकृति है। इस मंदिर की स्थापना विद्याव्यसनी राजा भोज ने 1035 ईस्वी में की थी। अब यह प्रतिमा ब्रिटिश म्यूज़ियम [[लंदन]] में है। भारतीय ज्ञानपीठ ने साहित्य पुरस्कार के प्रतीक के रूप में इसको ग्रहण करते समय शिरोभाग के पार्श्व में प्रभामंडल सम्मिलित किया है। इस प्रभामंडल में तीन रश्मिपुंज हैं जो [[भारत]] के प्राचीनतम जैन तोरण द्वार ([[कंकाली टीला मथुरा|कंकाली टीला]], [[मथुरा]]) के रत्नत्रय को निरूपित करते हैं। हाथ में कमंडलु, पुस्तक, कमल और अक्षमाला ज्ञान तथा आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि के प्रतीक हैं।<ref name="भारतीय ज्ञानपीठ"/> | ||
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* [http://www.webindia123.com/government/award/jnanpith.htm सम्मानित साहित्यकारों की सूची] | * [http://www.webindia123.com/government/award/jnanpith.htm सम्मानित साहित्यकारों की सूची] | ||
==संबंधित लेख== | ==संबंधित लेख== |
12:06, 18 जुलाई 2014 का अवतरण
ज्ञानपीठ पुरस्कार
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विवरण | भारतीय ज्ञानपीठ न्यास द्वारा भारतीय साहित्य के लिए दिया जाने वाला सर्वोच्च पुरस्कार है। |
गठन | 22 मई, 1961 |
पुरस्कार राशि | 7 लाख रुपए, प्रशस्तिपत्र और वाग्देवी की कांस्य प्रतिमा[1] |
प्रथम पुरस्कृत | गोविंद शंकर कुरुप (1965) |
अंतिम पुरस्कृत | केदारनाथ सिंह (1913) |
कुल सम्मानित | 53 |
संबंधित लेख | साहित्य अकादमी पुरस्कार, सरस्वती सम्मान |
अन्य जानकारी | वर्ष 1982 तक यह पुरस्कार लेखक की एकल कृति के लिये दिया जाता था लेकिन इसके बाद से यह लेखक के भारतीय साहित्य में संपूर्ण योगदान के लिये दिया जाने लगा। |
बाहरी कड़ियाँ | आधिकारिक वेबसाइट |
अद्यतन | 17:36, 18 जुलाई 2014 (IST)
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ज्ञानपीठ पुरस्कार भारतीय ज्ञानपीठ न्यास द्वारा भारतीय साहित्य के लिए दिया जाने वाला सर्वोच्च पुरस्कार है। भारत का कोई भी नागरिक जो आठवीं अनुसूची में बताई गई 22 भाषाओं में से किसी भाषा में लिखता हो इस पुरस्कार के योग्य है। पुरस्कार में पांच लाख रुपये की धनराशि, प्रशस्तिपत्र और वाग्देवी की कांस्य प्रतिमा दी जाती है। 1965 में 1 लाख रुपये की पुरस्कार राशि से प्रारंभ हुए इस पुरस्कार को 2005 में 7 लाख रुपए कर दिया गया। 2005 के लिए चुने गए हिन्दी साहित्यकार कुंवर नारायण पहले व्यक्ति थे, जिन्हें 7 लाख रुपए का ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ।[2] वर्ष 2012 से ज्ञानपीठ पुरस्कार के रूप में दी जाने वाली राशि को 7 लाख रुपये से बढ़ाकर 11 लाख रुपये कर दिया गया है।[3] प्रथम ज्ञानपीठ पुरस्कार 1965 में मलयालम लेखक जी शंकर कुरुप को प्रदान किया गया था। उस समय पुरस्कार की धनराशि 1 लाख रुपए थी। 1982 तक यह पुरस्कार लेखक की एकल कृति के लिये दिया जाता था। लेकिन इसके बाद से यह लेखक के भारतीय साहित्य में संपूर्ण योगदान के लिये दिया जाने लगा। अब तक हिन्दी तथा कन्नड़ भाषा के लेखक सबसे अधिक सात बार यह पुरस्कार पा चुके हैं। यह पुरस्कार बांग्ला को 5 बार, मलयालम को 4 बार, उड़िया, उर्दू और गुजराती को तीन-तीन बार, असमिया, मराठी, तेलुगु, पंजाबी और तमिल को दो-दो बार मिल चुका है।[4]
पुरस्कार की शुरुआत
22 मई, 1961 को भारतीय ज्ञानपीठ के संस्थापक श्री साहू शांति प्रसाद जैन के पचासवें जन्म दिवस के अवसर पर उनके परिवार के सदस्यों के मन में यह विचार आया कि साहित्यिक या सांस्कृतिक क्षेत्र में कोई ऐसा महत्त्वपूर्ण कार्य किया जाए जो राष्ट्रीय गौरव तथा अंतर्राष्ट्रीय प्रितमान के अनुरूप हो। इसी विचार के अंतर्गत 16 सितंबर 1961 को भारतीय ज्ञानपीठ की संस्थापक अध्यक्ष श्रीमती रमा जैन ने न्यास की एक गोष्ठी में इस पुरस्कार का प्रस्ताव रखा। 2 अप्रैल 1962 को दिल्ली में भारतीय ज्ञानपीठ और टाइम्स ऑफ़ इंडिया के संयुक्त तत्त्वावधान में देश की सभी भाषाओं के 300 मूर्धन्य विद्वानों ने एक गोष्ठी में इस विषय पर विचार किया। इस गोष्ठी के दो सत्रों की अध्यक्षता डॉ वी राघवन और श्री भगवती चरण वर्मा ने की और इसका संचालन डॉ. धर्मवीर भारती ने किया। इस गोष्ठी में काका कालेलकर, हरे कृष्ण मेहताब, निसीम इजेकिल, डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी, डॉ. मुल्कराज आनंद, सुरेंद्र मोहंती, देवेश दास, सियारामशरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर, उदयशंकर भट्ट, जगदीशचंद्र माथुर, डॉ. नगेन्द्र, डॉ. बी.आर.बेंद्रे, जैनेंद्र कुमार, मन्मथनाथ गुप्त, लक्ष्मीचंद्र जैन आदि प्रख्यात विद्वानों ने भाग लिया। इस पुरस्कार के स्वरूप का निर्धारण करने के लिए गोष्ठियाँ होती रहीं और 1965 में पहले ज्ञानपीठ पुरस्कार का निर्णय लिया गया।[5]
चयन प्रक्रिया
ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेताओं की सूची पृष्ठ के दाहिनी ओर देखी जा सकती है। इस पुरस्कार के चयन प्रक्रिया जटिल है और कई महीनों तक चलती है। प्रक्रिया का आरंभ विभिन्न भाषाओं के साहित्यकारों, अध्यापकों, समालोचकों, प्रबुद्ध पाठकों, विश्वविद्यालयों, साहित्यिक तथा भाषायी संस्थाओं से प्रस्ताव भेजने के साथ होता है। जिस भाषा के साहित्यकार को एक बार पुरस्कार मिल जाता है उस पर अगले तीन वर्ष तक विचार नहीं किया जाता है। हर भाषा की एक ऐसी परामर्श समिति है जिसमें तीन विख्यात साहित्य-समालोचक और विद्वान सदस्य होते हैं। इन समितियों का गठन तीन-तीन वर्ष के लिए होता है।
वर्ष | नाम | कृति | भाषा |
---|
प्राप्त प्रस्ताव संबंधित 'भाषा परामर्श समिति' द्वारा जाँचे जाते हैं। भाषा समितियों पर यह प्रतिबंध नहीं है कि वे अपना विचार विमर्ष प्राप्त प्रस्तावों तक ही सीमित रखें। उन्हें किसी भी लेखक पर विचार करने की स्वतंत्रता है। भारतीय ज्ञानपीठ, परामर्श समिति से यह अपेक्षा रखती है कि संबद्ध भाषा का कोई भी पुरस्कार योग्य साहित्यकार विचार परिधि से बाहर न रह जाए। किसी साहित्यकार पर विचार करते समय भाषा-समिति को उसके संपूर्ण कृतित्व का मूल्यांकन तो करना ही होता है, साथ ही, समसामयिक भारतीय साहित्य की पृष्ठभूमि में भी उसको परखना होता है। अट्ठाइसवें पुरस्कार के नियम में किए गए संशोधन के अनुसार, पुरस्कार वर्ष को छोड़कर पिछले बीस वर्ष की अवधि में प्रकाशित कृतियों के आधार पर लेखक का मूल्यांकन किया जाता है। भाषा परामर्श समितियों की अनुशंसाएँ प्रवर परिषद के समक्ष प्रस्तुत की जाती हैं। प्रवर परिषद में कम से कम सात और अधिक से अधिक ग्यारह ऐसे सदस्य होते हैं, जिनकी ख्याति और विश्वसनीयता उच्चकोटि की होती है। पहली प्रवर परिषद का गठन भारतीय ज्ञानपीठ के न्यास-मंडल द्वारा किया गया था। इसके बाद इन सदस्यों की नियुक्ति परिषद की संस्तुति पर होती है। प्रत्येक सदस्य का कार्यकाल 3 वर्ष को होता है पर उसको दो बार और बढ़ाया जा सकता है। प्रवर परिषद भाषा परामर्श समितियों की संस्तुतियों का तुलनात्मक मूल्यांकन करती है। प्रवर परिषद के गहन चिंतन और पर्यालोचन के बाद ही पुरस्कार के लिए किसी साहित्यकार का अंतिम चयन होता है। भारतीय ज्ञानपीठ के न्यास मंडल का इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं होता।[5]
प्रवर परिषद के सदस्य
वर्तमान प्रवर परिषद के अध्यक्ष डॉ. लक्ष्मीमल सिंघवी हैं जो एक सुपरिचित विधिवेत्ता, राजनयिक, चिंतक और लेखक हैं। इससे पूर्व काका कालेलकर, डॉ. संपूर्णानंद, डॉ. बी गोपाल रेड्डी, डॉ.कर्ण सिंह, डॉ. पी.वी. नरसिंह राव, आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ. आर. के. दासगुप्ता, डॉ. विनायक कृष्ण गोकाक, डॉ. उमाशंकर जोशी, डॉ.मसूद हुसैन, प्रो.एम.वी.राज्याध्यक्ष, डॉ. आदित्यनाथ झा, श्री जगदीशचंद्र माथुर सदृश विद्वान और साहित्यकार इस परिषद के अध्यक्ष या सदस्य रह चुके हैं।[5]
वाग्देवी की कांस्य प्रतिमा
ज्ञानपीठ पुरस्कार में प्रतीक स्वरूप दी जाने वाली वाग्देवी का कांस्य प्रतिमा मूलतः धार, मालवा के सरस्वती मंदिर में स्थित प्रतिमा की अनुकृति है। इस मंदिर की स्थापना विद्याव्यसनी राजा भोज ने 1035 ईस्वी में की थी। अब यह प्रतिमा ब्रिटिश म्यूज़ियम लंदन में है। भारतीय ज्ञानपीठ ने साहित्य पुरस्कार के प्रतीक के रूप में इसको ग्रहण करते समय शिरोभाग के पार्श्व में प्रभामंडल सम्मिलित किया है। इस प्रभामंडल में तीन रश्मिपुंज हैं जो भारत के प्राचीनतम जैन तोरण द्वार (कंकाली टीला, मथुरा) के रत्नत्रय को निरूपित करते हैं। हाथ में कमंडलु, पुस्तक, कमल और अक्षमाला ज्ञान तथा आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि के प्रतीक हैं।[5]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1965 में 1 लाख रुपये की पुरस्कार राशि से प्रारंभ हुए इस पुरस्कार को 2005 में 7 लाख रुपए कर दिया गया।
- ↑ कुंवर नारायण को ज्ञानपीठ पुरस्कार (स्रोत- वेबदुनिया हिंदी)
- ↑ अब 11 लाख रुपये का ज्ञानपीठ पुरस्कार (स्रोत- नवभारत टाइम्स)
- ↑ भारतीय ज्ञानपीठ अवार्ड्स (अंग्रेज़ी) (एचटीएमएल) भारतीय ज्ञानपीठ। अभिगमन तिथि: 28 मई, 2007।
- ↑ 5.0 5.1 5.2 5.3 (2005) ज्ञानपीठ पुरस्कार। नई दिल्ली, भारत: भारतीय ज्ञानपीठ। 263-1140-1। अभिगमन तिथि: 28 मई, 2007।