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सखाराम गणेश देउसकर का जन्म 17 दिसम्बर 1869 को [[देवघर]]<ref>पहले बिहार के अंतर्गत</ref> के पास 'करौं' नामक गांव में हुआ था, जो अब [[झारखंड]] राज्य में है। मराठी मूल के देउसकर के पूर्वज [[महाराष्ट्र]] के रत्नागिरि ज़िले में [[शिवाजी]] के आलबान नामक किले के निकट देउस गाँव के निवासी थे। 18वीं सदी में [[मराठा]] शक्ति के विस्तार के समय इनके पूर्वज [[महाराष्ट्र]] के देउस गांव से आकर 'करौं' में बस गए थे। | सखाराम गणेश देउसकर का जन्म 17 दिसम्बर 1869 को [[देवघर]]<ref>पहले बिहार के अंतर्गत</ref> के पास 'करौं' नामक गांव में हुआ था, जो अब [[झारखंड]] राज्य में है। मराठी मूल के देउसकर के पूर्वज [[महाराष्ट्र]] के रत्नागिरि ज़िले में [[शिवाजी]] के आलबान नामक किले के निकट देउस गाँव के निवासी थे। 18वीं सदी में [[मराठा]] शक्ति के विस्तार के समय इनके पूर्वज [[महाराष्ट्र]] के देउस गांव से आकर 'करौं' में बस गए थे। |
10:51, 17 दिसम्बर 2016 का अवतरण
सखाराम गणेश देउसकर
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पूरा नाम | सखाराम गणेश देउसकर |
जन्म | 17 दिसंबर, 1869 |
जन्म भूमि | बिहार प्रदेश |
मृत्यु | 23 नवंबर, 1912 |
मुख्य रचनाएँ | महामति रानाडे (1901), झासीर राजकुमार (1901), बाजीराव (1902) |
शिक्षा | मैट्रिक |
प्रसिद्धि | क्रांतिकारी लेखक, इतिहासकार तथा पत्रकार |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | सखाराम गणेश देउसकर ने देश की स्वतंत्रता को अपने जीवन का लक्ष्य मानने वाले ने क्रांतिकारी आंदोलन से भी संपर्क रखा और बंगला तथा हिन्दी में साहित्य की रचना करके जन-जागृति में योगदान दिया। |
इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
सखाराम गणेश देउसकर (अंग्रेज़ी: Sakharam Ganesh Deuskar, जन्म: 17 दिसंबर, 1869, बिहार; मृत्यु: 23 नवंबर, 1912) क्रांतिकारी लेखक, इतिहासकार तथा पत्रकार थे। ये भारतीय जनजागरण के ऐसे विचारक थे जिनके चिंतन और लेखन में स्थानीयता और अखिल भारतीयता का अद्भुत संगम था। ये लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के पक्के अनुयायी थे और बंगाल में जनजागृति लाने के कारण ये 'बंगाल के तिलक' कहलाते थे। हिन्दी के प्रचार के लिए भी ये निरंतर प्रयत्नशील रहे।
परिचय
सखाराम गणेश देउसकर का जन्म 17 दिसम्बर 1869 को देवघर[1] के पास 'करौं' नामक गांव में हुआ था, जो अब झारखंड राज्य में है। मराठी मूल के देउसकर के पूर्वज महाराष्ट्र के रत्नागिरि ज़िले में शिवाजी के आलबान नामक किले के निकट देउस गाँव के निवासी थे। 18वीं सदी में मराठा शक्ति के विस्तार के समय इनके पूर्वज महाराष्ट्र के देउस गांव से आकर 'करौं' में बस गए थे।
शिक्षा
पाँच साल की अवस्था में माँ का देहांत हो जाने के बाद बालक सखाराम का पालन-पोषण इनकी विधवा बुआ के पास हुआ जो मराठी साहित्य से भली भाँति परिचित थीं। इनके जतन, उपदेश और परिश्रम ने सखाराम में मराठी साहित्य के प्रति प्रेम उत्पन्न किया। बचपन में वेदों के अध्ययन के साथ ही सखाराम ने बंगाली भाषा भी सीखी। इतिहास इनका प्रिय विषय था। ये बाल गंगाधर तिलक को अपना राजनीतिक गुरु मानते थे। सखाराम गणेश देउसकर ने सन 1891 में देवघर के आर. मित्र हाई स्कूल से मैट्रिक की परीक्षा पास की और सन् 1893 से इसी स्कूल में शिक्षक नियुक्त हो गए। यहीं वे राजनारायण बसु के संपर्क में आए और अध्यापन के साथ-साथ एक ओर अपनी सामाजिक-राजनीतिक दृष्टि का विकास करते रहे।
लेखन तथा सम्पादन कार्य
दूसरी ओर वे अपनी सामाजिक-राजनीतिक अभिव्यक्ति के लिए बांग्ला की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में राजनीति, सामाजिक और साहित्यिक विषयों पर लेख भी लिखते रहे। सन् 1894 में देवघर में हार्ड नाम का एक अंग्रेज मजिस्ट्रेट था। उसके अन्याय और अत्याचार से जनता परेशान थी। देउसकर ने उसके विरुद्ध कलकत्ता से प्रकाशित होने वाले 'हितवादी' नामक पत्र में कई लेख लिखे, जिसके परिणामस्वरूप हार्ड ने देउसकर को स्कूल की नौकरी से निकालने की धमकी दी। उसके बाद देउसकर जी ने अध्यापक की नौकरी छोड़ दी और कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) जाकर 'हितवादी अखबार' में प्रूफ रीडर के रूप में काम करने लगे। कुछ समय बाद अपनी असाधारण प्रतिभा और परिश्रम की क्षमता के आधार पर वे 'हितवादी' के संपादक बना दिए गए।
सखाराम गणेश देउसकर संस्कृत, मराठी और हिन्दी भाषा के अच्छे ज्ञाता थे। बंगला भाषा के प्रसिद्ध पत्र 'हितवादी' का ये संपादन करते थे। इनकी प्रेरणा से इस पत्र का 'हितवार्ता' के नाम से हिन्दी संस्करण निकला, जिसका संपादन पं. बाबूराव विष्णु पराड़कर ने किया। हिन्दी में भी बंगला, मराठी आदि की भाँति विभक्ति शब्द से मिला कर लिखी जाए, इसके लिए देउसकर ने एक आंदोलन चलाया था। इनका एक बड़ा योगदान था 'देशेर कथा' नामक ग्रंथ की रचना। इसके प्रथम संस्करण का पं. बाबूराव विष्णु पराड़कर ने 'देश की बात' नाम से हिन्दी में अनुवाद किया था। इस पुस्तक में पराधीन देश की दशा पर प्रकाश डाला गया था। विदेशी सरकार ने इसे प्रकाशित होते ही जब्त कर लिया था, पर गुप्त रूप से देश भर में इसका बहुत प्रचार हुआ। सखाराम गणेश देउसकर का घर अरविन्द घोष और बारीन्द्र घोष जैसे क्रांतिकारियों का मिलने का स्थान था, जो दिन में पत्रकारिता करते और रात्रि में अपने दल के कार्यों में संलग्न रहते। ये लोकमान्य के पक्के अनुयायी थे और बंगाल में जनजागृति लाने के कारण ये 'बंगाल के तिलक' कहलाते थे। हिन्दी के प्रचार के लिए भी ये निरंतर प्रयत्नशील रहे।
रचनाएँ
सखाराम गणेश देउसकर के ग्रंथों और निबंधों की सूची बहुत लंबी है। डॉ. प्रभुनारायण विद्यार्थी ने एक लेंख में देउसकर की रचनाओं का ब्योरा प्रस्तुत किया है। इनके प्रमुख ग्रंथ है-
- महामति रानाडे (1901)
- झासीर राजकुमार (1901)
- बाजीराव (1902)
- आनन्दी बाई (1903)
- शिवाजीर महत्व (1903)
- शिवाजीर शिक्षा (1904)
- शिवाजी (1906)
- देशेर कथा (1904)
- देशेर कथा (परिशिष्ट) (1907)
- कृषकेर सर्वनाश (1904)
- तिलकेर मोकद्दमा ओ संक्षिप्त जीवन चरित (1908)
इन पुस्तकों के साथ-साथ इतिहास, धर्म, संस्कृति और मराठी साहित्य से संबंधित उनके लेख अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।
सार्वजनिक सेवा
सखाराम गणेश देउसकर ने सार्वजनिक सेवा कोलकाता में जाकर की। इन्होंने कोलकाता में शिवाजी महोत्सव आरंभ करके युवकों के अन्दर राष्ट्रीयता की भावना भरी। ये बंग भंग आंदोलन से पहले ही स्वदेशी के प्रवर्तक थे। देश की स्वतंत्रता को अपने जीवन का लक्ष्य मानने वाले सखाराम ने क्रांतिकारी आंदोलन से भी संपर्क रखा और बंगला तथा हिन्दी में साहित्य की रचना करके जन-जागृति में योगदान दिया। सखाराम गणेश देउसकर की अध्यक्षता में कोलकाता में 'बुद्धिवर्धिनी सभा' का गठन हुआ। इस सभा के माध्यम से युवकों के ज्ञान में वृद्धि तो होती ही थी, साथ ही साथ इन्हें राजनीतिक ज्ञान भी प्राप्त होता था और लोगों को स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग की प्ररेणा मिलती थी। 1905 मे बंग-भंग के विरोद्ध में जो आंदोलन चला, उसमें सखाराम गणेश देउसकर का बड़ा योगदान था।[2]
निधन
राष्ट्रभक्त सखाराम गणेश देउसकर का अल्प आयु में ही 23 नवंबर, 1912 को निधन हो गया।[2]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
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