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| कृष्णयजुर्वेद श्रौतसूत्रों के मध्य इसका स्थान [[आपस्तम्ब श्रौतसूत्र|आपस्तम्ब]] के अनन्तर है। 'वैजयन्ती' कार महादेव दीक्षित ने इसके रचियता को नामकरण के यथार्थ अनुरूप बतलाते हुए सूत्रग्रन्थ को निगूढ भावों और अचर्चित विधियों से युक्त कहा है– 'अतीव गूढार्थ मनन्यदर्शितं न्यायैश्च युक्तं रचयन्नसौ पुन:। हिरण्यकेशीति यथार्थ नामभाग भूद्वरात्तुष्ट मुनीन्द्रसम्मतात्।।' भाष्य के उपोद्घातगत एक अन्य पद्य में सत्याषाढ को भगवान [[विष्णु]] का अवतार माना गया है– 'श्रीमद् भगवतो विष्णोरवतारेण सूत्रितम्। सत्याषाढेन ........।' व्याख्याकार महादेव ने ये सूचना भी अंकित की है कि उनके समय में ही यह सूत्र लुप्तप्राय था और कहीं–कहीं ही उपलब्ध था। दक्षिण में ताम्रपर्णी नदी के तटीय क्षेत्रों में इसका विशेष प्रचार था– | | कृष्णयजुर्वेद श्रौतसूत्रों के मध्य इसका स्थान [[आपस्तम्ब श्रौतसूत्र|आपस्तम्ब]] के अनन्तर है। 'वैजयन्ती' कार महादेव दीक्षित ने इसके रचयिता को नामकरण के यथार्थ अनुरूप बतलाते हुए सूत्रग्रन्थ को निगूढ भावों और अचर्चित विधियों से युक्त कहा है– 'अतीव गूढार्थ मनन्यदर्शितं न्यायैश्च युक्तं रचयन्नसौ पुन:। हिरण्यकेशीति यथार्थ नामभाग भूद्वरात्तुष्ट मुनीन्द्रसम्मतात्।।' भाष्य के उपोद्घातगत एक अन्य पद्य में सत्याषाढ को भगवान [[विष्णु]] का अवतार माना गया है– 'श्रीमद् भगवतो विष्णोरवतारेण सूत्रितम्। सत्याषाढेन ........।' व्याख्याकार महादेव ने ये सूचना भी अंकित की है कि उनके समय में ही यह सूत्र लुप्तप्राय था और कहीं–कहीं ही उपलब्ध था। दक्षिण में ताम्रपर्णी नदी के तटीय क्षेत्रों में इसका विशेष प्रचार था– |
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| लुप्तप्रायमिदं सूत्रं दैवादासीत् क्वचित् क्वचित्। | | लुप्तप्रायमिदं सूत्रं दैवादासीत् क्वचित् क्वचित्। |
10:16, 13 जनवरी 2011 का अवतरण
कृष्णयजुर्वेद श्रौतसूत्रों के मध्य इसका स्थान आपस्तम्ब के अनन्तर है। 'वैजयन्ती' कार महादेव दीक्षित ने इसके रचयिता को नामकरण के यथार्थ अनुरूप बतलाते हुए सूत्रग्रन्थ को निगूढ भावों और अचर्चित विधियों से युक्त कहा है– 'अतीव गूढार्थ मनन्यदर्शितं न्यायैश्च युक्तं रचयन्नसौ पुन:। हिरण्यकेशीति यथार्थ नामभाग भूद्वरात्तुष्ट मुनीन्द्रसम्मतात्।।' भाष्य के उपोद्घातगत एक अन्य पद्य में सत्याषाढ को भगवान विष्णु का अवतार माना गया है– 'श्रीमद् भगवतो विष्णोरवतारेण सूत्रितम्। सत्याषाढेन ........।' व्याख्याकार महादेव ने ये सूचना भी अंकित की है कि उनके समय में ही यह सूत्र लुप्तप्राय था और कहीं–कहीं ही उपलब्ध था। दक्षिण में ताम्रपर्णी नदी के तटीय क्षेत्रों में इसका विशेष प्रचार था–
लुप्तप्रायमिदं सूत्रं दैवादासीत् क्वचित् क्वचित्।
दक्षिणस्यां ताम्रपर्ण्यास्तीरेष्विदमाहृतम्।।
रचयिता
तैत्तिरीय शाखा के ही अन्तर्गत हिरण्यकेशि उपशाखा है, जो सूत्र–भेद पर निर्भर है, संहिता–भेद पर नहीं। हिरण्यकेशि आचार्य को सत्यावलम्बन के कारण अपने पिता से सत्याषाढ नाम मिला था। वही इस सूत्र के प्रणेता माने जाते हैं। सम्पूर्ण हिरण्यकेशि कल्प में महादेव के अनुसार सत्ताईस प्रश्न हैं, जिनमें से दो (19–20) गृह्यसूत्र, एक (25वाँ) शुल्बसूत्र, दो धर्मसूत्र (26–27) माने जाते हैं। इस प्रकार श्रौतसूत्र की व्याप्ति कुल 22 प्रश्नों में है तथा प्रश्नों का अवान्तर विभाजन पटलों में है। इसकी विषय–वस्तु इस प्रकार है–
- प्रश्न 1 व 2– परिभाषा पूर्वक,
- प्रश्न 3– अग्न्याधेय, अग्निहोत्र और आग्रयण,
- प्रश्न 4– निरूढ पशुबन्ध,
- प्रश्न 5– चातुर्मास्य,
- प्रश्न 6– याजमान की सामान्य और विशेष विधि,
- प्रश्न 7 से 10– ज्योतिष्टोम,
- प्रश्न 11 व 12– अग्निचयन,
- प्रश्न 13– वाजपेय, राजसूय तथा चरक सौत्रामणी,
- प्रश्न 14– अश्वमेध, पुरुषमेध, सर्वमेध,
- प्रश्न 15– प्रायश्चित्त,
- प्रश्न 16– द्वादशाह, गवामयन (महाव्रत सहित),
- प्रश्न 17– अयन, एकाह, अहीन,
- प्रश्न 18– सत्रयाग,
- प्रश्न 19 से 21– होत्र, प्रवर,
- प्रश्न 22– कामेष्टियाँ तथा काम्यपशुयाग,
- प्रश्न 23– सौत्रामणी (कौकिली), सव, काठक चयन,
- प्रश्न 24– प्रवर्ग्य।
भारद्वाज और आपस्तम्ब श्रौतसूत्रों का इस पर बहुत प्रभाव है। पितृमेध सूत्र तो सम्पूर्ण रूप से ही भारद्वाज का ले लिया गया है, जैसा कि महादेव जी का कथन है– 'पितृमेधस्तु भारद्वाजीयो मुनिना परिगृहीतौ द्वौ प्रश्नौ।'
रचना–शैली
यद्यपि इसकी रचना–शैली बहुत ही व्यवस्थित है, तथापि श्रौत कर्मों के मध्य गृह्यसूत्रों का समावेश कुछ अटपटा–सा लगता है। इस सन्दर्भ में केवल इतना ही कहा जा सकता है कि 18वें प्रश्न तक सत्रान्त अधिकांश श्रौतयाग निरूपित हैं। यही स्थिति प्रवर्ग्य की भी है, जो बिल्कुल अंत में रखा गया है। 21वें प्रश्न में हौत्रसूत्रों के रूप में भी आपस्तम्ब श्रौतसूत्र के हौत्र परिशिष्ट की ही पुन: प्रस्तुति है। अनेक स्थलों पर सत्याषाढ श्रौतसूत्र में मैत्रायणी और काठक संहिताओं से भी मन्त्र गृहीत हैं। अश्वमेधीय प्रकरण में अश्व रक्षकों को अपने भोजन आदि के लिए अश्वमेध प्रक्रिया से अनभिज्ञ ब्राह्मणों को लूटने का निर्देश विचित्र प्रतीत होता है।[1]
भाषा–शैली
सत्याषाढ श्रौतसूत्र की भाषा–शैली में सरलता और स्पष्टता है। सूत्र–रचना में प्रसंग के अनुरूप लघुवाक्यता तथा दीर्घवाक्यता देखी जा सकती है। उदाहरण के लिए ब्राह्मण ग्रन्थों के प्रतिपाद्य से सम्बद्ध ये सूत्र द्रष्टव्य हैं:–
'मन्त्रब्राह्मणयोर्वेद नामधेयम्,
कर्मविधानं ब्राह्मणानि, तच्छेषोऽर्थवाद:, निन्दा–प्रशंसा,
परकृति: पुराकल्पश्च'[2]
व्याख्याएँ
इस श्रौतसूत्र पर बहुसंख्यक व्याख्याएँ हैं, किन्तु दुर्भाग्य से सभी अपूर्ण हैं। प्रथम छह प्रश्नों तथा 21वें प्रश्न पर महादेव दीक्षितकृत 'वैजयन्ती' नाम्नी सुप्रसिद्ध व्याख्या मिलती है, जिसका विस्तृत उपोद्घात विशेष रूप से उल्लेखनीय है। श्रौतसूत्र की यह विशद व्याख्या उसे समझने में वास्तव में सर्वाधिक सहायक है। 7–10 प्रश्नों पर गोपीनाथ दीक्षित ने 'ज्योत्सना' व्याख्या लिखी है। महादेव शास्त्री (20वीं शती) की प्रयोग–चन्द्रिका 11–25 प्रश्नों पर है। प्रथम 10 प्रश्नों तथा 24वें प्रश्न पर हो. क. वाचेश्वर सुधी की व्याख्या उपलब्ध है। महादेव सोमयाजी ने इस सूत्र के अनुसार श्रौतसूत्रों की बहुसंख्यक पद्धति रची हैं। 'प्रयोगरत्नमाला' भी इस सन्दर्भ में उल्लेखनीय है। सत्याषाढ श्रौतसूत्र का आनन्दाश्रम पूना से केवल एक संस्करण ही सन् 1907 में प्रकाशित हुआ है, जिसका सम्पादन काशीनाथ शास्त्री आगाशे ने किया है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सत्याषाढ श्रौतसूत्र 14.1.47
- ↑ सत्याषाढ श्रौतसूत्र 1.1
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